पंचांग

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पंचांग
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विवरण पंचांग दिन को नामंकित करने की एक प्रणाली है। पंचांग के चक्र को खगोलीय तत्वों से जोड़ा जाता है।
हिन्दू विक्रम संवत
राष्ट्रीय राष्ट्रीय शाके
इस्मालिक हिजरी संवत
इतिहास ई. पू. 46 में जूलियस सीज़र ने एक संशोधित पंचांग निर्मित किया था जिसमें प्रति चौथे वर्ष 'लीप वर्ष की व्यवस्था थी। परन्तु उस पंचांग की गणनाएँ सही नहीं रहीं, क्योंकि सन् 1582 में 'वासन्तिक विषुव' 21 मार्च को न होकर 10 मार्च को हुआ था।
आधुनिक पंचांग आधुनिक पंचांग में संवत, वर्ष, मास, दिन तथा अन्य धार्मिक एवं सामाजिक रुचिपूर्ण बातें सम्मिलित हैं। चन्द्र मास 29½ दिन से कुछ अधिक तथा अयनवृत्तीय वर्ष 365¼ दिनों से कुछ कम होता है।
संबंधित लेख रोमन कलॅण्डर, सिडरल मास, संवत, माया कैलेंडर, मुस्लिम तिथिपत्र, मन्वन्तर, कल्प, शक संवत
अन्य जानकारी गुजरात एवं उत्तरी भारत (पश्चिम बंगाल को छोड़कर) में 'विक्रम संवत', दक्षिण भारत में 'शक संवत' और कश्मीर में 'लौकिक संवत' का प्रयोग होता है।

पंचांग दिन को नामंकित करने की एक प्रणाली है। पंचांग के चक्र को खगोलीय तत्वों से जोड़ा जाता है। बारह मास का एक वर्ष और 7 दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्यचंद्रमा की गति पर रखा जाता है। गणना के आधार पर हिन्दू पंचांग की तीन धाराएँ हैं- पहली चंद्र आधारित, दूसरी नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य आधारित कैलेंडर पद्धति। भिन्न-भिन्न रूप में यह पूरे भारत में माना जाता है। एक साल में 12 महीने होते हैं। प्रत्येक महीने में 15 दिन के दो पक्ष होते हैं- शुक्ल और कृष्ण। प्रत्येक साल में दो अयन होते हैं। इन दो अयनों की राशियों में 27 नक्षत्र भ्रमण करते रहते हैं।

अर्थ

  • लोक-जीवन में धार्मिक उत्सवों एवं ज्योतिषीय ज्ञान के हेतु, पहले से ही दिनों, मासों एवं वर्ष के सम्बन्ध में जो विधिपूर्वक ग्रन्थ या संग्रह बनता है उसे "पंचांग" या पंजिका या पंजी कहते हैं।
  • व्रतों एवं उत्सवों के सम्पादन के सम्यक कालों तथा यज्ञ, उपनयन, विवाह आदि धार्मिक कृत्यों के लिए उचित कालों के परिज्ञान के लिए हमें पंजी या पंचांग की आवश्यकता पड़ती है।

पंचांग के प्रकार

पंचांग
  • भारत में ईसाइयों, पारसियों, मुसलमानों एवं हिन्दुओं के द्वारा सम्भवत: तीस पंचांग व्यवहार में लाए जाते हैं।
  • आजकल हिन्दुओं द्वारा कई प्रकार के पंचाग प्रयोग में लाये जाते हैं। इनमें से कुछ पंचांग 'सूर्य सिद्धान्त' पर, कुछ 'आर्य सिद्धान्त' पर और कुछ अपेक्षाकृत पाश्चात्कालीन ग्रन्थों पर आधारित हैं।
  • कुछ पंचाग 'चैत्र शुक्ल प्रतिपदा' से, कुछ 'कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा' से आरम्भ किए जाते हैं। कुछ ऐसे स्थान हैं, जैसे-
  • हलार प्रान्त, जहाँ पर वर्ष का आरम्भ 'आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा' से होता है। गुजरात एवं उत्तरी भारत, बंगाल को छोड़कर, में 'विक्रम संवत', दक्षिण भारत में 'शक संवत' और कश्मीर में 'लौकिक संवत' का प्रयोग होता है।
  • उत्तरी भारत एवं तेलंगाना में मास 'पूर्णिमान्त' अर्थात् पूर्णिमा से समाप्त होते हैं।
  • बंगाल, महाराष्ट्र एवं दक्षिण भारत में 'अमान्त' अर्थात् अमावास्या से अन्त होने वाले होते हैं।

परिणामत: कुछ उपवास एवं उत्सव, जो भारत में सार्वभौम रूप में प्रचलित हैं, जैसे - एकादशी एवं शिवरात्रि के उपवास एवं श्री कृष्ण जन्म सम्बन्धी उत्सव विभिन्न भागों में विभिन्न सम्प्रदायों के द्वारा दो विभिन्न दिनों में होते हैं और कुछ उत्सवों के दिनों में तो एक मास तक का अन्तर पड़ जाता है। जैसे - 'पूर्णिमान्त' मान्यता से कोई उत्सव 'आश्विन कृष्ण पक्ष' में हो तो वही उत्सव 'भाद्रपद कृष्ण पक्ष' में 'अमान्त' गणना के अनुसार हो सकता है और वही उत्सव एक मास के उपरान्त मनाया जा सकता है। आजकल तो यह विभ्रमता बहुत बढ़ गयी है। कुछ पंचांग, जो नाविक पंचांग पर आधारित हैं, इस प्रकार व्यवस्थित है कि ग्रहण जैसी घटनाएँ उसी प्रकार घटें जैसा कि लोग अपनी आँखों से देख लेते हैं। दक्षिण भारत में बहुत-सी पंजिकाएँ हैं।

तमिलनाडु में दो प्रकार की पंजिकाएँ हैं-
  1. एक दृक्-गणित पर आधारित और
  2. दूसरी वाक्य-विधि[1] पर आधारित।
  • पुदुकोट्टाई पंचांग, जो वाक्य विधि वाले है, उसी नाम वाले राजाओं के द्वारा प्रकाशित होते हैं।
  • श्रीरंगम पंचांग, जो वाक्य प्रकार वाले हैं, रामानुजीय वैष्णवों द्वारा व्यवहार में लाये जाते हैं, किन्तु माध्वों[2] के लिए एक अन्य प्रकार का पंचांग मान्य है।
  • स्मार्तों द्वारा कञ्जनूर पंचांग व्यवहृत होते हैं, जो अत्यधिक प्रचलित है और वाक्य पंचांग है। स्मार्त शंकराचार्य की मान्यता से प्रकाशित दृक-पंचांग को व्यवहार में नहीं लाते हैं।
  • तेलुगु लोग गणेश दैवज्ञ के 'ग्रहलाघव', जो सन् 1520 में निर्मित है, पर आधारित 'सिद्धान्त-चन्द्र' पंचांग का प्रयोग करते हैं।
  • मलावार में 'दृक्-पंचांग' का प्रयोग किया जाता हैं किन्तु वह परहित नाम वाली मलावार-पद्धति पर आधारित है, तमिलों द्वारा प्रयुक्त दृक्-पंचांग पर नहीं।
  • तेलुगु लोग 'चन्द्र गणना' करते हैं और 'चैत्र शुक्ल' से 'युगादि' नामक वर्ष का आरम्भ मानते हैं। इससे अलग तमिल 'सौर गणना' को मानते हैं और अपने चैत्र का आरम्भ 'मेष विषुव' से करते हैं और उनके व्रत एवं धार्मिक कार्य, जो तिथियों पर आधारित हैं, चन्द्रभान के अनुसार मनाये जाते हैं।
  • बंगाली 'सौर मास' एवं 'चन्द्र दिनों' का प्रयोग करते हैं, जो मलमास के मिलाने से त्रिवर्षीय अनुकूलन का द्योतक है।

