सदस्य वार्ता:दिनेश सिंह

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सुझाव पर विचार

दिनेश सिंह जी, आपके दिये सुझाव पर भारतकोश टीम शीघ्र ही विचार करके आपको अवगत कराएगी। ‍‍ गोविन्द राम - वार्ता 19:52, 9 अगस्त 2014 (IST)

अन्तःद्वन्द -भाग-७-दिनेश सिंह
 
हाय रोता रहा सकल उम्र तू
निज पीड़ा का अम्बार लिए
तेरी पीड़ा से अधिक विकट
जी रहा है ये संसार लिए

आँसू ही आँसू मिला जगत से
नहीं जग से जिनको प्यार मिला
जिन्हे मात्र प्रलोभन दिखलाकर
बस स्वप्न भरा संसार मिला

जिन्हे बार बार अति लोभन की
और भांति भांति रोटी फेंकी
उस मूक वेदना के सम्मुख
तू बस अपनी पीड़ा देखी

मुख मूक वेदना देखा
चलें ! लिए ताप ज्वालाएँ
निर्मोहि वेदने अश्रुमयि
धरे वच्छ शीलायें

हर नई भोर बस एक सवाल
क्या मिटे भूंख फिर एक बार
हाँ चुगे परिंदा नित दाना
नित नई भोर का इन्तजार

जिन्हें स्वाभिमान से जीना
स्वप्निल ज्यों बनी कहानी
बंद ! साहूकार की मुट्ठी
याचक की चित्त हथेली

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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मन की व्यथा -दिनेश सिंह

कितना सुंदर होता की हम
एक सिर्फ इन्सां होते
न जाती पाती के लिए जगह
न धर्मो के बंधन होते

शोर मचा है धर्म धर्म का
कौम कौम का लगता नारा
इस चलती कौमी बयारी में
उन्मय उन्मय जन मानस सारा

जो घूम रहा था शहर शहर
पहुँच रहा अब गाँव गाँव में
वो कौम बयारी जहर घोलते
महकती स्वच्छ हवाओं में

क्या सुलझेंगी ये मानस की गांठे घनेरी
क्या रोशन होंगी ये गलियाँ अंधेरी
क्यों बुझ जाती है गूंज आखिरी
इस उन्मन उन्मन पथ के ऊपर

प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको -दिनेश सिंह

प्रथम द्रश्य देखा जब तुमको
था ऋतू बसंत फूलों का उपवन
छुई मुई के तरु सी लज्जित
नयनो का वो मौन मिलन

कम्पित अधरों से वो कहना
नख से धरा कुदॆर रही थी
आँखों मे मादकता चितवन
साँसों का मिलता स्पंदन

भटक रहा था एकाकी पथ पर
पथ पाया-जब मिला साथ तुम्हारा
ह्रदय शुन्य था उत्सर्ग मौन
खिल उठा पाकर स्पर्श तुम्हारा

ह्रदय के गहरे अन्धकार में
मन डूबा था विरह व्यथा में
छूकर अपने सौन्दर्य ज्योति से
फैलाया उर में प्रकाश यौवन

कितने सुख दुःख जीवन में हो
नहीं मृत्यु से किंचित भय
आँखों के सम्मुख रहो सदा जो
औ प्रीति रहे उर में चिरमय

एक सलोने से सपने में कोई -दिनेश सिंह

एक सलोने से सपने में कोई
नीदों में दस्तक दे जाती है
इन्द्रधनुष सा शतरंगी -
स्वप्न को रंगीत कर जाती है

अद्रशित सी कोई डोर
खीच रही है अपनी ओर
खीचा जाऊं हो आत्मविभोर
रूपसी कौन कौन चित चोर

अधरों में मुस्कान लिए
मुख पर शशी की जोत्स्रना
द्रगो में लाज-मुग्ध-यौवन विद्यमान
तेज रवि सा मुख-छबि-में रुचिमान

