एक था राजा:
एक सदी पहले भी
कहानी ऐसे होती थी शुरू
थोड़ा कौतूहल थोड़ी परंपरा से बंधा
राजा निकलता था आखेट पर
जंगल को लहुलुहान छोड़
प्रजा को कुचलता हुआ
रानी के पास आता था
एक कनीज़ आवाज़ में
दर्द भर कर
गाती थी ठुमरी
न्याय का घंटा
चुाप रहता था उतनी देर
अब वही राजा
फिर लौटा है
थक कर आखेट से
सुनना चाहता है कविता
सारे कवि आमंत्रित हैं
सभी कवियों के लिए
जारी हुआ है यह आदेष
लिखो राजा पर
राजा के लिए एक कविता
जिसमें सारे अलंकार सारी व्यंजनाएं
भरी हों ठसाठस
शब्द बैठे हों
अपनी राजसी शालीनता में
अर्थ बह रहे हों तरल होकर
उतार दो कविता में
बिम्बों और प्रतीकों की
सजी हुई पालकी
वक्रोक्तियों से
डसे शाही रथ सा सजाओ
शीर्षक भी लगे तोरणद्वार सा
कुछ भी करो खुली छूट है
शर्त सिर्फ इतनी है
कि कविता
चाटुकारिता भी न लगे
और राजा को पसंद आए़