भारत में सांस्कृतिक विकास

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भारत में सांस्कृतिक विकास (13वीं से 15वीं शताब्दी)

तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में दिल्ली सल्तनत का उदय देश के 'सांस्कृतिक विकास' के नये काल का सूत्रकाल माना जा सकता है। तुर्क आक्रमणकारियों को बर्बर नहीं कहा जा सकता है। वे लोग नवीं और दसवीं शताब्दी में मध्य एशिया से पश्चिम एशिया में गए थे। उन्होंने वहाँ पहुँचकर उसी प्रकार इस्लाम स्वीकार कर लिया, जिस प्रकार उससे पहले मध्य एशिया से आक्रमण करने वालों ने बौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया था। वे भी उस क्षेत्र की संस्कृति में एकाकार हो गए।

अरबी-फ़ारसी संस्कृति

उस समय मोरक्को और स्पेन से लेकर ईरान तक की मुस्लिम दुनिया में छाई अरबी-फ़ारसी संस्कृति अपने उत्कर्ष पर थी। इस क्षेत्र के निवासियों ने विज्ञान, साहित्य और स्थापत्य कला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। जब तुर्कियों ने भारत पर आक्रमण किया, तब तक वे इस्लाम को पूरी तरह अपना चुके थे और उसके सिद्धांत उनके सामने स्पष्ट थे। इतनी ही नहीं, शासन कला और स्थापत्य आदि के बारे में भी उनके निश्चित विचार थे। दूसरी ओर भारतीय भी अपने धर्म को लेकर निश्चित मत थे, और उनके उसके प्रति अपने विचार थे। कला, स्थापत्य और साहित्य को लेकर भी उनके विचार स्पष्ट थे।

भारतीय समाज और तुर्क

इस भारतीय समाज के साथ तुर्कों का सम्बन्ध एक समृद्ध विकास की लम्बी कड़ी में परिवर्तित हुआ। किन्तु, यह प्रक्रिया लम्बी और उतार-चढ़ाव से भरी हुई थी। वस्तुतः जब दो पक्षों के अपने-अपने दृढ़ विचार और विश्वास होते हैं, तो एक-दूसरे को ग़लत समझने की सम्भावना भी मौजूद रहती है। किन्तु इस प्रक्रिया में एक दूसरे को समझने के प्रयत्नों के फलस्वरूप कलाओं, स्थापत्य, संगीत, साहित्य और यहाँ तक की रीति-रिवाज़ों, कर्म-काण्डों और धार्मिक विश्वासों के क्षेत्र में भी एक-दूसरे में विलयन की प्रक्रिया का जन्म हुआ। विलयन और संघर्ष की ये प्रक्रियाएँ एक-दूसरे के समान्तर चलती रहीं। देश और काल के अनुसार बल कभी एक पर अधिक हो जाता था और कभी दूसरे पर।

स्थापत्य कला

नये शासको की पहली ज़रूरत रहने के लिए मकानों और अपने अनुयायियों के लिए पूजा के स्थानों की थी। पूजा के स्थान उपलब्ध करने के लिए उन्होंने पहले से विद्यमान मन्दिरों और इमारतों को मस्जिदों में परिवर्तित किया। इसके कई उदाहरण हैं, दिल्ली की क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद, जो क़ुतुबमीनार के पास है, और अजमेर की इमारत अढाही दिन का झोंपड़ा। क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद पहले एक जैन मन्दिर थी, जिसे कालान्तर में विष्णु-मन्दिर में परिवर्तित किया गया तथा अढ़ाही दिन झोपड़ा एक बिहार था।

