वाधूल श्रौतसूत्र

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वाधूल श्रौतसूत्र कृष्ण यजुर्वेद की वाधूल शाखा से सम्बन्धित है।

वाधूल शाखा

महादेव ने सत्याषाढ श्रौतसूत्र के अपने भाष्य (वैजयन्ती) के प्रारम्भ (भूमिका, श्लोक 7–9) में वाधूल को तैत्तिरीय की एक उपशाखा के रूप में उद्धृत किया गया है। किन्तु इस बात के अनेक प्रमाण मिलते हैं कि वाधूल तैत्तिरीय शाखा से सम्बद्ध न होकर उससे अलग एक स्वतन्त्र शाखा थी। इस विषय में कतिपय प्रमाण अधोलिखित हैं:–

  1. वाधूल श्रौतसूत्र में अनेक ऐसे मन्त्र हैं जो तैत्तिरीय संहिता या तैत्तिरीय ब्राह्मण में नहीं मिलते।
  2. वाधूल श्रौतसूत्र में कुछ मन्त्र तैत्तिरीय संहिता के मन्त्र के साथ पर्याप्त अन्तर रखते हैं, जैसे– देवो व: सविता प्रेरयतु[1], देवो व: सविता प्रार्पयतु[2], वसुभ्यस्त्वाऽनज्मि[3], वसुभ्यस्त्वा[4], विश्वधाया अस्युतरेणधाम्ना[5], विश्चधाया असि परमेण धाम्ना[6], रक्षायैत्वानारात्यै[7], स्फात्यै त्वा नारात्यै[8] इत्यादि।
  3. वाधूल श्रौतसूत्र में मन्त्रों का विनियोग तैत्तिरीयों से कई स्थलों पर भिन्न है, यथा– वाधूल श्रौतसूत्र[9] में जलते अंगारे को हटाते समय 'पृथिव्यै मूर्धानं मा निर्धाक्षी:' मन्त्र विनियुक्त है, जबकि तैत्तिरीय शाखानुयायी इस क्रम में 'निर्दग्धं रक्षो निर्दग्धा अरात्म:'[10] मन्त्र का प्रयोग करते हैं।
  4. तैत्तिरीय परम्परा में 'प्राणाय त्वा अपानाय त्वा, व्यानाय त्वा[11]' इन तीन मन्त्रों का विनियोग हविर्द्रव्य के पसीने में किया जाता है, जबकि वाधूल श्रौतसूत्र में यह कर्म चार मन्त्रों– प्राणाय त्वा, व्यानाय त्वा, अपानाय त्वा उदानाय त्वा[12] से किया जाता है।
  5. तैत्तिरीय परम्परा में दीर्घामनु प्रसिति मायुषे धाम्[13] इस एक मन्त्र का हविर्द्रव्य को पीसने के बाद दोनों हाथों को देखने में विनियोग होता है, जबकि वाधूल श्रौतसूत्र में दीर्घामनु प्रसितिं संसवेथाम्[14] मन्त्र का विनियोग चावल कणों को पीसने में तथा आयुषे धाम्[15] का दोनों हाथों को देखने में विनियोग होता है।
  6. तैत्तिरीय परम्परा में देवो व: सविता हिरण्यपाणि: प्रतिगृह्णातु[16] का विनियोग पिसे चावल के आटे को एकत्रित करने में किया जाता है, जबकि वाधूल में देवो व: सविता हिरण्यपाणि: प्रतिगृह्णात्वदब्धेन वश्चक्षुषाऽवेक्षेसुप्रजास्त्वाय[17] का विनियोग बिना पीसे अवशिष्ट चावल कणों को देखने में होता है।
  7. अग्न्युपस्थान के प्रकरण में वाधूल श्रौतसूत्र महाचमसोपस्थान[18], महासम्पदोपस्थान[19], वस्योपस्थान[20], सर्वदोपस्थान[21] आदि का विधान करता है जो तैत्तिरीय परम्परा में कहीं नहीं मिलते।
  8. अग्निचयन के प्रकरण में वाधूल श्रौतसूत्र कुछ इष्टिकाओं के चयन का विधान करता है जो तैत्तिरीय परम्परा में नहीं मिलता। उदाहरण के लिए योनिसंज्ञक इष्टकाओं का उल्लेख करता है।[22]

इन प्रमाणों से यह बात पुष्ट होती है कि वाधूल शाखा की स्वतन्त्र सत्ता थी और सम्भवत: इसकी अपनी संहिता भी थी जो अभी उपलब्ध नहीं है।

रचयिता

वाधूल श्रौतसूत्र के रचयिता वाधूल नाम के कोई आचार्य हैं अथवा वाधूल गोत्र से सम्बद्ध कोई अन्य आचार्य यह विचारणीय हैं। कालान्द ने वाधूल को एक गोत्रवाचक नाम माना।[23] बौधायन प्रवरसूत्र में वाधूल का उल्लेख यस्क–भृगु के अन्तर्गत एक गोत्र के रूप में हुआ है।[24] पाणिनि भी कार्तकौजपादिगण में वाधूल का उल्लेख करते हैं।[25] परवर्ती परम्परा में भी वाधूल एक गोत्र नाम के रूप में प्रचलित रहा। श्रीमदानन्ताचार्य ने अपने 'प्रपन्नामृतम्' नामक ग्रन्थ की भूमिका में स्व. गुरु श्री निवासाचार्य के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए उनके वाधूलगोत्री होने का उल्लेख किया है।[26] गार्ग्य गोपाल यज्वा ने भी अपने 'शुल्ब रहस्य प्रकाशन भाष्य' में अपने गुरु पं. रंगराज के वाधूलगोत्री होने का उल्लेख किया है।[27] आज भी वाधूलगोत्री ब्राह्मण दक्षिण में मिलते हैं। प्रो. वित्सल का मत है कि मूलत: केरल में पाँच वाधूलगोत्री परिवार थे, जो 60 एलम में फैले थे।[28] स्टाल की गणना के अनुसार केरल के तैत्तिरीय नम्बूदिरी ब्राह्मणों में 10 प्रतिशत वाधूलगोत्री हैं जो आज अपनी मौखिक परम्परा खो चुके हैं।[29] यदि वाधूल गोत्रवाची नाम है तो प्रश्न यह खड़ा होता है कि वाधूलों में कौन श्रौतसूत्र का रचयिता है। वाधूल अन्वाख्यान ब्राह्मण[30] में एक पाठ मिलता है, जिसमें वाधूलों की शिष्य परम्परा का उल्लेख है– 'एतद्ध सौबभ्रूवो वाधूलाय प्रोच्योवाच पृन्वै वयं यास्कायाग्न्याधेयम वोचामेति'। इस पाठ के आधार पर कालन्द ने यह मत व्यक्त किया कि सौबभ्रुव नामक आचार्य मूल सूत्रग्रन्थ के रचयिता थे। उन्होंने वाधूल को इसका उपदेश किया।[31] एक दूसरी युक्ति के आधार पर कालन्द ने यह भी मत[32] व्यक्त किया कि वाधूल का मत एक प्रतिष्ठित आचार्य के रूप में आदरपूर्वक अन्वाख्यान ब्राह्मण में उद्धृत किया गया है, इसलिए वे इस सूत्र के रचयिता नहीं हो सकते। सम्भवत: वाधूल के किसी शिष्य ने इस सूत्रग्रन्थ का संकलन किया हो। इस संभावना से यह भी अनुमान किया जा सकता है कि वाधूल कोई चरण था, जिसके अन्तर्गत कई उपशाखाएँ रहीं हों। आर्यदास ने 'कल्पागमसंग्रह' नामक अपनी वाधूल श्रौतसूत्र की व्याख्या में चार वाधूलों का उल्लेख किया है–