पंचांग के सिद्धांत

पंचांग के मुख्यत: तीन सिद्धान्त प्रयोग में लाये जाते हैं, -

  1. सूर्य सिद्धान्त - अपनी विशुद्धता के कारण सारे भारत में प्रयोग में लाया जाता है।
  2. आर्य सिद्धान्त - त्रावणकोर, मलावार, कर्नाटक में माध्वों द्वारा, मद्रास के तमिल जनपदों में प्रयोग किया जाता है, एवं
  3. ब्राह्मसिद्धान्त - गुजरात एवं राजस्थान में प्रयोग किया जाता है।
विशेष

ब्राह्मसिद्धान्त सिद्धान्त अब सूर्य सिद्धान्त सिद्धान्त के पक्ष में समाप्त होता जा रहा है। सिद्धान्तों में महायुग से गणनाएँ की जाती हैं, जो इतनी क्लिष्ट हैं कि उनके आधार पर सीधे ढंग से पंचांग बनाना कठिन है। अतः सिद्धान्तों पर आधारित 'करण' नामक ग्रन्थों के आधार पर पंचांग निर्मित किए जाते हैं, जैसे - बंगाल में मकरन्द, गणेश का ग्रहलाघव। ग्रहलाघव की तालिकाएँ दक्षिण, मध्य भारत तथा भारत के कुछ भागों में ही प्रयोग में लायी जाती हैं।

  • सिद्धान्तों में अन्तर के दो महत्त्वपूर्ण तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं -
  1. वर्ष विस्तार के विषय में। वर्षमान का अन्तर केवल कुछ विपलों का है, और
  2. कल्प या महायुग या युग में चन्द्र एवं ग्रहों की चक्र-गतियों की संख्या के विषय में।
  • यह केवल भारत में ही पाया गया है। आजकल का यूरोपीय पंचांग भी असन्तोषजनक है।

पंचांग का इतिहास

ई. पू. 46 में जूलियस सीज़र ने एक संशोधित पंचांग निर्मित किया था जिसमें प्रति चौथे वर्ष 'लीप वर्ष की व्यवस्था थी। परन्तु उस पंचांग की गणनाएँ सही नहीं रहीं, क्योंकि सन् 1582 में 'वासन्तिक विषुव' 21 मार्च को न होकर 10 मार्च को हुआ था। पोप ग्रेगोरी 13वें ने घोषणा की थी कि 4 अक्टूबर के बाद 15 अक्टूबर होना चाहिए और दस दिनों को समाप्त कर दिया गया। उसने बताया कि जब तक 400 से भाग न लग जाए तब तक शती वर्षों में 'लीप' वर्ष नहीं होना चाहिए। अत: 1700, 1800, 1900 ईस्वी में अतिरिक्त दिन नहीं होगा, केवल 2000 ई. में होगा। किंतु उसमें भी त्रुटि रह ही गयी, 33 शतियों से अधिक वर्षों के उपरान्त ही एक दिन घटाया जाएगा। आधुनिक ज्योतिषशास्त्र की गिनती से ग्रेगोरी वर्ष '26 सेकेण्ड' अधिक है। सुधारवादी प्रोटेस्टेण्ट इंग्लैंड ने सन् 1740 ई. तक पोप ग्रेगोरी के सुधार को मान्यता नहीं दी, जबकि क़ानून भी बना कि 2 सितंबर को 3 सितंबर न मान कर 14 सितंबर माना जाए और 11 दिन छोड़ दिए जाएँ। फिर भी यूरोपीय पंचांग में दोष रह गया। यूरोपीय पंचांग में मास में 28 से 31 दिन होते हैं, एक वर्ष के बाद में 90 से 92 दिन होते हैं; वर्ष के दोनों अर्धांशों, जनवरी से जून और जुलाई से दिसम्बर में क्रम से 181 (या 182) एवं 184 दिन होते हैं; मास में कर्म दिन 24 से 27 होते हैं तथा वर्ष एवं मास विभिन्न सप्ताह-दिनों से आरम्भ होते हैं। व्रतों का राजा ईस्टर सन् 1751 के उपरान्त 35 विभिन्न सप्ताह दिनों में अर्थात् 22 मार्च से 25 अप्रैल तक पड़ा, क्योंकि ईस्टर 21 मार्च पर या उसके उपरान्त पड़ने वाली पूर्णिमा का प्रथम रविवार है।

आधुनिक पंचांग

आधुनिक पंचांग में संवत, वर्ष, मास, दिन तथा अन्य धार्मिक एवं सामाजिक रुचिपूर्ण बातें सम्मिलित हैं। मनुष्य को युग, वर्ष, मास के विस्तारों का ज्ञान बहुत बाद में हुआ। चन्द्र मास 29½ दिन से कुछ अधिक तथा अयनवृत्तीय वर्ष 365¼ दिनों से कुछ कम होता है। ये विषम अवधियाँ हैं। साधारण जीवन एवं पंचांगों के लिए पूर्ण, सम विभक्त दिनों की आवश्यकता होती है और वर्ष एवं मास का आरम्भ भली-भाँति व्याख्यायित होना चाहिए, और उनमें ऋतुओं एवं किसी संवत का प्रयोग अत्यन्त आवश्यक है। ये ही पंचांग की आवश्यकताएँ हैं।

अन्य पंचांग

माया कैलेंडर
Mayan Calendar
  • मुसलमानों ने अयनवृत्तीय वर्ष के विस्तार पर ध्यान नहीं दिया और चन्द्र को काल का मापक मानकर इस जटिलता का समाधान कर लिया। उनका वर्ष विशुद्ध 'चन्द्र वर्ष' है। इसका परिणाम यह हुआ कि मुसलमानी वर्ष केवल 354 दिनों का हो गया और लगभग 33 वर्षों में उनके सभी उत्सव वर्ष के सभी मासों में घूम जाते हैं।
  • प्राचीन मिस्र में चन्द्र को काल के मापक रूप में नहीं माना और उनके वर्ष में 365 दिन थे, 30 दिनों के 12 मास एवं 5 अतिरिक्त दिन। उनके पुरोहित-गण 3000 वर्षों तक यही विधि अपनाते रहे; उनके यहाँ अतिरिक्त वर्ष या मलमास नहीं थे।
  • ऋग्वेद[3] में भी अतिरिक्त मास का उल्लेख है, किन्तु यह किस प्रकार व्यवस्थित था, वेदांग ज्योतिष ने पाँच वर्षों में दो मास जोड़ दिए हैं। प्राचीन काल में मासों की गणना चन्द्र से एवं वर्षों की सूर्य से होती थी। लोग पहले से सही जान लेना चाहते थे कि व्रत एवं उत्सवों के लिए पूर्णिमा या परिवा (प्रतिपदा) कब पड़ेगी, कब वर्षा होगी, शरद कब आयेगी और कब बीज डालें जाएँ और अन्न के पौधे काटे जाएँगे। यज्ञों का सम्पादन वसन्त ऋतु में या अन्य ऋतुओं में, प्रथम तिथि या पूर्णिमा को होता था।
  • चन्द्र वर्ष के 354 दिन सौर वर्ष के दिनों से 11 कम पड़ते थे। अतः यदि केवल चन्द्र वर्ष की गणना हो तो ऋतुओं को पीछे हटाना पड़ जाएगा। इसीलिए कई देशों में अधिक मास की योजना निश्चित हुई।
  • यूनानियों में 'ऑक्टाएटेरिस'[4] की योजना थी, जिसमें 99 मास थे, जिनमें तीसरा, पाँचवाँ एवं आठवाँ मलमास थे। इसके उपरान्त 19 वर्षों का मेटानिक वृत्त बना, जिसमें 7 अधिक मास (19×12+7=235) निर्धारित हुए।
  • ओल्मस्टीड[5] का कथन है कि बेबिलोन में मलमास-वृत्त आठ वर्षों का था, जिसे यूनानियों ने अपनाया था।
  • फादिरंघम[6] का कहना है कि बेबिलोनी मलमास – पद्धति ई. पू. 528 तक असंयमित थी तथा यूनान में ई. पू. पाँचवीं एवं चौथी शतियों में अव्यवस्थित थी।[7]