आखों का फैलाये तिछर्ण जाल
फंसाकर मेरा खग अनजान चली
जैसे नभ में छायी बदली-
पवन के झोंके उड़ा चली

संध्या सुहावनी-------------------दिनेश सिंह

दिवस अवसान का समय
चला दिनकर जलधि की गोद
हो गया स्वर्ण सा अम्बर लोल
दिये खग-दल-कुल-मुख खोल
ध्वनिमय हो गयी हिंदोल

गो वेला का समय-गोधुल नभमंडल में उड़ा
गोशावक प्रेमाग्न से-अतिव्याकुल हो रहा
उड़ पखेरू गगन में कर रहे विहारणी
दश दिशा निमज्जित हुई
प्रफुल्लित हुई हरीतिमा

दुर्गम पहाड़ो की शिखा पर
जा चढ़ी छाया पादप विटप
तिमिरांचल में है शांतपन
वेदज्ञाता कर रहे शंध्या नमन

हुई अस्त रवि किरण शैने शैने
कमल में भांवरा बंद हो रहा
विपिन में गर्जना कर रहा वनराज
गिरी कन्दरा में म्रग छिप रहा

गगन से उतरी कर पदचाप निशियामिनी -
हो गयी रवि किरण अंतर्यामिनी
पवन नव-पल्लवित हो गयी
बहने लगी मधुर-म्रदु वातसी

प्रकति की सुन्दर-----------------दिनेश सिंह

प्रकृति की सुन्दरता को देखकर
मन हो जाता है मुदित
बिपिन बिच नभचर का कलरव गूंजता
विविध ध्वनि विहंगावली

कल कल निनाद करती बहती सुरसरी
प्रकति से खेलती हो जैसे अठखली
विविध रंगों से सजी वसुंधरा
बहु परिधान ओढे खड़ी हो जैसे नववधू

कुछ लालोहित हो चले नभ लालिमा
गूंजता है सुर कलापी कोकिला
कुसुमासव सी मधुर आवाज
श्रुतिपटल पर कोई मुरली बजी

निशा का अवसान समीप हो
नवऊयान हो रही हो यामनी
शुन्य पर हो जब वातावरण
पतंगों की गूंज से , जैसे घंटी बजी

चाँद जब चादनी बिखेरे सुमेरु पर
देखते ही बन रही है अनुपम छटा
लग रहा है आज मानो अचल पर
उतर आयी हो फिर से गिरी पर गिरिसुता

लाचार कारवाँ ------------दिनेश सिंह

फिर से बज गया बिगुल
गूंज उठी फिर रणभेरी
अपने अपने रथो में सजकर
निकल पड़े है फिर महारथी

वही रथी है वही सारथी
दागदार है सैन्य खड़ी
 लड़ने को लाचार कारवाँ
कोई अन्य विकल्प नहीं

भरे हुये बातो का तरकश
प्रतिद्वंदी पर करते प्रहार
गिर गिरकर वो फिर उठते है
नहीं मानते है वो हार

बिछा दिया शतरंजी बाजी
ना नया खेल ना चाल नयी
घुमा फिरा कर वही खेल
खेल वही संकल्प वही

बात बात फिर बात वही
वही रंग पर ढंग नयी
भटके पैदल राही अन्धकार में
पर रथियों को अहसास नहीं

रण की नीति बनाकर बैठा
हर योद्धा शातिर मन वाला
कुछ भी कर गुजरेंगे वो
बस मिले जीत की जय माला

खग गीत-दिनेश सिंह

उड़ रे पंछी पंख फैलाकर नील गगन में
तू ही स्वतन्त्र एक इस जग में
कभी इस तरु पर कभी उस तरु पर
चाहे_डाल कही पर डेरा_या कर ले कहीं बसेरा
नहीं किसी का भय तुझको_नहीं किसी के बंधन में

