हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति के तत्त्व -डॉ. शिवनंदन प्रसाद

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लेखक- डॉ. शिवनंदन प्रसाद

          प्रस्तुत निबंध में हिन्दी से तात्पर्य उस भाषा या भाषा परिवार से है जो भारत की राष्ट्रभाषा है, जो प्राचीन ग्रंथों के मध्य प्रदेश कहे जाने वाले विशाल भूभाग की (जिसके अंदर बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली समाविष्ट हैं) प्रधान साहित्यिक भाषा रही है और जिसके अंतर्गत मगही, भोजपुरी, मैथिली, अंगिका, बज्जिका, नगपुरिया, छत्तीसगढ़ी, अवधी, ब्रजभाषा, बुंदेलखंडी, बघेली, मालवी, मेवाती, मारवाड़ी, हरियाणवी, गढ़वाली, पहाड़ी, खड़ी बोली आदि अनेक बोलियाँ सम्मिलित हैं।
          साहित्य से हमारा तात्पर्य ललित साहित्य (कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध, रिपोर्ताज आदि) के रचनात्मक रूपों से है, साहित्य के इतिहास, उसकी सैद्धांतिक या व्यावहारिक समीक्षा आदि अथवा वैज्ञानिक साहित्य (भौतिक रसायन आदि) अथवा समाजशास्त्रीय साहित्य (विधि, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि) से नहीं।
          ‘सामासिक संस्कृति’ - यह पद भारतीय संविधान के हिन्दी अनुवाद से उद्धृत है। यहां यह पद अंग्रेज़ी के ‘कंपोजिस्ट कल्चर’ के लिए प्रयुक्त होता है। दरअसल इस पद पर थोड़ा विचार करना होगा। समास का अर्थ होता है योग या मेल। सामासिक संस्कृति दो या दो से अधिक संस्कृतियों का मिलनमात्र नहीं है। सामासिक का अर्थ है - मिलकर एक हो जाने वाली। जब दो या दो से अधिक संस्कृतियां मिलती हैं तब दो प्रकार की क्रियाएं होतीं हैं। संस्कृतियों के कुछ तत्व ऐसे होते हैं - चाहे वह धर्मभावना हो, कला रुचि हो, साहित्य परंपरा हो या भाषा हो - जो मिलने वाली विभिन्न संस्कृतियों में समान रूप से स्वीकृत हो जाते हैं। उन तत्वों का अजनबीपन जाता रहता है। वे इन सभी संस्कृतियों में खप जाते हैं। दूसरी ओर कुुछ तत्व ऐसे भी होते हैं जो कभी संस्कृतियों में समान रूप से स्वीकृत नहीं होते वे विभिन्न संस्कृतियों में अलग अलग या तो बने रहते हैं या कालांतर में विलीन हो जाते हैं। व्यापक रूप से जो विभिन्न तत्व सभी संस्कृतियों में स्वीकृत हो जाते है, यदि उनके परिणाम और प्रकार अनुकूल हुए तो वे कुल मिलाकर एक अपेक्षाकृत नई संस्कृति चेतना को रूप देते हैं, जिसे हम सामासिक संस्कृतिक चेतना कह सकते हैं। संस्कृतियों के समास होने पर कोई आवश्यक नहीं है कि समस्त संस्कृति (सामासिक संस्कृति) में विभिन्न पूर्ववर्ती संस्कृतियों के अवशेषांश अलग अलग नहीं दिखाई पड़ेंगे। सामासिकता सापेक्ष शब्द हैं - ‘प्रधान्येन व्यपदेशा भवन्ति।’