भारत में संवत का प्रयोग

भारत में जन्म-पत्रिकाओं में संवतो का प्रयोग लगभग 2000 वर्षों से अधिक प्राचीन नहीं है। संवत का प्रयोग हिन्दू-सिथियनों द्वारा, जिन्होंने आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी भारत में लगभग ई. पू. 100 एवं 100 ई. के बीच शासन किया, उनके वृत्तान्तों में हुआ। यह बात केवल भारत में ही नहीं पायी गयी, प्रत्युत मिस्र, बेबिलोन, यूनान एवं रोम में संवत का लगातार प्रयोग बहुत बाद में जाकर प्रारम्भ हुआ।

  • ज्योतिर्विदाभरण में[8] कलियुग के 6 व्यक्तियों के नाम आए हैं, जिन्होंने संवत चलाये थे, यथा-
  1. युधिष्ठर
  2. विक्रम
  3. शालिवाहन
  4. विजयाभिनन्दन
  5. नागार्जुन एवं
  6. कल्की
  • यह क्रम से 3044, 135, 18000, 10000, 400000 एवं 821 वर्षों तक चलते रहे। प्रचीन देशों में संवत का लगातार प्रयोग नहीं था, केवल शासन-वर्ष ही प्रयुक्त होते थे।

विक्रम संवत

विक्रम संवत के उद्भव एवं प्रयोग के विषय में कुछ कहना मुश्किल है। यही बात शक संवत के विषय में भी है। किसी विक्रमादित्य राजा के विषय में, जो ई. पू. 57 में था, सन्देह प्रकट किए गए हैं। इस संवत का आरम्भ गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से (नवम्बर, ई. पू. 58) है और उत्तरी भारत में चैत्र कृष्ण प्रतिपदा (अप्रैल, ई. पू. 58) से। बीता हुआ विक्रम वर्ष ईस्वी सन्+57 के बराबर है। कुछ आरम्भिक शिलालेखों में ये वर्ष कृत के नाम से आये हैं[9]

शक संवत

500 ई. के उपरान्त संस्कृत में लिखित सभी ज्योतिःशास्त्रीय ग्रन्थ शक संवत का प्रयोग करने लगे। इस संवत का यह नाम क्यों पड़ा, इस विषय में विभिन्न एक मत हैं। इसे कुषाण राजा कनिष्क ने चलाया या किसी अन्य ने, इस विषय में अन्तिम रूप से कुछ नहीं कहा जा सका है। यह एक कटिन समस्या है जो भारतीय इतिहास और काल निर्णय की अत्यन्त कठिन समस्याओं में मानी जाती है।

काल की अवधियाँ

माया अंक
Mayan Numbers

सभी देशों में काल की मौलिक अवधियाँ समान ही हैं, जैसे - दिन, मास, वर्ष, जिसमें ऋतुएँ भी हैं। वर्ष 'युग अथवा काल' के अंश या भाग होते हैं जो काल-क्रमों एवं इतिहास के लिए बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं। हालांकि काल की अवधियाँ समान हैं फिर भी मासों एवं वर्षों की व्यवस्था में दिनों के क्रम में अन्तर पाया जाता है। दिनों की अवधियाँ, दिन के आरम्भ-काल, ऋतुओं एवं मासों में वर्षों का विभाजन, प्रत्येक मास एवं वर्ष में दिनों की संख्या और विभिन्न प्रकार के मासों में अन्तर पाया जाता है। काल के बड़े मापक हैं सूर्य एवं चन्द्र। समान धुरी पर पृथ्वी के घूमने से दिन का निर्माण होता हैं। मास प्रमुखतः चन्द्र गणना पर आधारित है और वर्ष सूर्य की प्रत्यक्ष गति है किन्तु वस्तुत: यह सूर्य के चतुर्दिक पृथ्वी का भ्रमण है। 'अयनवृत्तीय वर्ष' सूर्य के 'वासन्तिक विषुव' से अग्रिम विषुव तक का समय है। अयनवृत्तीय (tropical) वर्ष, नाक्षत्रीय वर्ष[10] अर्थात् साइडरीयल वर्ष से अपेक्षाकृत छोटा होता है और यह कमी 20 मिनटों की है, क्योंकि वासन्तिक विषुव का बिन्दु प्रति वर्ष 50 सेकेण्ड पश्चिम की ओर घूम जाता है।[11]

काल या युग

  • वैदिक ग्रंथों में वर्ष के कई नाम थे, जैसे - संवत्सर, समा, वर्ष।
  • नारदसंहिता[12] में कहा गया है कि काल के नौ प्रकार के मान थे, -
  1. ब्राह्म - ब्रह्मा का,
  2. दैव - देवों का,
  3. मानुष - मानव,
  4. पित्र्य -पितरों का,
  5. सौर,
  6. सावन,
  7. चान्द्र,
  8. नाक्षत्र एवं
  9. बार्हस्पत्य, किन्तु सामान्य भौतिक कार्यों में इनमें केवल पाँच ही प्रयुक्त होते हैं।[13]
  • वेदांग-ज्योतिष ने चार प्रकार दिए हैं, क्योंकि उसमें आया है कि एक युग (पाँच वर्षों के) में 61 सावन मास, 62 चान्द्र मास, 67 नाक्षत्र मास होते हैं।
  • हेमाद्रि[14] ने केवल तीन वर्ष-मान बताये हैं, यथा चन्द्र, सौर एवं सावन।
  • माधव[15] ने दो और लिखे हैं, यथा नक्षत्र एवं बार्हस्पत्य।
  • विष्णुधर्मोत्तर ने चार का उल्लेख किया है। (बार्हस्पत्य छोड़ दिया है।)
  • हेमाद्रि द्वारा वर्णित तीन अधिकतर धार्मिक एवं लौकिक कार्यों में प्रयुक्त होते रहे हैं।

चान्द्र वर्ष

एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक की अवधि को चान्द्र मास कहते हैं। ऐसे 12 मासों से 354 दिनों वाला एक चान्द्र वर्ष बनता है। इसे एक चन्द्रोदय से दूसरे चन्द्रोदय तक की अवधि 'ल्यूनेशन' भी कहते हैं। चान्द्र मास की अवधि 29.246 से 29.817 दिनों तक की होती है, क्योंकि चन्द्रकक्षा के थोड़े झुकाव[16] एवं अन्य कारणों से कुछ-न-कुछ अन्तर पड़ जाता है, किन्तु मध्यम लम्बाई है 29.53059 दिन।

सौर वर्ष

सौर मास उस अवधि का सूचक है जो सूर्य द्वारा एक राशि को पार करने से बनती है।

सावन वर्ष

सावन वर्ष 30 दिनों के 12 मासों का होता है और दिन की गणना एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक होती है।

