बिहारवन

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रामघाट से डेढ़ मील दक्षिण-पश्चिम में बिहारवन है। यहाँ बिहारी जी का दर्शन और बिहारकुण्ड है। यहाँ पर ब्रजबिहारी कृष्ण ने राधिका के सहित गोपियों के साथ रासविहार किया एवं अन्यान्य नाना प्रकार के क्रीड़ा-विलास किये थे। श्री यमुना के पास ही यह एक रमणीय स्थल है। ब्रज के अधिकांश वनों के कट जाने पर भी अभी तक बिहारवन का कुछ अंश सुरक्षित है। अभी भी इसमें हज़ारों मयूर 'के-का' रव करते हैं, वर्षा के दिनों में पंख फैलाकर नृत्य करते हैं, कोयलें कुहकती हैं। इसमें अभी भी सुन्दर-सुन्दर कृञ्ज, कदम्बखण्डी तथा नाना प्रकार की लताएँ वर्तमान हैं। इनका दर्शन करने से कृष्णलीला की मधुर स्मृतियाँ जग उठती हैं। यहाँ की गोशाला में बड़ी सुन्दर-सुन्दर गऊएँ, फुदकते हुए बछड़े और मत्त साँड़ श्रीकृष्ण की गोचारण लीला की मधुर स्मृति जागृत करते हैं।

तपोवन

यह स्थान अक्षयवट की पूर्व दिशा में एक मील दूर यमुना के तट पर अवस्थित है। गोप कन्याओ ने 'श्रीकृष्ण ही हमारे पति हों' इस कामना से आराधना की थीं कहते हैं ये गोप कन्याएँ वे है जो पूर्व जन्म में दण्डकारण्य में श्रीकृष्ण को पाने की लालसा से तपस्या में रत थे तथा श्री रामचन्द्र जी की कृपा से द्वापर में गोपीगर्भ से जन्मे थे। इनमें जनकपुर की राजकन्याएँ भी सम्मिलित थीं, जो सीता की भाँति श्रीरामचन्द्र जी से विवाह करना चाहती थीं। वे भी श्रीरामचन्द्र जी की कृपा से द्वापरयुग के अंत में ब्रज में गोपकन्याओं के रूप में जन्मी थीं। इन्हीं गोप कुमारियों की श्रीकृष्ण प्राप्ति के लिए आराधना स्थल है यह तपोवन। ब्रज की श्रीललिता विशाखा आदि नित्यसिद्धा गोपियाँ अन्तरग्ङस्वरूप शक्ति राधिका जी की कायव्यूह स्वरूपा है। उन्हें तप करने की कोई भी आवश्यकता नहीं।

गोपीघाट

यहाँ उपरोक्त गोपियाँ यमुना में स्नान करती थीं। इसलिए इसका नाम गोपी घाट है।

चीरघाट

यह लीलास्थली अक्षयवट से दो मील पश्चिम में स्थित है। गोप कुमारियों ने 'श्रीकृष्ण पति के रूप में प्राप्त हों',[1] इस आशय से एक मास तक नियमित रूप से नियम व्रतादि का पालन करते हुए कात्यायनी देवी की पूजा की थीं।[2] व्रत के अंत में कुछ प्रिय सखाओं के साथ श्रीकृष्ण ने गोपियों के वस्त्र-हरण किये तथा उन्हें उनकी अभिलाषा पूर्ण होने का वरदान दिया था। यमुना के तट पर यहाँ कात्यायनी देवी का मन्दिर है। गाँव का वर्तमान नाम सियारो है।

नन्दघाट

यह स्थान गोपी घाट से दो मील दक्षिण और अक्षयवट से एक मील दक्षिण पूर्व में स्थित है।