नई निर्माण शैली

दिल्ली में इमारत के क्षेत्र में नया निर्माण 'एक उपासना गृह' (गर्भ-गृह) के सामने महीन और विस्तृत खुदाई से पूर्ण तीन महराबें थी। गर्भ-गृह को गिरा दिया गया। इसकी सजावट की शैली बहुत ही रुचिपूर्ण है। इसमें कोई मानव या पशु की आकृति नहीं है। क्योंकि ऐसा करना ग़ैर-इस्लामी माना जाता था। इसके स्थान पर उसमें बेल-बूटे और क़ुरान की आयतें खोदी गई हैं। ये दोनों चीज़ें एक दूसरे में कलात्मक ढंग से मिली हुई हैं। लेकिन जल्दी ही तुर्कों ने अपनी नयी इमारतें बनानी शुरू कर दीं। इस काम के लिए उन्होंने स्थानीय पत्थर काटने वालों और रणभीरों आदि शिल्पकारों का प्रयोग किया। ये शिल्पी अपने काम के लिए प्रसिद्ध थे। बाद में पश्चिम एशिया से कुछ अनुभवी स्थापत्य शिल्पी भारत आये। तुर्कियों ने अपनी इमारतों में महराबों और गुम्बदों का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया। इनमें न तो महराब और न ही गुम्बद तुर्की या अरबी खोज है। अरबों ने इस शिल्प को विज्रन्टाइन साम्राज्य के माध्यम से रोम से ग्रहण किया था। फिर उसका विकास करके उन्होंने इस शिल्प को अपनी रंगत दे दी थी।

महराब तथा गुम्बद का प्रयोग

महराब और गुम्बदों के इस्तेमाल के कई लाभ थे। गुम्बद भव्य आकाश-रेखाओं का निर्माण करते थे। फिर जैसे-जैसे स्थापत्य शिल्पी अनुभव प्राप्त करके आर्थिक आत्म-विश्वास प्राप्त करते गए, वैसे-वैसे गुम्बदों की ऊँचाई बढ़ती गई। वर्गाकार इमारतों पर गोल गुम्बद बनाने और उन्हें और ऊँचा बनाने के कई प्रयोग हुए। इस प्रकार कई बड़ी-बड़ी और भव्य इमारतों का निर्माण हुआ। महराबों और गुम्बदों के निर्माण से स्तम्भों की आवश्यकता कम हो गई, क्योंकि बड़े-बड़े भवनों के निर्माण में कई स्तम्भों की आवश्यकता पड़ती थी। ताकि सब कुछ साफ दिखाई दे और छत भी टिकी रहे। लेकिन महराबों और गुम्बदों के निर्माण के लिए मज़बूत सीमेन्ट की जरूरत थी। इसके बिना पत्थर नहीं जोड़े जा सकते थे। तुर्क अपनी इमारतों में बढ़िया क़िस्म का चूना इस्तेमाल करते थे। इस प्रकार तुर्कों के आगमन के साथ ही भारत में नयी स्थापत्य शैलियों और बढ़िया क़िस्म के चूने का इस्तेमाल शुरू हुआ।

महराब और गुम्बदों का निर्माण भारतीय पहले से जानते थे, लेकिन उनका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर नहीं होता था। इसके अतिरिक्त महराब बनाने का सही वैज्ञानिक तरीक़ा कभी-कभी ही अपनाया जाता था। महराब बनाने का भारतीय तरीक़ा-अन्तर कम करते हुए एक के बाद दूसरा पत्थर वहाँ तक जमाते जाने का था, जब तक कि ऊपर एक सिल या नुकीला पत्थर जमाया जा सके। तुर्क शासकों ने गुम्बद और महराब तथा शिला और शहतीर दोनों विधियों का प्रयोग किया।

अलंकरण प्रयोग

अलंकरण के क्षेत्र में तुर्क मानव और पशु आकृतियों का प्रयोग नहीं करते थे। इसके स्थान पर ज्यामितीय और फूलों के नमूने बनाते थे और उसके साथ क़ुरान की आयतें ख़ुदवाते थे। इस प्रकार अरबी लिपि भी कला का नमूना बन गई। अलंकरण की यह संयुक्त विधि 'अरबस्क' कहलाती है। वे अधिकतर हिन्दू अलंकरण के नमूने भी अपनाते थे, जैसे घंटियों क नमूने, बेल के नमूने, स्वास्तिक, कमल के फूल इत्यादि, इस प्रकार भारतीयों की तरह तुर्क भी अलंकरण के प्रति गहरी रुचि रखते थे। इस कार्य के लिए पत्थर काटने वाले भारतीय कौशल का उन्होंने पूरा उपयोग किया। इल्तुतमिश के छोटे से मक़बरे, दिल्ली में क़ुतुबमीनार के निकट, पर इतना महीन काम किया गया कि एक इंच खाली जगह भी नहीं छोड़ी गई। तुर्क लाल रंग के पत्थर का प्रयोग करके अपनी इमारतों को रंगीन भी बनाते थे। लाल रंग को हल्का रखने की गर्ज से अलंकरण के लिए इनमें पीला पत्थर और संगमरमर भी इस्तेमाल होता था।