नक्षत्र वर्ष

नक्षत्र मास वह है जिसमें 27 नक्षत्रों में चन्द्र के गमन की अवधि पूरी होती है।

बार्हस्पत्य वर्ष

बार्हस्पत्य वर्ष वह है जो एक राशि में बृहस्पति के भ्रमण से बनता है[17]। आजकल की गणना के अनुसार बृहस्पति सूर्य के चारों ओर 11.86 वर्षों में चक्कर लगा लेता है। ये चार या पाँच काल-विभाग प्रारम्भिक ग्रन्थों में नहीं वर्णित हैं। यहाँ तक की पश्चात्कालीन गणना में चार विभागों का उपयोग नहीं हुआ है, यद्यपि ज्योतिःशास्त्रीय ग्रन्थों में उनका उल्लेख अवश्य हुआ है।

  • कौटिल्य[18] ने व्याख्या दी है कि श्रमिकों का मास 30 अहोरात्र[19] का होता है, सौर मास 1 दिन बड़ा होता है[20], चन्द्र मास में 1 दिन कम 29½ दिन, नक्षत्र मास में 27 दिन, मलमास में 32 दिन[21]। जो लोग घोड़ों को चराते हैं या रखवाली करते हैं उनके मास में पारिश्रमिक के लिए 35 दिन तथा हस्तिवाहकों[22] के मास में पारिश्रमिक के लिए 40 दिन होते हैं।[23]

सौर गणना

चन्द्र गणना

चन्द्र गणना से तिथियों, करणों, मलमास, मास या क्षयमास, रात्रि के कृत्यों का ज्ञान होता है।

सावन गणना

सावन गणना से यज्ञों, सवनों (तीन सोम यज्ञों), ग्रह-गतियों, उपवासों, जनन-मरण-आशौचों, चिकित्सा, प्रायश्चित्तों तथा अन्य धार्मिक कृत्यों का ज्ञान मिलता है।[25]

आधुनिक काल में वर्ष गणना

बार्हस्पत्य मान

  • विष्णुधर्मोत्तर[37] का कथन है कि षष्ट्यब्द का प्रभव नामक प्रथम वर्ष माघ शुक्ल से आरम्भ हुआ, जब सूर्य एवं चन्द्र धनिष्ठा नक्षत्र में थे और बृहस्पति से उनका योग था।
  • बृहस्पति संहिता[38] में षष्ट्यब्द के विभव से 60वें क्षय तक के फलों का उल्लेख है।[39]। षष्ट्यब्द के प्रत्येक वर्ष के साथ 'संवत्सर' शब्द जुड़ा हुआ है। दक्षिण में प्रत्येक वर्ष के आरम्भ में बार्हस्पत्य नाम सदा परिवर्तित रहा है; किन्तु उत्तर भारत में 'प्रभव' के स्थान पर 'विजय' शब्द रहा है। बार्हस्पत्य वर्ष का विस्तार 361. 9267 दिनों का है और यह नाक्षत्र वर्ष से 4.23 दिन कम हैं। इसका परिणाम यह है कि 85 नाक्षत्र वर्षों में 86 बार्हस्पत्य वर्ष हैं और 85 वर्षों के उपरान्त एक वर्ष का क्षय हो जाता है।

मास

मासों का विषय अत्यन्त जटिल है। भारतीयों ने आदि काल से ही चन्द्र सौर पंचांग का प्रयोग किया है और यही बात बेबिलोन, चाल्डिया के लोगों, यहूदियों एवं चीनियों के बीच पायी गयी है। अतः सभी ने मलमास का सहारा लिया है। किन्तु भारतीयों में क्षय मास बहुत विरल था, जिसका अन्य देशों में अभाव था। यह अन्तर सूर्य एवं चन्द्र की गतियों एवं स्थानों की गणना के विभिन्न ढंगों के कारण उपस्थित हुआ। अधिक मास की अनिवार्यता पर कुछ शब्द यहाँ पर दिए जाते हैं। सौर वर्ष चन्द्र वर्ष से 11 दिनों से थोड़ा अधिक बड़ा होता है। यह अधिकता लगभग 32 मासों में से एक चन्द्र मास की होती है। बेबिलोनियों के 19 वर्षों के एक वृत्त 7 मलमास अर्थात् सब मिलाकर 235 चान्द्र मास थे। इसी वृत्त को यूनान में 'अथेनियानिवासी मेटान' के नाम पर 'मेटानिक साइकिल' (वृत्त) कहा गया। इसी के आधार पर यहूदी एवं ईसाई पंचांग बने, विशेषतः ईस्टर से सम्बन्धित।

  • वेदांग-ज्योतिष से प्रकट है कि एक युग (पाँच वर्षों के वृत्त) में दो मलमास होते थे, एक था ढाई सौ वर्षों के उपरान्त, दूसरा आषाढ़ और दूसरा युग के अन्त में दूसरा पौष। यही बात कौटिल्य ने कही है।
  • पुराणों में मलमास की विविध अवधियों का उल्लेख है।
  • एक अपेक्षाकृत अधिक निश्चित नियम यह है कि वह चान्द्र मास, जिसमें संक्रान्ति नहीं होती, अधिक कहलाता है और आगे के मास के नाम से, जो शुद्ध या निज या प्राकृत कहलाता है, द्योतित होता है।
  • यदि एक सौर मास में दो अमावस्या पड़ती हो तब मलमास होता है।
  • चान्द्र मास में जब दो संक्रान्तियाँ होती हैं तो दो मास हो जाते हैं, जिनमें प्रथम स्वीकृत होता है और दूसरा छोड़ दिया जाता है। यह दूसरा क्षयमास कहलाता है। इसका तात्पर्य यह है कि जब एक मास में दो संक्रान्तियाँ होती हैं तो क्षयमास होता है। वह चान्द्र मास जिसमें सूर्य मेष राशि में प्रविष्ट होता है, चैत्र तथा जिसमें वह वृषभ राशि में प्रवेश करता है वह वैशाख कहलाता है।
  • अधिक एवं क्षय मास फाल्गुन से आश्विन तक के सात मास केवल अधिक हो सकते हैं, क्षय नहीं।
  • कार्तिक एवं मार्गशीर्ष अधिक एवं क्षय दोनों हो सकते हैं, किन्तु ऐसा बहुत कम होता है। मास अधिक हो सकता है, किन्तु यह अधिक या क्षय कभी नहीं हुआ है।[40], किन्तु शुद्धिकौमुदी[41] में आया है कि शक संवत 1397 में 'माघ मास का क्षय' हुआ था।
  • मलमासतत्त्व[42] में उद्धरण आया है कि माघ मलमास हो सकता है, किन्तु पौष नहीं।
  • केतकर[43] के मत से पौष के अधिक मास होने की सम्भावना नहीं है किन्तु वह मार्गशीर्ष की अपेक्षा क्षय मास होने की अधिक सम्भावना रखता है। क्षय मास सामान्यतः अधिक मास के पूर्व या उपरान्त (तुरन्त उपरान्त नहीं) होता है, अतः जब कुछ वर्षों में क्षय मास होता है तो दो अधिक मास पाये जाते हैं।[44]
  • महाभारत, शान्तिपर्व[45] ने संवत्सरों, मासों, पक्षों एवं दिवसों के क्षय का उल्लेख किया है। जब क्षयमास होता है तो इसके पूर्व का अधिक मास अन्य साधारण मासों के समान पवित्र रहता है, अर्थात् उसमें धार्मिक कृत्य करना मना नहीं है, तथा वह अधिक मास जो क्षयमास के उपरान्त आता है, धार्मिक कृत्यों के लिए वर्जित घोषित किया गया है।

