पद्मसिंह शर्मा

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पद्मसिंह शर्मा (जन्म- 1876 ई., बिजनौर, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 1932 ई.) प्रसिद्ध लेखक और समालोचक थे। वे द्विवेदी युग के गद्य लेखकों तथा समालोचकों में विशेष स्थान रखते थे। वे संस्कृत भाषा के तो विशेष विद्वान थे ही, इसके साथ ही उन्हें उर्दू, फ़ारसी, बंगला और मराठी भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान था। 'बिहारी सतसई की भूमिका', 'बिहारी सतसई संजीवन भाष्य', 'पद्मपुराण' और 'हिन्दी उर्दू हिन्दुस्तानी' उनके द्वारा रचित प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। 'संजीवन भाष्य' पर पद्मसिंह शर्मा को हिन्दी साहित्य सम्मेलन का 'मंगला प्रसाद पुरस्कार' मिला था।

जन्म तथा शिक्षा

पण्डित पद्मसिंह शर्मा जी का जन्म उत्तर प्रदेश में बिजनौर ज़िले के नगवा नामक ग्राम में सन 1876 ई. में हुआ था। इनके पिता उमरावसिंह भूमिहार ब्राह्मण थे और अपने गाँव के मुखिया, नम्बरदार व प्रभावशाली व्यक्ति थे। दस-बारह वर्ष की अवस्था में शर्मा जी का विद्यारम्भ कराया गया और प्रारंभ में इन्हें उर्दू-फ़ारसी की शिक्षा देने के उपरांत 'सारस्वत कौमुदी', 'रघुवंश' आदि संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन कराया गया। इन्होंने 'अष्टाध्यायी' भी पढ़ी और काशी, मुरादाबाद, लाहौर, जालंधर व ताजपुर आदि स्थानों में रहकर संस्कृत का अध्ययन किया। पद्मसिंह शर्मा आरम्भ से ही वैदिक सिद्धांतों के पक्षपाती थे और भाषण कला पर इनका अपूर्व अधिकार था। अतः सन 1930 में उत्तर प्रदेश की 'आर्य प्रतिनिधि सभा' में इन्हें उपदेशक नियुक्त किया गया था।

व्यावसायिक जीवन

पद्मसिंह शर्मा 'सत्यवती' नामक साप्ताहिक पत्र के सम्पादकीय विभाग में भी नियुक्त हुए और यहीं से इनकी संपादन व लेखन कला का श्रीगणेश हुआ। संवत 1965 में आप अजमेर गए और 'परोपकारी' व 'अनाथ रक्षक' का संपादन करने लगे; पर एक वर्ष उपरान्त यहाँ से त्यागपत्र देकर ज्वालापुर चले गए तथा वहां के महाविद्यालय में आठ वर्ष तक अध्यापक रहे। पिता का स्वर्गवास हो जाने से इन्हें गाँव लौटना पड़ा, पर वहां इनका जी न लगता था, अतः काशी (वर्तमान बनारस) के 'ज्ञानमंडल कार्यालय' के प्रकाशन विभाग में काम करने लगे।

इसी बीच इनकी 'बिहारी सतसई की भूमिका' प्रकाशित हुई और लगभग एक वर्ष 'सरस्वती' में 'सतसई संहार' पर लेखमाला प्रकाशित होती रही। इससे इन्हें हिन्दी जगत में अत्यधिक ख्याति प्राप्त हुई और यह प्रांतीय 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' के सभापति निर्वाचित हुए तथा 'बिहारी सतसई' सम्बन्धी प्रकाशित अंश पर इन्हें 'मंगला प्रसाद पुरस्कार' भी प्राप्त हुआ। शर्माजी 'अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन' के सभापति भी बनाये गए।

भाषा-शैली

पण्डित पद्मसिंह शर्मा मिश्रित भाषा के पक्षपाती थे और इन्होंने 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन', मुरादाबाद के सभापति पद से दिए गए भाषण में अपना दृष्टिगोचर स्पष्ट करते हुए कहा भी है कि- "हिन्दी लेखक प्रचलित और आम फहम फ़ारसी शब्दों का जो उर्दू में आ मिले हैं और उर्दू सूक्तियों का व्यवहार करना बुरा नहीं समझते, पर उर्दू-ए-मुअल्ला के पक्षपाती ठेठ हिन्दी शब्दों को चुन-चुन कर उर्दू से बाहर कर रहे हैं।... यह अच्छे लक्षण नहीं हैं।" इस प्रकार पद्मसिंह शर्मा ने संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ उर्दू-फ़ारसी के तीमारदार, मुद्दत, शिद्दत, जबरदस्ती, काग़ज़, नुमायाँ, आफत, गनीमत, इन्तजार, अजीज तथा अंग्रेज़ी के रिक्वेस्ट, स्कीम, न्यू लीडर, स्प्रिट, विजिटिंग कार्ड, पार्टी, फीलिंग, फंड, स्पीड, ओरिएण्टल आदि अनेक शब्दों को अपनाया है। साथ ही प्रचलित मुहावरों का व्यवहार भी इन्होंने बहुत अधिक किया है।

सामान्यतः इनकी गद्य रचनाओं में शैली के मूलतः दो रूप दृष्टिगोचर होते हैं। एक ओर तो संस्कृत की तत्समता से संपन्न गंभीर विचारात्मक शैली के दर्शन होते हैं तथा दूसरी ओर मिश्रित भाषा से संपन्न शैली का सशक्त, सप्राण, प्रभावशाली, प्रवाहमय रूप दीख पड़ता है, जिसमें हास-परिहास व व्यंग्य-विनोद की छटा भी है। यही शैली इनकी स्वाभाविक शैली है और इस पर इनके व्यक्तित्व की अमिट छाप है।

कृतियाँ

शर्माजी की 'बिहारी सतसई की भूमिका', 'पद्य पराग प्रबंध-मंजरी' और 'हिन्दी उर्दू हिन्दुस्तानी' नामक चार रचनाएँ ही मिलती हैं। इनके पत्रों का संग्रह भी प्रकाशित हुआ है, पर अभी भी इनके बहुत-से लेख और व्याख्यान असंकलित ही हैं तथा इधर-उधर बिखरे पड़े हैं।

गद्य-साधना

पद्मसिंह शर्मा संपादक, टीकाकार, आलोचक और निबंधकार के रूप में हमारे सामने आते हैं, पर हिन्दी साहित्य में यह प्रधानतः आलोचक के रूप में ही अधिक प्रसिद्द हैं और तुलनात्मक आलोचना के तो यह जनक माने जाते हैं। इनका आलोचक इनके निबंधकार से निस्संदेह श्रेष्ठ है और इनके निबन्ध संग्रहों में भी आलोचनात्मक निबंधों की संख्या आधिक है। इन्होने साहित्य-समीक्षा, जीवनी, संस्मरण, श्रद्धांजलियाँ आदि विषयों पर निबन्ध लिखे हैं। इनके निबन्ध भावात्मक व विचारात्मक हैं।

निधन

जीवन के अंतिम दिनों में पद्मसिंह शर्मा गाँव में ही रहते थे। वर्ष 1932 में इनके गाँव में प्लेग की बीमारी ने गम्भीर रूप धारण कर लिया। इसी वर्ष गाँव की जनता की सेवा करते हुए पद्मसिंह शर्मा जी का निधन हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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