व्यक्तित्व का विकास -स्वामी विवेकानन्द

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व्यक्तित्व का विकास -स्वामी विवेकानन्द
'व्यक्तित्व का विकास' पुस्तक का आवरण पृष्ठ
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लेखक स्वामी विवेकानन्द
मूल शीर्षक व्यक्तित्व का विकास
अनुवादक स्वामी विदेहात्मानन्द
प्रकाशक रामकृष्ण मठ
प्रकाशन तिथि 1 जनवरी, 2006
देश भारत
भाषा हिंदी
मुखपृष्ठ रचना अजिल्द

‘व्यक्तित्व का विकास’ स्वामी विवेकानन्द की एक पुस्तक है। वास्तविक ‘व्यक्तित्व’ किसे कहते हैं, इस विषय में हम लोग काफी अनभिज्ञ हैं। हम यह नहीं जानते कि व्यक्तित्व के विकास का संबंधी हमारी मूल चेतना अथवा हमारे ‘अंह’ से है। अतः देखने में आता है कि व्यक्तित्व के विकास के नाम पर केवल बाहरी दिखावटी रूप पर ही बल दिया जाता है। इस पुस्तक में इसी विषय पर स्वामी विवेकानन्दजी के उपयुक्त विचार प्रस्तुत कर रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द साहित्य से उपरोक्त विचारों का संकलन किया गया है। यह पुस्तक Personality Development नाम से रामकृष्ण मठ, मैसूर ने प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में अध्यक्ष, रामकृष्ण मठ, मैसूर ने प्रारम्भिक भूमिका लिखी है। यह भूमिका हमने यथावत् अनूदित की है। इस अनुवाद का कार्य रामकृष्ण मिशन, रायपुर के स्वामी विदेहात्मानन्द ने किया है।

आप ही अपना उद्धार करना होगा। सब कोई अपने आपको उबारे। सभी विषयों में स्वाधीनता, यानी मुक्ति की ओर अग्रसर होना ही पुरुषार्थ है। जिससे और लोग दैहिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वाधीनता की ओर अग्रसर हो सकें, उसमें सहायता देना और स्वयं भी उसी तरफ बढ़ना ही परम पुरुषार्थ है। ---स्वामी विवेकानन्द

भूमिका

अंग्रेज़ी के कैम्ब्रिज अन्तर्राष्ट्रीय शब्दकोश के अनुसार ‘आप जिस प्रकार के व्यक्ति हैं, वही आपका व्यक्तित्व है और वह आपके आचरण, संवेदनशीलता तथा विचारों से व्यक्त होता है।’ लांगमैंन के शब्दकोष के अनुसार ‘किसी व्यक्ति का पूरा स्वभाव तथा चरित्र’ ही व्यक्तित्व कहलाता है। कोई व्यक्ति कैसा आचरण करता है, महसूस करता है और सोचता है; किसी विशेष परिस्थिति में वह कैसा व्यवहार करता है। यह काफी कुछ उसकी मानसिक संरचना पर निर्भर करता है। किसी व्यक्ति की केवल बाह्य आकृति या उसकी बातें या चाल-ढाल उसके व्यक्तित्व के केवल छोर भर हैं। ये उसके सच्चे व्यक्तित्व को प्रकट नहीं करते। व्यक्तित्व का विकास वस्तुतः व्यक्ति के गहन स्तरों से सम्बन्धित है। अतः मन तथा उसकी क्रियाविधि के बारे में स्पष्ट समझ से ही हमारे व्यक्तित्व का अध्ययन प्रारम्भ होना चाहिए।</ref>[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सार्वलौकिक नीति तथा सदाचार (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 23 जनवरी, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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