मुग़ल काल 7
अब्दुलनबी का पतन
इसी समय मुख्य सदर अब्दुलनबी के ख़िलाफ़ तहक़ीक़ात हुई जो कल्याण कार्यों हेतू भूमि "मदद-ए-मआश" को बाँटने में बहुत भ्रष्टाचारी और तानाशाह निकला। उसने भ्रष्टाचार और अनाचार से बहुत सम्पत्ति अर्जित कर ली थी। वह धर्मान्ध था और इसलिए उसने शियाओं और मथुरा के ब्राह्मण को उसके विश्वासों के कारण फाँसी की सज़ा दे दी थी। सबसे पहले अब्दुनबी के अधिकार छीन लिए गये और मदद-ए-मआश को बाँटने के लिए प्रत्येक सूबे में एक-एक सदर की नियुक्ति की गई। जल्दी ही उसे बर्ख़ास्त कर दिया गया और उसे हज के लिए मक्का जाने का आदेश दिया गया। लगभग इसी समय 1579-80 में पूर्व में विद्रोह हुआ। क़ाज़ियों ने अकबर को धर्म-विरोधी कहते हुए अनेक फ़तवे दिये। अकबर ने विद्रोह को कुचल दिया और क़ाज़ियों को कड़ी सज़ायें दीं।
मुल्लाओं को सबक़
मुल्लाओं से निपटने के लिए अपनी स्थिति और मजबूत करने के ख़्याल से महज़र की उदघोषणा की। जिसमें कहा गया कि यदि अकबर ने क़ुरान (मुजताहित) की व्याख्या में समर्थ विद्वानों में परस्पर मतभेद हो तो अकबर "सर्वाधिक न्यायशील और विवेकी" होने के नाते और ख़ुदा की नज़रों में इसका दर्जा मुजताहिदों से ऊँचा होने के कारण उनमें से किसी भी व्याख्या को स्वीकार कर सकता है जो "देश के लाभ में और बहुसंख्या के हित में हो।" उसमें यह भी कहा गया कि अकबर यदि "क़ुरान का अनुसरण करते हुए और देश के लाभ में" कोई नया हुकम जारी करे तो उसे सबको स्वीकार करना होगा।
धार्मिक स्थिति को सामान्य बनाने का प्रयास
इस घोषणा, जिस पर प्रमुख उलेमाओं के हस्ताक्षर थे, की व्याख्या ग़लत ढंग से "अमोघत्व का आदेश" के रूप में की जाती है। अकबर ने क़ुरान की व्याख्या में समर्थ व्यक्तियों में परस्पर मतभेद की स्थिति में ही किसी एक विचार को सही बतलाने का अधिकार अपने हाथ में लिया। अकबर ने तब भी विशाल धार्मिक सहनशीलता की बात कही जबकि देश के विभिन्न भागों में शियाओं, सुन्नियों और मेंहदवियों में बहुत ख़ून-ख़राबा हो रहा था। इस बात में संदेह नहीं है कि साम्राज्य में धार्मिक स्थिति को सामान्य बनाने में मज़हर का अपेक्षित प्रभाव हुआ। लेकिन देश के विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के लोगों को एक स्थान पर बिठाने में अकबर को बहुत कम सफलता मिली। इबादतख़ाने की चर्चाओं से विभिन्न धर्मों के लोगों में बेहतर समझ पैदा होने के स्थान पर और अधिक कड़वाहट पैदा हो गयी। क्योंकि प्रत्येक धर्म के प्रतिनिधियों ने दूसरे धर्मों को नीचा बताकर अपने-अपने धर्म को अन्यों से बेहतर सिद्ध करने की कोशिश की। इसलिए 1582 में अकबर ने इबादतखाने की चर्चाएँ बन्द की दी। लेकिन उसने सत्य की तलाश का काम छोड़ा नहीं। उसका घोर आलोचक बदायूनी कहता है कि "लोग रात-दिन खोजबीन करने के अलावा और कुछ नहीं करते।"
अकबर ने हिन्दू धर्म के सिद्धांतों को जानने के लिए पुरूषोत्तम और देवी को आमंत्रित किया और ज़राथुष्ट्र धर्म के सिद्धांतों की व्याख्या के लिए मेहरजी राणा को बुलवाया। ईसाई धर्म के सिद्धांतों को और समझने के लिए उसने कुछ पुर्तग़ाली पादरियों से भी भेंट की। उसने गोआ में अपने दूत भेजे और पुर्तग़ालियों से दो विद्वान धर्म प्रचारकों को अपने दरबार मे भेजने की प्रार्थना की। पुर्तग़ालियों ने अकाबीबा और को मान्सरत भेजा, जिन्होंने लगभग तीन वर्ष अकबर के दरबार में व्यतीत किए। उन्होंने इसका मूल्यवान विवरण छोड़ा है। परन्तु अकबर को इसाई बनाने की उनकी आशा का कोई निराधार नहीं था। अकबर जैनियों के सम्पर्क में भी आया और उनके कहने पर काठियावाड़ के प्रमुख जैन सन्त हीरविजय सूरी ने उसके दरबार में दो वर्ष बिताए।