  • 'कस्य पुनस्ते विध्यवशेषा: चतुर्णां वाधूलानामिति। के ते चत्वारो वाधूला:[33] कौण्डिमग्निवेश्यशारवानां कल्पा:। तथाहि ...शुल्ब उक्त वाधूलका: सवाधूलाश्चत्वारो विहिता क्रमादिति।'
  • इस उपर्युक्त एद्धरण में वाधूल के चार विभागों का उल्लेख तो किया गया है, किन्तु परिगणना में केवल तीन– कौण्डिन्य, आग्निवेश्य तथा गारव (गालव) का ही उल्लेख है। डॉ. रवि वर्मा ने 'कल्पागमसंग्रह' के उपर्युक्त उद्धरण का एक पाठ दिया है जो इस प्रकार है–

..... चतुर्णां वाधूलानामिति। के ते चत्वारो वाधूला:
कौण्डिन्याग्निवेश्यगार (ल) वशाङ्खानां कल्पा:[34]

  • इस उद्धरण में चार वाधूलों में कौण्डिन्य, आग्निवेश्य, गालव तथा शांख का उल्लेख है। प्रा. त्सुजी:[35] तथा वित्सल[36] इन चारों को वाधूल का शिष्य मानते हैं।

अब प्रश्न यह है कि यदि वाधूलाचार्य इस सूत्रग्रन्थ के रचयिता नहीं, तो इन चारों में से कोई रचयिता होना चाहिए। किन्तु इस बात का हमें कोई प्रमाण नहीं मिलता कि इन चारों में से कोई इस सूत्रग्रन्थ का रचयिता है। भारतीय सूत्रकारों एवं भाष्यकारों की परम्परा जब वाधूल को ही श्रौतसूत्र का रचयिता मानती है, तब उस पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। बौधायन, कात्यायन, आपस्तम्ब आदि आचार्य अपने ग्रन्थों में उद्धृत हैं, किन्तु उन ग्रन्थों का रचयिता माना जाता है। इसी प्रकार यदि वाधूल अन्वाख्यान ब्राह्मण में वाधूल का नाम आदर के साथ उद्धृत है तो इसमें कोई आपत्ति नहीं कि वे श्रौतसूत्र के रचयिता हैं। साथ ही वाधूल श्रौतसूत्र जिस रूप में हमें उपलब्ध है उसमें कहीं भी वाधूल का नाम किसी प्रसंग में उद्धृत नहीं है। इसलिए यही मानना समुचित है कि वाधूलाचार्य ही वाधूल श्रौतसूत्र के रचयिता हैं।

विभाग एवं चयनक्रम

वाधूल श्रौतसूत्र में प्रपाठक, अनुवाक, खण्ड या पटल–विभाग में मिलता है। हस्तलेखों में दो स्थानों पर प्रश्न–विभाग का भी उल्लेख मिलता है।[37] किन्तु इसके विषय में पूर्ण सामग्री न मिलने के कारण निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। प्रपाठक विभाग के अनुसार इसमें 15 प्रपाठक हैं। प्रत्येक प्रपाठक में अनेक अनुवाक तथा अनुवादों के अनेक अनुवाक तथा अनुवाकों के अन्तर्गत पटल हैं। प्रथम प्रपाठक में 6 अनुवाक तथा 23 पटल, द्वितीय में 3 अनुवाक तथा 12 पटल, तृतीय में 6 अनुवाक तथा 16 पटल, चतुर्थ में 5 अनुवाक तथा 18 पटल, पंचम में 3 अनुवाक तथा 10 पटल, षष्ठ में 8 अनुवाक तथा 28 पटल, सप्तम में 7 अनुवाक तथा 23 पटल, अष्टम में 15 अनुवाक तथा 51 पटल, नवम में 3 अनुवाक तथा 9 पटल, दशम में 5 अनुवाक तथा 15 पटल, एकादश में 9 अनुवाक तथा 27 पटल, द्वादश में 2 अनुवाक तथा 5 पटल, त्रयोदश में 4 अनुवाक तथा 13 पटल, चतुर्दश में 1 अनुवाक तथा 5 पटल, पंचदश में (अनुवाक नहीं) 27 पटल हैं। इस प्रकार कुल 15 प्रपाठकों में 67 अनुवाक तथा 270 पटल हैं। प्रो. वित्सेल का मत है कि वाधूल श्रौतसूत्र में अनुपद, शुल्बसूत्र, पितृमेध सूत्र, परिभाषा सूत्र तथा मन्त्र पाठ से सम्बन्धित पांच और प्रपाठक होंगे।[38] किन्तु ये उपलब्ध नहीं हैं।

प्रपाठकों का विभाग विवेच्य विषय के आधार पर है। प्राय: प्रत्येक प्रमुख इष्ट या याग का विवेचन एक–एक प्रपाठक के अन्दर किया गया है। केवल अग्निष्टोम का विवेचन दो प्रपाठकों (7–8) में किया गया है। प्राय: प्रत्येक प्रपाठक के अंत में सूत्र की पुनरावृत्ति प्रपाठक–समाप्तिद्योतन के लिए की गई है। यथा–सन्तिष्ठेते दर्शपूर्णमासौ सन्तिष्ठेते दर्शपूर्णमासौ[39] 6 सन्तिष्ठेते पशुबन्ध: सन्तिष्ठेते पशुबन्ध:[40] इत्यादि। प्रथम प्रपाठक से लेकर एकादश प्रपाठक तक प्रपाठकों के स्वरूप तथा आकार के विषय में कोई मतभेद नहीं है, किन्तु आगे के प्रपाठक के विषय में मतभेद है। प्रपाठकों का नाम भी उस प्रपाठक में वर्णित मुख्य भाग के नाम पर पुष्पिकाओं में मिलता है, यथा– 'इत्यग्न्याधेयाख्य प्रपाठक:, पशुबन्धाख्य प्रपाठक:' इत्यादि। कल्पागम संग्रह में प्रपाठक के अन्तर्गत अनुवादों की संख्या दी गई है, किन्तु अनुवाकों के अन्तर्गत पटलों की संख्या तथा पटलान्तर्गत सूत्रों की संख्या नहीं दी गई है। हमने अपने संस्करण में पटलों तथा सूत्रों की संख्या भी दी गई है। अनुवाक–परिवर्तन के साथ पटल संख्या पुन: एक से प्रारम्भ न होकर प्रपाठक पर्यन्त क्रमश: चलती है। इस प्रकार सन्दर्भ–निर्देश के लिए प्रपाठक–पटल सूत्र इन्हीं तीन इकाइयों को प्रधानता दी गई है।

