कृष्ण यजुर्वेदीय इस उपनिषद में 'शिव' और 'विष्णु' की अभिन्नता दर्शाई गयी है। शुकदेव जी और व्यास जी के मध्य हुए प्रश्नोत्तर के रूप में इस उपनिषद का प्रारम्भ किया गया है।
- शुकदेव जी व्यास जी से पूछते हैं कि सभी देवों में सर्वश्रेष्ठ देव कौन है? जिसका उत्तर व्यास जी 'रुद्र' के रूप में देते हैं। उसके बाद शिव और विष्णु की अभिन्नता, आत्मा, परमात्मा और अन्तरात्मा की विविधता, रुद्र की त्रिमूर्ति- ब्रह्मा, विष्णु, महेश- का विवेचन, रुद्र-कीर्तन से समस्त पापों का विनाश, परा-अपरा विद्या का स्वरूप, अक्षरब्रह्म, अर्थात परम सत्य के ज्ञान द्वारा संसार-मोह से मुक्ति, मोक्ष की इच्छा रखने वाले साधकों के लिए प्रणवोंपासना का महत्त्व, जीव और ईश्वर का काल्पनिक भेद तथा अद्वैत ज्ञान से समस्त शोकों और मोह आदि से पूर्ण रूप से निवृत्ति आदि का वर्णन किया गया है।
- यह उपनिषद 'विभेद बुद्धि' के स्थान पर 'अभेद बुद्धि' का ज्ञान कराने में समर्थ है। आज के दिग्भ्रमित समाज के लिए यह उपनिषद अत्यन्त उपयोगी है।
- शान्तिपाठ के उपरान्त शुकदेव जी अपने पिता कृष्णद्वैपायन व्यास जी से सर्वक्षेष्ठ देवता के विषय में अपनी जिज्ञासा प्रकट करते हैं। इस पर व्यासजी उत्तर देते हैं-
सर्वेश्रेष्ठ देवता कौन?
'हे शुकदेव! भगवान 'रुद्र' में सभी देवता समाहित हैं। वे सभी रुद्र-रूप हैं। उनके दक्षिण में सूर्य, ब्रह्मा तथा तीन प्रकार की अग्नियाँ- गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि और आह्वनीय-विद्यमान हैं। वाम पार्श्व में भगवती उमा, भगवान विष्णु और सोम ये तीन देव शक्तियां विद्यमान हैं। उमा ही भगवान विष्णु और चन्द्रमा हैं जो भक्ति-भाव से भगवान शंकर का नमन करते हैं, वे विष्णु की ही अर्चना करते हैं और जो विष्णु को नमन करते हैं, वे भगवान रुद्रदेव (शिव) की ही प्रार्थना करते हैं।'
- उन्होंने आगे कहा-'वस्तुत: जो लोग भगवान शंकर से द्वेष-भाव रखते हैं, वे विष्णु के कृपापात्र कदापि नहीं बन सकते। दोनों का स्वरूप एक ही है।'
ब्रह्मा, विष्णु और शिव की एकरूपता
इस उपनिषद में यह मन्त्र दिया गया है, जो तीनों की एकता को प्रकट करता है-
रुद्रात्प्रवर्तते बीचं बीजयोनिर्जनार्दन:।
यो रुद्र: स स्वयं ब्रह्मा यो ब्रह्मा स हुताशन:॥7॥ अर्थात रुद्र ही प्राणियों की उत्पत्ति के बीजरूप हैं तथा उस बीजरूप की योनि उमा, अर्थात भगवान विष्णु हैं। जो रुद्रदेव हैं, वे स्वयं ब्रह्मा हैं और जो ब्रह्मा हैं, वे ही अग्निदेव हैं। अग्नि और सोम से युक्त यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्मा, विष्णु और शिव-स्वरूप रुद्रमय ही है। सभी जड़-चेतन-स्वरूप रुद्र और उमा के संयोग से ही जन्म लेते हैं। उमा और शिव का मिलन ही विष्णु कहलाता है। 'अन्तरात्मा' ब्रह्मा है, 'परमात्मा' महेश्वर शिव है और सभी प्राणियों की सनातन 'आत्मा' भगवान विष्णु हैं।
