मैसूर

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स्थिति

मैसूर शहर, दक्षिण-मध्य कर्नाटक (भूतपूर्व मैसूर) राज्य, दक्षिणी भारत में है। यह चामुंडी पहाड़ी के पश्चिमोत्तर में 770 मीटर की ऊँचाई पर लहरदार दक्कन पठार पर कावेरी नदीकब्बानी नदी के बीच स्थित है।

1799 ई॰ से 1831 ई॰ तक यह मैसूर रियासत की प्रशासनिक राजधानी था और अब कर्नाटक राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर (बंगलोर के बाद) है। मैसूर भारतीय गणतंत्र में सम्मिलित एक राज्य तथा नगर है। जो मैसूर (अब कर्नाटक) राज्य की राजधानी भी है। इस राज्य की सीमा उत्तर-पश्चिम मुम्बई, पूर्व में आन्ध्र प्रदेश, दक्षिण-पूर्व में तमिलनाडु और दक्षिण-पश्चिम में केरल राज्यों से घिरी हुई है।

मैसूर शहर का उल्लेख

मैसूर शहर के आस-पास की भूमि पर वर्षा के जल से भरे उथले जलाशय हैं। इस स्थान का उल्लेख महाकाव्य महाभारत में महिष्मति (महिस्मति) के रूप में हुआ है, मौर्यकाल (तीसरी शताब्दी ई॰ पू॰) में यह पूरिगेरे के नाम से विख्यात था। महिष्मंडल महिषक लोग महिष्मति (नर्मदा घाटी) से प्रवास कर यहाँ पर बस गए थे। बाद में यह महिषासुर कहलाया था।

इतिहास

मैसूर शहर का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। इसके प्राचीनतम शासक कदम्ब वंश के थे, जिनका उल्लेख टॉल्मी ने किया है। कदम्बों को चेरों, पल्लवों और चालुक्यों से युद्ध करना पड़ा था। 12वीं शताब्दी में जाकर मैसूर का शासन कदम्बों के हाथों से होयसलों के हाथों में आया, जिन्होंने द्वारासमुद्र अथवा आधुनिक हलेविड को अपनी राजधानी बनाया था। होयसल राजा रायचन्द्र से ही अलाउद्-दीन ने मैसूर जीतकर अपने राज्य में सम्मिलित किया था। इसके उपरान्त मैसूर विजयनगर राज्य में सम्मिलित कर लिया गया और उसके विघटन के उपरान्त 1610 ई॰ में वह पुन: स्थानीय हिन्दू राजा के अधिकार में आ गया था।

इस राजवंश के चौथे उत्तराधिकारी चिक्क देवराज ने मैसूर की शक्ति और सत्ता में उल्लेखनीय वृद्धि की। किन्तु 18वीं शाताब्दी के मध्य में उसका राजवंश हैदर-अली द्वारा अपदस्थ कर दिया गया था और उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने 1799 ई॰ तक उस पर राज्य किया। टीपू की पराजय और मृत्यु के उपरान्त विजयी अंग्रेज़ो ने मैसूर को संरक्षित राज्य बनाकर वहाँ एक पंच-वर्षीय बालक कृष्णराज वाडियर को सिंहासन पर बैठाया था।

कृष्णराज अत्यंत अयोग्य शासक सिद्ध हुआ, फलत: 1821 ई॰ में ब्रिटिश सरकार ने शासन-प्रबंध अपने हाथों में ले लिया, परंतु 1867 ई॰ में कृष्ण के उत्तराधिकारी चाम राजेन्द्र को पुन: शासन सौंप दिया। उस समय से इस सुशासित राज्य का 1947 ई॰ में भारतीय संघ में विलय कर दिया गया।

यातायात और परिवहन

मैसूर शहर दो उत्तरी रेलमार्गों के जंक्शन पर स्थित है और भारत की प्रमुख पश्चिमी सड़क प्रणाली पर एक महत्त्वपूर्ण विभाजक बिंदु है।

कृषि और खनिज

यहाँ काली मिट्टी के विशाल भूभाग का कपास उगाया जाता है। यहाँ से चावल, मोटा अनाज और तिलहन का निर्यात किया जाता है।