वर्ण्य विषय

वाधूल श्रौतसूत्र के 15 प्रपाठकों में विवेचित विषय इस प्रकार हैं–

प्रपाठक–1

अग्न्याधेय, अग्न्युपस्थान, आग्नेयीष्टि, ऐन्द्राग्नेयीष्टि, द्वादशाह व्रत, सर्वदोपस्थान, उपवसथहोम, पुनराधेय, अग्निहोत्र, अग्न्युपस्थान तथा प्रवसदुपस्थान।

प्रपाठक–2

दर्शपूर्णमासेष्टि–वत्सापाकरण, बर्हिराहरण, पितृयज्ञ, सांयदोह, ब्रीहिनिर्वाप, ब्रीहयवघात, कपालोपधान, ब्रीहिपेषण, पिष्टसंवपन, पुरोडाशश्रपण, वेदिकरण, प्रोक्षणीरासादन, स्फ्यप्रक्षालन, स्त्रुक् संमार्ग, पत्नीसंनहन, इध्मबर्हिषो: संनहन, स्त्रुक् प्रोक्षण, वेद्यां हविरासादन, आघाराहुति, इडोपाह्वान, स्त्रुग्व्यूहनान्युत्तर तन्त्र।

प्रपाठक–3

याजमान–प्रवत्स्यदुपस्थान, विराजक्रमोपस्थान, माहाचमसोपस्थान, विच्छिन्नप्रायश्चित्ति, अन्वाधान, व्रतोपायन, हविरभिमन्त्रण, नष्टकपाल पगायश्चित्ति, भिन्नकपाल प्रायश्चित्ति, दीर्णपात्र प्रायश्चित्ति, एकत्रसान्नाय प्रायश्चित्ति, आज्यावकाशोत्पवन, आज्यग्रहाणाम नुमन्त्रण, हविर्ग्रहणानुमन्त्रण, इडाभागाद्यनुमन्त्रण, आदित्योपस्थान, आग्रयणेष्टि, ब्रह्मत्व।

प्रपाठक–4

चातुर्मास्य–वैश्वदेव पर्व, वरुणप्रघास पर्व, साकमेध पर्व अनीकवतीष्टि, सान्तपनीयेष्टि, गृहमेधीयेष्टि, क्रीडिनीयेष्टि, महहविरिष्ट, पितृयज्ञ, त्र्यम्बकेष्टि, शुनासीरीय पर्व।

प्रपाठक–5

पशुबन्ध।

प्रपाठक–6

अग्निष्टोम–दीक्षणीयेष्टि, यजमान दीक्षा, प्रायणीयेष्टि, पत्नी दीक्षा, सोमक्रय, राज्ञ: पर्यावर्तन, आतिथ्येष्टि, प्रवर्ग्योपसद, महावेदिविमान, उत्तरवेदि संभार, हविर्धान संवर्तन, औदुम्बर्यावट परिलेखन, छदि: कर्म, उपरव कर्म, धिष्णियकरण, वसतीवरीर्ग्रहण, यूपकर्म, अग्नीषोमय पशुकर्म, वसतीवरीर्व्यपहरण।

प्रपाठक–7

अग्निष्टोम–प्रात: सवन ग्रहग्रहण, संसर्पण, द्विदेवत्यग्रह, द्विदेवत्यभक्ष, माध्यन्दिनसवन, तृतीयसवन।

प्रपाठक–8

अग्नकिल्प–उखासंभरण, त्रैधातवीयेष्टि, प्राजापत्य पश्वालम्भन, प्रथमाचिति, महाचिति, द्वितीया चिति, मध्यमाचिति, चतुर्थीचिति, उत्तमाचिति, शतरुद्रीय।

प्रपाठक–9

वाजपेय।

प्रपाठक–10

राजसूय, सैत्रामणी, अतिरात्र।

प्रपाठक–11

अश्वमेध

प्रपाठक–12

अप्तोर्याम, पवित्रं दशहवि:।

प्रपाठक–13

प्रवर्ग्य।

प्रपाठक–14

याजमानाग्निष्टोमिक प्रायश्चित्तम्।

प्रपाठक–15

परिशेष–स्त्रीशान्तिकर्म, नामकरण, मेधाजनन, पितृकर्म, उपव्याहरण, स्वस्तिवाचन, पाप्मनोविनिधय:, दक्षिणा।

