संतान सप्तमी

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संतान सप्तमी भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष पर पड़ने वाली सप्तमी को कहा जाता है। इस दिन भगवान शंकर तथा माता पार्वती की आराधना का विधान बताया गया है। संतान सप्तमी के दिन व्रत करने से उत्तम संतान की प्राप्ति होती है। यह व्रत विशेष रूप से स्त्रियों के लिए कल्याणकारी है, परन्तु पुरुषों के लिए भी यह समान रूप से फलदायक है। सन्तान सुख देने वाला पापों का नाश करने वाला यह उत्तम व्रत है। नियम पूर्वक जो कोई भी संतान सप्तमी व्रत को करता है और भगवान शंकर एवं पार्वती की सच्चे मन से आराधना करता है, निश्चय ही अमरपद पद प्राप्त करके अन्त में शिवलोक को जाता है।

कथा

एक बार श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि किसी समय मथुरा में लोमश ऋषि आए थे। मेरे माता-पिता देवकी तथा वसुदेव ने भक्तिपूर्वक उनकी सेवा की तो ऋषि ने उन्हें कंस द्वारा मारे गए पुत्रों के शोक से उबरने के लिए आदेश दिया- "हे देवकी! कंस ने तुम्हारे कई पुत्रों को पैदा होते ही मारकर तुम्हें पुत्र शोक दिया है। इस दुःख से मुक्त होने के लिए तुम 'संतान सप्तमी' का व्रत करो। राजा नहुष की रानी चंद्रमुखी ने भी यह व्रत किया था। तब उसके भी पुत्र नहीं मरे। यह व्रत तुम्हें भी पुत्र शोक से मुक्त करेगा। तब देवकी ने पूछा- "हे देव! मुझे व्रत का पूरा विधि-विधान बताने की कृपा करें, ताकि मैं विधिपूर्वक व्रत सम्पन्न कर सकूँ। लोमश ऋषि ने उन्हें व्रत का पूजन-विधान बताकर व्रत कथा भी बताई।[1]

चंद्रमुखी व रूपवती की मित्रता

नहुष अयोध्या का प्रतापी राजा था। उसकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था। उसके राज्य में ही विष्णुदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम रूपवती था। रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती में परस्पर घनिष्ठ प्रेम था। एक दिन वे दोनों सरयू नदी में स्नान करने गईं। वहाँ अन्य स्त्रियाँ भी स्नान कर रही थीं। उन स्त्रियों ने वहीं पार्वती-शिव की प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक उनका पूजन किया। तब रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती ने उन स्त्रियों से पूजन का नाम तथा विधि पूछी। उन स्त्रियों में से एक ने बताया- "हमने पार्वती सहित शिव की पूजा की है। भगवान शिव का डोरा बांधकर हमने संकल्प किया है कि जब तक जीवित रहेंगी, तब तक यह व्रत करती रहेंगी। यह 'मुक्ताभरण व्रत' सुख तथा संतान देने वाला है।

व्रत का संकल्प

उस व्रत की बात सुनकर उन दोनों सखियों ने भी जीवन-पर्यन्त इस व्रत को करने का संकल्प करके शिवजी के नाम का डोरा बाँध लिया। किन्तु घर पहुँचने पर वे संकल्प को भूल गईं। फलतः मृत्यु के पश्चात रानी वानरी तथा ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुईं। कालांतर में दोनों पशु योनि छोड़कर पुनः मनुष्य योनि में आईं। चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी तथा रूपवती ने फिर एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया। इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी तथा ब्राह्मणी का नाम भूषणा था। भूषणा का विवाह राजपुरोहित अग्निमुखी के साथ हुआ। इस जन्म में भी उन दोनों में बड़ा प्रेम हो गया। व्रत भूलने के कारण ही रानी इस जन्म में भी संतान सुख से वंचित रहीं। प्रौढ़ावस्था में उसने एक गूंगा तथा बहरा पुत्र जन्मा, मगर वह भी नौ वर्ष का होकर मर गया। भूषणा ने व्रत को याद रखा था। इसलिए उसके गर्भ से सुन्दर तथा स्वस्थ आठ पुत्रों ने जन्म लिया।[1]

