निम्बार्काचार्य

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निम्बार्काचार्य

निम्बार्काचार्य एक महत्त्वपूर्ण वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य के रूप में प्रख्यात रहे हैं। यह ज्ञातव्य है कि वैष्णवों के प्रमुख चार सम्प्रदायों में निम्बार्क सम्प्रदाय भी एक है। इसको 'सनकादिक सम्प्रदाय' भी कहा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि निम्बार्क दक्षिण भारत में गोदावरी नदी के तट पर वैदूर्य पत्तन के निकट (पंडरपुर) अरुणाश्रम में श्री अरुण मुनि की पत्नी श्री जयन्ति देवी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। कतिपय विद्वानों के अनुसार द्रविड़ देश में जन्म लेने के कारण निम्बार्क को द्रविड़ाचार्य भी कहा जाता था।

जीवन परिचय

द्वैताद्वैतवाद या भेदाभेदवाद के प्रवर्तक आचार्य निम्बार्क के विषय में सामान्यतया यह माना जाता है कि उनका जन्म 1250 ई. में हुआ था। श्रीनिम्बार्काचार्य की माता का नाम जयन्ती देवी और पिता का नाम श्री अरुण मुनि था। इन्हें भगवान सूर्य का अवतार कहा जाता है। कुछ लोग इनको भगवान के सुदर्शन चक्र का भी अवतार मानते हैं तथा इनके पिता का नाम श्री जगन्नाथ बतलाते हैं। वर्तमान अन्वेषकों ने अपने प्रमाणों से इनका जीवन-काल ग्यारहवीं शताब्दी सिद्ध किया है। इनके भक्त इनका जन्म काल द्वापर का मानते हैं। इनका जन्म दक्षिण भारत के गोदावरी के तट पर स्थित वैदूर्यपत्तन के निकट अरुणाश्रम में हुआ था। ऐसा प्रसिद्ध है कि इनके उपनयन के समय स्वयं देवर्षि नारद ने इन्हें श्री गोपाल-मन्त्री की दीक्षा प्रदान की थी तथा श्रीकृष्णोपासना का उपदेश दिया था। इनके गुरु देवर्षि नारद थे तथा नारद के गुरु श्रीसनकादि थे। इसलिये इनका सम्प्रदाय सनकादि सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है। इनके मत को द्वैताद्वैतवाद कहते हैं।

निम्बार्क का जन्म भले ही दक्षिण में हुआ हो, किन्तु उनका कार्य क्षेत्र मथुरा रहा। मथुरा भगवान श्री कृष्ण की जन्म भूमि रही, अत: भारत के प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्रों में मथुरा का अपना निजी स्थान रहता चला आया है। निम्बार्क से पहले मथुरा में बौद्ध और जैनों का प्रभुत्व हो गया था। निम्बार्क ने मथुरा को अपना कार्य क्षेत्र बनाकर यहाँ पुन: भागवत धर्म का प्रवर्तन किया।

द्वैताद्वैतवाद मत

श्रीनिम्बार्काचार्य के अनुसार इनका मत अत्यन्त प्राचीन काल से सम्बद्ध है, कोई नया मत नहीं है। इन्होंने अपने भाष्य में नारद और सनत्कुमार के नाम का उल्लेख करके यह सिद्ध किया है कि इनका मत सृष्टि के आदि से है। कहते हैं कि पहले इनका नाम नियमानन्द था। श्रीदेवाचार्य ने इसी नाम से इनको नमस्कार किया है। जब ये यमुना तटवर्ती ध्रुव क्षेत्र में निवास करते थे, तब एक दिन एक दण्डी संन्यासी इनके आश्रम पर आये। उनके साथ ये आध्यात्मिक विचार-विमर्श में इतने तल्लीन हो गये कि सूर्यास्त हो गया। सूर्यास्त होने पर जब इन्होंने अपने अतिथि संन्यासी से भोजन करने का निवेदन किया, तब उन्होंने सूर्यास्त की बात कहकर भोजन करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। दण्डी संन्यासी प्राय: सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करते हैं। अतिथि के बिना भोजन किये लौट जाने की बात पर श्रीनिम्बार्काचार्य को काफ़ी चिन्ता हुई। भगवान ने इनकी समस्या के समाधान के लिये प्रकृति के नियमों में परिवर्तन की अद्भुत लीला रची। सभी लोगों ने आश्चर्यचकित होकर देखा कि इनके आश्रम के सन्निकट नीम के ऊपर सूर्यदेव प्रकाशित हो गये। भगवान की अपार करुणा का प्रत्यक्ष दर्शन करके आचार्य का हृदय गद्गद हो गया। भगवान की करुणा के प्रति शत-शत कृतज्ञता प्रकट करते हुए इन्होंने अपने अतिथि को भोजन कराया। अतिथि के भोजनोपरान्त ही सूर्यास्त हुआ। भगवान की इस असीम करुणा को लोगों ने श्रीनिम्बार्काचार्य की सिद्धि के रूप में देखा, तभी से इनका नाम निम्बादित्य अथवा निम्बार्क प्रसिद्ध हुआ। यद्यपि श्रीनिम्बार्काचार्य ने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया, किन्तु वर्तमान में वेदान्त-कृष्ण की पूजा होती है। श्रीमद्भागवत इस सम्प्रदाय का प्रधान ग्रन्थ है। इनके मत में ब्रह्म से जीव पृथक् भी है और एक भी है।