प्रथम प्रपाठक से लेकर एकादश प्रपाठक तक की विषय–वस्तु के विषय में कोई मतभेद नहीं है, किन्तु द्वादश प्रपाठक से लेकर पञ्चदश प्रपाठक की विषय–वस्तु के स्वरूप के विषय में विद्वानों में एकमत्य नहीं है। अश्वमेध के द्वादश प्रपाठक के प्रथम सूत्र– 'द्वादशाहाय दीक्षिष्यमाणा: समवस्यन्ति' को देखकर कालन्द ने यह संभावना व्यक्त की कि इस द्वादश प्रपाठक का मुख्य प्रतिपाद्य द्वादशाह ही रहा होगा।[41] वित्सेल ने भी यही संभावना व्यक्त की।[42] चूंकि द्वादशाह का यहाँ उल्लेख है और कल्पागम संग्रह द्वादशाह प्रपाठक के चार अध्यायों की व्याख्या करता है। इसलिए इस संभावना में बल है, किन्तु इस द्वादशाह प्रपाठक के मूल सूत्रपाठ उपलब्ध नहीं हैं। क्योंकि कलपागम संग्रह भी सेत्रों को स्पष्ट रूप से उद्धृत नहीं करता, इसलिए इन सूत्रों का निश्चित पाठ नहीं दिया जा सकता। डॉ. काशीकर प्रवर्ग्य को भी इसी द्वादश प्रपाठक के अन्तर्गत मानते हैं।[43] दूसरी तरफ वित्सेल अप्तोर्याम, पवित्रेष्टि को द्वादश प्रपाठक का विषय न मानकर अलग–अलग खण्ड मानते हैं।[44] प्रवर्ग्य तथा याजमानाग्निष्टोमिक को भी वह स्वतन्त्र प्रपाठक न मानकर अग्निष्टोम का अंग मानते हैं। कालन्द तथा काशीकर त्रयोदश प्रपाठक में याजमानाग्निष्टोमिक मन्त्रसंग्रहण, अग्न्याधेय–ब्राह्मण, अग्निहोत्र ब्राह्मण, पशुबन्ध ब्राह्मण, अग्निष्टोम ब्राह्मण, अग्निचयन–ब्राह्मण (अपूर्ण), तथा इष्टि पशु प्रवर्ग्य विषयक प्रायश्चित्त कर्मों का चतुर्दश प्रपाठक में अहीनों का तथा पञ्चदश प्रपाठक में एकाहों का विवेचन मानते हैं। वित्सेल का मत है कि वाधूल सूत्र में पांच और प्रपाठक थे जिनमें क्रमश: अनुपदसूत्र, शुल्बसूत्र, पितृमेध सूत्र, परिभाषा सूत्र तथा मन्त्रपाठ थे, किन्तु ये आज उपलब्ध नहीं हैं। कालन्द तथा काशीकर जी ने त्रयोदश प्रपाठक में जिन ब्राह्मणों का उल्लेख किया है वे अन्वाख्यान ब्राह्मण हैं। इसलिए उनको श्रौतसूत्र में नहीं दिया गया है। इसी प्रकार चतुर्दश तथा पञ्चदश प्रपाठक में अहीनों तथा एकाहों का विवेचन माना गया है। वाधूल श्रौतसूत्र के हस्तलेख में यह उपलब्ध नहीं है। हमने वाधूल श्रौतसूत्र के अपने संस्करण में त्रयोदश में प्रवर्ग्य तथा चतुर्दश में याजमानाग्निष्टोमिक प्रायश्चित्त का विवेचन माना है। पञ्चदश प्रपाठक परिशेष प्रकृति का है।

शैलीगत वैशिष्ट्य

सूत्रकाल की समस्त रचनाएँ एक ऐसी शैली में की गई हैं जिनको ब्राह्मण शैली की तुलना में सूत्रशैली की संज्ञा दी जा सकती है। ब्राह्मणों का उद्देश्य मन्त्रों का यज्ञपरक व्याख्यान करना, उनका विविध याज्ञिक कर्मों में विनियोग बताना तथा संपाद्य याज्ञिक कृत्यों की उत्पत्ति एवं आधिदैविक, आध्यात्मिक तथा आधिभौतिक महत्त्व का अर्थवाद के रूप में प्रतिपादन करना था। सूत्रग्रन्थों का उद्देश्य अपनी शाखा में प्रचलित याज्ञिक कर्मों का एक सुव्यवस्थित एवं निश्चित क्रम में विवेचन करना था ताकि उसके आधार पर यज्ञकर्म का सम्पादन सरलता से किया जा सके। याज्ञिक विधि–विधानों के वर्णन में व्याख्यानात्मक तथा अर्थवादात्मक भाग भी प्राप्त थे, किन्तु सूत्रकारों ने इनको अपने क्षेत्र से अलग रखा। सूत्रात्मक शैली में विधिभाग को प्रस्तुत करना उन्हें अभीष्ट था। इसके लिए उन्होंने कई पद्धतियाँ अपनायीं। सूत्र–साहित्य की एक प्रमुख रचना के रूप में वाधूल श्रौतसूत्र की शैली का विशेष महत्त्व है। इसकी शैलीगत निम्न विशेषताएँ उपलब्ध हैं–

  1. वाधूल श्रौतसूत्र में एक पदात्मक छोटे सूत्र से लेकर कई मन्त्रों वाले बड़े–बड़े सूत्र मिलते हैं; छोटे सूत्र जैसे– अनुप्रहरति[45], प्रश्नन्ति[46], मार्जयन्ते[47] इत्यादि। बड़े सूत्र यथा– वाधूल श्रौतसूत्र 8.10.1, 8.19.9.8.25.17 इत्यादि।
  2. श्रौतसूत्र प्राय: विधि मात्र और मन्त्रभाग को एक साथ देते हैं। कभी विधिमात्र पहले होती है व मन्त्रभाग बाद में, तथा कभी मन्त्रभाग पहले होता है व विधिभाग बाद में।

सूत्रग्रन्थ अपनी शाखा के मन्त्र को प्रतीक रूप में उद्धृत करते हैं, कभी सम्पूर्ण रूप में। वाधूल श्रौतसूत्र ऐसे स्थलों पर सूत्र को तीन भागों में विभक्त कर प्रस्तुत करता है। सर्वप्रथम मन्त्र के प्रतीक को देता है, तदनन्तर विधि–विभाग को और इसके बाद मन्त्रशेष को। मन्त्रशेष को प्राय: संक्षिप्त रूप में तथा कभी सम्पूर्ण रूप में देता है। यथा:–
संक्षिप्त

'श्रृणोत्वग्नि:' समिधा हवं मे इति चतुर्गृहीतेन गार्हपत्यस्योद्धते दर्भस्तम्बे हिरण्यमुपास्य जुहोति। 'श्रृण्वन्त्वापो धिषणाश्च देवी हवं मे स्वाहा' इति[48] इत्यादि।

सम्पूर्ण

'त्वामिद्धि हवामहे' इति बृहतोपतिष्ठते। साता वाजस्य कारव: त्वां वृत्रेष्विन्द्र सत्पतिं नरस्तवां काष्ठास्वर्वत:, स त्वं नश्चित्र वज्रहस्त धृष्णुया मह स्तवानो अद्रिव:। गामश्वं रथ्यमिन्द्र सं किर सत्रा वाजं न जिग्युषे'[49] इत्यादि।

कभी–कभी एक ही सूत्र में चार भाग दिखाई पड़ते हैं–

  • विधिभाग,
  • मन्त्रप्रतीक,
  • विधिभाग शेष,
  • मन्त्रशेष; कभी सम्पूर्ण मन्त्र तो कभी संक्षेप, यथा–

सम्पूर्ण

तज्जुहोति– 'स्योना पृथिवि नो भव' इत्यौदुम्बर्यै काले दर्भस्तम्बे हिरण्यमुपास्यान्तामाहुतिम्। 'अनृक्षरा निवेशनी यच्छा न: शर्म सप्रथा: स्वाहा' इति[50] इत्यादि।

संक्षेप

अपरेण वेदिमत्याक्रम्य 'अहे दैधिषव्य' इत्युपतिष्ठेते यत्रोपवेक्ष्यन् भवति। 'उदतस्तिष्ठान्यस्य योऽस्मत्पाकतर:’ इति[51] इत्यादि।