उद्योग और व्यापार

मैसूर एक महत्त्वपूर्ण निर्माण एवं व्यापारिक केंद्र है। मैसूर में वस्त्र (सूती एवं रेशमी), चावल, तेल की मिलें, चंदन का तेल और रसायनिक उर्वरक उद्योग हैं। शहर के उद्योगों को बिजली पूर्व में स्थित शिवसमुद्रम के निकट पनबिजली गृह से मिलती है। मैसूर के कुटीर उद्योगों में बुनाई, तंबाकू, कॉफ़ी प्रसंस्करण और बीड़ी निर्माण शामिल हैं। यह क्षेत्र हाथीदाँत, धातु और लकड़ी की अपनी कारीगरी के लिए प्रसिद्ध है। रेलवे स्टेशन के पास स्थित बाज़ार स्थानीय कृषि उत्पादों के लिए संग्रहण केंद्र का काम करता है।

शिक्षण संस्थान

मैसूर अति सुन्दर परिष्कृत नगर है। मैसूर में 1916 में स्थापित मैसूर विश्वविद्यालय और कई संबद्ध महाविद्यालय हैं, जिनमें महाराजा कॉलेज, महिलाओं के लिए महारानी कॉलेज, युवराज साइंस कॉलेज, शारदाविलास टेरेजियन व अन्य कॉलेज शामिल हैं। यहाँ कर्नाटक राज्य मुक्त विश्वविद्यालय का केंद्र है। अन्य शैक्षणिक संस्थानों में नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंजीनियरिंग (एन. आई. ई.), एस. जे. कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग, विद्यावर्द्धक कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग, मैसूर मेडिकल कॉलेज, जे. एस. एस. मेडिकल कॉलेज, जे. एस. एस. डेंटल ऐंड फ़ार्मेसी कॉलेज, फ़ारूक़िया डेंटल एंड फ़ार्मेसी कॉलेज, एस. डी. एम. इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट, विद्या विकास कॉलेज ऑफ़ होटल मैनेजमेंट, जे. एस. एस. लॉ कॉलेज, शारदा लॉ कॉलेज, वी. वी. लॉ कॉलेज और महाजन लॉ कॉलेज शामिल हैं। कन्नड़ संस्कृति की प्रोन्नति के लिए भी कई संस्थान हैं।

जनसंख्या

मैसूर शहर की जनसंख्या (2001 की गणना के अनुसार) 7,42,261 है। मैसूर ज़िले की कुल जनसंख्या 26,24,911 है।

पर्यटन

मैसूर अति सुन्दर परिष्कृत नगर है। यह एक पर्यटन स्थल भी है।

पुराना क़िला

18वीं शताब्दी में यूरोपीय शैली में पुनर्निर्मित एक पुराना क़िला (मैसूर के मध्य में) स्थित है। क़िले के दायरे में महाराजा महल (1897 ई॰) है, जिसमें हाथीदाँत व सोने से र्निर्मित सिंहासन है।

पार्क एवं इमारतें

मैसूर में कर्ज़न पार्क, सिल्वर जुबली क्लॉक टावर (1927 ई॰), गाँधी चौक और महाराजा की दो मूर्तियाँ पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं।

पश्चिम में गोर्डोन पार्क के निकट भूतपूर्व ब्रिटिश रेज़िडेंसी (1805), प्रख्यात ओरिएंटल लाइब्रेरी, विश्वविद्यालय भवन, सार्वजनिक कार्यालय, जगमोहन महल और ललिता महल आदि अन्य प्रसिद्ध इमारतें हैं।

पहाड़ियाँ एवं झील

तीर्थयात्री बड़ी संख्या में चामुंडी पहाड़ी (लगभग 1,064 मीटर) जाते हैं, जहाँ शिव के पवित्र बैल, नंदी की अखंडित मूर्ति है। इस शिखर से दक्षिण की ओर स्थित नीलगिरि पहाड़ियों का सुंदर नज़ारा देखा जा सकता है।

कावेरी नदी पर मैसूर के पश्चिमोत्तर में 19 किमी की दूरी पर स्थित विशाल कृष्णराव झील है, जिसमें बाँध भी बना है। इस बाँध के नीचे फ़व्वारे व झरनेयुक्त सीढ़ीदार बृंदावन उद्यान हैं, जिन पर रात में रोशनी की जाती है।

अभयारण्य

पूर्व में स्थित सोमनाथपुर में होयसल वंश द्वारा र्निर्मित (1268) एक मंदिर है। वेणुगोपाल वन्य जीव उद्यान के एक भाग बांदीपुर अभयारण्य तक मैसूर से पहुँचा जा सकता है। यह गौर (भारतीय बाइसन) और चीतल के झुंडों के लिए विख्यात है। यहाँ घूमने के लिए सड़कों का संजाल है। इससे लगकर ही तमिलनाडु राज्य का मुदुमलाई वन्यजीव अभयारण्य स्थित है। यह कावेरी व उसकी नदियों का अपवाह क्षेत्र है।