निम्बार्क सम्प्रदाय

निम्बार्क सम्प्रदाय का विकास दो श्रेणियों में हुआ, एक विरक्त और दूसरी गृहस्थ। आचार्य निम्बार्क के दो प्रमुख शिष्य थे, केशव भट्ट और हरि व्यास। केशव भट्ट के अनुयायी विरक्त होते हैं और हरि व्यास के अनुयायी गृहस्थ। निम्बार्क सम्प्रदाय में राधा और कृष्ण की पूजा होती है। ये लोग गोपीचन्दन का तिलक लगाते हैं और श्रीमद्भागवत इनका प्रमुख सम्प्रदाय ग्रन्थ है। भारत में अब भी इस सम्प्रदाय के अनुयायी पर्याप्त संख्या में हैं। सम्प्रदाय के रूप में निम्बार्क परम्परा को आगे बढ़ाने वाले उत्तरवर्ती आचार्यों में गोस्वामी श्री हित हरिवंश, श्री हरि व्यास और स्वामी हरिदास की गिनती प्रमुख रूप से की जाती है। उत्तरवर्ती आचार्यों में माधव मुकुन्द (1700- 1800 ई.) भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि निम्बार्क का गोलोकवास वृन्दावन या इसके आसपास चौदहवीं शती में हुआ।

निम्बार्काचार्य के सिद्धांत

श्री निम्बार्काचार्य ने जीव, माया, जगत आदि का ब्रह्म से द्वैताद्वैत स्थापित किया है, किन्तु इससे पहले कि हम 'जीव-ब्रह्म ऐक्य' या 'जीव-ब्रह्म पार्थक्य' की चर्चा करें, यह उचित होगा कि ब्रह्म आदि के सम्बन्ध में निम्बार्क के मत का पहले पृथक पृथक रूप से उल्लेख कर लिया जाये।

