क्षुद्र कल्पसूत्र

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यह भी मशक गार्ग्यकृत है और वस्तुत: आर्षेयकल्प का द्वितीय भाग है, जिसे कालान्तर से अन्य सामवेदीय ग्रन्थों की भाँति व्याख्याकारों ने स्वतन्त्र ग्रन्थ मान लिया। 'निदान सूत्र' तथा 'उपग्रन्थ सूत्र' से भी इसी तथ्य का समर्थन होता है। व्याख्याकार श्री निवास ने इसे 'उतर कल्पसूत्र' कहा है।

प्रपाठक

सम्पूर्ण ग्रन्थ तीन प्रपाठकों तथा छह अध्यायों में विभक्त है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इसमें क्षुद्र श्रौत यागों–सोमयागों का निरूपण है।

  • प्रथम प्रपाठक के अन्तर्गत प्रथम और द्वितीय अध्यायों में विभिन्न प्रकार के काम्य याग और प्रायश्चित्त वर्णित हैं।
  • द्वितीय प्रपाठक (द्वितीय और तृतीय अध्यायों) में वर्णकल्प, उभय सामयज्ञ, प्रवर्हयाग तथा अग्निष्टोम, चतुर्थ अध्याय में पृष्ठ्य षडहानुकल्प द्वादशाहानुकल्प और
  • तृतीय प्रपाठकगत पञ्चम तथा षष्ठ अध्यायों में विभिन्न द्वादशाहगत वकिल्प याग निरूपित हैं।

इस प्रकार क्षुद्र कल्पसूत्र में 85 एकाहयागों, 22 पृष्ठ्यषडहों तथा अनेकविध द्वादशाहों का वर्णन है। ताण्ड्य ब्राह्मण का अनुसरण इसमें केवल काम्य और प्रायश्चित्त निरूपण के सन्दर्भ में ही हैं। प्रायश्चित्त यागों के सन्दर्भ में नराशंस और उपदंशन सदृश कतिपय याग भी छूट गए हैं।

याग–क्लृप्ति

आर्षेय की तुलना में क्षुद्र कल्प में विस्तार से याग–क्लृप्ति दी गई है। इसमें विष्टुतियों और सम्पत् (विभिन्न छन्दस्क सामों की अक्षर गणना) का भी उल्लेख है। इस सन्दर्भ में इसकी सामवेदीय ब्राह्मणों से समानता है। उल्लेख्य है कि क्षुद्र कल्पसूत्र में प्रायश्चित्त यागों का कल्प सम्पत्तिजन्य विवरण देने के पश्चात् किसी अन्य शाखा का भी अनुसरण किया गया है– अत: परं क्षुद्र तन्त्रोक्तानां साम्नां शाखान्तरानुसारेण कल्पमाह। इसमें कतिपय ऐसे यागों का विवरण है जो सामान्यत: अन्य श्रौतसूत्रों में अनुल्लिखित हैं, यथा ऋत्विगपोहन[1], पुरस्तात् ज्योति: तथा शुक्रजातय: इत्यादि।

भाषा और शैली

भाषा और वर्णन शैली की दृष्टि से 'क्षुद्र कल्पसूत्र' विशेष रूप से उसका अन्तिम भाग, सूत्रग्रन्थों के सदृश न होकर ब्राह्मण–ग्रन्थों के समान हैं। सूत्रों के समान संश्लिष्टता, संक्षिप्तता, वचोभङ्गी तथा वाक्य विन्यास की प्राप्ति इसमें नहीं होती। इसमें अनेक स्थलों पर छान्दस प्रयोग भी दिखलाई देते हैं, यथा– 'जामितायै' ('जामिताया' के स्थान पर)।

व्याख्या

क्षुद्र कल्पसूत्र पर शतक्रतु कुमार ताताचार्य के आत्मज श्री निवास की विशद व्याख्या उपलब्ध है। कुमार ताताचार्य तंजौर (तंजावुर) के राजा उच्युत राय (सन् 1561 ई. से 1614 ई.) के कृपापात्र थे। ताताचार्य ने स्वरचित नाटक 'परिजातहरण' में सूचना दी है कि उनके सात पुत्र थे, जिन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। श्री निवास ने कर्मकाण्ड के एक अन्य ग्रन्थ 'पञ्चकाल क्रियादीप' का प्रणयन भी किया था। इस वंश के विषय में 'नावलक्कं ताताचार्य:', 'शतक्रतु चतुर्वेदिन:' प्रभृति विरुद्ध अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। कृष्णयजुर्वेद के अध्येता होने पर भी श्री निवास सर्वशाखीय कर्मकाण्ड में निष्णात प्रतीत होते हैं।

संस्करण

  • इसका सम्पादन भी प्राध्यापक कालन्द तथा बेल्लिकोत्तु रामचन्द्र शर्मा ने किया है।
  • डॉ. शर्मा का संस्करण विश्वेश्वरानन्द संस्थान, होशियारपुर से सन् 1974 ई. में प्रकाशित है।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वही 2.9।
  2. क्षुद्रकल्पसूत्रम् (होशियारपुर संस्करण), पृष्ठ 98।

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