पूर्व में स्थित सोमनाथपुर में होयसल वंश द्वारा र्निर्मित (1268 ई॰) एक मंदिर है।

मैसूर-युद्ध

भारत में अंग्रेज़ों और मैसूर के शासकों के बीच चार सैन्य मुठभेड़ हुई थी। अंग्रेज़ों और हैदर-अली तथा उसके पुत्र टीपू सुल्तान के बीच समय-समय पर युद्ध हुए थे। 32 वर्षो (1767से 1799 ई॰) के मध्य युद्ध छेड़े गए।

प्रथम मैसूर-युद्ध

(1767-69 ई॰ में) 1761 के आस-पास एक शाही मुसलमान हैदर अली, जो पहले से ही प्रधान सेनापति थे, मैसूर राज्य के स्वयंभु शासक बन गए और अपने प्रभुत्व क्षेत्र का विस्तार करने लगे। प्रथम मैसूर युद्ध 1667 से 1669 ई॰ तक हुआ,जिसका कारण मद्रास में अंग्रेज़ों की आक्रामक नीतियाँ थीं। 1766 ई॰ में जब हैदर-अली मराठों से एक युद्ध में उलझा था, मद्रास के अंग्रेज़ अधिकारियों ने निज़ाम की सेवा में एक ब्रिटिश सैनिक टुकड़ी भेज दी थी, और ईस्ट इंडिया कंपनी ने हैदर अली के विरुद्ध उत्तरी सरकारों के समर्पण के लिए हैदराबाद के निज़ाम से गठबंधन कर लिया। जिसकी सहायता से निज़ाम ने मैसूर के भूभागों पर आक्रमण कर दिया था। अंग्रेजों की इस अकारण शत्रुता से हैदर-अली को बड़ा क्रोध आया। उसने मराठों से संधि कर ली, अस्थिर बुद्धि निज़ाम को अपनी ओर मिला लिया और निजाम की सहायता से कर्नाटक पर, जो उस समय अंग्रेजों के नियंत्रण में था, आक्रमण कर दिया। लेकिन 1768 में निज़ाम युद्ध से हट गए और अंग्रेज़ों को अकेले हैदर अली का सामना करने के लिए छोड़ दिया। इस प्रकार प्रथम मैसूर युद्ध का सूत्रपात हुआ। यह युद्ध दो वर्षो तक चलता रहा और 1769 ई॰ में जब हैदर-अली का अचानक धावा मद्रास के क़िले की दीवारों तक पहुँच गया, उसका अंत हुआ। मद्रास कौंसिल के सदस्य भयाकुल हो उठे और उन्होंने हैदर-अली द्वारा सुलह की शर्ते स्वीकार कर लीं। इसके अनुसार दोनों पक्षों ने जीते गए भू-भाग लौटा दिए और हैदर-अली तथा अंग्रेज़ों के बीच एक रक्षात्मक संधि हो गई।

द्वितीय मैसूर-युद्ध

(1780-84 ई॰ में)

अंग्रेज़ों ने 1769 ई॰ की संधि की शर्तो के अनुसार आचरण न किया और 1770 ई॰ में हैदर-अली को, समझौते के अनुसार उस समय सहायता न दी जब मराठों ने उस पर आक्रमण किया। अंग्रेज़ों के इस विश्वासघात से हैदर-अली को अत्यधिक क्षोभ हुआ था। उसका क्रोध उस समय और भी बढ़ गया, जब अंग्रेज़ों ने हैदर-अली की राज्य सीमाओं के अंतर्गत माही की फ्रांसीसी बस्तीपर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। उसने मराठा और निज़ाम के साथ 1780 ई॰ में त्रिपक्षीय संधि कर ली जिससे द्वितीय मैसूर-युद्ध प्रारंभ हुआ।