उदाहरण - यदि चैत्र अमावस्या को मेष संक्रान्ति है, और अमावस्या से आगे की तिथि से दूसरी अमावास्या (जो वैशाख है) तक कोई संक्रान्ति नहीं है, और तब उसके उपरान्त प्रथम तिथि में वृषभ संक्रान्ति है, तो ऐसी स्थिति में वह मास जिसमें संक्रान्ति नहीं हैं अधिक वैशाख कहा जाएगा।, और वह मास जिसमें वृषभ संक्रान्ति पड़ती है, शुद्ध वैशाख होगा।

क्षयमास का उदाहरण लें - यदि भाद्रपद अमावस्या को कन्या संक्रान्ति है, उसके उपरान्त अधिक आश्विन के बाद शुद्ध आश्विन आता है, जिसकी प्रथम तिथि पर तुला संक्रान्ति है, इसके उपरान्त कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को वृश्चिक संक्रान्ति है, और मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा को धनु संक्रान्ति है और उसी मास की अमावस्या को मकर संक्रान्ति पड़ती है। ऐसी स्थिति में दो संक्रान्तियों (धनु एवं मकर) वाला मास क्षयमास होगा और तब पौष (मार्गशीर्ष एवं पौष से बने) का एक मास होगा। जब माघ अमावस्या को कुम्भ संक्रान्ति है तो फाल्गुन अधिक मास होगा और शुद्ध फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा को मीन संक्रान्ति होगी। इस प्रकार उस वर्ष में, जिसमें क्षयमास होता है, अब भी 13 मास होते हैं और उसके दिन 390 से थोड़े कम होते हैं।

  • कृत्यरत्नाकर में आया है[46], धर्मशास्त्र में नाक्षत्र मास की आवश्यकता नहीं पड़ती, यह केवल ज्योतिष शास्त्र में ही चलता है। पंचांग सामान्यतः प्रत्येक वर्ष के लिए बनते हैं। उनमें 12 (या 13, जब मलमास होता है) के दो पक्षों के पृथक् पृष्ठ होते हैं।
  • भारतीय पंचांग के पाँच महत्त्वपूर्ण भाग हैं -
  1. तिथि
  2. सप्ताह
  3. दिन
  4. नक्षत्र
  5. योग एवं करण।
  • मुहूर्तदर्शन[47] के मत से इसमें राशियों के समावेश से छः तथा ग्रहों की स्थितियों के उल्लेख से सात भाग होते हैं। एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक एक वार (दिन) होता है।
  • बारह महीनों एवं उनके दो-दो गठित 6 ऋतुओं का उल्लेख बहुत प्राचीन है।[48]
  • मासों के वैदिक नाम हैं-
  1. मधु
  2. माधव
  3. शुक्र
  4. शुचि
  5. नभस्
  6. नभस्य
  7. इष
  8. ऊर्ज
  9. सहस्
  10. सहस्य
  11. तपस् एवं
  12. तपस्य।
  • ब्राह्मणों में नक्षत्रों से ज्ञापित चान्द्र मासों का उल्लेख है। इसी से कुछ लोग सौर एवं चान्द्र ऋतुओं का भी उल्लेख करते हैं। सौर मास मीन राशि या मेष राशि से आरम्भ होते हैं तथा चैत्र आदि (या शेष वाले) कहलाते हैं।
  • पाणिनी ने मासों की व्युत्पत्ति की है, यथा चित्रायुक्त पौर्णमासी से चैत्र, और स्पष्ट रूप से[49] आग्रहायणी, फाल्गुनी, श्रवण, कार्तिकी एवं चैत्री[50] के नाम दिए हैं। 'पौर्णमासी' पूर्णमास से व्युत्पन्न है[51]। पुष्य नक्षत्र वाली पौर्णमासी तिथि 'पौषी' कही गई है[52]
  • इस प्रकार विकास के तीन स्तर है -
  1. 27 नक्षत्रों के रूप प्रकट हुए और उनके नाम वैदिक संहिताओं में ही प्रचलित हो गए;
  2. इसके उपरान्त पौर्णमासी चैत्री पौर्णमासी कही गई आदि, क्योंकि इस तिथि पर चन्द्र चित्रा नक्षत्र में था, आदि;
  3. इसके उपरान्त मासों के नाम यों पड़े - चैत्र, वैशाख आदि, क्योंकि उनमें चैत्री या वैशाखी पौर्णमासी थी। यह सब पाणिनि के बहुत पहले प्रचलित हुआ। आगे चलकर सौर मास मधु, माधव आदि चैत्र, वैशाख आदि चान्द्र मासों से द्योतित होने लगे और समानार्थी हो गए। यह कब हुआ, कहना कठिन है। किन्तु ईसा के बहुत पहले ऐसा हुआ। पौर्णमासी के दिन चन्द्र भले ही चित्रा या श्रवण नक्षत्र में या उसके पास न हो किन्तु मास तब भी चैत्र या श्रावण कहलाता है।
  • प्राचीन ब्राह्मण कालों में मास पूर्णिमान्त (पूर्णिमा से अन्त होने वाले) थे। यहाँ तक की कनिष्क एवं हुविष्क जैसे उत्तर भारत के विदेशी शासकों के वृत्तान्तों में पूर्णिमान्त मासों का प्रयोग पाया जाता है, किन्तु कहीं-कहीं मैसीडोनी नाम भी आए हैं।
  • ईसा पूर्व के शिलालेखों में मासों[53] के नाम बहुत कम आए हैं। प्रचलित ढंग था ऋतु, तदुपरान्त ऋतु में नामरहित मास तथा दिवस का उल्लेख। कहीं-कहीं केवल ऋतु, पक्षों की संख्या एवं दिन के नाम आए हैं। कभी-कभी मास का नाम आया है, किन्तु पक्ष या दिनों के नाम लगातार (1 से 30 तक) नहीं आए हैं। यह स्थिति, अर्थात् पक्षों एवं दिनों की वर्णन रहितता, 9वीं शती तक चली गई। आजकल लोग सुदि, वदि या वद्य का प्रयोग करते हैं, उनमें प्रथम (अर्थात् सुदि) शुक्ल दिन (या दिवस) या शुद्ध दिन का छोटा रूप है तथा दूसरा (वदि) बहुल दिन या दिवस (व या ब परिवर्तित होते रहते हैं) का छोटा रूप है। वद्य का अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता। यह नहीं समझ में आता कि ईसा के पूर्व एवं उपरान्त के बहुत-से शिलालेखों में 'पक्ष' शब्द का उल्लेख क्यों नहीं हुआ है, जबकि ब्राह्मणों एवं उपनिषद जैसे प्राचीन ग्रन्थों में उसका उल्लेख हुआ है।
  • दक्षिण भारत में मासों के नाम राशियों पर आधारित हैं, यथा - मीन-मास, मेष-मास आदि। यही प्रयोग पाण्डय देश में भी प्रचलित था।