          संस्कृति (=सम्+कृ+क्तिन्+सुट्) व्यक्ति चेतना की सम्यक् क्रियाशीलता का सामाजिक तथा सामासिक रूप है। ऐसा भी होता है कि व्यक्ति चेतना अपने उत्कर्ष तथा ऊर्जा के फलस्वरूप समाज चेतना पर आच्छादित हो जाए, जैसे तब होता है जब कोई बड़ा दार्शनिक, विचारक, महर्षि अथवा युग पुरुष नेता समाज को विशेष दिशा में गतिशील करने में समर्थ होता है, बुद्ध, शंकर, तुलसीदास, भारतेंदु, गांधी ऐसे ही युगपुरुष थे। व्यक्ति में जो सर्वश्रेष्ठ है, जब वह समाजीकृत होता है तो संस्कृति के तत्व रूपायित होते हैं। विचार वैयक्तिक प्रक्रिया है। व्यक्ति विशेष के जागरुक मन मे विचार उत्पन्न होते हैं। भाषा तथा अन्य साधनों द्वारा ये विचार व्यक्त होकर समजीकृृत होते हैं। चिंतन धाराओं को प्रवर्तित करने वाले या विचारजगत् में नेतृत्व करने वाले मनीषियों की व्यकित चेतना समाज द्वारा स्वीकृत होकर समाज चेतना बन जाती है, और सामाजिक संस्कृति को रूप देती है। अनेक सामाजिक संस्कृतियों का जब योग होता है, उनका ऐसा मिलन होता है जिसमें बहुत दूर तक दोनों या अनेक संस्कृतियां मिलकर एक हो जाएं सामासिक संस्कृति का स्वरूप सामने आता है। साहित्य के ऊपर संस्कृतियों की समासिकता का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता और इसीलिए संप्रति साहित्य वह सहज साधन है, जिसके द्वारा सामासिक संस्कृति के प्रमुख तत्वों को हम एक सीम तक जानने समझने का प्रयत्न कर सकते हैं।
          हमारा देश भारतवर्ष अनेक संस्कृतियों की मिलन भूमि रहा है। आर्य अनार्य (विशेषकर द्रविड़), हिन्दू-मुस्लिम, पाचय-पाश्चात्य प्रभृति अनेक संस्कृतियां यहां पनपीं और एक दूसरे को प्रभावित तथा अनुप्राणित करती रहीं। इनमे परस्पर किस प्रकार का मेज जोल, सामंजस्य -समन्वय घटित हुआ है और किन विशेष तत्वों को लेकर मात्र संतुलन या समाहार की स्थिति बनी रही, इसका सम्यक् दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य के इतिहास के पृष्ठों में अपेक्षित है। किंतु खेद है कि अब तक जितने साहित्येतिहास ग्रंथ लिखे गये हैं उनमें से किसी में भी इस दृष्टिकोण का सम्यक् अनुसरण नहीं हुआ है।
          अतः यह संक्षिप्त प्रयास, जो अपनी लघुता के कारण इस दिशा में संकेतक मात्र हो सकता है। हिन्दी साहित्य के इतिहास का आदिकाल देखें। आदिकाल में हम एक साथ अनेक साहित्यिक प्रवृत्तियों के दर्शन करते थे - बौद्ध, ब्रजयानी साहित्य परंपरा में लिखित अपभ्रंश सिद्ध साहित्य (सरहपा आदि) अपभ्रंश जैन प्रबंध काव्य (स्वंयभू, पुष्पदंत्त आदि) अपभ्रंश विशुद्ध श्रंगार काव्य (अब्दुल रहमान), अवधी प्रमाख्यान काव्य (मुल्ला दाउद), मैथिली कृष्ण काव्य (विद्यपति), राजस्थानी चरण काव्य, (चंदबरदाई, जगतिक), खड़ी बोली मनोरंजन काव्य (अमीर खुसरो आदि) इन अनेक प्रवृत्तियों में अनेक धार्मिक सांस्कृतिक चिंता धाराओं के एक साथ अस्तित्व का परिचय तो मिलता ही है। भारतीय सामाजिक जीवन में यह काल विभिन्न संस्कृतियों के मिलन का काल कहा जा सकता है, समास का नहीं। संस्कृतियां एक दूसरे से मिलीं, उनके बीच सह अस्तित्व की स्थिति बनी