अन्तरात्मा भवेद्ब्रह्मा परमात्मा महेश्वर:।
सर्वेषामेव भूतानां विष्णुरात्मा सनातन:॥14॥
- इस त्रिलोक-रूपी विश्व में तीनों का ही रूप विद्यमान है। कार्य-रूप में विष्णु, क्रिया-रूप में ब्रह्मा और कारण-रूप में स्वयं महेश्वर शिव हैं। यही इनका 'त्रिमूर्ति' रूप है।
- धर्म-रूप रुद्र, जगत-रूप विष्णु और ज्ञान-रूप ब्रह्मा है। इनकी उपासना इस प्रकार करनी चाहिए-
'रुद्रो नर उमा नारी तस्मै तस्यै नमो नम:। रुद्रो ब्रह्मा उमा वाणी तस्मै तस्मै नमो नम:॥
रुद्रो विष्णुरूमा लक्ष्मीस्तस्मै तस्यै नमो नम:। रुद्र: सूर्या उमा छाया तस्मै तस्यै नमो नम:॥
रुद्रो सोम उमा तारा तस्मै तस्यै नमो नम:। रुद्रो दिवा उमा रात्रिस्तस्मै तस्यै नमो नम:॥
रुद्रो यज्ञ उमा वेदिस्तस्मै तस्यै नमो नम:। रुद्रो वह्निरूमा स्वाहा तस्मै तस्यै नमो नम:॥
रुद्रो वेद उमा शास्त्रं तस्मै तस्यै नमो नम:। रुद्रो वृक्ष उमा वल्ली तस्मै तस्यै नमो नम:॥
रुद्रो गन्ध उमा पुष्पं तस्मै तस्यै नमो नम:। रुद्रोऽर्थ अक्षर: सोमा तस्मै तस्यै नमो नम:॥
रुद्रो लिंगयुमा पींठ तस्मै तस्यै नमो नम:। सवदेवात्मकं रुद्रं नमस्कुर्यात्पृथम्पृथक्॥' (17 से 23 तक— रुद्रहृदयोपनिषद)
- 'हे शुकदेव! सबके आश्रयदाता, सच्चिदानन्द स्वरूप, मन और वाणी से अगोचर जो सनातन ब्रह्म है, उसे जान लेने पर सभी रहस्य विदित हो जाते हैं, क्योंकि उस 'ब्रह्म' से पृथक् कुछ भी नहीं है।'
परा-अपरा विद्या
- 'हे शुकदेव! परा विद्या' के अन्तर्गत आत्मज्ञान प्राप्त होता है और 'अपरा विद्या' के अन्तर्गत ऋक् (सत्य), यजुष, साम और अथर्व वेदों की शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्योतिष आदि का ज्ञान प्राप्त होता है। एक साधक को ये दोनों विद्याएं अवश्य जाननी चाहिए।'
- व्यासजी ने कहा—'वत्स! सभी विद्याओं का आश्रयस्थल 'ब्रह्म' ही है। ज्ञान ही जिसका तप है, उसी से भोक्ता एवं अन्न-रूप इस जड़-चेतन जगत की उत्पत्ति हुई है।'
य: सर्वज्ञ: सर्वविद्यो यस्य ज्ञानमयं तप:।
तस्मादत्रान्नरूपेण जायते जगदावलि:॥33॥
शिव कौन है?
- व्यासजी ने कहा-'हे शुकदेव! चिदृरूप जीवात्मा स्वयं ही साक्षात शिव है। जीव और ईश्वर में चिन्मय उपाधि से युक्त आकार-भेद के कारण ही भिन्नता प्रतीत होती है, स्वरूप से नहीं। सत्य-रूप ईश्वर ही जगत का आधार है। मनीषी जन स्वयं को ही परमात्मा मानकर 'मैं ब्रह्म हूं' (अहम ब्रह्मास्मि) निश्चय करके शोक-रहित हो जाते हैं। आत्म-स्वरूप ज्ञान से युक्त ऐसे सिद्ध पुरुष का पुनर्जन्म नहीं होता। वह अपने ही स्वरूप में स्थित होकर, स्वयं ही सच्चिदानन्द स्वरूप 'ब्रह्म' हो जाता है।'
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