ब्रह्म

आचार्य निम्बार्क के अनुसार ब्रह्म जीव और जगत से पृथक भी है और अपृथक भी। परिणाम के रूप में वे पृथक हैं, किन्तु स्वरूप में अन्तर न होने के कारण वे ब्रह्म से अपृथक भी हैं। ब्रह्म जगत रूप में परिणत होने पर निर्विकार है। प्रलयावस्था में समस्त जगत उसमें लीन हो जाता है। परन्तु लीन होने पर भी ब्रह्म में विकार उत्पन्न नहीं होता। गुण और गुणी में अभेद होता है। अभेद मानने के कारण ही निम्बार्क ने ब्रह्म को निर्गुण माना है, किन्तु सृष्टि के रूप में ब्रह्म सगुण है, निम्बार्क ब्रह्म को चतुष्पाद मानते हैं। यह दृश्यमान संसार ब्रह्म का प्रथम चरण है। विश्व के समस्त पदार्थों को विभिन्न रूपों देखने वाला जीवात्मा द्वितीय चरण है। समस्त ब्रह्माण्ड के पदार्थों का नित्य द्रष्टा ईश्वर तृतीय चरण है। इन तीनों से ऊपर आनन्द मात्र का अधिष्ठान अक्षर ब्रह्म चतुर्थ चरण है। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व और जीव समुदाय भी ब्रह्म ही है। जगत और जीव ब्रह्म के अंश मात्र हैं और अंश तथा अंशी में भेदाभेद सम्बन्ध है। साधक जीव जब चिदेश के साथ एकाकार होकर आनन्द की प्राप्ति करता है तो उसे ही मुक्ति कहते हैं, जिस प्रकार सूर्य अपनी रश्मियों से समग्र विश्व को प्रकाशित करता है, वैसे ही ब्रह्म भी अपने आनन्दमय रूप से सम्पूर्ण जगत को आनन्दित करता है। किन्तु जिस प्रकार सूर्य कि किरण और सूर्य में भेद भी है और अभेद भी उसी प्रकार जीवगत आनन्द और ब्रह्मगत आनन्द में भेद भी है और अभेद भी। ब्रह्म समग्र आनन्द की अनुभूति करता है। अत: यह ईश्वर और सर्वज्ञ कहलाता है। उसकी तुलना में जीव आनन्द के एक विशेष अंश का ही अनुभव या ज्ञान करता है। अत: जीव विशेषज्ञ माना जा सकता है, सर्वज्ञ नहीं। सर्वज्ञ न होने के कारण ही जीव ब्रह्म के अधीन है। ईश्वर ब्रह्म, जीव ब्रह्म और जगत ब्रह्म, इन तीनों का अधिष्ठान अक्षर ब्रह्म है। वि निर्गुण है। किन्तु जगत का निमित्त और उपादान कारण होने के कारण वह सगुण भी कहलाता है। ब्रह्म जिस स्थिति में समग्र आनन्द की अनुभूति करता है, उस स्थिति में वह ईश्वर कहलाता है। ब्रह्म का ईश्वर रूप ही सर्वज्ञ सर्वप्रकाशक तथा सृष्टि स्थिति और लय का कारण माना जाता है।

निम्बार्क ने ईश्वर और ब्रह्म को एक माना है। ब्रह्म जगत का उपादान कारण होते हुए भी विकारी नहीं है। निम्बार्क ने ब्रह्म को व्यूह कहा है। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध ये चार व्यूह हैं। निम्बार्क मतानुयायी पुरुषोत्तम ने ईश्वर के अवतारों को तीन वर्गों में विभाजित किया है- गुणावतार, पुरुषावतार और लीलावतार। ब्रह्मा रजोगुण के आधार पर संसार का निर्माण करता है। विष्णु सत्वगुण के द्वारा संसार का रक्षण करता है और शिव तमो गुण के माध्यम से संसार का विनाश करता है। क्षीर सागर शायी विष्णु पुरुषावतार हैं। लीलावतार दो प्रकार के होते हैं- आवेशावतार और स्वरूपावतार। नर और नारायण इस कोटि में आते हैं। निम्बार्क का विचार है कि ब्रह्म श्रुति के माध्यम से जाना जा सकता है।

आत्मा

निम्बार्क के कथनानुसार आत्मा ज्ञाता है। अपने अस्तित्व के लिए ब्रह्म पर निर्भर करता है। यह अणु रूप है। यद्यपि यह ज्ञानमय है फिर भी ज्ञान का आश्रय कहा जाता है। आत्मा परमात्मा के अधीन होने के कारण उससे भिन्न है, किन्तु आत्मा की सत्ता स्वरूप और गति का स्रोत परमात्मा ही है और परमात्मा से भिन्न आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। अत: वह अभिन्न भी है। 'तावमसि' जैसे वाक्यों का निम्बार्क ने जो विश्लेषण किया है, उससे भी ब्रह्म, आत्मा और जगत में भेदाभेदवाद की पुष्टि होती है।

जीव

निम्बार्क के अनुसार निरूपाधिक चिन्मात्र ब्रह्म परमात्मा है। जीव की प्रवृत्ति विषयोपभोग की ओर होती है। सुख और दु:ख का अनुभव भी जीव ही करता है :-

अहमित्थेव यो वेद्य: स जीव इति कीर्तित:।
स दु:खी स सुखी चैव स पात्रं बन्धमोक्षयो:।।