रही, पूरी तरह न तो किसी एक संस्कृति में दूसरी का अध्याहार हुआ, न उनके तत्व मिलकर एक समस्त संस्कृति को जन्म दे सके। इस संक्रांति काल में संस्कृतियों का समास पूर्णतयः घटित हुआ नहीं दीखता है। केवल समस्त संस्कृति के निर्माण की पूर्व पीठिका प्रस्तुत दीखती है। बज्रयानी बौद्ध सिद्ध साहित्य और अपभ्रंश जैन साहित्य एक साथ लिखे जा रहे थे, कभी कभी तो एक ही भूभाग में, फिर भी इसमें दो विभिन्न सांस्कृतिक चेतनाएं व्यक्त हुईं हैं। सिद्ध साहित्य में ईश्वर का स्थान शून्य ने लिया है। बज्रयानी सिद्धों ने धर्म के रूढ़ परंपरागत बाह्याडंबरों पर हठपूर्वक कुठाराघात भी किया है। उन्होंने ईश्वर पर शून्य की प्रतिष्ठा की:
सुण्णहिं संगम कहहि तुहु जहिं तहिं समन्तिस्य।
अंतस्ससाधना पर बल दियाः
जहि मन पवन न संचरइ, रवि ससि नाहिं पवेस।
तहि बढ़ चित्त बिसम्भ करू, सरहे कहिअ उवेस।।
वेद शास्त्र के ज्ञान को सर्वथा व्यर्थ ठहराया:
बम्हणेहि ण जाणन्तहि भेउ।
एव्वइ पठिअउ एच्यउ वेउ।।
तीर्थव्रतों की अवहेलना की है:
धर्मो यदि भवेत स्नानात् कैवर्तानाम् कृतार्थता।
नक्तं दिव प्रविष्ठानां मत्सयादीनाम् तं का कथा।।
धर्म के बाह्याचारों का खंडन किया है:
मट्टि पाणिकुसलई पठंत।
घर ही बइसी अग्णि हुणंत।
कज्जे विरहइ हुअवह होमे।
अक्खिउहाविअ कडुए धूमे।।
गुरु का महत्व प्रतिपादित किया है
गुरुर्बुद्धो भवेद धर्मः संघश्चापि स एवहि।
प्रसादाद् ज्ञायते तस्य यस्प रत्नन्नयं वरम्।।
अथवा
गुरु उबएसे अभिय रसु घाव पीअऊ जेहि।
बहु सत्थत्थ मरुथलहि तिसिए मरिअउ तेहि।।
किंतु साथ ही अनधिकारी ठग गुरुओं से सावधान भी किया है:
जावण अप्प जणिज्जई तावण सिस्स करेई।
अंधे अंध तिम वेण्ण वि कुप्प परेइ।।
यह भी ध्यातव्य है कि सिद्धों ने धर्म के कष्टसाध्य नियमों को त्याग कर जीवन के प्रति सहज स्वाभाविक दृष्टिकोण अपनाने का अग्रह किया जिसका परिणाम यह हुआ कि इन्द्रिय सुखोपभोग की प्रवृत्ति का अतिसय विस्तार हुआ:
सम्भोगार्थमिदं सर्वं त्रैधातुकमशेषतः।
निर्मितं बज्रनाथेन साधकानां हिताय च।।
भक्ष्यायस्यविनिर्मुक्तः पेयापेय विवर्जितः।
गम्यागय विनिर्मुक्तो भवेद्योगी समाहितः।।
हम देखते हैं कि दन पंक्तियों में व्यक्त विचार ‘योगश्चित वृत्ति निरोधः’ अथवा ‘योगः कर्मसु कौशल’; से कितना भिन्न है। कौशल में नियंत्रण का भाव तो है ही, सहज भोग की प्रवृत्ति का वहां भी वर्जन है।
          मध्यकालीन अपभ्रंश के जैन साहित्य में भी अनीश्वरवादी दृष्टिकोण व्याप्त है। बौद्ध और जैन दानों अनीश्वरबादी थे, किंतु जैन साहित्य में भोग द्वारा निर्वाण की भावना की सुपुष्टि नहीं मिली ?; उसमें कृच्दसाध्य नियमों का पालन और तपश्चर्या पर बल दिया गया है। भक्ष्याभक्ष्य का सेवन सिद्धों ने वैध माना तो जैन धर्मावलंबियों ने अहिंसा को महत्व दिया। स्वंयभू के ‘पउम-चरिउ’ तथा ‘रिट्ठणेमि चरिउ’ (हरिवंश पुराण), पुष्पदंत के ‘तिसट्ठि महापुरिस गुणालंकार’ (महापुराण), ‘णायकुमार चरिउ’ तथा ‘जसहर चरिउ’, धनवाल के ‘भविययत कहा’, मुनि कन कामर के ‘करकंड चरिउ’, धाहिल के ‘पद्म सिरी चरिउ’, पद्मकीर्ति के ‘पास चरिउ’ आदि अनेक जैन प्रबंध काव्यों में यही दिखलाया गया है कि चरम सुख शांति की दृष्टि से व्रत और संयम से युक्त जीवन तथा अहिंसा और परोपकार का मार्ग ही अनुसरणीय है। भोग का मार्ग अपनाने की परिणति अंततः दुःख में होती है।