तुर्कों की भव्य इमारत तेरहवीं शताब्दी में बनाई गई क़ुतुबमीनार है। यह मीनार मूल रूप से 71.4 मीटर ऊँची थी और दिल्ली निवासियों के प्रिय सूफ़ी संत 'क़ुतुबुद्दीन बख़्तयार काकी' की स्मृति में इल्तुतुमिश न बनवायी थी। स्तम्भ बनवाने की परम्परा भारत और पश्चिम एशिया दोनों स्थानों पर मिलती है, तथापि क़ुतुबमीनार कई दृष्टियों से अलग थी। इसकी प्रभावोत्पादक्ता इस बात में है कि इसमें छज्जे हैं, किन्तु वे मुख्य स्थम्भ से जुड़े हुए हैं। दीवारों में और ऊपर की मंज़िलों में लाल और सफ़ेद पत्थर का और संगमरमर का प्रयोग है। इसको देखकर पसलोदार इमारत का आभास होता है।

ख़िलजीकालीन इमारतें

ख़िलजी काल में अनेक इमारतें बनीं। अलाउद्दीन ने सीरी में अपनी राजधानी बनायी, जो क़ुतुब से कुछ ही किलोमीटर की दूर पर है। दुर्भागय से इस शहर का अब कुछ भी शेष नहीं है। अलाउद्दीन की योजना क़ुतुब से दोगुनी ऊँचाई का मीनार बनाने की थी, लेकिन वह उसको पूरा कराने से पहले ही मर गया। फिर भी, उसने क़ुतुब के साथ प्रवेश द्वार का निर्माण अवश्य करवाया। यह दरवाज़ा इलाही दरवाज़ा कहलाता है और इसकी महराबों में अदभुत संतुलन है। इस पर एक गुम्बद भी है। जिसके निर्माण में पहली बार सह वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया गया था। अतः यह स्पष्ट है कि इस काल तक भारतीय कारीगरों ने महराब और गुम्बद बनाने की वैज्ञानिक विधि को आत्मसात् कर लिया था।

तुग़लक-कालीन स्थापत्य

तुग़लक़ वंश का काल, जो कि दिल्ली सल्तनत के चरमोत्कर्ष का काल भी है और उसके विघटन का पहला बिन्द भी, में भी अनेक इमारतों का निर्माण हुआ। ग़यासुद्दीन और मुहम्मद तुग़लक ने तुग़लकाबाद में अनेक महलों और क़िलों का निर्माण करवाया। यमुना के जल को रोककर एक विशाल झील का निर्माण किया गया। ग़यासुद्दीन का मक़बरा एक नयी स्थापत्य शैली की ओर संकेत करता है। इसमें ऊँचाई का आभास देने के लिए इमारत को एक ऊँचे चबूतरे पर बनाया गया और उसके ऊपर संगमरमर का गुम्बद बनाया गया।

