कबीला
कबीला शब्द की परिभाषा के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। फलस्वरूप जनगणना रिपोर्टों में भी जहाँ कुछ कबीलों को जतियों की सूची में रखा गया है, बहुत-सी नीची जातियों को भी कबीलों में सम्मिलित कर लिया गया है। इस संबंध में एक जनगणना से दूसरी जनगणना में भी विषमता पाई जाती है। एक जनगणना के अनुसार समस्त भारतीय कबीलों का धर्म 'आत्मावाद' की श्रेणी में आता है, किंतु उसकी अगली जनगणना में ही कबीली धर्म की सर्वथा पृथक श्रेणी बना दी गई है।
परिभाषा
भारत में कबीली जनसंख्या के विषय में स्पष्ट और सुलझे विचारों का अभाव रहा है। वास्तव में मूल प्रश्न यह है कि 'कबीला' कहते किसे हैं? इस शब्द की अब तक दी गई परिभाषओं से अधिक न्यायसंगत संभवत: नूतन किंतु गुणात्मक परिभाषा है। इस नवीन परिभाषा के अनुसार-
"कबीला निश्चित भौगोलिक सीमा के भीतर वास करने वाला ऐसा अंतर्विवाही सामाजिक समूह है, जिसमें कार्यों का विशिष्टीकरण नहीं पाया जाता। समान भाषा या बोली द्वारा संगठित और कबील अधिकारियों द्वारा प्रशासित यह समूह अन्य कबीलों और जातियों से सामाजिक दूरी मानता है; किंतु जाति व्यवस्था की भाँति सामाजिक द्वेष जैसी भावना से अछूता है। कबीले की अपनी परंपराएँ, विश्वास एवं रीतियाँ होती हैं और प्रजातीय तथा भागौलिक संग्रथन से उद्भूत सजातीयता की भावना कबीले के सदस्यों में बाह्य प्रभावों से प्रतिरक्षा को जन्म देती है। कबीला अनुसूचित हो सकता है और नहीं भी। कबीले में पर-संस्कृति-धारण की प्रक्रिया या तो पूर्णरूपेण संपन्न हो चुकी होती है या आंशिक रूप में ही।"[1]
श्रेणियाँ
प्रजातीय आधार पर भारतीय कबीलों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-
- प्रथम श्रेणी में मंगोलीय मूल के नागा, कूकी, गारो तथा असमी कबीले या अल्मोड़ा ज़िले के भोटिया आदि कबीले आते हैं।
- दूसरी श्रेणी के अंतर्गत मुण्डा, संथाल, कोरवा आदि पुरा-ऑस्ट्रेलीय कबीले आते हैं।
- तीसरी श्रेणी में विशुद्ध आर्य मूल के निचले हिमालय के वासी खस कबीले या हिंद-आर्य-रक्त की प्रधानता लिए, किंतु मिश्रित प्रकार के भील आदि कबीले रखे जा सकते हैं।
भाषाशास्त्रीय दृष्टि से भारतीय कबीलों का वर्गीकरण तीन पृथक भाषा परिवार के समूहों में किया जा सकता है। ये समूह क्रमश: मुंडा, तिब्बती-बर्मी और द्रविड़ भाषा परिवारों के हैं। कुछ कबीले अपनी मूल बोली त्यागकर हिन्दी बोलने लगे हैं। कुछ मुंडा कबीले इस श्रेणी में आते हैं। मूल रूप से मुंडा भाषा परिवार की बोली बोलने वाले गुजरात के भीलों ने भी अपने अधिवासानुसार गुजराती या मराठी अपना ली है। निश्चित भौगोलिक सीमाओं में बसे इन कबीलों के अतिरिक्त नट, भाँटू, साँसी, करवाल और कंजर आदि ऐसे खानाबदोश कबीले हैं, जो हाल तक अपराधोपजीवी थे, किंतु जिन्हें कठोर नियंत्रण और कठिन नियमों से मुक्त कर दिया गया है। सभी श्रेणियों के इन कबीलों की कुल जनसंख्या लगभग तीन करोड़ है; किंतु अनेक कबीलों के जातिनाम और जातिगत व्यवसाय अपना लिए हैं। इसीलिए हाल की जनगणना ने इनकी संख्या लगभग दो करोड़ ठहराई है।
पुनर्वास की समस्या
पुनर्वास की समस्या को ध्यान में रखते हुए सांस्कृतिक पदानुसार कबीलों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-