अधिक मास

  • अधिक मास कई नामों से विख्यात है - अधिमास, मलमास, मलिम्लुच, संसर्प, अंहस्पति या अंहसस्पति, पुरुषोत्तममास। इनकी व्याख्या आवश्यक है। यह द्रष्टव्य है कि बहुत प्राचीन काल से अधिक मास निन्द्य ठहराये गए हैं।
  • ऐतरेय ब्राह्मण[54] में आया हैः 'देवों ने सोम की लता 13वें मास में ख़रीदी, जो व्यक्ति इसे बेचता है वह पतित है, 13वाँ मास फलदायक नहीं होता।'
  • तैतरीय संहिता में 13वाँ मास 'संसर्प' एवं 'अंहस्पति'[55] कहा गया है।
  • ऋग्वेद में 'अंहस्' का तात्पर्य पाप से है। यह अतिरिक्त मास है, अतः अधिमास या अधिक मास नाम पड़ गया है। इसे मलमास इसलिए कहा जाता है कि मानों यह काल का मल है।
  • अथर्ववेद[56] में 'मलिम्लुच' आया है, किन्तु इसका अर्थ स्पष्ट नहीं है।
  • काठसंहिता[57] में भी इसका उल्लेख है।
  • पश्चात्कालीन साहित्य में 'मलिम्लुच' का अर्थ है 'चोर'।[58]
  • मलमासतत्त्व[59] में यह व्युत्पत्ति हैः 'मली सन् म्लोचति गच्छतीति मलिम्लुचः' अर्थात् 'मलिन (गंदा) होने पर यह आगे बढ़ जाता है'। 'संसर्प' एवं 'अंहसस्पति' शब्द वाजसनेयी संहिता[60] में तथा 'अंहसस्पतिय वाजसनेयी संहिता[61] में आए हैं।[62]
  • 'अंहसस्पति' का शाब्दिक अर्थ है 'पाप का स्वामी'। पश्चात्कालीन लेखकों ने 'संसर्प' एवं 'अंहसस्पति' में अन्तर व्यक्त किया है। जब एक वर्ष में दो अधिमास हों और एक क्षय मास हो तो दोनों अधिमासों में प्रथम 'संसर्प' कहा जाता है और यह विवाह को छोड़कर अन्य धार्मिक कृत्यों के लिए निन्द्य माना जाता है। अंहसस्पति क्षय मास तक सीमित है। कुछ पुराणों में[63] अधिमास पुरुषोत्तम मास (विष्णु को पुरुषोत्तम कहा जाता है) कहा गया है और सम्भव है, अधिमास की निन्द्यता को कम करने के लिए ऐसा नाम दिया गया है।
  • धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में अधिमास के विषय पर बहुत कुछ लिखा हुआ है-
  • अग्नि पुराण[64] में आया है - वैदिक अग्नियों को प्रज्वलित करना, मूर्ति-प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रत, संकल्प के साथ वेद-पाठ, साँड़ छोड़ना (वृषोत्सर्ग), चूड़ाकरण, उपनयन, नामकरण, अभिषेक अधिमास में नहीं करना चाहिए।
  • हेमाद्रि[65] ने वर्जित एवं मान्य कृत्यों की लम्बी-लम्बी सूचियाँ दी हैं।[66]
  • सामान्य नियम यह है कि मलमास में नित्य कर्मों एवं नैमित्तिक कर्मों (कुछ विशिष्ट अवसरों पर किए जाने वाले कर्मों) को करते रहना ही चाहिए, यथा सन्ध्या, पूजा, पंचमहायज्ञ (ब्रह्मयज्ञ, वैश्वदेव आदि), अग्नि में हवि डालना (अग्निहोत्र के रूप में), ग्रहण-स्नान (यद्यपि यह नैमित्तिक है), अन्त्येष्टि कर्म (नैमित्तिक)। यदि शास्त्र कहता है कि यह कृत्य (यथा सोम यज्ञ) नहीं करना चाहिए तो उसे अधिमास में स्थगित कर देना चाहिए। यह भी सामान्य नियम है कि काम्य (नित्य नहीं, वह जिसे किसी फल की प्राप्ति के लिए किया जाता है) कर्म नहीं करना चाहिए। कुछ अपवाद भी हैं, यथा कुछ कर्म, जो अधिमास के पूर्व ही आरम्भ हो गए हों (यथा 12 दिनों वाला प्राजापत्य प्रायश्चित, एक मास वाला चन्द्रायण व्रत), अधिमास तक भी चलाए जा सकते हैं। यदि दुभिक्ष हो, वर्षा न हो रही हो तो उसके लिए 'कारीरी इष्टि' अधिमास में भी करना मना नहीं है, क्योंकि ऐसा न करने से हानि हो जाने की सम्भावना रहती है। ये बातें कालनिर्णय-कारिकाओं (21-24) में वर्णित हैं।[67]
  • कुछ बातें मलमास के लिए ही व्यवस्थित हैं, यथा प्रतिदिन या कम से कम एक दिन ब्राह्मणों को 33 अपूपों (पूओं) का दान करना चाहिए।
  • कुछ ऐसे कर्म हैं जो शुद्ध मासों में ही करणीय हैं, यथा वापी एवं तड़ाग (बावली एवं तलाब) खुदवाना, कूप बनवाना, यज्ञ कर्म, महादान एवं व्रत।
  • कुछ ऐसे कर्म हैं जो अधिमास एवं शुद्ध मास, दोनों में किए जा सकते हैं, यथा गर्भ का कृत्य (पुंसवन जैसे संस्कार), ब्याज लेना, पारिश्रमिक देना, मास-श्राद्ध (अमावस्या पर), आह्निक दान, अन्त्येष्टि क्रिया, नव-श्राद्ध, मघा नक्षत्र की त्रयोदशी पर श्राद्ध, सोलह श्राद्ध, चान्द्र एवं सौर ग्रहणों पर स्नान, नित्य एवं नैमित्तिक कृत्य[68]
  • जिस प्रकार हमारे यहाँ 13वें मास (मलमास) में धार्मिक कृत्य वर्जित हैं, पश्चिम देशों में 13वीं संख्या अभाग्यसूचक मानी जाती है, विशेषतः मेज पर 13 चीज़ों की संख्या।

सौर दिन

दोनों सूर्योदयों के बीच की कालावधि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अवधि मानी जाती है। यह सौर दिन है और लोक-दिन भी। किन्तु तिथि तो काल का चान्द्र विभाग है जिसका सौर दिन के विभिन्न दिग्-विभागों में अन्त होता है। 'दिन' शब्द के दो अर्थ है-

  1. सूर्योदय से सूर्यास्त तक,
  2. सूर्योदय से सूर्योदय तक।
  • ऋग्वेद[69] में 'अहः' शब्द का दिन के 'कृष्ण' भाग (रात्रि) एवं 'अर्जुन' (चमकदार या श्वेत) भाग की ओर संकेत है[70]। ऋग्वेद में रात्रि शब्द का प्रयोग उतना नहीं हुआ है जितना कि 'अहन्' का, किन्तु 'दिन' का सामासिक प्रयोग अधिक हुआ है, यथा - सुदिनत्व', 'सुदिन', मध्यन्दिन।'