तुग़लक स्थापत्य शैली की विशेषता ढलवां दीवारें हैं। इसे 'सलामी' कहा जाता है और इससे मज़बूत तथा ठोस होने का आभास मिलता है। लेकिन फ़िरोज शाह तुग़लक़ द्वारा बनवायी गई इमारतों में 'सलामी' का प्रयोग नहीं मिलता। तुग़लक स्थापत्य की दूसरी विशेषता महराब, द्वाराग्रकाष्ठ और शहतीर के सिद्धांतों का सायास सम्मेलन है। फ़िरोज तुग़लक की इमारतों में उस शैली का प्रयोग बहुतायत से मिलता है। हौजखास, जिसे आमोद-प्रमोद के लिए बनवाया गया था और जिसके चारों ओर विशाल झील थी, इस शैली का उदाहरण है। इसकी एक मंज़िल में यदि महराबों का प्रयोग है तो दूसरी में शहतीरें और लिंटल का। फ़िरोज के नये क़िले, जिसे अब कोटला कहा जाता है, की कुछ इमारतों में भी इस शैली का प्रयोग हुआ है। तुग़लक अपनी इमारतों में मंहगा लाल पत्थर इस्तेमाल नहीं करते थे। वे आसानी से उपलब्ध मटमैला पत्थर लगाते थे। इसलिए तुग़लकी इमारतों में बहुत कम अलंकरण मिलता है। लेकिन फ़िरोज की सभी इमारतों में अलंकरण के लिए कमल का प्रयोग हुआ है।

लोदीकालीन इमारतें

इस काल में अनेक सुन्दर मस्जिदों का भी निर्माण हुआ। यहाँ सब का वर्णन करना सम्भव नहीं है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि भारत में उस काल तक स्थापत्य की एक स्वतंत्र शैली का विकास हो चुका था, जिसमें स्थानीय शिल्प और तुर्क-शिल्प का मिश्रण था। लोदियों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। उनकी इमारतों में महराब तथा शहतीर और लिंटल, दोनों का प्रयोग हुआ है। इनमें राजस्थानी-गुजराती शैली के छज्जों, मण्डपों और गुफाओं का भी प्रयोग मिलता है। लोदियों ने एक और शैली का भी प्रयोग किया। वह थी इमारतों को एक विशेषतः मक़बरों को ऊँचे चबूतरों पर बनाना ताकि वे बड़ी और ऊँची लगें। कुछ मक़बरे उद्यानों के मध्य में बनाये गये हैं। दिल्ली में लोदी उद्यान इसका सुन्दर उदाहरण है। कुछ मक़बरे अष्टकोणी बनाये गये। इनमें से कुछ विशेषताओं को बाद में मुग़लों ने भी अपनाया। शाहजहाँ द्वारा निर्मित ताजमहल इसी का परिणाम है।

दिल्ली सल्तनत का विघटन होने के समय तक भारत के अनेक भागों में फैले राज्यों में अपनी-अपनी स्थापत्य शैलियों का विकास भी हो चुका था। इनमें से भी अनेक स्थानीय शैलियों से प्रभावित हुईं। जैसा कि बंगाल, गुजरात, मालवा और दक्षिण इत्यादि में ऐसा ही हुआ। इस प्रकार चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी में देश के विभिन्न भागों में स्वतंत्र शैलियों के प्रयोग से मुक्त अनेकानेक इमारतों का निर्माण हुआ। तुग़लकों के शासन काल में दिल्ली में विकसित स्थापत्य शैली इस प्रकार विभिन्न क्षेत्रीय राज्यों में अपनायी गई और उसमें परिवर्तन भी किए गए।

धार्मिक विचार और विश्वास

उत्तर भारत में जब तुर्कों ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया, तब इस्लाम भारत के लिए नया नहीं थां। पंजाब और मिस्र में इस्लाम की स्थापना नवीं-दसवीं शताब्दी में ही हो गई थी। अरब यात्री भी उससे पहले ही केरल में बस गये थे। उस काल में अरब यात्री और सूफ़ी सारे देश में भ्रमण करते थे। पश्चिम एशिया के लोग भी अलबेरूनी की पुस्तक, 'किताब-उल्-हिन्द' से परिचित हो चुके थे। उस समय तक बौद्ध-कथाओं, भारतीय लोक-गाथाओं, ज्योतिष शास्त्र और चिकित्सा शास्त्र पर अनेक पुस्तकों का अरबी में अनुवाद हो चुका था। भारतीय योगियों की यात्राएँ भी उनके क्षेत्र में हुई थीं। इस्लाम पर बौद्ध दर्शन और वेदान्त का प्रभाव विद्वानो के लिए वाद-विवाद का विषय रहा है। अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया के कुछ हिस्सों में, विशेष रूप से प्राचीन व्यापार मार्गों के आस-पास बौद्ध बिहारों, स्तूपों और बुद्ध की मूर्तियों के भग्नावशेष किसी समय बौद्ध-प्रभाव की व्यापकता का संकेत करते हैं।