  अविद्योपाधिक वासना बद्ध जीव को ही स्थूलारून्धती न्याय से अहंकार भी कहा जाता है। भूमासाधना द्वारा मन की वृत्तियों को अन्तर्मुखी करके यानी अहम् (मैं) को सूक्ष्म अहम् (अस्मिता मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ) मैं लय करके तथा सूक्ष्म अहम् को भी अस्मि (हूँ) में लय करके जीव ब्राह्मी स्थिति में पहुँच जाता है। इस स्थिति में निरन्तर रहने के अनन्तर ही जीव का मोक्ष होता है। इसी भाव को निम्बार्क ने इस तरह से भी प्रस्तुत किया है कि हृदयस्थ वृन्दावन में प्रिया, प्रियतम और प्रेम इन तीनों की समवेत स्थिति का चिन्तन ही उपासना है। इस स्थिति की चरमावस्था में जब साधक, साध्य और साधन का भेद मिट जाता है, तो जीव नित्य कान्ताभाव से अखंड प्रेमरस का आस्वादान करता है।

निम्बार्क के अनुसार जीवात्मा परमात्मा के समान ज्ञान स्वरूप है, परन्तु वासना से ग्रस्त होने के कारण वह परमात्मा के अधीन माना जाता है। इसलिए वह जन्म, मरण, क्षय, वृद्धि, परिणाम आदि विकारों से ग्रस्त रहता है। वह अणु है, किन्तु प्रतिदेह से भिन्न होने के कारण अनन्त (असंख्य) है।

ज्ञानस्वरूपं च हरेरधीनं शरीरसंयोगवियोगयोग्यम्।
अणुंहि जीवं प्रतिदेहभिन्नं ज्ञातृत्ववन्तं यमनन्तमाहु:।।

  अनादि माया से ग्रस्त होने के कारण जीव अपने नित्य, शुद्ध, बुद्ध मुक्त स्वरूप को नहीं समझ पाता। केवल भगवत् प्रसाद से ही वह अपने स्वरूप की प्राप्ति (वासनाराहित्य) कर सकता है। भगवत प्रसाद का साधन भक्ति योग है। मुक्त अवस्था में जीव ब्रह्म के साथ अपने और जगत के अभिन्नत्व का अनुभव करता है। वह अपने को और जगत को ब्रह्म रूप में ही देखता है, जबकि वृद्धावस्था में जीव अपनी ब्रह्मस्वरूपता और जगत की ब्रह्मस्वरूपता की उपलब्धि नहीं कर सकता। यह ज्ञातव्य है कि व्यास ने भी ज्ञान कर्म और भक्ति ये तीन योग मनुष्य के कल्याण के लिए बताए हैं। इसमें से ज्ञान योग सन्यासियों के लिए, कर्म योग सकाम संसारी मनुष्यों के लिए और भक्ति योग निष्काम मनुष्यों के लिए बताया गया है।

मोक्ष

निम्बार्क का विचार है कि 'अहं' तत्व को परमात्मरूप से श्रवण करने पर सारूप्य, महत्तत्व को परमात्मरूप से दर्शन करने से सालौक्य, मनस्तत्व को परमात्मरूप से मनन करने से सामीप्य तथा जीवतत्व को परमात्मरूप से निदिध्यासन करने से सार्ष्टि (अर्थात् परमात्मा के समान सुख और ऐश्वर्य रूप) मुक्ति मिलती है।