अंग्रेज़ों ने निज़ाम को अपनी ओर मोड़ लिया और 1782 ई॰ में सालबाई की संधि करके मराठों से युद्ध समाप्त कर दिया। फिर भी हैदर-अली भग्नोत्साह न होकर युद्ध करता रहा और एक विशाल सेना लेकर कर्नाटक में घुस गया, उसे नष्ट-भ्रष्ट कर डाला तथा मद्रास के चारों ओर के इलाक़े उजाड़ डाले। उसने बेली के अधिनायकत्व वाली अंग्रेज़ी फ़ौज की एक टुकड़ी को घेर लिया। परन्तु 1781 ई॰ में वह सर आयरकूट द्वारा पोर्टोनोवो, पोलिलूर और शोलिंगलूर के तीन युद्धों में परास्त हुआ। क्योंकि उसे फ़्रांसीसियों से प्रत्याशित सहायता न मिल सकी। फिर भी वह डटा रहा और 1782 ई॰ में उसके पुत्र टीपू ने कर्नल व्रेथवेट के नायकत्ववाली ब्रिटिश सेना से तंजौर में आत्म-समर्पण करा लिया। इस युद्ध के बीच ही हैदर-अली की मृत्यु हो गई। किन्तु उत्तराधिकारी टीपू सुल्तान ने युद्ध जारी रखा और बेदनूर पर अंग्रेज़ों के आक्रमण को असफल करके मंगलोर जा घेरा। अब मद्रास की सरकार ने समझ लिया कि आगे युद्ध बढ़ाना उसकी सामर्थ्य के बाहर है। अत: उसने 1784 ई॰ में संधि कर ली, जो मंगलोर की संधि कहलाती है और जिसके आधारपर दोनों पक्षों ने एक दूसरे के भूभाग वापस कर दिए।

तृतीय मैसूर-युद्ध

(1790-92 ई॰ में)

तीसरा युद्ध 1790 ई॰ में शुरू हुआ था। जब गर्वनर-जनरल लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने टीपू का नाम कंपनी के मित्रों की सूची से हटा दिया था। तृतीय मैसूर युद्ध का कारण भी अंग्रेज़ों की दोहरी नीति थी। 1769 ई॰ में हैदर-अली और 1784 ई॰ में टीपू सुल्तान के साथ की गयी संधि की शर्तों के विरुद्ध अंग्रेज़ों ने 1788 ई॰ में निज़ाम को इस आशय का पत्र लिखा कि हम लोग टीपू सुल्तान से उन भूभागों को छीन लेने में आपकी सहायता करेंगे जो निज़ाम के राज्य के अंग रहे है। अंग्रेजों की इस विश्वासघाती नीति को देखकर टीपू सुल्तान के मन में उनके शत्रुतापूर्ण अभिप्राय के संबंध में कोई संशय न रहा। अत: 1789 ई॰ में अचानक ट्रावनकोर (त्रिवंकुर) पर आक्रमण कर दिया, और उस भू-भाग को तहस-नहस कर डाला । अंग्रेज़ों ने इस आक्रमण को युद्ध का कारण बना लिया और पेशवा और निज़ाम से इस शर्त पर गुटबन्दी कर ली कि वे दोनों विजित प्रदेशों का बराबर भागों में बँटवारा कर लेंगे। इस प्रकार प्रारंभ हुआ तृतीय मैसूर युद्ध 1790 से 1792 ई॰ तक चलता रहा।

इस युद्ध में तीन संघर्ष हुए। 1790 ई॰ में तीन अंग्रेज़ी सेनाएँ मैसूर की ओर बढ़ी, उन्होंने डिंडीगल, कोयम्बतूर तथा पालघाट पर अधिकार कर लिया, फिर भी उनको टीपू के प्रबल प्रतिरोध के कारण कोई महत्व की विजय प्राप्त न हो सकी। इस विफलता के कारण स्वंय लार्ड कार्नवालिसने, जो गवर्नर जनरल भी था, दिसम्बर 1790 ई॰ में प्रारम्भ हुए अभियान का नेतृव्य अपने हाथों में ले लिया। वेल्लोर और अम्बर की ओर से बढ़ते हुए कार्नवालिसने मार्च 1791 में॰ में बंगलोर पर अधिकार कर लिया और टीपू की राजधानी श्रीरंग-पट्टनम् की ओर बढ़ा। लेकिन टीपू की नियोजित ध्वंसक भू-नीति के कारण अंग्रेज़ों की सेना को अनाज का एक दाना न मिल सका और कार्नवालिस को अपनी तोपें कीलकर पीछे लौटना पड़ा। तीसरा अभियान, जो 1791 ई॰ की गर्मियों में प्रारंभ हुआ, अधिक सफल रहा। अंग्रेज़ी सेनाओं का नेतृव्य करते हुए कार्नवालिस ने पुन: टीपू की कई पहाड़ी चौकियों पर अधिकार कर लिया और 1792 ई॰ में एक विशाल सेना के साथ श्रीरंग-पट्टनम् पर घेरा डाल दिया। राजधानी की ब्राह्म प्राचीरों पर शत्रुओं का अधिकार हो जाने पर टीपू ने आत्मसमर्पण कर दिया और मार्च 1792 ई॰ में श्रीरंग-पट्टनम् की संधि के द्वारा युद्ध समाप्त हुआ।

