माधोविलास
माधोविलास नामक ग्रन्थ के रचनाकार लल्लू लाल थे। रघुराम नामक एक गुजराती कवि के 'सभासार' और कृपाराम कवि द्वारा 'पद्मपुराण' में संगृहीत 'योगसार' नामक ग्रंथों का सार लेकर लल्लू लाल जी ने 'माधव विलास' ('माधो विलास') नाम से इस ग्रंथ को 1817 ई. में प्रकाशित किया था।[1]
भाषा तथा कथा-प्रसंग
इस ग्रंथ की भाषा ब्रजभाषा है, जिसमें गद्य और पद्य दोनों का समावेश है। इसका कथा-प्रसंग इस प्रकार है-
"तालध्वज नाम नगर तामें चार वर्ण ब्राह्मण क्षत्री वैश्य शूद्र और छत्तीस जात रहैं। । राजपूत जात गूजर गोरए अहीर तेली तम्बोली धोबी नाई कोली चमार चूहरे हैं खटीक कुंजड़े लुहार ठठेरे कसेरे चुरहेरे लखेरे सुनार छीपी सूजी झीमर खाती कुनबी बढ़ई कहार धुनियें धानक काछी कुम्भार भठियारे बरियारे बारी माली अरु मल्लाह। । अपने अपने धर्म कर्म में अति सावधान बरत कोऊ कोऊ उनमें चौदह विधातिधान हो। । तहाँ विक्रम नाम राजा सो कुलवान अति रूप निधान महाजान सब गुण खान राजनीति में निपुण प्रजापालक यशस्वी तेजस्वी हरिभक्त गौ ब्राह्मण को हितकारी परोपकारी और सब शास्त्र को जानन हारो हो।"[1]
तत्सम शब्दों का प्रयोग
इस ग्रंथ में तत्कालीन सामाजिक स्थिति का अच्छा वर्णन है। इसमें शास्त्र-सम्मत मर्यादाओं का उल्लेख करके सामाजिक गुण-दोषों को स्पष्ट किया गया है। इसमें रघुराम के 'सभासर' के कुछ पद्य ज्यों के त्यों, केवल क्रम में किंचित हेर-फेर के साथ मिलते हैं। 'सभासार' के तद्भव शब्दों का इसमें तत्सम रूप देने की पद्धति दिखाई पड़ती है, जैसे- 'निराधार' के लिए 'निर्धार', 'पच्छी' के लिए 'पक्षी'।
- उदाहरण
"पुन्यसील, प्रजापाल न्याउ प्रतिपच्छिन कोई। कर सोंपे अधिकार, आप सम जानें कोई। रस भाषा रस निपुनि सत्र उर में नित साले। जो जिहि लायक होई, ताहि तैसी विधि पाले। । सुख-करन भयरु सागर सरसि रत्न-ग्रह लीयें रहे। लछन अनंत महिपाल के, सुबुद्धि प्रमान कविवर कहे।"[2][1]
"पुन्यशील प्रजापाल, न्याव प्रतिपक्ष न कोई। । कर सौंपे अधिकार, आप सम जाने सोई। । रसभाषा रण निपुण, शत्रु उरमें हित सालै। जो जहिं लायक होय ताहि तैसी विधि पालै। । सुख करन भयद सागर सरस, रतनग्राह लीने रहै। लक्षण अनंत महिसाल केसु, बुधि प्रमाण कवि रघु कहै"। । 16 । ।[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- [सहायक ग्रंथ- माधव विलास, कलकत्ता, 1817 ई. और इसकी दूसरी प्रति, कलकत्ता, 1868; माधव विलास: सम्पादक उत्तमसिंह वर्मा, श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई, सन 1898 ई.।]