अलग-अलग धर्मों के नेताओं के सम्पर्क, उनकी रचनाओं के अध्ययन, सूफ़ी सन्तों और योगियों के साथ हुई भेंटों ने धीरे-धीरे अकबर को यह विश्वास दिला दिया कि साम्प्रदाय और जातिगत भेद होते हुए भी सब धर्मों में कई अच्छी बातें हैं जो वाद-विवाद की गरमी में छिपी रह जाती हैं। उसने यह अनुभव किया की यदि विभिन्न धर्मों की अच्छी बातों पर बल दिया जाए तो सामंजस्य और मित्रता का वातावरण बन सकता है, जो देश के हित में होगा। उसने यह भी अनुभव किया कि नामों और स्वरूपों की अनेकता के बावजूद ईश्वर केवल एक है। बदायूनी कहता है कि शहनशाह पर सब प्रभावों के परिणामस्वरूप धीरे-धीरे अकबर के दिल में पत्थर की लकीर की तरह यह विश्वास जम गया कि सभी धर्मों में कुछ अच्छे लोग हैं। अगर हर जगह कुछ वास्तविक ज्ञान मिल सकता है, तो सत्य एक ही धर्म में क्यों सीमित रहे।
इस्लाम से दूरी
बदायूनी इस बात पर बल देता है कि इसी के परिणामस्वरूप अकबर धीरे-धीरे इस्लाम से दूर हो गया और उसने हिन्दुत्व, ईसाईयत, पारसी धर्म आदि विद्यमान धर्मों को मिला कर एक नये धर्म की स्थापना की। परन्तु आधुनिक इतिहासकार इस मत को स्वीकार नहीं करते। उनका विचार है कि बदायूनी ने इस बात में अतिशयोक्ति का प्रयोग किया है। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि अकबर ने नया धर्म चलाया या चलाने का उसका विचार था। अबुलफ़जल और बदायूनी ने इस तथाकथित नये धर्म के लिए तौहीद-ए-इलाही शब्द का प्रयोग किया है। जिसका शाब्दिक अर्थ है "देवी एकेश्वरवाद"। 'दीन' अर्थात् धर्म शब्द का प्रयोग पहली बार 80 साल बाद किया गया। 80 साल तक नहीं किया गया था। तौहीद-ए-इलाही वास्तव में एक ऐसा मार्ग था जो सूफ़ियों से मेल खाता था। जो व्यक्ति इच्छुक थे और जिन्हें अकबर मंजूर करता था वह उसके सदस्य बन सकते थे। इस मार्ग में आने के लिए इतवार का दिन निश्चित था। इस मार्ग में दीक्षित होने वाला व्यक्ति शहनशाह के क़दमों पर अपना सिर रखता था और शहनशाह उसे उठाकर मंत्र देता था जिसे सूफ़ी भाषा में (शस्त) कहा जाता था। आगन्तुक को ध्यान लगाकर इस मंत्र की पुनरावृत्ति करनी पड़ती थी। इस सूत्र में अकबर का प्रिय उदघोष 'अल्लाह-उ-अकबर' अर्थात ईश्वर महान है, सम्मिलित था। दीक्षित होने वालों को जहाँ तक संभव हो मांस से दूर रहना पड़ता था और कम से कम अपने जन्म के महीने में तो ऐसा करना ही होता था और अपने जन्म दिन पर भोज तथा दान इत्यादि देना पड़ता था। दीक्षा के अतिरिक्त इसमें कोई रीतियाँ, आडम्बर या पूजा स्थल, कोई पुजारी वर्ग, कोई पवित्र पुस्तकें या आदेश नहीं थे। बदायूनी का कहना है कि इसके सदस्यों की भक्ति के चार स्तर थे अर्थात् सम्पत्ति, जीवन सम्मान और धर्म का बलिदान। से स्तर भी सूफ़ी मार्ग के स्तरों के समान थे। धर्म त्याग का अर्थ वस्तुतः धर्म के संकीर्ण सिद्धांतों पर बाह्य आडम्बरों के प्रति मोह का त्याग था और यह भी सूफ़ी सिद्धांतों के समान्तर था। अकबर ने अपने शिष्य बनाने के लिए न तो बल का इस्तेमाल किया और न ही पैसे का। वास्तव में बड़ें हिंदू सामंतो सहित बहुत से अग्रणीय सरदारों ने इसमें सम्मिलित होने से इंकार कर दिया। उनमें से केवल बीरबल ही इसका सदस्य था।
मनुष्य से ऊँचा दर्जा