गूंजे ध्वनि-हो जग विपिन मनोरम
बहे मरुत मधुरम मधुरम
ले गीत गन्ध चहुर्दिक उत्तम
गा पिक मधुर गान पञ्चम स्वर में

उड़ रे पंछी पंख फैलाकर नील गगन में

कर नृत्य मुग्ध हो नर्तकप्रिय
बरस उठे बन जल बादल
बहे ह्रदय का अन्धकार
नव प्रभात हो फिर जग में

जागे जग फिर एक बार
हो हरित नवल मसल का संचार
हो स्वप्न सजल सुखोन्माद
फिर हँसे दिशि_अखिल के कण्ठ से
उठे ध्वनि आनन्द में

उड़ रे पंछी पंख फैलाकर नील गगन में

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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अन्तःद्वन्द -भाग-2-दिनेश सिंह

हर रोज सुबह उठकर मेरा मन
एक नई व्यथा लेकर आता
उर पीड़ा को शब्द बनाकर
छंदों का वो जाल बिछाता

था बैठा लिखने प्रेम गीत
पर लेखन इतना बाध्य हुआ
सौभाग्य जगह दुर्भाग्य लिखा
क्लम बाध्य हुई मै बाध्य हुआ

सौभाग्य लिखूं मै किसका
हे देव जरा तुम बतला दो
जल रहा विश्व उसका लिख दूँ
माँ शारद पथ वो दिखला दो

कही जीर्ण जाती कही भेद भाव
कहीं ऊँच नीच की लौ उठती हैं
जल रहें स्वप्न औ उमंगें
आदर्श धूल में मिलते हैं

जल रही नारियां हाय यहांँ
केशव आ चिर बचा लो तुम
ना डोल उठे ये महा मही
महेश्वर इसे संभालो तुम

रो रही मही औ महाकाश
रो रहा देश का अभिमान
हे देव तेरे दरबार तले
रो रहा कृषक का स्वाभिमान

सकल दिशाएं रक्त रंजित
मानवता मर पाषाण हुयी
हिमालय फिर निर्वाक हुआ
निसहाय बह गंग रही

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अन्तःद्वन्द -भाग-3-दिनेश सिंह

जो सच था वो सच हो न सका
यहाँ झूठ को सच होते देखा
हे देव तेरी इस दुनिया में
ना जाने क्या क्या देखा

सच की जीत सदा होती है
यह झूठ हुआ इस युग में भी
यह निष्ठूर झूठ करती म्रदंग
यहाँ सच को मौन खड़े देखा

ओ नीतिकार की नीती देखी
यहाँ देखा धर्म धुरन्धर को
औ उनकी कपटी चालों से
घरों को धु धू जलते देखा

यहाँ देखा उन लोगो को भी
जो आखिर दम तक लड़ते है
अत्याचारी औ पामर से
निर्भीक सामना करते है

उन्हें हार मिले या जीत मिले
चुप रहना उनका काम नहीं
वो पंथ देखकर अति दुर्गम
रुक जाना उनका काम नहीं

जन्म मृत्यु औ यश अपयश
नहीं उनको कोई रोक सके
जीना उनका पहला लच्छ नहीं
मरना आखिर विश्राम नहीं

हर हृदय आग हर हृदय जलन
कब आग बुझेगी ज्ञात नहीं
यदि रात्रि , नहीं ढली अपवादों की
फिर कोई नया प्रभात नहीं

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अन्तःद्वन्द -भाग-४-दिनेश सिंह

खोज रहा था जिसे शुन्य में
खोजा जिसको गृह बन में
उसको मै निज उर में पाया
खोजा जब अपने मन में

राग द्वेष छल काम कपट
यह सब पाया अपने उर में
ज्ञान की गठरी सर रखकर
जो बाँट रहा था घर घर में

यदि कहूँ की मै हूँ पूर्ण-पूर्ण
तो होगी बिलकुल बात गलत
किन्तु बचूँ मै अपवादों से
वो करता हूँ मै कार्य शतत