यह उल्लेखनीय है कि आश्वलायन श्रौतसूत्र, कात्या. श्रौतसूत्र आदि अपनी शाखा के मन्त्र को प्रतीकरूप में तथा अन्य शाखीय मन्त्र को सम्पूर्ण रूप में देते हैं। बौधायन श्रौतसूत्र सर्वत्र मन्त्रों को सम्पूर्ण रूप में प्रस्तुत करता है चाहे मन्त्र उसकी अपनी शाखा का ही क्यों न हो। वाधूल श्रौतसूत्र भी मन्त्रों के प्रतीक रूप में या सम्पूर्ण यप में देने के किसी निश्चित नियम का पालन नहीं करता।

  1. सूत्रग्रन्थ किसी प्रकरण का प्रारम्भ प्राय: 'अथ' या 'अथात:' से करते हैं। वाधूल श्रौतसूत्र इसके लिए 'एवात:' पद का प्रयोग करता है, यथा– 'अग्निहोत्रमेवातो जुहोति[52], 'हवि: क्लृप्तिरेवात:'[53], 'वरुणप्रघासा एवात:'[54] इत्यादि। इसी प्रकार इष्टि के समाप्ति–द्योतन के लिए वाधूल श्रौतसूत्र 'सन्तिष्ठते' पद का प्रयोग करता है, यथा– 'सन्तिष्ठते पूर्णाहुति:'[55], 'सन्तिष्ठत एषिष्टि:'[56] इत्यादि। जहाँ प्रपाठक की समाप्ति होती है वहाँ सूत्र की आवृत्ति करता है, यथा– सन्तिष्ठते दर्शपूर्णमासौ सन्तिष्ठेते दर्शपूर्णमासौ[57], सन्तिष्ठतेऽग्निष्टोम: सन्तिष्ठतेऽग्निष्टोम:[58] इत्यादि।
  2. वाधूल श्रौतसूत्र प्राय: पटल की समाप्ति पर अगले पटल के प्रारम्भिक सूत्र को अथवा उसके कुछ पदों को देता है, यथा– 'अयं ते योनिर्ॠत्विय:' इत्यरण्योरग्निं समारोहयते[59]– 'अयं ते योनिर्ॠत्विय इत्यरण्योरग्निं समारोहयते यतो' – रयिम् इति।[60]
  3. वाधूल श्रौतसूत्र से पूर्व दिए गए सम्पूर्ण पटल को अथवा अनेक सूत्रों को आगे जब उद्धृत करना होता है तब उसे एक या दो सूत्रों में पटलादि और पटलान्त पद देकर संक्षेप में प्रस्तुत करता है। उदाहरण के लिए 'सर्वदोपस्थान' का वर्णन वाधूल श्रौतसूत्र[61] में सम्पूर्ण रूप में किया गया है। दो स्थानों पर आगे उसे संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया गया है– 'ज्योतिष्मन्तंत्वाऽग्ने – स काम: पद्यते य एतेनोपतिष्ठते'।[62]
  4. याज्ञिक कर्मकाण्ड के विवेचन में वाधूल श्रौतसूत्र की शैली ब्राह्मणों की तरह दिखाई पड़ती है। उस वर्णन को पढ़ते समय लगता है कि हम किसी ब्राह्मण–ग्रन्थ को पढ़ रहे हैं, यथा–

'तद् वा एनदग्न्युपस्थान मायुष्यं लोक्यं पुत्रियं पशव्यम्।
आयुष्मान् हवै लोकी पुत्री पशुमान् भवति य एतेनोपतिष्ठते।
तस्मिन्वा एतस्मिन्नग्न्युपस्थाने सर्वाणि छन्दांसि सर्वा आशिष: सर्वे कामा:।
न ह वा अस्य किञ्चिच्छोन्दोऽपराद्धं भवति नाशीर्न कामो य एतेनोपतिष्ठते'[63], इत्यादि।

इस प्रकार के वर्णन में वाधूल श्रौतसूत्र की शैली ब्राह्मणों की तरह आख्यान भी देता है, यथा–

गथुनसो दाक्षीकायणस्य हस्ती सान्नाय्यं पपौ।
स ह स्म पर्यस्तरचङ्क्रम्यते यन्मर्या इत्थमवेदिष्यामो हस्ती न: सान्नाय्यं पातेत्यन्वस्य प्रायश्चित्तिमवक्ष्या महीति।
तदु हो वाचानुबुध्योद्दालक आरुणि:। अल्पा मर्मा गग्लना आस।
एतावन्न विदाञ्चकार।
यज्ञो वै यज्ञस्य प्रायश्चित्त: सान्नाय्यावृत् सान्नाय्यस्याग्निहोत्रस्येति।'[64], इत्यादि।

  1. वाधूल श्रौतसूत्र 'इति ब्राह्मणम्', 'तस्यैतद् ब्राह्मणम्', 'तद् ब्राह्मणमेव' इन वाक्यों के साथ ब्राह्मण–पाठ को उद्धृत करता है।
  2. मन्त्रों के विनियोग, द्रव्यों के विधान, देश–काल के विधान तथा विधि की इतिकर्त्तव्यता के विवेचन में वाधूल श्रौतसूत्र स्थान–स्थान पर 'मीमांसा' शब्द का प्रयोग करता है, यथा– अग्न्याधेयस्य मीमांसा[65], तस्य सामिधेनीनां मीमांसा[66], दीक्षायै मीमांसा[67] इत्यादि। इन स्थलों पर वाधूल दूसरों के मतों को 'तदाहु:', 'तदुवा आहु:', 'अथो खल्वाहु:', 'तदेनम्', 'अथैकम्', 'तद् हैनो', 'एके', 'तन्नु हैत देखे' इन वाक्याशों के द्वारा प्रस्तुत करते हैं। दूसरों का मत उद्धृत करने के बाद वाधूल अपना मत 'एषा स्थिति:' ऐसा कहकर प्रतिष्ठित करते हैं– यथा वाधूल श्रौतसूत्र[68] इत्यादि।

भाषागत वैशिष्ट्य

वाधूल श्रौतसूत्र की भाषा अन्य सूत्रग्रन्थों की अपेक्षा प्राचीन प्रतीत होती है। ब्राह्मणों की तरह प्रवचनात्मक होने के कारण इसकी भाषा की परवर्ती ब्राह्मणों की भाषा के साथ समानता की जा सकती है, वस्तुत: इसकी भाषा ब्राह्मणों और पाणिनिकालीन भाषा की मध्यवर्तिनी अवस्था की द्योतक है। इसकी कतिपय भाषा विषयक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं जो इसकी प्राचीनता का द्योतन करती हैं:–