रानी ईश्वरी की ईर्ष्या

रानी ईश्वरी के पुत्र शोक की संवेदना के लिए एक दिन भूषणा उससे मिलने गई। उसे देखते ही रानी के मन में डाह पैदा हुई। उसने भूषणा को विदा करके उसके पुत्रों को भोजन के लिए बुलाया और भोजन में विष मिला दिया। परन्तु भूषणा के व्रत के प्रभाव से उनका बाल भी बांका न हुआ। इससे रानी को और भी अधिक क्रोध आया। उसने अपने नौकरों को आज्ञा दी कि भूषणा के पुत्रों को पूजा के बहाने यमुना के किनारे ले जाकर गहरे जल में धकेल दिया जाए। किन्तु भगवान शिव और माता पार्वती की कृपा से इस बार भी भूषणा के बालक व्रत के प्रभाव से बच गए। परिणामतः रानी ने जल्लादों को बुलाकर आज्ञा दी कि ब्राह्मण बालकों को वध-स्थल पर ले जाकर मार डालो, किन्तु जल्लादों द्वारा बेहद प्रयास करने पर भी बालक न मर सके। यह समाचार सुनकर रानी को आश्चर्य हुआ। उसने भूषणा को बुलाकर सारी बात बताई और फिर क्षमा याचना करके उससे पूछा- "किस कारण तुम्हारे बच्चे नहीं मर पाए?"

भूषणा बोली- "क्या आपको पूर्वजन्म की बात स्मरण नहीं है? रानी ने आश्चर्य से कहा- "नहीं, मुझे तो कुछ याद नहीं है?" तब भूषणा ने कहा- "सुनो, पूर्वजन्म में तुम राजा नहुष की रानी थीं और मैं तुम्हारी सखी। हम दोनों ने एक बार भगवान शिव का डोरा बांधकर संकल्प किया था कि जीवन-पर्यन्त 'संतान सप्तमी' का व्रत किया करेंगी। किन्तु दुर्भाग्यवश हम भूल गईं और व्रत की अवहेलना होने के कारण विभिन्न योनियों में जन्म लेती हुईं, अब फिर मनुष्य जन्म को प्राप्त हुई हैं। अब मुझे उस व्रत की याद हो आई थी, इसलिए मैंने व्रत किया। उसी के प्रभाव से आप मेरे पुत्रों को चाहकर भी न मरवा सकीं।" यह सब सुनकर रानी ईश्वरी ने भी विधिपूर्वक संतान सुख देने वाला यह मुक्ताभरण व्रत रखा। तब व्रत के प्रभाव से रानी पुनः गर्भवती हुई और एक सुंदर बालक को जन्म दिया। उसी समय से पुत्र-प्राप्ति और संतान की रक्षा के लिए यह व्रत प्रचलित है।[1]

व्रत पूजन

यह व्रत पुत्र प्राप्ति, पुत्र रक्षा तथा पुत्र अभ्युदय के लिए भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को किया जाता है। इस व्रत का विधान दोपहर तक रहता है। इस दिन जाम्बवती के साथ श्यामसुंदर तथा उनके बच्चे साम्ब की पूजा भी की जाती है। माताएँ भगवान शिव पार्वती का पूजन करके पुत्र प्राप्ति तथा उसके अभ्युदय का वरदान माँगती हैं। इस व्रत को 'मुक्ताभरण' भी कहते हैं।

विधि

  • व्रत करने वाले को प्रातः काल स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिए।
  • दोपहर के समय चौक पूर कर चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, सुपारी तथा नारियल आदि से शिव-पार्वती की पूजा करे।
  • इस दिन नैवेद्य भोग के लिए खीर-पूरी तथा गुड़ के पुए रखें।
  • रक्षा के लिए शिवजी को डोरा भी अर्पित करें। डोरे को शिवजी के वरदान के रूप में लेकर उसे धारण करके व्रत कथा का श्रवण करना चाहिए।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 संतान सप्तमी व्रत पूजन, कथा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 02 अगस्त, 2013।

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