- सांस्कृतिक दृष्टि से ग्राम्य व नगर समूहों से दूर कबीले, अर्थात् वे जो प्राय: संपर्क विहीन हैं।
- नगर संस्कृति से प्रभावित वे कबीले, जिनमें संपर्कों के फलस्वरूप समस्याओं का बीजारोपण हुआ है।
- ग्राम्य तथा नगर समूहों के संपर्क में आए वे कबीले, जिनमें ऐसी समस्याएँ या तो उठी ही नहीं, अथवा सफल पर-संस्कृति-धरण के कारण अब नहीं रहीं।
- अनुकूलक कबीले
सांस्कृतिक संपर्कों के प्रसंग में भारतीय कबीलों को अनुकूलक और सात्मीकारक, इन दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। अनुकूलक कबीले तीन प्रकार के हो सकते हैं-
- सहभोजी
- समजीवी
- पर-संस्कृति-धारक
समजीविता
सहभोजिता का अर्थ पड़ोसी समूहों के साथ समान आर्थिक कार्यों में भाग लेना है। 'समजीविता' शब्द का प्रयोग कबीलों की आर्थिक और सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता के अर्थ में किया गया है। पर-संस्कृति' धरण का तात्पर्य सांस्कृतिक लक्षणों की एकतरफ़ा स्वीकृति से है, अर्थात् पर-संस्कृति-धारक कबीले वे हैं, जो अपने सभ्य पड़ोसी समूहों के रीति रिवाज ग्रहण करते हैं। इस वर्गीकरण में उन कबीलों की गणना नहीं हुई जो बाह्य संस्कृतियों के संपर्क से अछूते छूट गए हैं। किंतु वास्तविकता यह है कि भारत में सांस्कृतिक संपर्कों का 'शून्य बिंदु' है ही नहीं। दूसरे शब्दों में, सभी कबीले अपने से अधिक उन्नत संस्कृतियों के संपर्क में आए हैं और परिणामस्वरूप या तो समस्याग्रसित हैं अथवा संपर्क स्थिति से समायोजन स्थापित कर अपेक्षाकृत संतोषप्रद जीवन व्यतीत कर रहे हैं।[1]
निवास स्थान
अधिकांश भारतीय कबीलों का निवास वनों में है और वे वन्य प्राकृतिक साधनों पर ही निर्भर करते हैं। कोचीन के कदार, त्रावणकोर के मलायांतरम्, मद्रास के पलियान और वायनाद के पनियन ऐसे ही कबीले हैं। कुछ कबीलों की अर्थव्यवस्था खाद्य पदार्थों की संचयन और पिछड़ी कृषि के बीच की है। इन कबीलों में प्रमुख मध्य प्रदेश के कमार और इसी राज्य में माँडला क्षेत्र के वैगा तथा दक्षिण में बिसन पहाड़ियों के रेड्डी हैं। उपर्युक्त दोनों श्रेणियों के कबीलों पर शासन की वन संबंधी नीतियों का गहरा प्रभाव पड़ता है। भारतीय कबीलों की तीसरी आर्थिक श्रेणी में देश की अधिकांश कबीली जनसंख्या को रखा जा सकता है। यह श्रेणी उन कबीलियों की है, जिनके जीवकोपार्जन का मुख्य साधन कृषि है, किंतु जिन्होंने वनों की निकटता के कारण संचयन व्यवसाय को दूसरे मुख्य धंधों के रूप में अपना लिया है। उत्तर-पूर्वी एवं मध्य भारत के प्राय: सभी कबीले इस श्रेणी में आते हैं।
भारत सरकार की वचनबद्धता
ब्रिटिश सरकार ने कबीली जनसंख्या के प्रति निर्हस्तक्षेप की नीति अपनाकर उसे अपने भाग्य पर छोड़ दिया था। इसके विपरीत वर्तमान शासन की नीति सक्रिय हस्तक्षेप की है। 