प्रसंग

एक बार महाराज नन्द ने एकादशी का व्रत किया और द्वादशी लगने पर रात्रि की बेला में ही वे इसी घाट पर स्नान कर रहे थे। यह आसुरिक बेला थी इसलिए वरुण के दूत उन्हें पकड़कर वरुण देव के सामने ले गये। यमुनाजी में महाराज नन्द के अदृश्य हाने का समाचार पाकर ब्रजवासी लोग बड़े दुखी हुए। ब्रजवासियों का क्रन्दन देखकर श्रीकृष्ण, बलरामजी को उनकी देख-रेख करने के लिए वहीं छोड़कर स्वयं वरुणलोक में गये। वहाँ वरुणदेव ने कृष्ण को देखकर नाना-प्रकार से उनकी स्तव-स्तुति की और उपहारस्वरूप नाना प्रकार के मणि-मुक्ता रत्नालंकार आदि भेंटकर अपने इस कृत्य के लिए क्षमा याचना की। श्रीकृष्ण पिता श्रीनन्द महाराजजी को लेकर इसी स्थान पर पुन: ब्रजवासियों से मिले।

दूसरा प्रसंग

एक समय जीव गोस्वामी ने किसी दिग्विजयी पण्डित को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था। वह दिग्विजयी पण्डित श्री रूप गोस्वामी के ग्रन्थों का संशोधन करना चाहता था। बालक जीव गोस्वामी इसे सह नहीं सके। वृन्दावन में यमुना घाट पर पराजित होने पर दिग्विजयी पण्डित बालक की विद्धत्ता की भूरी प्रशंसा करता हुआ व श्री रूपगोस्वामी से परिचय पूछा। श्री रूपगोस्वमी ने नम्रता के साथ उत्तर दिया- यह मेरे भाई का पुत्र तथा मेरा शिष्य है। श्री रूप गोस्वामी समझ गये कि जीव ने इसके साथ शास्त्रार्थ किया है। दिग्विजयी पण्डित के चले जाने के बाद श्रीलरूपगोस्वामी ने कहा- जीव! तुम इतनी-सी बात भी सहन नहीं कर सकते? अभी भी तुम्हारे अन्दर प्रतिष्ठा की लालसा है। अत: तुम अभी यहाँ से चले जाओ। श्री जीवगोस्वामी, श्री रूपगोस्वामी के कठोर शासन वाक्य को सुनकर बड़े दुखी हुए। वे वृन्दावन से नन्दघाट के निकट यमुना के किनारे सघन निर्जन वन में किसी प्रकार बड़े कष्ट से रहने लगे । वे यमुना के तट पर मगरों की माँद में रहते। कभी-कभी आटा में जल मिलाकर वैसे ही पी लेते, तो कभी उपवास रहते। इस प्रकार श्रीगुरुदेव के विरह में तड़फते हुए जीवन यापन करने लगे। कुछ ही दिनों में शरीर सूखकर काँटा हो गया। उन्हीं दिनों श्री सनातन गोस्वामी ब्रज परिक्रमा के बहाने नन्दघाट पर उपस्थित हुए। वहाँ ब्रजवासियों के मुख से एक किशोर गौड़ीय बाल के साधु की कठोर आराधना एवं उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा सुनकर वे जीव गोस्वामी के पास पहुँचे तथा सांत्वना देकर उसे अपने साथ वृन्दावन ले आये। अपनी भजन कुटी में जीव को छोड़कर वे अकेले ही रूप गोस्वामी के पास पहुँचे। श्री रूप गोस्वामी उस समय जीवों पर दया के सम्बन्ध में उपस्थित वैष्णवों के सामने व्याख्या कर रहे थे। श्री सनातन गोस्वामी ने उस व्याख्या के बीच में ही श्री रूप गोस्वामी से पूछा- तुम दूसरों को तो जीव पर दया करने का उपदेश दे रहे हो किन्तु स्वयं जीव पर दया क्यों नहीं करते? श्री रूप गोस्वामी ने बड़े भाई और गुरु श्री सनातन गोस्वामी की पहेली का रहस्य जानकर श्री जीव को अपने पास बुलाकर उनकी चिकित्सा कराई तथा पुन: अपनी सेवा में नियुक्त कर उन्हें अपने पास रख लिया। नन्दघाट में रहते हुए श्रीजीव गोस्वामी ने अपने षट्सन्दर्भ रूप प्रसिद्ध ग्रन्थ का प्रणयन किया था। यहाँ पर अभी भी श्रीजीव गोस्वामी का स्थान जीव गोस्वामी की गुफ़ा के रूप में प्रसिद्ध है।

