वैराग्य संदीपनी

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इसे प्राय: तुलसीदास की रचना माना जाता रहा है। यह चौपाई - दोहों में रची हुई है। दोहे और सोरठे 48 तथा चौपाई की चतुष्पदियाँ 14 हैं। इसका विषय नाम के अनुसार वैराग्योपदेश है।

शैली

इसकी शैली और विचारधारा तुलसीदास की ज्ञात रचनाओं से भिन्न है। उदाहरणार्थ -

  • 'निकेत'[1] का प्रयोग 'शरीर' के अर्थ में हुआ है किंतु वह 'तुलसी ग्रंथावली' में सर्वत्र घर के लिए आता है।
  • दोहा 6 में 'तवा' के 'शांत' होने की उक्ति आती हैं, इसका 'शीतल' होना ही बुद्धि-समस्त है।
  • दोहा 8 में एकवचन 'ताहि' का प्रयोग 'संतजन' के लिए किया गया है, जो अशुद्ध है।
  • दोहा 14 में 'अति अनन्य गति' का 'अति' अनावश्यक है। उसी में 'जानी' पूर्वकलिक क्रिया रूप असंगत लगता है। होना चाहिए था, 'जानई' किंतु परवर्ती चरण के 'पहिचानी' के तुक पर उसे 'जानी' कर दिया गया।
  • पुन: इसमें संत-लक्षण-निरुपण करते हुए शांति पद का प्रतिपादन अधिकतर तुलसीदास के रामभक्ति सम्बन्धी विचारधारा से भिन्न प्रतीत होता है। शांति पद के सुख का प्रतिपादन न कर उन्होंने अन्यत्र सर्वत्र भक्ति-सुख का उपदेश दिया है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा 3

धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 584।

बाहरी कड़ियाँ

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