वासना का आत्यंतिक क्षय ही मोक्ष है। ब्रह्म विद्या की उपासना द्वारा ही वासना का क्षय सम्भव है। ब्रह्मसूत्रवाक्यार्थ के चतुर्थ अध्याय में निम्बार्क ने यह भी कहा है कि अहंकार को मन से, मन की जीव से और जीव की परमात्मा से संलग्नता मोक्ष का साधन है। चार्वाक ने अङ्गनालिंगनजन्य सुख को पुरुषार्थ कहा था, किन्तु निम्बार्क का यह विचार है कि ऐसे सुख को प्रियावत भाव से परमात्मा के शाश्वत सुख से संयुक्त कर दिया जाये तो वह भी आत्मोद्वार में बाधक नहीं होगा। ज्ञानमार्गीय दृष्टि से ऐहिक सुखों का त्याग आवश्यक है, किन्तु प्रेममार्गी दृष्टि से सुख को परमात्मा से युक्त कर देना अधिक श्रेयस्कर है। निम्बार्क की ऐसी उदार मान्यताओं के कारण ही उनके मत को प्रवृत्तिमार्गीय भागवत धर्म भी कहा जाता है। निम्बार्क का विचार है कि आत्मा और शरीर को एक समझना ही बन्ध का सबसे बड़ा कारण है। मोक्ष का आशय है- जीव का ब्रह्म के समान हो जाना। एकमात्र भक्ति की तुलना में निम्बार्क ज्ञानपूर्विका भक्ति को मोक्ष का अधिक अच्छा साधन मानते हैं। जीवात्मा कर्म के अधीन है। कर्म अविद्या का परिणाम है। कर्म बन्धन अनादि हैं, किन्तु परमात्मा के अनुग्रह से जीव को मुक्ति मिल जाती है। परमात्मा में सर्वात्मसमर्पण कर देने से परमात्मा का अनुग्रह प्राप्त होता है। भक्ति द्वारा ही परमात्मा का अनुग्रह प्राप्त होता है।

जगत

निम्बार्क के विचार में जगत भ्रम या मिथ्या नहीं, अपितु ब्रह्म का स्वाभाविक परिणाम है। जगत का उद्भव ब्रह्म की अभिलाषा से होता है। ब्रह्म ही सृष्टि का उपादान तथा निमित्त कारण है। सर्वप्रथम ब्रह्म से आकाश तत्व का उद्भव होता है। तदनन्तर आकाश से वायु, तेज, जल और पृथ्वी का विकास होता है। ब्रह्म मकड़ी की तरह जगत का सृजन और स्वयं में ही संहार कर लेता है। जगत ब्रह्म से भिन्न भी है और अभिन्न भी। भिन्न तो इस रूप में है कि ब्रह्म का स्वतंत्र अस्तित्व है और जगत उसके नियंत्रण में है। जगत सीमित है, जबकि ब्रह्म असीमित है। जगत ब्रह्म से अभिन्न भी है, क्योंकि जगत को ब्रह्म से अलग नहीं किया जा सकता। निम्बार्क रामानुज के समान सत्कार्यवाद के आधार पर ही जगत की व्याख्या करते हैं। जगत प्रकृति में अव्यक्त रूप से विद्यमान रहता है। प्रकृति को ईश्वर की शक्ति मानते हैं।

निम्बार्क सतख्यातिवाद को मानते हैं। उनका तर्क यह है कि सभी ज्ञान ब्रह्ममय है, अत: वे सत् हैं। निम्बार्क के कथन पर यह आपत्ति की जा सकती है कि इस तरह तो भ्रम सन्देह आदि का कोई स्थान ही नहीं रहेगा, जबकि वे अनुभव में आते हैं। निम्बार्क स्वत: प्रामाण्यवाद के पक्षपाती हैं, किन्तु दोषाभाव को प्रामाण्य के तत्त्वों में समाविष्ट करने के कारण उनके सिद्धांतों में परम: प्रामाण्य के बीच भी दिखाई दे सकते हैं। देवाचार्य और सुन्दरभट्ट के ग्रन्थों में निम्बार्क रचित दो श्लोकों का उल्लेख मिलता है, जिनमें कि निम्बार्क मत का सार दिया हुआ है। श्लोक इस प्रकार से है :-

ज्ञानस्वरूपं च हरेरधीनं शरीरसंयोगवियोगयोग्यम्।
अणुं हि जीवं प्रतिदेहभिन्नं ज्ञातृत्ववन्तं यमनन्तमाहु:।।
सर्व हि विज्ञानमती यथार्थकम्, श्रुतिस्मृतिभ्यो निखिलस्य वस्तुन:।
ब्रंह्मात्मकत्वादिति वेदविन्मतं, त्रिरूपतापिश्रुतिसूत्रसाधिता।।

 