अखिल भुवन के कण कण से
यदि पूछ सको तो पूंछो तुम
सर्वोत्तम फूल कौन इस जग में
पावोगे उत्तर एक मानव तुम

ईर्ष्या औ ये जलन भावना
प्रेम ज्योति जलने नहीं देती
जो घड़ा घ्रणा का भरा हुआ है
अभिमान हमें झुकने नहीं देता

म्रग तृष्णा से कैसे निकलें
ये मोह हमें जाने नहीं देता
कभी फूटना चाहे ज्ञान का अंकुर
अज्ञान का तम उसको ढक लेता

हर अधर गरल हर अधर सुधा
हर मुख पर गरलामृत का प्याला
यह निर्भर करता है उस पर
दे रहा है क्या वो देने वाला

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अन्तःद्वन्द -भाग-५-दिनेश सिंह

फिर लिखने लगा खीच खीचकर
वही कल्पित जीवन की रेखा
फिर वही कल्पना खग पुष्पों की
निज व्यथा हृदय का फिर देखा

गा गाकर करुणा कलित गीत यदि
सौ टुकड़े उर के कर न सका
तेरे गीतों में फिर वो ताप कहाँ
किसी ह्रदय में आग लगा न सका

इन करुण कल्पिता गीतों को
कोई सुनने वाला यहाँ कहाँ
मन और विकल हो उठता है
कम होता है पारावार कहाँ

चल चुका है अब तक अर्ध उम्र
शांतप शोक का भार लिए
नहीं देव बनाया सुधा कोई
जिसे पीकर मन की दाह बुझे

जब नहीं शब्द का ज्ञान तुझे
तो क्यों फैलाता है शब्द जाल
बिन उपमा औ बिन अलंकार
फिर कौन कहेगा काव्यकार

कुछ रस तो तुम लावो अपनी
ललित कलित कविताओं में
कुछ काव्य सुगन्धित फैलावो
इन बहती काव्य हवाओं में

कुछ काव्य लिखो सु-मधुर सु-राग
छवि प्रतिबिम्बित हो उत्तम सन्देश
ले बहे समीरण उस दिशि में
हो जहाँ जहाँ वर्जित प्रदेश

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अन्तःद्वन्द -भाग-६-दिनेश सिंह

जो भरा हुआ था निर्मल जल
वो सूख गया है इस बन से
क्या कली कोई खिल सकती है
किसी उजड़े से निर्जन बन में

इस निठुर और निर्जन बन को
मत सींच इसे तू बन माली
यहाँ कलियाँ खिलने से पहले
कलि की आहुति दे दी जाती

यहाँ उर उर में चाहत दृग-दृग
हर बन उपवन में चाँद खिले
क्या बिना चांदनी के जग से
नभ भूतल का अंधियार मिटे

तरु खड़े हो कितने भी बन में
बिन कलियों के वो सौम्य कहाँ
बिना चाँदनी अहह चाँद
इस जग में तेरा अस्तित्त्व कहाँ

मन के अन्तः से उठे भाव जो
ये कलिके तुझको अर्प किया
एक अन्तः आकुल आह उठी
यह दाह हृदय की सह न सका

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अन्तःद्वन्द -भाग-१-दिनेश सिंह

यह फूलों का देश सलोना
यहाँ कहाँ काँटों को ठौर
इस सुगन्धित पवमान में
जहर घोलता है कौन

असत्य का बेखौफ रथ
दौड़ता है वाच्छ्येस्थल में
बचा अभी सत्य है जो
भटकता क्यों मरुस्थल में

कहते ऊपर स्वर्ग बसा है
उसका पथ किसने देखा
मुझे बतावो जरा बन्धू
कहाँ से आती वह रेखा

यहीं स्वर्ग है यहीं नरक है
जहाँ तक मैंने जाना है
कर्म स्वर्ग अकर्म नरक
सत पुरुषों का बतलाना है