  1. नकारान्त प्रातिपादिक के स. ए. व. में इ का लोप, यथा– चर्मन् (चर्मणि), भस्मन् (भस्मनि), हेमन् (हेमनि हेमन्ते लौ.)।
  2. अकारान्त प्रातिपादिक का तृ. तथा सप्तमी के ए. व. में आकारान्त रूप, यथा– दक्षिणा (तृ. ए. व.), वसन्ता (स. ए. व. वसन्ते) इत्यादि।
  3. आकारान्त तथा ईकारान्त स्त्री. प्रातिपादिकों के षष्ठी, ए. व. में आकारान्त विभक्तिरूप के स्थान पर ऐकारान्त रूप का प्रयोग, यथा– ईडायै (इडाया:), ध्रुवायै (ध्रुवाया:), उतरवेद्यै (उतरवेद्या:), औदुम्बर्यै (औदुम्बर्या:) इत्यादि।
  4. चतुर्थीबोधक एवं पंचमी–षष्ठी बोधक तुमुन्नर्थीय – तवै तथा तोस् प्रत्ययों का प्रयोग, यथा– एष्टवै, रक्षितवै, परिव्येतो:, उपकर्तो: इत्यादि।
  5. आम्रेडित समास का प्रयोग, यथा– इत्थमित्थम्, इष्टमिष्टम्, जुहूवन्तोजुहूत:, प्रणवेप्रणवे इत्यादि।
  6. लुङ् तथा लेट् का प्रयोग, यथा– अहार्षु:, अयासीत्, विसृजासै, छैत्सी: इत्यादि।
  7. लोट् म. घु., ए. व. में तात् प्रत्यय का प्रयोग, यथा– निधत्तात्, प्रहरतात्, आगच्छतात्, मिनुतात्, कुरूतात् इत्यादि।
  8. कतिपय नए क्रियापदों का प्रयोग, यथा– निपिचति इत्यादि।
  9. वाक्य में विभिन्न निपातों का प्रयोग, यथा– अथ, यदि, अथह, अथौ खलु अथो यदि, अपि ह, अपि ह वै, इन्तु, उ वेव, उ वै, उ ह, उ ह वै, एवं ह तु ह, त्वेव, नु, नुह, नु ह स्म, न्वेव, यथा हैव, यदा वै, यद्यलम्, यद्यु ह, ह... उ, ह वाव, ह स्मैवम् हि, हैव इत्यादि।
  10. वाक्य के आरम्भ में सर्वनाम 'स' पद का निरर्थक प्रयोग, यथा स यत्र, स यथा, स यद य यदि, स ह स्मैवम् इत्यादि।
  11. उपसर्ग के साथ क्रियापद के समास में दोनों पदों के बीच अन्य पद के प्रयोग द्वारा दोनों पदों का पृथक् प्रयोग, यथा– उप वा निदधाति[69], अभ्यवभृथं यन्ति[70], अभ्यसौ पाचयेत[71], उपेतरा: प्रार्जन्ति[72] इत्यादि।
  12. प्रत्यक्ष वस्तु के लिए सर्वनाम का प्रयोग, यथा– आभ्यां हैके प्राश्नन्ति, आभ्यामेके तदनाहत्याभ्यामेव प्राश्नीयात्[73], एतां दिशं संक्षालं निनीय[74], एतावन्मात्रे[75] इत्यादि।
  13. वाधूल श्रौतसूत्र में बहुत से ऐसे नए शब्द मिलते हैं जिनका अन्यत्र कहीं भी प्रयोग नहीं मिलता। कोष ग्रन्थों में भी वे शब्द नहीं मिलते, यथा– निपेचत, अध्यृषभ अपरीणत्क, आण्डीवल, तीर्ति, निजु, पर्युदक्त, पुञ्जील, प्रष्ठील, यजमानयजूंषिक, सर्वदोपस्थान माहाचमसोपस्थान, स्त्रीवृक्षी इत्यादि।

भाषागत इन विशिष्टताओं से वाधूल श्रौतसूत्र की भाषा की प्राचीनता सिद्ध होती है। इस पर ब्राह्मणों की भाषा का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है।

कृष्णयजुर्वेदीय में वाधूल का स्थान

वाधूल श्रौतसूत्र के अतिरिक्त कृष्णयजुर्वेद से सम्बन्धित आज आठ श्रौतसूत्र उपलब्ध हैं। महादेव के अनुसार तैत्तिरीय श्रौतसूत्रों का क्रम इस प्रकार है– बौधायन, भारद्वाज, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशि, वाधूल तथा वैखानस[76] महादेव द्वारा दिए गए इस क्रम के अनुसार वाधूल की स्थिति पाँचवे स्थान पर है। अर्थात यह बौधायन, भारद्वाज, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशि से अर्वाचीन तथा वैखानस से प्राचीन है। किन्तु ऐसा मानना समीचीन नहीं है। श्रौतसूत्रों में बौधायन श्रौतसूत्र सबसे प्रचीन माना जाता है, क्योंकि उसकी शैली प्रवचनात्मक है। हाँ, काशीकर ने वाधूल श्रौतसूत्र को भी उसकी प्रवचन शैली के आधार पर बौधायन श्रौतसूत्र का समकालीन माना है।[77] अनेक बहिरंग तथा अन्तरंग प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि वह बौधायन श्रौतसूत्र से भी प्राचीन है।[78] कतिपय प्रमाण यहाँ प्रस्तुत हैं:–