          भारत की प्राचीनतर परंपरागत संस्कृति की विद्रोहिणी शाखाएं बौद्ध और जैन हुईं, जिनमें जैनियों में विद्रोह की भावना से अधिक सांस्कृतिक अनुकूलन (एडैप्टेशन) की भावना दिखाई पड़ी। भारतीय परंपरागत संस्कृति के दो प्रमुख आधारस्तंभ हैं-वेद और पुराण। सिद्धों ने इनके प्रभाव का बहिष्कार किया, जैनियों ने प्रचलित पौराणिक कथाओं को लेकर काव्य लिखे यद्यपि उन कथाओं में जैन धर्म के सिद्धांतों की दृष्टि से यथेच्छ परिवर्तन अनुकूलन भी किए।
          आदिकाल में सिद्ध और जैन साहित्य समानांतर रूप से स्पष्टतः दो सांस्कृतिक चेतनाओं का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जिनका समासीकरण हुआ नहीं था किंतु जिनका समाहार भारतीय जीवन धारा में हुआ दिखाई देता है। समाहार के दीर्घकालीन होने पर अवांतर प्रभाव और सामांजस्यीकरण का न होना अस्वाभाविक है। इसलिए यह स्थिति पूर्व पीठिका कही जा सकती है।
          यदि हम इस युग के लोकभाषा साहित्य का अवकोलन करें तो हमें सांस्कृतिक चेतना के वैविध्य दर्शन होंगे। एक ओर राजस्थानी चारण काव्य में वीर रस के साथ लौकिक शृंगार रस की अभिव्यक्ति दिखाई पड़ती है तो दूसरी ओर विद्यपति के राधाकृष्ण प्रेम के ऐहिक वर्णन में आमृष्मिक की अगरू गंध अनुभूत होती है। मुल्ला दाउद के चंद्रायन (लोरकहाचारण साहित्य) में जहां लोककथा (फोक) का अंचल पकड़ कर चलने का प्रयास है वहां अमीर खुसरो भी लोक जीवन के अत्यंत निकट आकर मनोरंजन साहित्य (पहेलियां, मुकरयां) की सृष्टि की गई है। जहां राजाओं और दरबारों की मान्यता मे फलाफूला है वहां खुसरो और मुल्ला दाउद में लोकोन्मुखी प्रवृत्ति के दर्शन विशेष रूप से अर्थपूर्ण हैं। दरबारी संस्कृति और लोक संस्कृति के बीच भक्तिकाल में जो समन्वय घटित हुआ उसकी पीठिका हम आदिकाल की इस स्थिति को मान सकते हैं।
          आदिकाल के दौरान इस्लाम भारत में आ चुका था, लेकिन इस्लामी संस्कृति की देश में ऐसी प्रतिष्ठा नहीं हो पाई थी ताकि साहित्य में उसका स्पष्ट बिंब दिखाई पड़ता। फिर भी क्रमशः अवधी और खड़ी बोली में लिखने वाले मुल्ला दाउद और अमीर खुसरो उस सांस्कृतिक समन्वय को पूर्वभासित करते हैं जो भक्तिकाल में ही प्रभावी रूप से घटित हुआ है।