चलें सभलकर वो है ज्ञानी
हर पथ पर हर चौराहे में
बिन सोचे जो राह चले
वो कहलाते नादानों में

नव भारत के नव शिल्पकार
हे नयी सदी के सेनानी
तेरे हुंकारों में तूफान रुका
हे तरुण देश के अभिमानी

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मेघ आगमन -दिनेश सिंह

यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है भारतकोश का नहीं।

घुमड़ घुमड़कर मेघ गगन में मंडप लगे सजाने
विविध वर्ण की चुनर पहनकर धरती लगी सँवरने
पहन पहनकर मोर मुकुट बन उपवन बने बाराती
कुञ्ज भवन में मंगल गान गाने लगी कालपी

नवल पात में छुपी कोकिला जब मधुरिम स्वर में गयी
भू बंकिम विशाल के रोम रोम ने ली सहशा अंगड़ाई
दादुर चातक औ भ्रमर वीर हैं नवल गान वन में गाते
मध्य निशा में कीट पतंगे बंशी मधुर बजाते

मेघ आगमन देख धरा के खिली कपोलो की लाली
फूल-फूल पराग प्रेम मय पात पात पर हरियाली
तरु तड़ाग गिरी कानन उपवन में है ख़ुशियाँ लहरायी
शीश नवाती मेघ राज को झुक झुकर तरुवर की डाली

हुये अंग रोमांचित अवनी के जब अम्बर प्रेम गीत गाया
संगीत घोलती दमक दामिनी धरणी पर स्वर्ग उतर आया
नभ और धरा का मिलन देख हो उठा रोमांचित भू मंडल
इस मिलन का साक्षतकार बने तब गीत मेरे कवि ने गाया

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मेरी यामिनी की नवल चन्द्रिका -दिनेश सिंह

चाँदनी से धुली आज ये यामिनी
प्रीति मेरे हृदय में जगाने लगी
चकोरा हुआ प्रेम में मन मेरा
देखकर रात रानी लजाने लगी

जो मेरे अन्तः का कोना था सूना पड़ा
उस जगह पर कोई नव कली खिल रही
घोलकर अपने रंग में ये चंचल पवन
गंध उसकी मेरे अंग में भर रही

ये पवन तुम जरा मंद मन्दतर बहो
इसको मत तोड़ देना तुम झंझोर कर
बड़ी कोमल है ये मेरे उर की कली
गिर ना जाये कहीं डाल से टूट कर

मेरी यामिनी की नवल चन्द्रिका
ज्योति मेरे हृदय में जलाने लगी
ये हटो मेरे अन्तः के घने बादलो
प्रेममयी-ज्योतिस्तर प्रबलतर हुयी

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आकुल अंतर -दिनेश सिंह

मन हर्षित होकर जब जब गाया
वह विरह वेदना तब तब पाया
हुयी झणिक कभी आभा प्रज्वलित
अवगुंठनों से भरा तम निकट आया

खड़ी हो गयी मुँह फेरकर के कल्पनाये
अति प्रखरतर हो गयी सारी विपद्ताएँ
दिवस की दिनकर किरण ओझल हुयी
हुयी विमुखरित चाँद की भी चन्द्रिकाएँ

आहात हृदय ! हृदय का हर्ष भूला
हुआ गीत इतंना क्षीण की वह पंथ भूला
मुस्कान अधरों की कही विलुप्तित हुयी
औ हर्ष सारे हृदय के मार्ग भूला

मुरझा गयी सारी हृदय की मधुर बेला
खड़ा है निस्तेज होकर वह अकेला
मधुर स्मृति झण भर को होती प्रज्वलित
फिर खिंच जाती है यादों की काली रेखा