  • बौधायन श्रौतसूत्र ने एक स्थल पर अग्नीषोमीय छाग पशु के लिए इध्माबर्हि का विधान किसी आचार्य के मत में माना है। वहाँ आचार्य का नाम न देकर 'एके' पद का प्रयोग किया गया है– एतदेवेध्माव बर्हिरग्नीषोमीयाय पशवे परिशयीतेत्येक आहु:।[79] वाधूल श्रौतसूत्र में उसी का विधान मिलता है– 'अग्नीषोमीयस्यैष पशोरिध्मा भवति'।[80] कालन्द ने इस पाठ को– 'अग्निषोमीयस्यैव पशोरिध्मा बर्हिभवति' ऐसा मानने का सुझाव दिया है। वाधूल श्रौतसूत्र में प्राप्त उस विधान के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बौधायन श्रौतसूत्र में 'एके' पद के द्वारा जिस किसी आचार्य के मत को उद्धृत किया गया है, वह वाधूल श्रौतसूत्र में प्रतिपादित वाधूलों के मत की ओर संकेत करता है। कालन्द ने यद्यपि 'एके' पद के द्वारा वाजसनेयियों के मत को उद्धृत करने की संभावना व्यक्त की है जहाँ से वाधूलों ने भी ग्रहण किया होगा, किन्तु बौधायन और वाधूल के पाठों में जो समानता दिखाई पड़ती है, उससे प्रत्यक्षत: यही प्रतीत होता है कि बौधायन ने वाधूल से ही यह ग्रहण किया है।[81]
  • वाधूल श्रौतसूत्र[82] में यूपतक्षण से पूर्व पशुबन्ध में अन्वाहार्यपचन में पितरों के लिए हवि देने के पश्चात् एक अष्टाकपाल आग्नेयीष्टि का विधान वैकल्पिक रूप में है। बौधायन श्रौतसूत्र के मूल भाग में कहीं भी इस इष्टि का संकेत नहीं है, किन्तु इसके द्वैध और कर्मान्त में इसका उल्लेख है।[83] इससे अनुमान किया जा सकता है कि बौधायन श्रौतसूत्र का यह द्वैध एवं कर्मान्त भाग वाधूल श्रौतसूत्र पर आधृत है।
  • वाधूल श्रौतसूत्र[84] में 'कर्तम्' पद का प्रयोग करता है जबकि बौधायन श्रौतसूत्र[85] उसी के लिए 'गर्तम्' पद का प्रयोग करता है। शं वा शीर्यते गर्तं वा पतति। 'कर्तम्' रूप 'गर्तम्' से भाषा की दृष्टि से अधिक प्राचीन है।
  • वाधूल श्रौतसूत्र[86] में 'अन्वर्जति' क्रियापद का प्रयोग करता है (अथैनामन्वर्जति) किन्तु बौधायन श्रौतसूत्र इसके लिए 'उत्सृजति' क्रियापद का प्रयोग करता है।[87] उल्लेखनीय है कि 'अन्वर्जति' का प्रयोग 'उत्सृजति' की अपेक्षा प्राचीन है।
  • वाधूल श्रौतसूत्र[88] 'वारम्' पद का प्रयोग करता है जबकि बौधायन श्रौतसूत्र उसके लिए 'वालम्' पद का प्रयोग करता है।[89] 'वारम्' पद 'वालम्' से ध्वनिशास्त्र की दृष्टि से प्राचीन है।
  • बौधायन श्रौतसूत्र वसतीवरी जलों के ग्रहण के प्रसंग में एक जगह प्रत्यक्ष रूप से वाधूल का उल्लेख करता है– 'अथाभिदग्धानि सदो हविर्धानानि समस्त देवयजमानवृतैव क्रियेरन्नावृता वा, वसतीवरी: प्रथमं गृह्णीयादिति वाधूलकस्य मतम्।[90] बौधायन श्रौतसूत्र में वाधूल के नाम से उद्धृत यह विधान वाधूल श्रौतसूत्र[91] में मिलता है।
  • बौधायन प्रवर सूत्र[92] में यस्क–भृगु से सम्बन्धित एक गोत्र प्रवर्तक के रूप में वाधूल का उल्लेख है।[93]
  • वाधूल श्रौतसूत्र की भाषा तथा रचना–शैली ब्राह्मणों की भाषा तथा रचना–शैली के अधिक समीप है। इस प्रकार वाधूल श्रौतसूत्र कृष्णयजुर्वेदीय श्रौतसूत्रों में सबसे प्राचीन है।

देश और काल

महादेव के कथनानुसार वाधूलाचार्य ने अपने श्रौतसूत्र का निर्माण केरल में किया। इसी आधार पर कुछ विद्वान केरल को ही वाधूल का मूल देश मानते हैं, किन्तु यह मत स्वीकार्य नहीं है। यद्यपि महादेव ने केरल में इसके रचे जाने का उल्लेख किया है तथा आज केरल में वाधूलों की जीवित परम्परा भी है, किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि वाधूलों का मूल प्रदेश केरल है। किसी ग्रन्थ के किसी प्रदेश–विशेष में प्रचलित होने से यह नहीं कहा जा सकता कि उस ग्रन्थ का प्रणयन भी वहीं हुआ हो। नदियों, पर्वतों, राजाओं, जनसमाज, रीति–रिवाज आदि के ग्रन्थ में उल्लेख किसी भी ग्रन्थ के मूल देश–निर्धारण में सहायक होते हैं। वाधूल श्रौतसूत्र में दक्षिण के किसी भी नगर, पर्वत, नदी, जनसमाज अथवा रीति–रिवाज का उल्लेख नहीं मिलता, जबकि उसमें इसके उत्तर भारत में रचे जाने के प्रचुर प्रमाण मिलते हैं। कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं:–

  1. वाधूल श्रौतसूत्र[94] बिना नाम के 16 जनपदों का उल्लेख करता है जो नि:संदेह उत्तर भारत के जनपदों की ओर संकेत है। ये पूर्व बुद्धकालिक हैं।
  2. वाधूल श्रौतसूत्र कुरू और पाञ्चालों का उल्लेख करता है। वाधूल श्रौतसूत्र[95] में कुरु देश के अश्वपालों का उल्लेख है जो तिरश्चीन सन्नद्व अश्व को ग्रहण करते हैं। वाधूल श्रौतसूत्र[96] में कुरु देश के उन रीति–रिवाजों का उल्लेख है जो वाधूल श्रौतसूत्र की रचना के समय में प्रचलित थे। वाधूल श्रौतसूत्र[97] में पांचाल देश में षाष्ठिक (साठी) धानों से यज्ञ करने का उल्लेख किया गया है जो उत्तर–पूर्व भारत में विशेष रूप से उत्पादित किए जाते हैं।
  3. वाधूल श्रौतसूत्र[98] अग्निष्टोम में सरस्वती नदी के जल को वसतीवरी जल के रूप में प्रयोग करने का उल्लेख करता है।
  4. वाधूल श्रौतसूत्र श्रुतसेन तथा केशी मैत्रेय द्वारा किए गए अश्वमेध यज्ञों का उल्लेख करता है।

इन उल्लेखों से यह प्रमाणित होता है कि वाधूलों का मूल स्थान उत्तर भारत में कुरू–पाञ्चाल प्रदेश था, जिसके पश्चिम में सरस्वती नदी बहती थी तथा पूर्व में विदेह प्रदेश था। बाद में किन्हीं कारणों से यह शाखा दक्षिण भारत में फैली।