इसके अनुसार टीपू ने अपने दो पुत्रों को बंधक के रूप में अंग्रेज़ों को सौंप दिया और तीन करोड़ रुपये युद्ध के हरजाने के रूप में दिये, जो तीन मित्रों (अंग्रेज़-निज़ाम-मराठा) में बराबर बाँट लिये गये। साथ ही टीपू ने अपने राज्य का आधा भाग भी सौंप दिया, जिसमें से अंग्रेज़ों में डिंडीगल, बारा महाल, कुर्ग और मलावार अपने अधिकार में रखकर टीपू के राज्य का समुद्र से संबंध काट दिया और उन पहाड़ी दर्रो को छीन लिया, जो दक्षिण भारत के पठारी भू-भाग के द्वार थे। मराठों के वर्धा (वरदा) और कृष्णा नदियों व निज़ाम को कृष्णा पनार नदियों के बीच के भू-खण्ड मिले।

चतुर्थ मैसूर युद्ध

( 1799 ई॰ में) चौथा युद्ध गर्वनर-जनरल लॉर्ड मॉर्निंग्टन (बाद में वेलेज़ली) ने इस बहाने से शुरू किया कि टीपू को फ़्रांसीसियों से सहायता मिल रही है। अल्पकालिक, परन्तु भयानक सिद्ध हुआ। इसका कारण टीपू सुल्तान द्वारा अंग्रेज़ों के आश्रित बन जाने के संधि प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना था, तत्कालीन गवर्नर- जनरल लार्ड वेलेज़ली को टीपू की ब्रिटिश- विरोधी गतिविधियों का पूर्ण विश्वास हो गया था। उसे पता चला कि 1792 ई॰ की पराजय के उपरांत टीपू ने फ़्रांस, कुस्तुनतुनियाँ और अफ़ग़ानिस्तान के शासकों के साथ इस अभ्रिप्राय से संधि का प्रयास किया था कि भारत से अंग्रेज़ों को निकाल दिया जाय। वेलेज़ली ने टीपू द्वारा आश्रित संधि के अस्वीकार को युद्ध का कारण बना लिया। उसने निज़ाम और पेशवा के साथ इस आधार पर एक गठबंधन किया कि युद्ध में जो लाभ होगा, उसका तीनों में बराबर बँटवारा हो जाएगा।

अंग्रेज़ों की तीन सेनाएँ क्रमश: जनरल हेरिस, जनरल स्टीवर्ट और गवर्नर जनरल के भाई वेलेज़ली (जो आगे चलकर ड्यूक ऑफ वेलिंगटन हुआ) के नेतृव्य में तीन दिशाओं से टीपू के राज्य की ओर बढ़ी। दो घमासान युद्धों में टीपू की पराजय हुई और उसे श्रीरंग-पट्टनम् के दुर्ग में शरण लेनी पड़ी। दुर्ग 17 अप्रैल को घेर लिया गया और 4 मई 1799 ई॰ को उस पर अधिकार हो गया। वीरतापूर्वक दुर्ग की रक्षा करते हुए टीपू युद्ध में मारा गया। उसके पुत्र ने आत्म-समर्पण कर दिया। विजयी अंग्रेज़ टीपू के राज्य को बराबर-बराबर तीन भागों में अपने मित्रों में नहीं बाँटना चाहते थे, अत: उन्होंने मैसूर के मुख्य और मध्यवर्ती भाग पर कृष्णराज को सिंहासनासीन किया, जो मैसूर के उस पुराने राजा का वंशज था, जिसे हैदर-अली ने अपदस्थ किया था।

टीपू के राज्य के बचे हुए भू-भागों में से कनास(कन्नड़), कोयम्बतूर और श्रीरंग-पट्टनम् कम्पनी के राज्य में मिला लिए गए। मराठों ने, जिन्होंने इस युद्ध में कोई भी सक्रिय भाग नहीं लिया था, हिस्सा लेना अस्वीकार कर दिया। निज़ाम को टीपू के राज्य का उत्तर पूर्व वाला कुछ भू-भाग मिला, जिसे उसने 1800 ई॰ में कम्पनी को सौंप दिया। इस प्रकार चतुर्थ मैसूर-युद्ध की समाप्ति पर मैसूर का सम्पूर्ण राज्य अंग्रेज़ों के नियंत्रण में आ गया।