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अषाढ़ के बादल -दिनेश सिंह

देखकर इस धरा के हृदय की जलन
रो पड़े आज फिर से गगन के नयन

अश्रु धारा बहे तो फिर ऐसे बहे
काँटों के सँग सँग फूल भी बह गये
अश्रु से सींचकर शांत करता तपन
रो पड़े आज फिर से गगन के नयन

आँख में अश्रु है-स्वर में प्रबल रोर है
कड़कती मेघ में दामिनी गरज कहती घटाएँ हैं,
सूर्य छुपने का अब क्यों है करता यतन
रो पड़े आज फिर से गगन के नयन

छुप गये सारे योद्धा निज नीड में
रोर करता अकेला है रण भूमि में
भेरी फिर से बजाया रण में गगन
रो पड़े आज फिर से गगन के नयन

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किसी सतरंगी नील नयन में -दिनेश सिंह

किसी सतरंगी नील नयन में
खोया मेरा मन विहंंग
ज्यों किसी गुलावी मधुबन में
खो गया भवर का अंतरंग

खिली देख कलि मधुबन में
जा बैठ गया नादान विहग
निरख कली नत कोरो को
उलझ गया अनजान विहग

मोद भरे उन कोरो में
कोरो में ! रवि किरणों सी लिए धार
वह नवल कली के मधुवन में
है भूल गया खग कठिन राह

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यदि चलें सदा मानव बनके -दिनेश सिंह

मन के गहरे अंधकार में
ज्वलित हुआ एक प्रश्न प्रबल
मानव हो तुम सबसे सुंदर
फिर क्यों करता है अति छलबल

तुम जीवन के सौन्दर्य सृष्टि हो
कुदरत की आदर्श दृष्टि हो
न्योछावर तुझमे सकल सृष्टि है
अगणित सुषमावो से निर्मित हो

प्रथम सृष्टि का कैसे आना
ये मानव पहचान तुमने
विज्ञानं ज्ञान का समावेश
है बस तेरे मन मस्तिक में

हे अखिल विश्व के चिर रूपम
ये सब है बस तेरे उर अन्तः में
फिर क्यों भरता है राग देव्ष
अपने मन के अन्तः कण में

क्यों खोज रहा है ज्योती तम में
फैल जा व्योम का विस्तार बनके
नहीं देव अन्तः भेद फिर तुझमे है क्यों
बरस जा जलद से जल धार बनके

जीत सको तुम त्रिभुवन को
कर सको पूर्ण अभिलाषा मन के
कुछ भी दुर्लभ नहीं तुम्हे
यदि चलें सदा मानव बनके

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मिलन यामिनी-दिनेश सिंह

चाँद मेरी रात का पूनम सा खिला है
किन्तु वो उलझी घटाओं से घिरा है
ये पवन तुम मंद अपनी गति करो
छणिक वो दिख रहा कभी बुझ रहा है

सूर्य अपनी प्रभा लेकर वो कब का जा चूका है
सुनहली साँझ का मौसम सुनहरा आ चूका है
रुपहरे चाँद से!सिंदूरी चाँदनी छन छन रही है
हृदय के तार से मृदु रागनी बजने लगी है

गगन के बाँह में रजनी शिथिल खोई हुई है
जगी है चाँदनी मेरी सकल अलि सोयी हुई है
भिगो कर लाज से है चन्द्रिका चुपचाप बैठी
मगर ये झील सी आँखें हैं जो कुछ कह रही हैं

ठहर जा चाँदनी कुछ पल अभी है रात बांकी
अभी है बात बांकी बात का विस्तार बांकी
युगों से शान्त मानस की उमंगें कह रही है
अरी इस यामिनी की हर छटा मनभावनी है

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जुगनू के प्रति -दिनेश सिंह

बादलों ने आज फिर धरती को घेरा
ढक लिया है चांद तारो को अँधेरा
पर आज ये बिद्रोह किसने कर दिया है बादलो से
कह रहा है इस तिमिर को नष्ट कर दूंगा धरा से