यह तय कर पाना तो कठिन है कि इस्लाम पर भारतीय दर्शन का प्रभाव कितना है, लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस्लाम के विकास काल में उस पर यूनानी और भारतीय दर्शनों का अलग-अलग अनुपातों में निश्चित प्रभाव पड़ा था। इन विचारों ने सूफ़ी मत के विकास की पृष्ठभूमि तैयार की। बारहवीं शताब्दी के बाद भारत में पाँव जमाने के पश्चात सूफ़ी मत ने हिन्दू और मुस्लिमों के लिए सामान्य मंच उपलब्ध किया। लेकिन, कुछ विद्वानों का मत है कि यौगिक क्रियाओं सहित अनेक कर्मकाण्डों को आरम्भिक सूफ़ियों के द्वारा अपनाकर अपने तंत्र में सम्मिलित करने के बावजूद उनकी वैचारिक संरचना इस्लामी ही रही।

सूफ़ी मत

इस्लामी इतिहास में दसवीं शताब्दी अनेक कारणों से महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसी समय अब्बासी ख़िलाफ़त के अवशेषों से तुर्कों का उदय हुआ और इसी काल में दर्शन और विश्वासों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। दर्शन के क्षेत्र में इस समय मुताजिल अथवा तर्क-बुद्धिवादी दर्शन का आधिपत्य समाप्त हुआ, जो क़ुरान और हदीस, हज़रत मुहम्मद और उनके सहयोगियों की परम्परा, पर आधारित थी। इसी समय सूफ़ी रहस्यवाद का जन्म हुआ। तर्क-बुद्धिवादियों पर संशयवाद और नास्तकिता फैलाने का आरोप लगाया गया। विशेष रूप से तर्क दिया गया कि अद्धैतवादी दर्शन, जो ईश्वर और उसकी सृष्टि के मूल रूप से एक होने की बात करता है, इसलिए धर्मद्रोही है क्योंकि इससे सृष्टा और सृष्टि में भेद समाप्त हो जाता है।

भारत में प्रवेश

परम्परावादियों की रचनाएँ इस्लामी काल की चार विचारधाराओं में बंट गई। इनमें से हनफ़ी विचारधारा सबसे अधिक उदारवादी थी। इसे ही पूर्वी तुर्कों ने अपनाया और ये पूर्वी तुर्क ही कालान्तर में भारत आये। रहस्यवादियों का जन्म इस्लाम के अंतर्गत बहुत पहले ही हो गया था। इन लोगों को ही बाद के समय में 'सूफ़ी' कहा जाने लगा। इनमें से अधिकांश ऐसे थे, जो महान भक्त थे और समृद्धि के भोंडे प्रदर्शन और इस्लामी साम्राज्य की स्थापना के बाद उत्पन्न नैतिक-पतन के कारण दुखी थे। अतः इन सूफ़ियों को राज्य से कोई सरोकार नहीं था। ये लोग बादशाहों, राजा और महाराजाओं द्वारा प्रदान किये जाने वाले दान-उपहार आदि को स्वीकार नहीं करते थे। बाद के आने वाले समय में भी उनमे यह परम्परा जारी रही। महिला रहस्यवादी 'रबिया' (मृत्यु आठवीं शताब्दी) और 'मंसूर-बिन-हलाज' (मृत्यु दसवीं शताब्दी) जैसे प्रारम्भिक सूफ़ियों ने ईश्वर और व्यक्ति के बीच प्रेम सम्बन्ध पर बहुत बल दिया। किन्तु उनकी सर्वेश्वरवादी दृष्टि के कारण उनमें और परम्परावादी तत्वों के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई। इन परम्परावादियों ने अफ़वाहों के बल पर मंसूर को फाँसी लगवा दी। इसके बावजूद मुस्लिम जनता में सूफ़ीवादी विचार जड़ जमाते गये।


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