द्वैताद्वैतवाद का तुलनात्मक विश्लेषण

श्री शंकराचार्य ईश्वर तत्त्व एवं धर्म तत्त्व दोनों का सामंजस्य करते हैं। उनके मतानुसार जो निर्गुण तथा ज्ञान स्वरूप है, वही व्यावहारिक रूप में सगुण सक्रिय और सृष्टि तथा लय का कर्ता है। ईश्वर एवं धर्मतत्त्व के द्वारा विवेक, वैराग्य, शम, दम, तितिक्षा और उपरति आदि छ: साधनों के बाद ब्रह्म तत्त्व की जिज्ञासा होती है। निम्बार्क के मत में ब्रह्म जगत का उपादान कारण और निमित्त कारण है। इसीलिए भिन्न भी है और अभिन्न भी। जगत ब्रह्म की स्थूल अभिव्यक्ति है। जगत के तीन उपादान कारण हैं-

  1. चैतन्य
  2. गति
  3. जड़।

शंकर ने भी कई जगह यह स्वीकार किया है कि जड़ शक्ति की परिणति है तथा शक्ति चैतन्य का रूपान्तर है। बृहदारण्य उपनिषद के भाष्य में शंकर ने यहाँ तक कहा है कि जगत को यदि नामरूपात्मक न माना जाये तो ब्रह्म भी अज्ञेय हो जायेगा (यदि हि नामरूपे न व्याक्रियेते, ब्रह्मणो प्रज्ञानघनाख्यां रूपं न प्रतिज्ञायेत)। तात्पर्य यह है कि जगत को ब्रह्म से भिन्न नहीं किया जा सकता। क्योंकि उस व्यवस्था में ब्रह्म शून्य हो जायेगा। इसके अतिरिक्त नाम रूप कभी चैतन्य से रहित नहीं हो सकता। उसके मूल में चैतन्य अवश्य रहता है। इस बात का उल्लेख कई विद्वानों ने किया है कि दर्शन शास्त्र की दो आधारभूत प्रवृत्तियाँ हैं, एक तो वह जो तर्क पर आश्रित है और दूसरी वह जो अनुभूति पर निर्भर करती है। अधिकतर दर्शन बुद्धिवादी है। किन्तु निम्बार्क की गणना समन्वयवादी दार्शनिकों में की जा सकती है। उनके द्वारा प्रवर्तित भक्तियोग में समन्वय के दर्शन किये जा सकते हैं। उपनिषदों में मन की निष्काम अवस्था को ब्रह्मसंस्था या ब्रह्म निर्वाण कहा गया है। महात्मा बुद्ध ने प्रज्ञातत्त्व और उपायतत्त्व को निर्वाण का आधार माना था। बुद्ध के अनुयायियों ने प्रज्ञा और उपाय इन दोनों के संयोग से की जाने वाली उपासना से सहज सिद्धि मानी- 'प्रज्ञा रहितोपायो बंध:। उपायरहिता प्रज्ञाबंध:। तादात्म्यं चानयो: सद्गुरुपदेशत: प्रदीपलोकयोरिव सहजसिद्धिमेबाधिगम्यते' (अद्वयवज्रसंग्रह)। जबकि निम्बार्क ने ब्रह्मभूतत्व तथा निर्वाण का समन्वय कर ब्रह्मात्मभाव नामक मुक्ति का उल्लेख किया है। रामानुजाचार्य दास्यभाव की दैन्ययुक्त शरणापत्ति से कृपा की आकांक्षा, श्री मध्वाचार्य सख्यभाव के प्रीतियुक्त साहचर्य से आनन्द की अभिलाषा तथा श्री वल्लभाचार्य वात्सल्याभाव के स्नेहयुक्त सामीप्य से पोषण की लालसा अभिव्यक्त करते हैं, जबकि निम्बार्क प्रियावत् भाव से श्री कृष्ण के साथ नित्य विहार की चर्चा करते हैं।