बादलों को कौन ये ललकारता है
धायकर जो गगन छूना चाहता है
चीरकर तिमिरांचल को तीव्र गति से बढ़ रहा है
वह तिमिर को नष्ट करने पर अटल है लग रहा है

देखकर बिद्रोह अतिकर मेघ गरजा
दमक करके दामिनी का अंग फड़का
सकल दिशि घनघोर तम औ हवा ब्याकुल
किन्तु चिर ज्योति जलाने को वह आतुर

अठखेलियां वह इस तिमिर से खेलता है
पल भर ज्वलित कभी लुप्त वह हो रहा है
वह इन घमंडी घटाओं का मद दर्प कर
पंथ पर विश्वास का दीपक जलाये बढ़ रहा है

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मनुजतत्व सकल वसुंधरा -दिनेश सिंह

दे विद्द-विदद् हे दायनी
शत-शत रूप धर-धर कर
चयन-मम ह्रदय-पर कर-शयन
हर-हर हृदय के दारुण-दहन

हो प्रखर उर ज्योतिर्जल-विभा
प्रभा सा ज्वलित हो पद्य-जल अभा
कृति-कृत्त कर-विकृति-प्रबति हर
सतित-सत पथ पर चलें दृढ़तर

भर कर-सजल-जल-नयन पर
जीवन अमिय रस सींच कर
हर श्लेष-क्लेश-विमुक्क्त कर
चलते चलें पथ कर्म पर

झरे जीर्ण-जाति विषानला
छटे गहन-घन-तम-भ्रम भरा
हो उदित उर-उर भास्करा
मनुजतत्व सकल वसुंधरा

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यह पावसी सान्ध्य -दिनेश सिंह

हुआ ललोहित गगन और
दिनमान चला निज युग को
किरण-हंसनी पंख समेट कर
जा बैठ गयी तरु शिखरों पर

गगन मार्ग से उतर रही
निज केश कलाप बिखेरे
यह पावसी सान्ध्य सकल
एकाकीपन को समेटे

मुख मौन-द्रागित र्निमेष लिये
सौन्दय भाव के पंख खोल
भू पर उतरी खिली अमराई
हो गया तरुण हरीतिमालोक

तोम तिमिर का दुर्ग देख
स्वर स्वानो के है गूंज उठे
स्वर बध्य राग गाते श्रृगाल
सब अपने गृह से निकल पड़े

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अन्तःद्वन्द -भाग-८-दिनेश सिंह

मै , मेरा और अपने में
उलझ गया संसार मेरा
हाय प्रायोजित अभिनय से
मुझे नहीं अवकाश मिला

लघु लघु मम मानस सागर में
रह रहकर एक लहर उठती
और तटी तक आ आकर
वह प्रश्न प्रबल एक कर जाती

नवनीत देह लेकर भूतल में
जब आया था तब धेय था क्या
तू जीवन में है उलझ गया
या जीवन तुझमे उलझ गया

अमिय फेन सा निर्मल मन
लेकर आया था धरणी में
मद अहं गरल भरा तड़ाग
संचित किया यान्त्रिक जीवन में

इस लघुता मन में प्रश्न प्रखर
है मृत्यु कुटिल या यह जीवन
यदि मृत्यु कुटिल है तो आखिर
सारा जीवन फिर क्यों रोदन

करुणार्द्र कथा है यदि जीवन
एक घनीभूति है यह पीड़ा
उस चंद्रावदनी रूपराशि पर
भीगी पलकें क्यों करती क्रीड़ा

जब नहीं था तू तब भी तू था
अब है पर आखिर सत्य नहीं
सत्य एक है मृत्यु किन्तु
मंजिल आखिर यह मृत्यु नहीं

कल, काल कलांतर बीत चुके
औ ज्ञान बहुत हम खोज चुके
नहीं मानव मन की दहन बुझी
सब पंचकोष में लीन हुए

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नयन देखते हैं नभ को-दिनेश सिंह