'भारत सरकार' कबीलों के प्रति उपादेय और गतिमान नीति अपनाने के लिए वचनबद्ध है। किंतु यह समझ लेना आवश्यक है कि कबीलों का स्तर एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न हो जाता है और कुशल नीति निर्धारण के पूर्व स्थानीय दशाओं का पूर्ण ज्ञान अपेक्षित है। विगत भूलें भविष्य की पथ प्रदर्शक होती हैं। अब तक शासन की ओर से कबीली पुनर्वास जैसे विशाल कार्य के दार्शनिक आधार का स्पष्ट विवेचन प्रस्तुत नहीं किया गया है और यह तब तक संभव नहीं, जब तक भारतीय कबीलों के विषय में समुचित जानकारी प्राप्त नहीं हो जाती। कबीली कार्यक्रमों के परंपरागत संस्कृत के संरक्षण और सुचारु एवं संगठित रूप से परिवर्तनों के बीजारोपण पर समान रूप से बल दिया जा रहता है। कबीली जनता में नवोदित सामाजिक सामाजिक चेतना और सरकारी प्रयत्नों द्वारा लाभान्वित होने की आकांक्षा भारतीय कबीली समस्याओं के प्रसंग में दो नए दिशासंकेत हैं। कबीलों को उनकी वर्तमान पिछड़ी दशा से उबारकर उन्हें ग्राम्य संस्कृतियों के अनुरूप बनाने का कार्य अत्यंत सतर्कतापूर्वक संपन्न किया जाना चाहिए। यदि प्रगति की योजना इस प्रकार की गई तो भावी भारतीय संस्कृति में जीवन-यापन के केवल दो प्रारूप होंगे- 'ग्राम्य' और 'नागरिक' एवं समाज वैज्ञानिकों का दायित्व होगा कि वे इन दो प्रारूपों के बीच की खाई को दृढ़ पुलों द्वारा पाटने का प्रयत्न करें।[1]
ब्रिटिश शासन में विद्रोह
ब्रिटिश शासन ने भी समय-समय पर आदिवासी जनसंख्या की ओर ध्यान दिया था। कभी-कभी सरकार के पास हिंसात्मक विद्रोही की सूचना पहुँचती थी। ऐसे अधिकांश विद्रोहों का मूल प्राय: तीन कारणों में होता था-
- कबीली भूमि से कबीलियों का निष्कासन
- कबीली प्राकृतिक साधनों का बाहरी लोगों द्वारा उपयोग
- साहूकारों और विदेशी खिलौनों और आभूषणों के विक्रेताओं द्वारा शोषण
शासन की ओर से इन कठिनाइयों को दूर करने की समुचित व्यवस्था नहीं थी और यदि कभी कबीलियों के कष्ट की सुनवाई होती भी थी तो वह किन्हीं उदार और सहानुभूतिपूर्ण शासकों की व्यक्तिगत रुचि के फलस्वरूप। ईसाई मिशनरियों को अपने कार्यकलापों में शासन का पूर्ण सहयोग प्राप्त होता था और शासन की ओर से उन्हें अनेक अधिकार भी मिले हुए थे। इस प्रकार कबीली समस्या से सरकार चिंता मुक्त थी और मिशनरी मनमाने हस्तक्षेप की नीति का अनुसरण कर रहे थे। किंतु जब पहाड़िया लोगों ने हिन्दू जमींदारों के विरुद्ध विद्रोह का नारा लगाया तो ब्रिटिश सरकार ने शांति स्थापना के लिए अपनी सेना भेजी। विद्रोही नेताओं को सनदें देकर प्रति हिंसा की ज्वाला शांत की गई। शांति स्थापना के हित में पहाड़िया क्षेत्र के चारों ओर अवकाश प्राप्त और सामर्थ्यहीन सैनिकों को बसने के लिए प्रोत्साहित किया गया। कालांतर से व्यवहार और दंड विधियाँ भी कबीली नेताओं के अधिकार क्षेत्र में आ गईं। न्याय और अनुशासन में सुधार हुआ और शासन ने कबीले को विशेष व्यवहार के योग्य समझा। फलस्वरूप सन 1782 में राजमहल पहाड़ियाँ साधारण न्यायालयों के क्षेत्राधिकार से निकाल ली गईं।
संथाल विद्रोह
सन 1796 में पहाड़ियाँ क्षेत्र का नया नामकरण 'दमानी-को' हुआ और इसके प्रशासन के लिए नई न्यायविधि स्वीकृत हुई। यह संपूर्ण क्षेत्र एक समहर्ता के प्रशासनाधिकार में आ गया था, जिसके शासन में भारत के अन्य भागों में प्रचलित विधि से कोई संबंध नहीं था। इसी समय छोटा नागपुर और संथाल परगना में भी असंतोष की आग सुलग रही थी। जमींदारों ने कई बार शासन से सशस्त्र हस्तक्षेप की माँग की थी। सन 1886 में विख्यात संथाल विद्रोह भड़क उठा। संथाल परगना को एक पृथक ज़िला बना दिया और सन 1855 के 38वें विनिमय के अनुसार यह 'अविनियमित' क्षेत्र घोषित कर दिया गया। फ़ोर्ट विलियम, फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज और बंबई की प्रबंधकारिणी परिषदों के तत्वाधान में अनेक नए अधिनियम पारित हुए।
