वह आदमी जो
नारे लगाती भीड़ में से
निकल गया है चुपचाप
कोख में एक ख़तरा दबाए
फिर लौटेगा
एक मौलिक चीख के साथ
हवा में दोनों मुट्ठियाँ उठाए़
वह समझता है
अन्याय के प्रतिकार में
आकार लेता शब्द
हमेशा निकलता है
प्राण की तरह या चीख की तरह
वह फिर लौटेगा
डार से बिछुड़ी कूँज की तरह
गले में अवरुद्ध शब्द को
आवाज़ों के जंगल में छोड़ने के लिए
वह अचानक उपस्थित हो जाएगा
अनेक अनुत्तरित प्रश्नों के साथ
वह पूछेगा आँसू गैस बांटती सरकार से
कि पुलिस और जनसंख्या में
संवैधानिक अनुपात क्या होता है?
कि संविधान की कौन सी धारा
सबसे उपयुक्त होती है जंगल में
जब भंड़ियों से घिरा मेमना
अचानक आ जाए अल्पमत में?
किस श्रेणी की सुरक्षा में
आएगा मेमना
जब प्रस्ताव पारित हो चुका हो
कि मेमना खतरनाक है जंगल के लिए !
वह लौटेगा इस जानकारी के साथ
कि दीवाली के दिन
एक साबुत छाती चाहिए
कोड़ी भर गोलियों के लिए
एक गर्व मे तनी गर्दन चाहिए
जो शान से गिर सके होली के दिऩ
जहाँ घर का हर सपना असुरक्षित है
वह आदमी कितनी देर बैठेगा घर ?
सपनों के लिए लड़ते आदिमयों का शोर
उसे शालीन मर्यादा से
बाहर खींच लाएगा
उस दिन यकीनन
उसकी आँख का ख़तरा
ऑंख में आ जाएगा
और एक मौलिक चीख के साथ
वह तुम्हारे बीच शामिल हो जाएगा ।