उत्तर प्रदेश की कला

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उत्तर प्रदेश हिंदुओं की प्राचीन सभ्यता उद्गम स्थल है। वैदिक साहित्य महाकाव्य रामायण और महाभारत[1] के उल्लेखनीय हिस्सों का मूल यहाँ के कई आश्रमों में है। बौद्ध- हिंदु काल[2] के ग्रंथों व वास्तुशिल्प ने भारतीय सांस्कृतिक विरासत में बड़ा योगदान दिया है। 1947 के बाद से भारत सरकार का चिह्न मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बनवाए गए चार सिंह युक्त स्तंभ[3] पर आधारित है।

वास्तुशिल्प, चित्रकारी, संगीत, नृत्य और दो भाषाएं (हिंदीउर्दू) मुग़ल काल के चित्रों में सामान्यतया धार्मिक व ऐतिहासिक ग्रंथों का चित्रण है। यद्यपि साहित्य व संगीत का उल्लेख प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में किया गया है और माना जाता है कि गुप्त काल[4] में संगीत समृद्ध हुआ, संगीत परंपरा का अधिकांश हिस्सा इस काल के दौरान उत्तर प्रदेश में विकसित हुआ। तानसेनबैजू बावरा जैसे संगीतज्ञ मुग़ल शहंशाह अकबर के दरबार में थे, जो राज्य व समूचे देश में आज भी विख्यात हैं। भारतीय संगीत के दो सर्वाधिक प्रसिद्ध वाद्य, सितार[5] और तबले का विकास इसी काल के दौरान इस क्षेत्र में हुआ। 18 वीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश में वृंदावनमथुरा के मंदिरों में भक्तिपूर्ण नृत्य के तौर पर विकसित शास्त्रीय नृत्य शैली कथक उत्तरी भारत की शास्त्रीय नृत्य शैलियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध लोकगीत मौसमों पर आधारित हैं।

उत्तर प्रदेश की राजकीय भाषा हिंदी की जन्मस्थली है। शताब्दियों के दौरान हिंदी के कई स्थानीय स्वरूप विकसित हुए हैं। साहित्यिक हिंदी ने 19 वीं शताब्दी तक खड़ी बोली का वर्तमान स्वरूप (हिंदुस्तानी) धारण नहीं किया था। वाराणसी के भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850- 85) उन अग्रणी लेखकों में से थे, जिन्होंने हिंदी के इस स्वरूप का इस्तेमाल साहित्यिक माध्यम के तौर पर किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जिसमें भगवद्गीता शामिल है
  2. लगभग 600 ई.पू. - 1200 ई.
  3. वाराणसी के निकट सारनाथ में स्थित
  4. लगभग 320-540
  5. वीणा परिवार का तंतु वाद्य

बाहरी कड़ियाँ

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