भैया भयगाँव

श्रीनन्द महाराज वरुण के दूतों को देखकर यहाँ भयभीत हो गये थे। इसलिए वज्रनाभ ने इस गाँव का नाम भयगाँव रखा। भयगाँव नन्दघाट से संलग्न है।

गांग्रली

चीरघाट से दो मील दक्षिण और कुछ पूर्व दिशा में तथा भयगाँव से दो मील उत्तर में गांग्रली अवस्थित है।

उनाई अथवा जनाई गाँव

यह स्थान बाजना से डेढ़ मील दक्षिण में स्थित है। यहाँ श्रीकृष्ण सखाओं के साथ बैठकर भोजन लीला कर रहे थे, जिससे ब्रह्मा को मोह उत्पन्न हुआ। अंत में कृष्ण ने अनुग्रह कर ब्रह्माजी का मोह दूर किया और अपने को जना दिया। उस समय ब्रह्मा ने इस विश्व को कृष्णमय देखा(जाना) इसलिए इस स्थान का नाम जनाई गाँव है।

बालहारा

यहाँ ब्रह्माजी ने ग्वालबालों का हरण किया था। अतएव इस स्थान का नाम बालहारा है।

तमालवन तथा कृष्णकुण्ड टीला

तमाल वृक्षों सघन वन से परिमण्डित, श्रीराधाकृष्ण के मिलन और रसमयी क्रीड़ाओं का स्थान है, एक समय रसिक बिहारी श्रीकृष्ण सखियों के साथ राधाजी से इसी तमालकुञ्ज में मिले। तमालवृक्षों से लिपटी हुई ऊपर तक फैली नाना प्रकार की लताएँ वल्लरियाँ बड़ी सुहावनी लग रही थीं। श्रीकृष्ण ने प्रियाजी को इंगित कर पूछा- 'यह लता तमाल वृक्ष से लिपटी हुईं क्या कह रही हैं? 'राधिका ने मुस्कराकर उत्तर दिया- 'स्वाभाविक रूप से इस लता ने तमाल वृक्ष का अवलम्बन कर उसे अपनी बेलो, पत्तों और पुष्पों से आच्छादित कर रखा है, यह वृक्ष का सौभाग्य है कि वृक्ष में फल और पुष्प नहीं रहने पर भी लताएँ अपने पल्लवों और पुष्पों से इस वृक्ष का का सौन्दर्य अधिक बढ़ा रही है। ' इसी समय पवन के एक झोंके ने लता को झकझोर दिया। यह देखकर किशोर-किशोरी दोनों युगल भाव में विभोर हो गये। यह तमालवन इस स्मृति को संजोए हुए अभी भी वर्तमान है।

छूनराक

सौभरी ऋषि का यहीं पर आश्रम था। यह स्थान वृन्दावन स्थित कालीयह्नद के समीप ही एक मील पश्चिम में अवस्थित है।

हारासली

यहाँ श्रीकृष्ण की रासलीला स्थली है। पास ही सुरूखुरू गाँव है। सेईसे डेढ़ मील उत्तर-पूर्व में माई-बसाई नामक दो गाँव हैं। माई के उत्तर-पूर्व में बसाई गाँव है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि। नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम:॥ श्रीमद्भागवत 10/22/04
  2. एवं मासं व्रतं चेरू: कुमार्य: कृष्णचेतस:। भद्रकालीं समानर्चुर्भूयान्नन्दसुत: पति:।। श्रीमद्भागवत 10/22/05


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