संस्करण

प्रो. बृजबिहारी चौबे के द्वारा संपादित वाधूल श्रौतसूत्र का शोधपूर्ण संस्करण 1993 में होशियारपुर (पं.) से मुद्रित–प्रकाशित है। इसकी विशद भूमिका अनेक ज्ञातव्य विषयों से संवलित होने के कारण विशेष उपादेय है– सम्पादक।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वाधूल श्रौतसूत्र, 2.1.11
  2. वाधूल श्रौतसूत्र, 1.1.11
  3. वाधूल श्रौतसूत्र, 2.12.4
  4. वाधूल श्रौतसूत्र, 1.1.13.3
  5. वाधूल श्रौतसूत्र, 2.3.12
  6. तैत्तिरीय संहिता, 1.1.3.2
  7. वाधूल श्रौतसूत्र, 2.4.28
  8. तैत्तिरीय संहिता, 1.1.4.13
  9. वाधूल श्रौतसूत्र, 2.6.8
  10. तै. सू. 1.1.7.5
  11. तै. सू. 1.1.6.7–9
  12. वाधूल श्रौतसूत्र, 2.6.26–29
  13. तै. सू. 1.1.6.11
  14. वाधूल श्रौतसूत्र, 2.6.30
  15. वाधूल श्रौतसूत्र, 2.6.31
  16. तै. सू. 1.6.12
  17. वाधूल श्रौतसूत्र, 2.6.32
  18. वाधूल श्रौतसूत्र, 1.20.31, 3.2.1
  19. वाधूल श्रौतसूत्र, 1.22.8
  20. वाधूल श्रौतसूत्र, 1.23.14–15
  21. वाधूल श्रौतसूत्र, 1.8.50
  22. वाधूल श्रौतसूत्र, 8.19.2, 26.1, 28.14 इत्यादि
  23. आ. ओरि. भाग 1, पृ. सं. 7, आ. ओरि. भाग 2।
  24. यस्का मौनो मूको वाधूलो वर्षपुष्पो: इत्येते यस्का:। बौधायन प्रवरसूत्र 6:421.5, आत्रेयवाध्यश्ववाधूल वसिष्ठकण्व शुनक संस्कृति यस्का राजन्यवैश्या इत्येते नारांशसा: प्रकीर्तिता: 1. बौधायन प्रवरसूत्र 54:465.11–12, द्रष्टव्य– आपस्तम्ब श्रौतसूत्र, 24.6.1।
  25. कार्तकौजपादयश्च। पा. सू. 6.2.37
  26. वाधूल श्रीनिवासार्य पादाम्भोजोप जीवनम्।
    जन्यपुङ्गवसद् भक्त श्रीनिवासगुरुं भजे।।
    –प्रपन्नामृतम्, अध्या. 1, श्लोक–1।
  27. वाधूलान्वयरङ्ग राजविदुष: शिष्येण विद्यानिधे:...आपस्तम्ब श्रौतसूत्र भाष्य 1.1।
  28. वित्सल एम, आइने फुन्फ्टे मिताइलुंग यूबेर दास–वाधूलसूत्र स्तूदिएनत्सुर इण्डोलाजी एण्ड इरानितिक, भाग 1, पृ.77।
  29. स्टाल, जे. एफ. –नम्बूदिरी वेद रेसिटेशन, हाग, 196, पृ. 62।
  30. वाधूल अन्वाख्यान ब्राह्मण, 1.1
  31. आ. ओरि. भाग 4, पृ. 4–5
  32. आ. ओरि. भाग 4, पृष्ठ 5
  33. कल्पागमसंग्रह, अङ्यार हस्तलेख (सं. 6837), पृ. 10।
  34. आग्निवेश्यगृह्यसूत्र त्रिवेन्द्रम संस्कृत सीरीज 154, 1940, भूमिका, पृ. 3।
  35. त्सुजी, मेम्वायर्स ऑफ दि रिसर्च डिपार्टमेन्ट ऑफ टोयो, बुन्को 19, टोकिओ 1960, पृ. 95।
  36. विलसेल, वही पृ. 95
  37. इति प्रथम: प्रश्न: समाप्त: (षष्ठ प्रपाठक के अंत में) अथ द्वितीय: प्रश्न: (सप्तक प्रपाठक के प्रारम्भ में)।
  38. वित्सेल, वही पृ. 78
  39. वाधूल श्रौतसूत्र, 2–12–10
  40. वाधूल श्रौतसूत्र, 5.10.30
  41. आ. ओरि. भाग 4, पृ. 1
  42. वित्सेल, भाग 4 पृ. 100, टि. 22
  43. सी. जी. काशीकर ए सर्वे ऑफ दि श्रौतसूत्राज बाम्बे विश्वविद्यालय जर्नल भाग 35, खण्ड, 2, सित. 1966, पृ. 65।
  44. वित्सेल, भाग 4, पृ. 79–80
  45. 2.12.33
  46. 1.7.46
  47. 1.7.47
  48. वाधूल श्रौतसूत्र 1.1.14
  49. वाधूल श्रौतसूत्र 11.4.3
  50. वाधूल श्रौतसूत्र 6.1.22
  51. वाधूल श्रौतसूत्र 3.13.5
  52. 1.5.1
  53. 1.7.1
  54. 4.5.1
  55. 1.4.36
  56. 1.7.53
  57. 2.12.6
  58. 7.23.28
  59. 3.2.28
  60. 3.3.1
  61. वाधूल श्रौतसूत्र1.9.18
  62. 1.21
  63. वाधूल श्रौतसूत्र 1.20.26–30
  64. वाधूल श्रौतसूत्र 3.6.10–11
  65. 1.1.9
  66. 8.7.3
  67. 9.1.4
  68. वाधूल श्रौतसूत्र, 3.3.10, 11.14.38
  69. वाधूल श्रौतसूत्र 3.2.21
  70. 11.26.36
  71. 14.3.10
  72. 11.12.8
  73. 3.14.5–6
  74. 3.1.14
  75. 1.16.15
  76. सत्या. श्रौ. सू. पर वैजयन्ती, भूमिका, श्लोक 7–9
  77. काशीकर, वही, पृ. 64
  78. द्र. वाधूल श्रौतसूत्र भूमिका, पृ. 56–61
  79. बौधायन श्रौतसूत्र 6.24 183.18–19
  80. 6.14.25
  81. आ. ओरि. भाग 2, पृ. 146
  82. वाधूल श्रौतसूत्र, 5.1.17–18
  83. बौधायन श्रौतसूत्र, 20.25: 55.6, 24.34: 110.15
  84. वाधूल श्रौतसूत्र, 6.4.26
  85. बौधायन श्रौतसूत्र, 6.8.165
  86. वाधूल श्रौतसूत्र, 6.8.44
  87. अथैनां प्रदक्षिणमावर्त्याद्भिरक्ष्युक्ष्योदीची मुत्सृजति – बौधायन श्रौतसूत्र 6.15, 172.12
  88. वाधूल श्रौतसूत्र, 1.2
  89. बौधायन श्रौतसूत्र, 11.8.63.7
  90. 29.1.5, 368.1–3
  91. वाधूल श्रौतसूत्र, 8.19.3
  92. बौधायन प्रवर सूत्र, 6.421.5
  93. यस्का मौनो मूको वाधूलो वर्षपुष्यो ....... इत्येते यस्का:
  94. वाधूल श्रौतसूत्र, 11.1.2
  95. वाधूल श्रौतसूत्र, 11.6.7
  96. वाधूल श्रौतसूत्र, 11.25.21
  97. वाधूल श्रौतसूत्र, 11.25.11
  98. वाधूल श्रौतसूत्र, 10.9.24.25

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