इस मार्ग में दीक्षित होने वालों की संख्या बहुत कम थी और उनमें भी बहुत से अकबर के अपने कृपापात्र थे। अतः इस मार्ग द्वारा कोई महत्त्वपूर्ण राजनीतिक भूमिका अदा करने की उम्मीद नहीं थी। वस्तुतः जब अकबर ने यह मार्ग चलाया तो वह अपनी आंतरिक स्थिति को सुदृढ़ कर चुका था और इस प्रकार का यथार्थवादी प्रदर्शन करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। तब अकबर का उद्देश्य क्या था? इस विषय में इतिहासकारों ने अलग-अलग मत दिए हैं। बदायूनी ने इसका कारण अयाग्य चापलूसों और अधार्मिकों द्वारा अकबर का दिमाग़ खराब करना माना है। उसका विचार है कि उन्होंने अकबर को यह कहा कि वह युग का "इन्सान-ए-कामिल" अथवा "परिपूर्ण मनुष्य" है। उनके कहने पर ही अकबर ने 'पाबोस' की परम्परा, अर्थात् शहनशाह के सामने क़दम बोसी, शुरू करवाई। यह रीति पहले सिर्फ़ खुदा की इबादत के लिए अपनाई जाती थी। इस तरह के बहुत से उदाहरण हैं जबकि शासकों ने अपने आप में सांसारिक और आध्यात्मिक शक्तियों को मिलाया। अबुल फ़जल कहता है कि यह लोगों के लिए स्वाभाविक है कि वह अपने शासक से आध्यात्मिक मार्गदर्शन की आशा करें और अकबर लोगों को आध्यात्मिक आनन्द प्राप्त कराने और एक दूसरे के विरोधी सम्प्रदायों में सामन्जस्य स्थापित करने में पूरी तरह समर्थ था।
अकबर का लक्ष्य जो भी रहा हो तौहीद-ए-इलाही उसके साथ ही खत्म हो गया। दीक्षित होने वालों को शस्त देने की प्रथा कुछ समय तक जहाँगीर ने भी अपनाई लेकिन जल्दी ही इसे समाप्त कर दिया गया। फिर भी राजा का जादुई शक्तियों का मालिक मानने की प्रवृत्ति बनी रही और लोग राजा के स्पर्श या पानी से भरे बर्तन पर साँस छोड़ने से रोग मुक्त होने की कल्पनाएँ करते रहे। यहाँ तक की औरंगज़ेब जैसा कठोर शासक भी इस विश्वास को तोड़ नहीं सका।
सुलह-कुल
अकबर ने दूसरे तरीक़ों से विभिन्न धर्मों में सुलह-कुल अर्थात् शांति और सामन्जस्य के सिद्धांत पर बल दिया। उसने एक अनुवाद विभाग भी स्थापित किया जहाँ संस्कृत, अरबी, ग्रीक, इत्यादि भाषाओं की रचनाओं का फ़ारसी में अनुवाद होता था। 'सिंहासन बत्तीसी' 'अथर्व वेद' और 'बाइबिल' का अनुवाद सबसे पहले किया गया। उसके बाद 'महाभारत' 'गीता' और 'रामायण' का अनुवाद हुआ। 'पंचतन्त्र' जैसी अनेक रचनाओं तथा भूगोल, गणित और दर्शन पर भी अनेक रचनाओं का अनुवाद किया गया। 'क़ुरान' का भी सम्भवतः पहली बार अनुवाद हुआ।
सामाजिक सुधार
अकबर ने अनेक सामाजिक और शैक्षिक सुधार किये। उसने सती प्रथा बन्द कर दी। विधवा केवल अपनी इच्छा से ही सती हो सकती थी। छोटी आयु की विधवाएँ जिन्होंने विधवा होने तक पति के साथ सहवास नहीं किया होता था, बिल्कुल भी सती नहीं हो सकती थीं। विधवा विवाह को भी क़ानूनी मान्यता दी गई। अकबर एक से अधिक पत्नी रखने के हक़ में नहीं था बशर्ते पहली पत्नी निःसंतान न हो। विवाह की आयु भी बढ़ाकर लड़कियों के लिए चौदह वर्ष लड़कों के लिए सोलह वर्ष कर दी गयी थी। मदिरा की बिक्री को सीमित किया गया। लेकिन इनमें से प्रत्येक क़दम सफल नहीं रहा। जैसा कि हम जानते हैं सामाजिक विधान की सफलता बहुत कुछ जनता के सहयोग पर निर्भर करती है। अकबर का युग अन्धविश्वासों का युग था और ऐसा लगता है कि उसके सामाजिक सुधारों को सीमित सफलता ही मिल सकी।
अकबर ने शैक्षिक पाठ्यक्रम में भी काफ़ी संशोधन किया। उसने नैतिक-शिक्षा, गणित तथा धर्म-निरपेक्ष विषयों जैसे कृषि, ज्यामिती, खगोल शास्त्र, प्रशासन के सिद्धांत, तर्क-शास्त्र, इतिहास आदि पर अधिक बल दिया। उसने कलाकारों, कवियों, चित्रकारों और संगीतकारों को भी संरक्षण दिया। उसका दरबार प्रसिद्ध व्यक्तियों अर्थात् नवरत्नों की उपस्थिति के कारण प्रसिद्ध हो गया।
इस प्रकार अकबर के शाषन काल में राज्य अनिवार्य रूप से धर्मनिरपेक्ष, सामाजिक विषयों में उदार और चेतना तथा सांस्कृतिक एकता को प्रोत्साहन देने वाला बन गया।
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