          दीर्घकालीन साहचर्य के फलस्वरूप विभिन्न संस्कृतियों के तत्वों का समासीकरण हो जाता है और एक समस्त अथवा सामासिक संस्कृति का उदय होता है, इसके जीवंत उदाहरण मध्यकालीन भक्ति साहित्य में सुलभ हैं पहले तो भक्ति आन्दोलन ही उदीच्य (आर्य) और दाक्षिणात्य (द्रविड़) संस्कृतियों के समासीकरण की उपज है। भक्ति आन्दोलन के प्रायः सभी वरिष्ठ आचार्य-रामानुज, निम्बार्क, विष्णु स्वामी, मध्व, वल्लभ, रामानंद आदि दक्षिण भारत के थे, संस्कृत के प्रकांड पंडित थे और महान दार्शनिक और विचारक थे। ये सब उत्तर भारत आए और इन्होंने भक्ति का प्रचार किया। उत्तर भारत के कवियों, बंगाल से लेकर महाराष्ट्र तक, इन भक्ति सिद्धांतों को गीत में परिणत कर दिया, सूखे दार्शनिक विचारों को सरस काव्य का रूप दिया और ये काव्य घर-घर में स्त्री-पुरुष, बाल-बृद्ध सभी के हृदय में घर कर गये। उक्ति प्रसिद्ध है:
भक्ति द्राविड़ ऊपजी लाये रामानंद।
परगट किया कबीर ने सप्त दीप नवखंड।।
          भक्तिकालीन काव्य की चार प्रमुख शाखाएं बतायी जाती हैं, दो निर्गुण और दो सगुण। निर्गुण शाखाओं में संत कावय और प्रेम काव्य, सगुण शाखाओं में रामकाव्य और कृष्ण काव्य -साहित्येतिहास लेखकों ने ऐसा विभाजित किया है।
          पहले संत काव्य को देखें। संत काव्य आदि कालीन सिद्धसाहित्य का परिवर्ती विकास कहा जाता है। किंतु सांस्कृतिक दृष्टिकोण से हम सिद्धसाहित्य और भक्तिकालीन संत साहित्य में एक तात्विक अंतर पाते हैं। जबकि सिद्ध साहित्य अनीश्वरवादी है, संत साहित्य ईश्वरवादी है। और फिर भी, सिद्ध साहित्य परंपरागत भारतीय दार्शनिक चिताधारा (वेद, उपनिषद, पुराण) से विछिन्न है, संत साहित्य उस परंपरा की ही शाखा वेदांत को किसी न किसी रूप में ग्रहण करके चलता है। संत कवि कबीर ने वेदांत का अद्वैतवाद भी स्वीकार किया और साक्षेप रूप से (निर्गुण) राम को भी अपने उपास्य के रूप में स्वीकार किया है। कबीर में इन तीन सांस्कृतिक तत्वों का समन्वय स्पष्ट रूप से परिलक्षित है:
(1) वेदांत का अद्वैतवाद (साक्षेप धरातल पर निर्गुण निराकार राम भक्ति की स्वीकृति के कारण विशिष्टाद्वैतवाद) माध्यम, रामनंद।
(2) हठयोग माध्यम, नाथपंथ, जा बौद्ध बज्रायन का विकसित रूप होत हुए भी ईश्वरवादी शैवमत और पातंजल योग दर्शन से प्रभावित हैं।
(3) सूफी प्रेमत्व, माध्यम इस्लाम का उदारवादी पक्ष सूफी संप्रदाय। इन तीनों के उदाहरण कबीर की बाणियों में प्राप्य हैं:
जल में कुंभ कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जलहि समाना यह तथ कहै गियानी।।
अथवा
दरियाव की लहर दरियाव है जी
दरियाव औ लहर मे भिन्न कोयम।
उठे तो नीर है बैठे तो नीर है
कहो दूसरा किस तरह होयम।।
          बाद की दो पंक्तियां तो (मध्यकालीन) भारतीय समासिक संस्कृति की पोषण प्रतिनिधि पंक्तियां कही जा सकतीं हैं क्योंकि मुसलमान फकीर कबीर ने वेदांत के मूलभूत दर्शन (अद्वैतवाद) की विवृति तो इन पंक्तियों में की है, साथ ही भाषा में भी दरियाव और नीर जैसे फारसी और संस्कृत के पदों का सहज भाव से प्रयोग किया है। आदिकाल में जिस सांस्कृतिक समेकन की भूमिका तैयार हो रही थी कबीर तक आते आते वह पूरी हो गई दीखती है। कबीर वाङ्मय में निहित दूसरा सांस्कृतिक तत्व है हठयोग। कबीर ने हठयोग को ग्रहण किया नाथपंथ के माध्यम से। नाथपंथ पर शैव प्रभाव भी पड़ा था। वज्रयानी सिद्धों की तरह परमतत्व की अनिवार्यता का सिद्धांत नाथपंथ में भी स्वीकृत हुआ था, किंतु शून्य का स्थान शिव ने ले लिया था:
शिवं न जानामि कथं बदामि।
शिवं च जानामि कथं कदामि।।
  कबीर में हम हठयोग साधना और तत्संबंधी अनुभूति का वर्णन उत्कृष्ट रूप में प्रतीकात्मक भाषा में पाते हैं:
गगन गरजि बरसै अभी बादर गहिर गंभीर।
चहुं दिसि दमकै दामिनी भीजै दास कबीर।।
ब्रह्मस्ंध में अनहद नाद, ब्रह्म ज्योति का प्रकटीकरण, कुंडलिनी द्वारा अमृतपान, समाधि अवस्था के ये अनुभव कबीर ने जिस स्वाभिकता के साथ वर्णित किये हैं उसे देखते हुए डाॅ० हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह कथन उचित ही प्रतीत होता है कि संभवतः कबीर का जन्म योगियों के किसी सद्यः धर्मांतरित परिवार में हुआ था और इसलिए इस्लामी सूफीवाद में गति के साथ योगियों के परंपरागत संस्कार भी उनमे जन्मना बद्धमूल थ। सूफी प्रेमतत्व भी कबीर की वाणी के माध्यम से राम का अवलंबन लेकर व्यक्त हुआ है:
दुलहिनीं गावहु मंगलचार, हम घर आए हो राजा राम भरतार।।
यह भी भारत की मध्यकालीन संस्कृति की सामासिकता की ओर संकेत करने वाली बात है।
          निर्गुण भक्ति साहित्य की दूसरी शाखा है प्रेमाख्यानक काव्य की शाखा, जिसके सबसे बड़े कवि मलिक मुहम्मद जायसी कहे जाते हैं। जायसी मुसलमान थे लेकिन अपने काव्य में उन्होंने जिस ठेठ अवधी का प्रयोग किया है वह उस क्षेत्र के तद्युगीन जनसाधारण की भाषा थी, जनसाधारण की, जो मानसिकता की दृष्टि से न हिन्दू होता है न मुसलमान, वह मनुष्य होता है, मजदूर होता है, व्यवसायी होता है या और कुछ होता है। भाषा -भेद, संप्रदाय-भेद या वर्ग भेद शायद पंडितों की अपजी ईजाद है। लोकधरातल पर पहुंचने पर ये कृत्रिमताएं अपने आप विलीन हो जातीं हैं। जायसी ने लोकधरातल पर पहुंचकर कविता की। न केवल उनकी भाषा लोक भाषा (फोक लैंग्वेज) थी, बल्कि उनका विषय भी लोकजीवन के बीच सुदीर्ध मौखिक परंपरा से चली आती हुई कथा (फोक लोर) थी। हिन्दू मुस्लिम सांस्कृतिक सामासिकता का क्या जायसी का पद्मावत ज्वलंत उदाहरण नहीं है ? पद्मावत का डाॅ० गणपति चंद्र गुप्त ने ‘मसनवी’ शैली मे निबंध नहीं माना है और सूफी सिद्धांतों के प्रचार के लिए लिखित काव्य माना है। ये पद्मावत को ऋग्वेद (पुरूरवा-उर्वशी प्रसंग), महाभारत (नल दमयंती प्रसंग), हरिवंश पुराण (ऊषा अनिरुद्ध प्रसंग), कथा सारित सागर, बृहतकथामंजरी आदि के माध्यम से चली आती हुई विवाहपूर्व (अथवा विवाहेतर) प्रेम कथाओं की परंपरा की एक परिणति मात्र मानते हैं। फिर भी पद्मावत में सूफी विचार जहां तहां बिखरे मिलते हैं और शैली में भी साहित्य दर्पणकार द्वारा निर्दिष्ट सर्गबद्ध शैली के बदले