सनातन गोस्वामी द्वारा मदनमोहन मन्दिर का निर्माण

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मदनगोपाल को अपनी व्यवस्था आप करनी पड़ी। उस दिन पंजाब के एक बड़े व्यापारी श्रीरामदास कपूर जमुना के रास्ते नाव में कहीं जा रहे थे। नाव अनेक प्रकार की बहुमूल्य सामग्री से लदी थी, जिसे उन्हें कहीं दूर जाकर बेचना था। दैवयोग से आदित्य टीले के पास जाकर नाव फँस गयी जल के भीतर रेत के एक टीले में और एक ओर टेढ़ी हो गयी। मल्लाह ने बहुत कोशिश की उसे निकालने की, पर वह टस-से-मस न हुई। आदित्य टीले के पास यदि बस्ती का कोई चिह्न होता तो कुछ लोगों को बुलाकर उनकी सहायता से उसे सीधा कर रेत में से निकाल लेते। पर वह जन-मानवहीन बिलकुल सूनसान स्थान था। ऊपर से कृष्णपक्ष की रात्रि का अंधियारा घिरा आ रहा थां रामदास चिन्ता में पड़ गये-नाव यदि ऐसे ही पड़ी रही तो उसके डूब जाने का भय है। डाकुओं का भी इस स्थान में आतंक बना रहता है। यदि उन्हें ख़बर पड़ गयी तो किसी समय टूट पड़ सकते हैं।

मन्दिर तथा नाटशाला का निर्माण

सोचते-सोचते हठात् उन्हें दीख पड़ी टीले के ऊपर टिम-टिमाते हुए एक दीपक की क्षीण शिखा। आशा की एक किरण फूट निकली उनके भीतर घुमड़ते निराशा के घोर अन्धकार में। नौका से उतरकर वे आये तैर कर किनारे और द्रुतगति से चढ़ गये टीले के ऊपर। ऊपर जाते ही दीखी सामने कुटिया में मदनगोपाल की नयनाभिराम मूर्ति और उसके सामने ध्यानमग्न बैठे एक तेजस्वी महात्मा। मंगलमय उन दोनों मूर्तियों के दर्शन करते ही उन्हें लगा कि जैसे उनके अमंगल के बादल छँट गये। महात्मा के चरणों में गिरकर उन्होंने कातर स्वर से निवेदन की अपनी दु:खभरी कहानी और कहा- "मुझे विश्वास है कि आप कृपा करें तो इस विपद से मेरा उद्धार अवश्य हो जायगा। यदि आप कृपा न करेंगे तो मेरा सर्वस्व लुट जायगा। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि आपकी कृपा से नाव सुरक्षित निकल आयी, तो इस बार व्यापार में जो भी लाभ होगा, उसे आपके ठाकुरजी की सेवा में लगा दूँगा।"
सनातन मदनगोपाल जी की ओर देख थोड़ा मुस्काये और रामदास को आश्वस्त करते हुए बोले- "चिन्ता मत करो। हमारे मदनगोपालजी शीघ्र इस विपद से तुम्हारी रक्षा करेंगे।" सनातन गोस्वामी का आशीर्वाद लेकर टीले से उतरे रामदास को अभी कुछ ही क्षण हुए थे, उन्होंने देखा कि न जाने कहाँ से जमुना में आयी एक नयी धार और नौका को मुक्त कर सही पथ पर ले चली। रामदास को उस बार व्यापार में आशातीत लाभ हुआ। कुछ दन बाद वे गये लौटकर वृन्दावन और उस विपुल धनराशि को मदनगोपाल जी की सेवा में नियुक्त कर कृतार्थ हुए। उसी धन से मदनगोपाल जी के लिये आदित्य टीले पर एक सुन्दर मन्दिर और नाटशाला का निर्माण हुआ और भू-सम्पत्ति क्रय कर ठाकुर के भोग-राग और सेवा-परिचर्या की उत्तम से उत्तम स्थायी व्यवस्था की गयी।

सेवा-पूजा की व्यवस्था

रामदास और उनकी पत्नी सनातन गोस्वामी से दीक्षा लेकर धन्य हुए। इस प्रकार मदनगोपालजी ने अपने मनोनुकूल सेवा-पूजा की व्यवस्था अपने-आप कर ली और सनातन गोस्वामी की झोंपड़ी से निकलकर तीर्थराज रूप से भक्तों को दर्शन देने के उपयुक्त मंचपर जा विराजे। कालान्तर में जब श्रीराधा को उनके बाम भाग में विराजमान किया गया उनका नाम हो गया 'मदनमोहन' या श्रीराधामदनमोहन'।[1] मदनमोहन की प्रेम-सेवा के आवेश में सनातन महाप्रभु की आज्ञा भूल गये। कुछ दिन बाद उसकी याद आयी, तब उनके चरणों में दण्डवत् कर अश्रहुगद्गद् कण्ठ से बोले- "ठाकुर, अब मुझे छुट्टी दें, जिससे मैं एकान्तवास में वैराग्यधर्म का पूर्णरूप से पालन करते हुए अपना भजन और महाप्रभु द्वारा निर्दिष्ठ कार्य कर सकूं।" वे श्रीकृष्णदास ब्रह्मचारी पर मदनमोहन की सेवा का भार छोड़कर अन्यत्र चले गये। कभी गोवर्धन की तरहटी में, कभी गोकुल के वन-प्रान्त में, कभी राधाकुण्ड और नन्दग्राम में किसी वृक्षतले या पर्णकुटी में रहकर अपना भजन-साधन और महाप्रभु द्वारा आदिष्ट तीर्थोद्धारादि का कार्य करते रहे। पर बीच-बीच में मदनमोहन की याद उन्हें सताती रही। उनके दर्शन करने और यह देखने कि उनकी सेवा ठीक से चल रही है या नहीं, वे वृन्दावन जाते रहे। वृन्दावन में पुराने मदनमोहन के मन्दिर के पीछे उनकी भजनकुटी आज भी विद्यमान है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री कविराज गोस्वामी के समय यह दोनों ही नाम प्रचलित थे, जैसा कि उनके इस उल्लेख से स्पष्ट है-
    एइ ग्रन्थ लेखाय मोरे मदनमोहन।
    आमार लिखन जेन शुकेर पठन॥
    सेइ लिखि मदनगोपाल जे लिखाय।
    काष्ठेर पुतली जेन कुहके नाचाय॥ (चैतन्य चरित 1।8।73-74

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