सामवेदीय आरुणिकोपनिषद में ऋषि आरुणि की वैराग्य सम्बन्धी जिज्ञासा के उत्तर में ब्रह्मा जी ने संन्यास ग्रहण करने के नियम आदि के विषय में प्रकाश डाला है।
संन्यासी-जीवन
- संन्यासी-जीवन कोई भी ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थी अपना सकता है। इस उपनिषद में संन्यासी के लिए यज्ञोपवीत तथा यज्ञादि कर्मकाण्डों के प्रतीकों के त्याग को बड़े ही मार्मिक ढंग से समझाया गया है।
- ब्रह्मा जी का कहना है कि संन्यासी यज्ञ का त्याग नहीं करता, वह स्वयं ही यज्ञ-रूप हो जाता है। वह ब्रह्मसूत्र का त्याग नहीं करता, उसका जीवन स्वत: ही ब्रह्मसूत्र बन जाता है। वह मन्त्रों का त्याग नहीं करता, उसकी वाणी ही मन्त्र बन जाती है।
- ऐसे महत्त्वपूर्ण सूत्रों को धारण करने के कारण ही उसका जीवन संन्यासी का हो जाता है। संन्यासी वही है, जो सम्यक रूप से यज्ञ, ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) और वाणी को लोकहित की दृष्टि से धारण करता है।
- संन्यासी परमात्मा से प्रार्थना करता है कि उसके समस्त अवयव-वाणी, प्राण, नेत्र, कान, बल- समस्त इन्द्रियां विकसित हों और वृद्धि प्राप्त करें। वह कभी 'ब्रह्म' का त्याग न करे और न ब्रह्म ही उसका त्याग करे।
- एक बार प्रजापति की उपासना करने वाले अरुण के पुत्र आरुणि ने ब्रह्मलोक में ब्रह्माजी से पूछा-'हे भगवन! मैं सभी कर्मों का किस प्रकार परित्याग कर सकता हूँ?'
- तब ब्रह्माजी ने उत्तर दिया-'हे पुत्र! संन्यासी-जीवन ग्रहण कर अपने सभी स्वजन, बन्धु-बान्धव, यज्ञोपवीत, यज्ञ, शिखा, स्वाध्याय तथा समस्त ब्रह्माण्ड का परित्याग किया जा सकता है। उसे मात्र एक लंगोटी (कौपीन), एक दण्ड और कमण्डलु धारण करना चाहिए। हे आरुणि! संन्यास ग्रहण करने के उपरान्त ब्रह्मचर्य, अहिंसा, अपरिग्रह और सत्य का निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए। उसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, हर्ष, शोक, दम्भ, ईर्ष्या, इच्छा, परनिन्दा, ममता आदि का पूर्णत: त्याग कर देना चाहिए। उसे 'ॐ' का तीन बार उच्चारण करके ही भिक्षा हेतु ग्राम अथवा नगर में प्रवेश करना चाहिए। जो संन्यासी निष्काम भाव से साधना में सतत लगा रहता है, वही उस परमधाम को प्राप्त कर पाता है।'
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