सप्ताह

  • भारतीय पंचांगों के पाँच अंगों में एक सप्ताह-दिन भी है। अतः दिनों एवं सप्ताह-दिनों पर संक्षेप में लिखना आवश्यक है।
  • सप्ताह केवल मानव निर्मित व्यवस्था है। इसके पीछे कोई ज्योतिःशास्त्रीय या प्राकृतिक योजना नहीं है।
  • स्पेन आक्रमण के पूर्व मेक्सिको में पाँच दिनों की योजना थी।
  • सात दिनों की योजना यहूदियों, बेबिलोनियों एवं दक्षिण अमेरिका के इंका लोगों में थी।
  • लोकतान्त्रिक युग में रोमनों में आठ दिनों की व्यवस्था थी, मिस्रियों एवं प्राचीन अथेनियनों में दस दिनों की योजना थी।
  • ओल्ड टेस्टामेण्ट में आया है कि ईश्वर ने छः दिनों तक सृष्टि की और सातवें दिन विश्राम करके उसे आशीष देकर पवित्र बनाया। - जेनेसिरा[71], एक्सोडस[72] एवं डेउटेरोनामी[73] में ईश्वर ने यहूदियों को छः दिनों तक काम करने का आदेश दिया है और एक दिन (सातवें दिन) आराम करने को कहा है और उसे ईश्वर के सैब्बाथ (विश्रामवासर) के रूप में पवित्र मानने की आज्ञा दी है।
  • यहूदियों ने सैब्बाथ (जो कि सप्ताह का अन्तिम दिन है) को छोड़कर किसी दिन को नाम नहीं दिया है; उसे वे रविवार न कहकर शनिवार मानते हैं।
  • ओल्ड टेस्टामेण्ट में सप्ताह-दिनों के नाम (व्यक्तिवाचक) नहीं मिलते। ऐसा प्रतीत होता है कि न्यू टेस्टामेण्ट में भी सप्ताह-दिन केवल संख्या से ही द्योतित हैं[74]। सप्ताह में कोई न कोई दिन कतिपय देशों एवं धार्मिक सम्प्रदायों द्वारा सैब्बाथ (विश्रामदिन) या पवित्र माना गया है, यथा - सोमवार यूनानी सैब्बाथ दिन, मंगल पारसियों का, बुध असीरियों का, बृहस्पति मिस्रियों का, शुक्र मुसलमानों का, शनिवार यहूदियों का एवं रविवार ईसाईयों का पवित्र विश्रामदिन है।
  • टॉल्मी ने अपने 'टेट्राबिल्लास' में सप्ताह का ज्योतिषीय-प्रयोग नहीं दिया है। आज के दिनों के नाम ग्रहों पर आधारित हैं, जैसे-
  1. सूर्य
  2. चन्द्र
  3. मंगल
  4. बुध
  5. बृहस्पति
  6. शुक्र एवं
  7. शनि नामक सात ग्रहों पर आधारित हैं। कई कारणों से रविवार सप्ताह का प्रथम दिन है; एक कारण यह है कि उसी दिन सृष्टि का आरम्भ हुआ। जिस प्रकार दिनों का क्रम है, उसमें ग्रहों की दूरी, उनके गुरुत्व, प्रकाश एवं महत्ता का कोई समावेश नहीं है।
  • याज्ञवल्क्य स्मृति[75] ने ग्रहों का क्रम इस प्रकार दिया है-
  1. सूर्य
  2. चन्द्र
  3. मंगल
  4. बुध
  5. बृहस्पति
  6. शुक्र
  7. शनि
  8. राहु एवं
  9. केतु।

संदर्भ पुस्तकें

  • जो लोग भारतीय ज्योतिषशास्त्र (ऐस्ट्रानोमी) के विषय में जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं वे निम्न ग्रन्थों एवं लेखों को पढ़ सकते हैं—
  1. वारेन का काल संकलित; सूर्यसिद्धान्त (ह्विटनी द्वारा अनूदित);
  2. वराहमिहिर की पञ्जसिद्धान्तिका (थिबो एवं सुधाकर द्विवेदी द्वारा अनुदित);
  3. जे. बी. जविस कृत 'इण्डिएन मेट्रालोजी';
  4. शंकर बालकृष्ण दीक्षित का इण्डिएन कैलेण्डर (1896 ई.);
  5. सेवेल कृत 'इण्डिएन कोनोग्राफी' (1912 ई.);
  6. सेवेल कृत 'सिद्धान्ताज़ एण्ड इण्डिएन कैलेण्डर;
  7. लोकमान्य तिलक कृत 'वेदिक क्रोनोजोजी एण्ड वेदांगज्योतिष' (1925);
  8. दीवान बहादुर स्वामकिन्नू पिल्लई कृत 'इण्डिएन एफिमेरिस' (सात जिल्दों में);
  9. वी. बी. केतकर कृत 'ज्यातिर्गणितम्, केतकी, वैजयन्ती, ग्रहगणित, एवं एण्डिएन एण्ड फारेन क्रोनोलोज़ी;
  10. जैकोवी के लेख (एपिग्रैफ़िया इण्डिका, जिल्द 1, पृ. 403-460; जिल्द 2, पृ. 487-498; जिल्द 12, पृ. 47, वही, पृ. 158);
  11. सेवेल के लेख (ए. इ., जिल्द 14, पृ. 1, 24; जिल्द 15, पृ. 159; जिल्द 16, पृ. 100-221; जिल्द 17, पृ. 17, 173, 205;
  12. इण्डिएन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली, जिल्द 4, पृ. 483-511, जिल्द 10, पृ. 332-336);
  13. नाटिकल एल्मैनेक (1935);
  14. प्रो. सेनगुप्त कृत 'ऐंश्येण्ट इण्डियन क्रोनोलॉजी' 1947, कलकत्ता विश्वविद्यालय;
  15. डॉ. के एल. दफ़्तरी कृत 'करण-कल्पलता', संस्कृत में;
  16. 'भारतीय ज्योषि-शास्त्र निरीक्षण', मराठी में;
  17. डॉ. मेघनाथ साहा का लेख 'रिफार्म ऑफ दि इण्डियन कैलेण्डर', साइंस एण्ड कल्चर, कलकत्ता, 1952, पृ. 57-68, 109-123);
  18. रिपोर्ट ऑफ द कैलेण्डर रिफॉर्म कमिटी, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित, 1955, यह बहुत लाभदायक ग्रन्थ है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आर्यभट, पर आधारित मध्यकाल की गणनाएँ, जो अपेक्षाकृत कम ठीक फल प्रकट करती हैं
  2. वैष्णवों के एक सम्प्रदाय के लोगों
  3. ऋग्वेद - 1।25।8
  4. आठ वर्षों के वृत्त
  5. अमेरिकन जर्नल ऑफ सेमेटिक लैंग्वेजेज़, जिल्द 55, 1938, पृ. 116
  6. जर्नल ऑफ हेलेनिस्टिक स्टडीज़, जिल्द 39, पृ. 179
  7. कैलेण्डर रिफॉर्म कमिटी की रिपोर्ट, पृ. 175-176।
  8. यह पश्चात्कालीन रचना है, जिसमें यह आया है कि यह गतकलि 3068 अर्थात् ईसा संवत् से 33 वर्ष पूर्व में निर्मित हुआ
  9. नन्द-यूप शिलालेख में 282 कृत वर्ष; तीन यूपों के मौखरी शिलालेखों में 295 कृत वर्ष; विजयगढ़ स्तम्भ-अभिलेख में 428; मन्दसौर में 461 तथा गदाधर में 480
  10. एक ही अचल तारे पर सूर्य की लगातार एक के उपरान्त एक दो बार पहुँच के बीच का समय
  11. पृथ्वी की दो गतियों (अपनी धुरी पर इसकी प्रतिदिन की गति या चक्कर और सूर्य के चतुर्दिक् इसके वार्षिक चक्कर) के अतिरिक्त एक तीसरी गति भी है जिसे लोग भली-भाँति नहीं जानते हैं। पृथ्वी पूर्णतः गोलक नहीं है, इसका निरक्षीय अर्थात् भूमध्य रेखीय व्यास इसके ध्रुवीय व्यास से बड़ा है। जिसका फल यह होता है कि भूमध्य रेखा पर पदार्थ-समूह उभरा हुआ है, जो उस स्थिति से अधिक है जब कि पृथ्वी पूर्णरूपेण गोल होती। पृथ्वी की धुरी पर एक हल्की सूच्याकार चक्कर में घूमने वाली गति है, जो लट्टू के समान है और वह 25,8000 वर्षों में एक चक्कर लगा पाती है। यह वार्षिक हटना 50".2 सेकेण्ड का है, जो सूर्य एवं चन्द्र के निरक्षीय उभार पर खिंचाव के कारण होता है। इसी से स्थिर तारे, यहाँ तक कि ध्रुव तारा भी एक शती के उपरान्त दूसरी शती या दूसरे काल में अपने स्थानों से परिवर्तित दृष्टिगोचर होते हैं। - नॉर्मन लॉकर एवं हिक्की
  12. नारदसंहिता 3|1-2
  13. ब्राह्मं दैवं मानुषं च पित्र्यं सौरं च सावनम्।
    चान्द्रमार्क्ष गुरोर्मानमिति मानानि वै नव।।
    एषां तु नवमानां व्यवहारोऽत्र पञ्चभिः।
    तेषां पृथक्-पृथक् कार्य वक्ष्यते व्यवहारतः।। नारद-संहिता (3|1-2)।
    कल्प ब्रह्मा का दिन है (सूर्यसिद्धान्त 1|20)!;
    एक मानव-वर्ष देवों के एक दिन के बराबर है (एकं वा एतद् देवानामहो यत्संवत्सरः। तैत्तिरीय ब्राह्मण, 3|9|22|1);
    एक मानव-मास पितरों का अहोरात्र है (मनु 1|66)।
    मानुषमान (मानव मान) विमिश्र (मिश्रित) है क्योंकि लोग विभिन्न उपयोगों के लिए चार मान प्रयुक्त करते हैं, जैसा कि सि0 शि0 (1|30-31) में उल्लिखित है -
    ज्ञेयं विमिश्रं तु मनुष्यमानं मानैश्चर्भिर्व्यवहारवृत्तेः।।
    वर्षायनर्तुयुगपूर्वकमत्र सौरान् मासास्तथा च तिथयस्तुहिनांशुमानात्।
    यत्कृच्छ्रसूतक चिकित्सिवासराद्यं तत्सावनाच्च घटिकादकिमार्क्षमानात्।।) किन्तु उसने आगे कहा है (1|32) कि ग्रहों के मान मानव मान से किए जाते हैं (ग्रहास्तु साध्या मनुजैः स्वमानात्)