है ज्ञात मुझे की नहीं तुम
अब इस मायावी जग में
पर रह रहकर कुछ भाव उभरते
इस आकुल अन्तःस्थल में

वो मधुर कंठ से मृदु वाणी
वो स्नेहिल भरी पुकार तेरी
एक बज्रपात सा उर में होता
जब करता है उर याद तेरी

अतिशय तंद्रिल करती स्मृतियाँ
अंतरतम पल पल प्रतिपल
उमड़ उमड़ करुणा के सागर
करते निमग्र तट के स्थल

धीरज की दीवार टूटकर
इत उत फैली तृण तृण
इस मेरे एकाकी सागर में
रह रहकर उठता ज्वार प्रबल

देव लोक की देव परी
हरकर तुम सबका मन
फिर अपने पंख फैलाकर
चली गई तुम नील गगन

अगणित तारे बिखरे नभ में
झिलमिल झिलमिल करते चंचल
जिस तारे में हो बिम्ब तुम्हारा
है ढूंढ रहे उसको लोचन

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चाह मन में-दिनेश सिंह

नित चाह मन में होती प्रखरतर
नित बृद्धि हो ज्यों शशि गगन पर
यह हृदय में है क्या चाह कोई
या कोई मिथ्या है मन पर
फैल जाऊँ इस भुवन पर

इस धरा से उस गगन तक
इस दिशा से उस दिशा तक
इस तिमिर से उस प्रभा तक
है चाह मन में अति प्रबलतर
फैल जाऊँ इस भुवन पर

सिंधु के बिच लहर उठती
पवन के संग तट को छूती
है पूर्ण वह अभिलाष करती
मै गीत के संग प्रभा छूकर
फैल जाऊँ इस भुवन पर

देखकर इन पंक्तियों को जग हँसेगा
मिथ्या भरा इसके हृदय में जग कहेगा
पंथ में भी अपशकुन के बिखरे सितारे
पर बढ़ रहा हूँ पंथ में कर्मिक हथेली थामकर
की फैल जाऊँ इस भुवन पर

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अब वह बनी मुक्तधारा--दिनेश सिंह

स्वच्छंद नीले गगन में उड़ रही है मुक्ताहंसिनी
किसी के गीत की उपमा बनी थी जो अभी तक
प्रगति-पथ पर चली वो ज्योति पथ पर बिछाती
स्वच्छंद नीले गगन में उड़ रही है मुक्ताहंसिनी

अवहेलना जिसकी युगों से हुई थी
किसी की काम की कामना अब तक बनी थी
नवरूप अब लेकर जगी वो प्रेम की अनुगामिनी
स्वच्छंद नीले गगन में उड़ रही है मुक्ताहंसिनी

जिसके रूप का वर्णन नहीं कोई कर सका
कवि क्या शेष-नारद आदि नहीं कोई गा सका
हटाकर काम की मूरत को वह मुक्त धारा बनी
स्वच्छंद नीले गगन में उड़ रही है मुक्ताहंसिनी

दिया मद तोड़ जो कटीले तरु खड़े थे
बदल दी दृष्टि जग की जो कभी एकत्व थे
किया निर्माण निज नीड़ को वो अभिलाषनी
स्वच्छंद नीले गगन में उड़ रही है मुक्ताहंसिनी

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प्रियसी के प्रति---दिनेश सिंह

मेरे मन बन के आस पास
स्वाछंद मरुत सा चपल श्वास
वश में करती वह एक एक क्षण
एक कली उपवन की रसाल

मत रोक उपवन की सुरभि अरी
मै पथिक प्रवासी इतना निवास
निर्झर-सा अलक्षित लोक बसा
स्वप्निल-संसृति तृष्णा संसार

शून्य हुई मधुमास डगर
निस्तेज हुई अनुराग लहर
मत जला शशि-ज्योति ज्यों लपटों से
ये द्युति चम्पक सा हिला गात

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