भग्न वीणा -रामधारी सिंह दिनकर
भग्न वीणा -रामधारी सिंह दिनकर
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कवि | रामधारी सिंह दिनकर |
मूल शीर्षक | 'भग्न वीणा' |
प्रकाशक | लोकभारती प्रकाशन |
प्रकाशन तिथि | 1 जनवरी, 2008 |
ISBN | 978-81-8031-334 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 167 |
भाषा | हिन्दी |
विधा | कविता संग्रह |
मुखपृष्ठ रचना | सजिल्द |
विशेष | रामधारी सिंह 'दिनकर' की 'भग्न वीणा' में संग्रहित की गईं कविताएँ परम सत्ता के प्रति निश्चल भावना से समर्पित हैं। |
भग्न वीणा हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक, कवि एवं निबंधकार रामधारी सिंह 'दिनकर' की सुभाषितों से भरी ऐसी विचार प्रधान कविताओं का संकलन है, जिसमें महाकवि के जीवन के उत्तरार्द्ध की दार्शनिक मानसिकता के दर्शन होते हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 2008 में लोकभारती प्रकाशन द्वारा किया गया था।
कविताएँ
राष्ट्रकवि दिनकरजी के इस संग्रह में संग्रहित की गईं कविताएँ परम सत्ता के प्रति निश्चल भावना से समर्पित हैं। मनुष्य–मन की विराटता का यहाँ परिचय होता है। नई साज-सज्जा और सरल सुबोध भाषा-शैली में प्रकाशित यह कृति सभी प्रबुद्ध पाठकों के लिए पठनीय है।[1]
कवि निवेदन
कई मित्रों ने पूछा है और मैं भी अपने-आपसे पूछता हूँ ऐसी कविताएँ मैं क्यों लिखने लगा हूँ। जवाब मुश्किल से बनेगा। कविता मेरे बस में नहीं है, मैं ही उसके अधीन हूँ। पहले उस तरह की कविता आती थी, तब वैसी लिखता था, अब इस तरह की आ रही है, इसलिए ऐसी लिखता हूँ। 'परशुराम की प्रतीक्षा' सन 1963 ई. में निकली थी। ‘कोयला और कवित्य’ का प्रकाशन सन 1964 ई. हुआ। उसी साल लारेन्स का आश्रय लेकर मैंने कुछ नए ढंग की कविताएँ लिखी, जो ‘आत्मा की आँखें’ नाम से निकलीं। उसके बाद मैं लगभग मौन हो गया। महसूस होता था कि कवित्व मुझे छोड़कर चला गया, मेरे भीतर अब कोई कविता नहीं है, जो बाहर आयेगी।
तब कई वर्षों के बाद वे छोटी-छोटी कविताएँ आने लगीं, जिनका संकलन वर्तमान संग्रह में हुआ है। लगता है, ‘आत्मा की आँखें’ लिखते समय मैंने जिस शैली का प्रयोग किया था, वही शैली इन कविताओं का आधार बन गयी है। केवल कवि कविता नहीं रचता, कविता भी बदले में कवि की रचना करती है। कुछ मित्र ‘हारे को हरि नाम’, इस नाम से भी चौंके हैं। किंतु पराजित मनुष्य और किसका नाम ले? जिन्हें मेरे पराजित रूप से निराशा हुई है, उन मित्रों से मैं क्षमा माँगता हूँ।
मैंने अपने आपको
क्षमा कर दिया है।
बन्धु, तुम भी मुझे क्षमा करो।
मुमकिन है, वह ताजगी हो,
जिसे तुम थकान मानते हो।
ईश्वर की इच्छा को
न मैं जानता हूँ,
न तुम जानते हो।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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