निम्बार्काचार्य का भक्तिपरक मत

महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग और ईश्वर प्रणिधान- ये दो मार्ग आत्मोद्धार के लिए निर्दिष्ट किये थे। निम्बार्क ने इन तीनों मार्गों को दो मार्ग न कह करके इनके सहभाव से सम्पन्न भक्ति योग का प्रवर्तन किया, जिसमें चिदानन्द सम्बलित प्रेमभाव का प्राधान्य है। इस प्रेमभाव से द्वैत और अद्वैत दोनों अवस्थाओं का सामंजस्य होता है। प्रेमी, प्रेमपात्र और प्रेम तीनों का ऐक्य हो जाना ही अद्वैत अवस्था है। जो लोग केवल चिदंश पर ही बल देते हैं, वे ज्ञानमार्गी कहलाते हैं। चिद् अंश ही ज्ञान का भाव है। आनन्द अंश पर बल देने वाले लोग भक्त कहलाते हैं। ज्ञान और आनन्द दोनों भावों का जो सामंजस्य होता है, उसमें चित् और आनन्द का तथा ज्ञान और भक्ति का सामंजस्रू हो जाता है। पातंजल योग दर्शन की साधना ज्ञान मार्ग की है, उसमें समाधि के माध्यम से चिदंश साक्षात्कार की विधि बतलाई गई है। पतंजलि ने ईश्वर प्रणिधान के माध्यम से जो साधना बताई है, उसमें आत्म समर्पण के द्वारा आनन्द अंश की उपलब्धि रहती है। महामोपाध्याय गोपीनाथ कविराज ने (Gleeanings from the Tantras) की भूमिका में यह लिखा है कि भक्त दो प्रकार के हुए हैं- एक वे जो भक्ति को केवल भावरूप से जानते हैं और दूसरे वे जो रस रूप से उसकी अनुभूति करते हैं। जिसका उद्देश्य भगवद धाम में प्रविष्ट होकर भागवत सेवा का आनन्द लेना है, उनके लिए राम मार्ग ही श्रेयस्कर है। तात्पर्य यह है कि सांसारिक राग जब भगवत चिन्तन का माध्यम बन जाता है तो वह राग ही प्रेम रस के रूप में परिणत हो जाता है। निम्बार्क सम्प्रदाय के भक्त कवि जयदेव के गीतगोविन्द का भी इसी परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिए।

निम्बार्क के मतानुसार

निम्बार्क के मतानुसार निरूपाधिक चिन्नमात्र ब्रह्म ही परमात्मा है। औपाधिक ब्रह्म ब्रह्मा है और जीव अहंकार है। अज्ञान और मोह से बद्ध जीव अहंकार कहलाता है। क्योंकि इसकी प्रवृत्ति विषयोपभाग की ओर होती है। अहंकार को ही भूमा में मग्न कर देने से सम्पूर्ण विश्व भूमामय दीखने लगता है। कभी कभी तो साधक अपने आप को ही भगवान समझने लगता है, क्योंकि तन्मयता में उसे स्व और पर का ध्यान भी नहीं रहता। बाह्य और आभ्यन्तर दोनों में ही वह हरि की अनुभूति करने लगता है, जैसा कि कहा गया है-

स एवाधंस्तादहमेवाधस्तादात्मैवाधस्तात्।।
स एवेदं सर्वम् अहमेवेदं सर्वम् आत्मैवेदंसर्वम्।।

  श्री निम्बार्क ने कर्म रूपी वैराग्य को ही साधनावस्था माना है। भक्ति से ही कर्म और ज्ञान को पोषण तत्त्व प्राप्त होता है। भक्ति के द्वारा जो अन्त:करण का द्रवण होता है, वही रस स्वरूप ब्रह्मानुभूति है। किसी भी क्रिया में प्रेम और ज्ञान दोनों की संगति आवश्यक है। भक्ति की साधना द्वैतवाद की द्योतक है और ज्ञान साधना अद्वैतवाद की। भक्ति, ज्ञान और कर्म की समवेत साधना द्वैतभाव की द्योतक है। इस उपासना से निस्त्रैगुण्य भाव की प्राप्ति होती है।

निम्बार्क ने वेदान्त कामधेनु में उपासना के स्वरूप का भी यत् किंचित उल्लेख किया है। भक्ति मार्ग में गुरु का अत्यधिक महत्त्व है, ऐसा उनका मत है। प्रेमाभक्ति के संदर्भ में गोपीश्वरी राधा ही गुरु रूप में भी मान्या हैं। राधा को उपास्या के साथ साथ आचार्य मानने की परम्परा का सूत्रपात निम्बार्क ने ही किया है। बाद में श्री हरिव्यास गोस्वामी, श्री हित हरिवंश आदि ने भी श्री राधा को अपना गुरु मानने की परम्परा का निर्वाह किया। यह ज्ञातव्य है कि निम्बार्क ने राधा को गुरु मानकर प्रकारान्तर से यह भी माना है कि अज्ञान का निवारण भी राधा के ही मार्ग दर्शन से हो सकता है। यह भावना गुरु की निम्नलिखित परिभाषा से भी मेल खाती है-