इंडियन काउंसिल एक्ट
सन 1861 के इंडियन काउंसिल एक्ट के अनुसार स्थानीय प्राधिकारों द्वारा बनाए गए 'अविनियमित' संबंधी नियमों को मान्यता दे दी गई। 1870 के 'भारत सरकार अधिनियम' द्वारा सपरिषद महाशासक को ऐसे क्षेत्रों के लिए नियम बनाने का अधिकार प्राप्त हुआ, जहाँ ब्रिटिश भारत के अन्य भागों में प्रचलित व्यवहार तथा दंड प्रक्रिया सीमित रूप में लागू होती थी। सन 1874 में 'भारतीय विधान मंडल' में स्वीकृत 14वें ज़िला अनुसूचित अधिनियम द्वारा स्थानीय शासन को अधिनियम में निर्दिष्ट क्षेत्रों में विधि लागू करने के नए अधिकार प्राप्त हुए। स्थानीय शासन को अधिकार मिला कि वह उन कानूनों का स्पष्टीकरण करे जो ब्रिटिश भारत के अन्य भागों की भाँति इन क्षेत्रों में लागू नहीं होते थे। यदि आवश्यकता पड़ने पर संशोधित अथवा सीमित रूप में ब्रिटिश भारत के अन्य भागों में प्रचलित कोई कानून इन क्षेत्रों में लागू किया तो उसकी अधिसूचना केंद्र को देना अनिवार्य था। किंतु इस विशिष्ट शासन व्यवस्था ने भी कबीली कठिनाइयों को हल नहीं किया।[1]
मोंटफ़ोर्ड समिति
पहाड़ी कबीलों में भू-स्वामित्व-हरण रोकने के निमित्त 'मद्रास सरकार' ने सन 1917 में एक कानून बनाकर कबीलियों को उपलब्ध उधार पर ब्याज की दर निश्चित करने का प्रयत्न किया। 1876 में ही संथाल परगना में व्यक्तिगत रूप से अथवा अदालतों के आदेश द्वारा भूमि का विक्रय और हस्तांतरण अवैध घोषित कर दिया गया था। मोंटफ़ोर्ड समिति ने 1919 के अधिनियम की 52वीं धारा में कबीलों के प्रति शासन की स्थिति को स्वीकार कर लिया। इस धारा के अनुसार पिछड़े क्षेत्रों का दो भागों में विभाजन किया गया-
- पूर्णत: अपवर्तिज क्षेत्र
- अंशत: अपविर्जत क्षेत्र
जनसंख्या में सुधार की चेष्टा
सन 1935 के रक्षात्मक उपायों द्वारा कबीली जनसंख्या में सुधार की चेष्टा की गई। नवीन भारतीय संविधान में कबीलों के प्रति शासन के रक्षणात्मक उत्तरदायित्व पर और अधिक जोर दिया गया है। उनकी स्थिति में सुधार के लिए नए उपाय ढूँढ़े गए और उनके उत्थान की दिशा में शासन अभूतपूर्व रूप से क्रियाशील है। इन क्षेत्रों में शिक्षा, सामुदायिक विकास, सामाजिक कल्याण तथा पारिवारिक स्वच्छता आदि के लिए समुचित प्रबंध हो रहे हैं। कबीलों के प्रति विशेष व्यवहार की नीति के अतिरिक्त शासन ने राजकीय सेवाओं में भी कबीलियों के लिए कुछ स्थान सुरक्षित कर दिए हैं। इस कार्य के लिए अनुसूचित कबीलों एवं जातियों का विभाग बनाया गया है, जिसकी अध्यक्षता एक आयुक्त करता है। यह विभाग उन समस्याओं से जूझ रहा है जो कबीलियों को त्रस्त किए हुए हैं। कबीली पुनर्वास के इन प्रयत्नों की असफलता के विषय में इतना शीघ्र कुछ भी कहना संभव नहीं। किंतु इसमें संदेह नहीं कि यह प्रयत्न कबीलों की वर्तमान दशा में सुधार और उन्हें समझने की इच्छा से प्रेरित हुए हैं।
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