  14. काल, पृ. 9
  15. कालनिर्णयकारिका 11-12
  16. विपथगामिता
  17. लगभग 361 दिन का वर्ष
  18. अर्थशास्त्र, 2|120, पृ. 108
  19. दिन-रात्र
  20. एक मास में 30½ दिन
  21. या 32वें मास में यह घटित होता है
  22. पीलवानों
  23. त्रिंशदहोरात्रः प्रकर्मभासः।
    सार्धसौरः (सार्धः सौरः)।
    अर्धन्यूनश्चान्द्रमासः।
    सप्तर्विशतिर्नक्षत्रमासः।
    द्वार्त्रिशद् मलमासः।
    पञ्चर्त्रिशदश्ववाहायाः।
    चत्वार्रिशद्धस्तिवाहायाः। अर्थशास्त्र (2|20, पृ. 108)।
    महाभाष्य (पाणिनि 4|2|21 के वार्तिक 2 पर) ले भृतकमास (वेतन वाली नौकरी के मास) का उल्लेख किया है जो प्रकर्ममास का परिचायक-सा है।

  24. बृहत्संहिता 2|4, पृ. 40 पर उत्पल द्वारा उद्धृत
  25. विष्णुधर्मोत्तर (1|72|26-27)।
  26. तैत्तिरीय ब्राह्मण 1|1|2|13; कौषीतकि ब्राह्मण 5|1; शांखायन ब्राह्मण 19|3; ताण्ड्य ब्राह्मण 5|9|7-12 आदि)।
  27. कालनिर्णय पृ. 61
  28. स्मृतिचन्द्रिका श्राद्ध, पृ. 377
  29. उत्तर भारत
  30. वेदांगज्योतिष 1|5
  31. पाँच वर्ष
  32. सचौ 2, पृ. 8-9
  33. कौटिल्य, अर्थशास्त्र 2|6, पृ. 63
  34. महाभारत, वनपर्व130|14-16
  35. महाभारत। अनुशासन, 106|17-30
  36. कृत्यरत्नाकर पृ. 452
  37. विष्णुधर्मोत्तर (1|82|8)
  38. बृहस्पति संहिता 4|27|-52
  39. विष्णुधर्मोत्तर (1|82|9), अग्नि पुराण (अध्याय 139) एवं भविष्य पुराण (ज्योतिस्तत्त्व, पृ. 692-697 में उद्धृत
  40. केतकर का ग्रन्थ, इण्डियन एण्ड फारेन क्रोनोलाजी, पृ. 40
  41. शुद्धिकौमुदी पृ. 272
  42. मलमासतत्त्व पृ. 774
  43. केतकर का ग्रन्थ, इण्डियन एण्ड फॉरेन क्रोनोलाजी पृ. 40
  44. कैलेण्डर रिफॉर्म कमिटी रिपोर्ट, पृ. 246-252।
  45. महाभारत, शान्तिपर्व 301|46-47
  46. कृत्यरत्नाकर पृ. 80
  47. मुहूर्तदर्शन 1|44
  48. तैत्तिरीय संहिता (4|2|31), वाजसनेयी संहिता (13|25
  49. पाणिनी, अष्टाध्यायी 4|2|22
  50. पाणिनी, अष्टाध्यायी 4|2|23
  51. वार्तिक 2, पा0 4|3|35
  52. पाणिनी, अष्टाध्यायी 4|2|2 एवं 4|2|31
  53. ई0 पूर्व दूसरी शती के मेनेण्डर के खरोष्ठी अभिलेख में कार्तिक चतुर्दशी का उल्लेख है
  54. ऐतरेय ब्राह्मण 3|1
  55. तैतरीय संहिता 1|4|4|1 एवं 6|5|3|4
  56. अथर्ववेद 8|6|2
  57. काठसंहिता 38|14
  58. ऋग्वेद 10|136|2, वाजसनेयी संहिता (22|30), शांखायन श्रौतसूत्र (6|12|15
  59. मलमासतत्त्व पृ. 768
  60. वाजसनेयी संहिता 22|30 एवं 31
  61. वाजसनेयी संहिता 7|31
  62. तैतरीय संहिता (1|4|14|1 एवं 6|5|3|4
  63. पद्म पुराण, 6|64
  64. अग्नि पुराण 175|29-30
  65. हेमाद्रि, काल, पृ. 36-63
  66. निर्णयसिन्धु (पृ. 10-15) एवं धर्मसिन्धु (पृ. 5-7
  67. काम्यारम्भं तत्समाप्तिं विवर्जयेत्।
    आरब्धं मलमासात् प्राक् कृच्छ्रं चान्द्रादिकं तु यत्।
    तत्समाप्यं सावनस्य मानस्यानतिलंघनात्।।
    आरम्भस्य समाप्तेश्च मध्ये स्याच्चेन्मलिम्लुचः।
    प्रवृत्तमखिलं काम्यं तदानुष्ठेयमेव तु।।
    कारीर्यादि तु यत्काम्यं तस्यारम्भसमापने कार्यकालविलम्बस्य प्रतीक्षाया असम्भवात्।।
    अनन्यगतिकं नित्यमग्निहोत्रादि न त्यजेत्।
    गत्यन्तरयुतं नित्यं सोमयागादि वर्जयेत्।। - कालनिर्णय-कारिका (21-24)।

  68. हेमाद्रि, काल, पृ. 52; समय प्रकाश, पृ. 145
  69. ऋग्वेद 6|9|1
  70. अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च वि वर्तेते रजसी वेद्याभिः
  71. जेनेसिरा 2|1-3
  72. एक्सोडस 20|8-11,23|12-14
  73. डेउटेरोनामी 5|12-15
  74. मैथ्यू, 28|1; मार्क, 16|9; ल्यूक, 24|1
  75. याज्ञवल्क्य स्मृति 1|293
  76. विष्णुपुराण 1|12|92

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