मसनवी शैली का अनुकरण अवश्य है। इसलिए हमें यह कहने में संकोच नहीं है कि जायसी का पद्मावत मध्यकालीन संस्कृति सामासिकता का एक उत्कृष्ट उदाहरण कहा जा सकता है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि जायसी ने अल्लाह के स्मरण के बाद पैगम्बर को भी स्मरण किया है। साथ ही एक बात और, पद्मावत में फारसी काव्य शैली और भारतीय काव्य शैली का समवेत रूप दिखलाई पड़ता है। वस्तु, भाषा आदि भारतीय हैं किंतु कई वर्णन परिपाटियों में फारसी (इस्लामी) रंग स्पष्ट है। भारत में शृंगार रस के प्रसंग में नखशिख वर्णन की परंपरा रही है - नख से प्रारंभ कर शिख तक के सौंदर्य का वर्णन करते हैं। पद्मावत में फारसी सूफी काव्यों की तरह शिख-नख वर्णन है:
प्रथमहिं सीस कस्तूरी केसा। बलि बासुकी को और नरेसा।
भंवर केस वह मालिनि रानी। बिसहर तुरहिं लेहिं अरधानी।।
अतएव यह नहीं कहा जा सकता कि पद्मावत काव्य इस्लामी संस्कृति से सर्वथा अछूता रह गया है। उपमानों में भी यह फारसी प्रभाव जहां तहां दिखाई पड़ता हैः
विरह सरागनि भूंजे मांसू।
गिरि गिरि परै रकत के आंसू।।
          मध्यकालीन भारतीय सामासिक संस्कृति के उदाहरण रामकाव्य और कृष्णकाव्य में भी मिलेंगे। रामकाव्य के सर्वश्रेष्ठ तुलसीदास को एक ओर लोकनायक कहा गया है तो दूसरी ओर महान समन्वयकारी माना गया है। तुलसीदास ने तद्युगीन प्रचलित तू-तू मैं-मैं वादी धार्मिक संप्रदायों के समन्वय का प्रयास रामचरितमानस, कवितावली आदि में किया है। शैव और शाक्त, शैव और वैष्णव, शाक्त और वैष्णव ये परस्पर एक दूसरे के विरुद्ध कटिबद्ध रहते थे। इनका अपना संघर्ष शास्त्र के धरातल से उतर कर शस्त्र के धरातल तक पहुंच चुका था। इस विघटनकारी प्रवृत्ति को रोकने का लोकमंगलकारी प्रयत्न यदि प्रभावी ढंग से किसी ने किया तो गोस्वामी तुलसीदस ने। उन्होंने रामचरितमानस में रामकथा के आदि रचयिता शिव को माना है:
रचि महेस निज मानस राखा।
पाई सुसमय सिया सन भाखा।।
इतना ही नहीं उन्होंने शिव को रामभक्त दिखलाकर और राम को शिव भक्त दिखलाकर शैव और वैष्णव संप्रदायों के स्थायी ऐक्य के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया। तुलसी विष्णु के अवतार राम के उपासक थे किंतु राम की स्तुति के पहले उन्होंने शिव की स्तुति मानस में की है। मानस का प्रारम्भ संस्कृत अनष्ट्य श्लोकों में मंगलाचरण से होता है। प्रथम श्लोक में वाणी और विनायक की वंदना है, और दूसरे श्लोक में वंदना है, भवानी शंकर की:
भवानी शंकरी वंदे श्रद्धाविश्वास रुपिणी।
याभ्यां न पश्चंति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरम।।
वैष्णव शाक्त समन्वय के अतिरिक्त तुलसी ने ब्रह्म के सगुण और निर्गुण स्वरूपों मे भी समन्वय उपस्थित किया, ज्ञान और भक्ति में भी समन्वय घटित किया:

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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