गुशब्दस्त्वंधकारारव्य: सशब्दस्तन्निरोधक:।
अहंकार विशेधित्वाद् सदा स्मरेस देवीं सकलेष्टकामदाम्।।

  निम्बार्क का यह कथन राधिका तापनीयोपनिषद के कथन से भी मेल खाता है कि- येयं राधा यश्च कृष्णे रसाधि देहश्चैक: क्रीडनार्थ द्विधाऽभूत्। निम्बार्क रागात्मिका भक्ति को श्रेष्ठ मानते हैं। रागात्मिका भक्ति को वह रसमय मानते हैं। इसमें यम, नियम आदि उद्दीपन विभाग, समाहित चित्तता अनुभाव, ध्यान संचारी भाव और समाधि ही रस निष्पत्ति है।

भक्ति और ज्ञान योग

निम्बार्क ने भक्ति के क्षेत्र में भी ज्ञान की अपेक्षा का निरसन नहीं किया। वह भक्ति योग के साथ ज्ञान योग को भी महत्त्व देते हैं और उसे ब्रह्म योग का सहायक मानते हैं। क्रिया शक्ति (माया या अविद्या) का ज्ञान शक्ति (विद्या) से निरसन कर देना ही ज्ञान योग है। ज्ञान योग में सवसमर्पण्? (भगवद्भक्ति) का संयोग कर देना ही ब्रह्मयोग है। इस संदर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि निम्बार्क के अनुसार श्री कृष्ण ब्रह्म हैं। रुक्मिणी ज्ञान शक्ति और सत्यभामा क्रियाशक्ति हैं। इन दोनों की समाविष्ट पराशक्ति श्री राधा हैं। रुक्मिणी और सत्यभामा से भिन्न भिन्न रूप में जब परमात्मा का संयोग होता है, तो वह शक्तियों की भिन्नता का द्योतक है और जब राधा के रूप में दोनों का संयोग होता है तो वह अभिन्नता का प्रतीक है। इस प्रकार रुक्मिणी और सत्यभामा का श्री कृष्ण के साथ जो संयोग है, वह भेद कोटि में आता है और राधा के साथ जो संयोग है, वह अभेद कोटि में आता है। यही वह भेदाभेदोपासना है, जो निम्बार्क के भक्तिपरक मत का मुख्य आधार है। वैसे श्री कृष्ण राधा के सम्बन्ध में निम्बार्क का मत बहुत कुछ स्कन्द पुराण के इस कथन से मिलता जुलता है या प्रभावित प्रतीत होता है कि-

आत्मा तु राधिका तस्य तयैव रमणादसौ।
आत्माराम इति प्रोक्तो मुनिभिर्गूढवेदिभि:।।

  निम्बार्क ने प्रेमा भक्ति को ही उत्तमा भक्ति कहा है और उसमें भक्त की जो स्थिति होती है, उसका स्वरूप इस प्रकार बताया है :-

नान्त् गति:कृष्णपदारविंदाया संदृश्यते ब्रह्मशिवादिवंवितात्।
भक्तेच्छयोपात्तसुचिंत्यविग्रहात् अचिंत्यशाक्तेरविचिंत्य साशयात्।।

भक्ति योग से अन्त:करण में जो विशेष स्थिति घटित होती है, उसको निम्बार्क ने परमात्मा की अह्लादिनी शक्ति का विलास कहा है। जीव गोस्वामी ने शुद्ध भक्ति योग को कर्मयोगसमान्वित और ज्ञानयोगसमन्वित भक्ति से श्रेष्ठ माना है, किन्तु निम्बार्क ने ज्ञानपूर्विका भक्ति को अधिक महत्त्व दिया है और उसको ईश्वरीय वरदान जैसा माना है।


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