बलदेव छठ

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बल्देव छठ

बलदेव छठ, बल्देव

भाद्रपद शुक्ल पक्ष की षष्ठी को ब्रज के राजा और भगवान श्रीकृष्ण के अग्रज बल्देव जी का जन्मदिन ब्रज में बड़े उल्लासपूर्वक मनाया जाता है। 'देवछठ' के दिन दाऊजी में विशाल मेला आयोजित होता है और दाऊजी के मन्दिर में विशेष पूजा एवं दर्शन होते हैं।

गर्ग पुराण के अनुसार

ब्रज के राजा दाऊजी महाराज के जन्म के विषय में 'गर्ग पुराण' के अनुसार देवकी को सप्तम गर्भ को योगमाया ने संकर्षण कर रोहिणी के गर्भ में पहुँचाया। भाद्रपद शुक्ल षष्ठी के स्वाति नक्षत्र में वसुदेव की पत्नी रोहिणी जो कि नन्दबाबा के यहाँ रहती थी, के गर्भ से अनन्तदेव 'शेषावतार' प्रकट हुए। इस कारण श्री दाऊजी महाराज का दूसरा नाम 'संकर्षण' हुआ। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि बुधवार के दिन मध्याह्न 12 बजे तुला लग्न तथा स्वाति नक्षत्र में बल्देव जी का जन्म हुआ। उस समय पाँच ग्रह उच्च के थे। इस समय आकाश से छोटी-छोटी वर्षा की बूँदें और देवता पुष्पों की वर्षा कर रहे थे।

दाऊजी महाराज का नामकरण

नन्दबाबा ने विधिविधान से कुलगुरु गर्भाचार्य जी से दाऊजी महाराज का नामकरण कराया। पालने में विराजमान शेषजी के दर्शन करने के लिए अनेक ऋषि, मुनि आये। 'कृष्ण द्वैपायन व्यास' महाराज ने नन्दबाबा को बताया कि यह बालक सबका मनोरथ पूर्ण करने वाला होगा। प्रथम रोहिणी सुत होने के कारण रोहिणेय द्वितीय सगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से आनन्दित करेंगे।

समाज सेवा एवं दैत्य संहार

बल्देव जी कृष्ण के बड़े भाई थे, दोनों भाइयों ने छठे वर्ष में प्रवेश करने के साथ ही समाज सेवा एवं दैत्य संहार का कार्य प्रारम्भ किया दिया था। उन्होंने श्रीकृष्ण के साथ मिलकर मथुरा के राजा कंस का वध किया। एक दिन किसी बात को लेकर दाऊजी महाराज जी कृष्ण से रुष्ट हो गये। इस बात को लेकर दाऊजी महाराज ने कालिन्दी की धारा को अपने हल की नोंक से विपरीत दिशा में मोड़ दिया। जिसका प्रमाण आज भी ब्रज में मौजूद है। ठाकुर श्री दाऊजी महाराज मल्ल विद्या के गुरु थे। साथ ही हल-मूसल होने के साथ वे 'कृषक देव' भी थे। आज भी किसान अपने कृषि कार्य प्रारम्भ करने से पहले दाऊजी महाराज को नमन करते हैं।

बलभद्र मंदिर और कुण्ड

श्रीदाऊ जी मन्दिर का नगाड़ख़ाना बहुत प्राचीन है। जिसको मुग़ल बादशाह ने शाही मेले के साथ बनवाया था। मन्दिर के पीछे 'क्षीर सागर' है, जिसमें श्रद्धालु स्नान आचमन करने के बाद ठाकुर जी के दर्शन करते हैं। जिसको 'बलभद्र कुण्ड' भी कहा जाता है। औरंगज़ेब जैसे हिन्दू धर्म विरोधी बादशाह को भी बलराम जी चमत्कृत किया था। बल्देव जी का मन्दिर बहुत विशाल है। प्राचीन मन्दिर में करीब आठ फुट ऊँचा, साढ़े तीन फुट चौड़ा श्याम वर्ण विग्रह विराजमान है। विग्रह के पीछे शेषनाग फन फैलाए खड़े हैं। विग्रह नृत्य की मुद्रा में है।

जन्मोत्सव

जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में मन्दिर में पाट मंगला हेतु सुबह जल्दी खुल जाते हैं। उसके बाद स्नान-श्रंगार, बाल भोग और आरती होती है। मध्याह्न 12 बजे पुन: पंचामृत अभिषेक होता है। जन्मोत्सव के दिन विशेष आभूषण तथा बहुमूल्य रत्नों से जड़ित जवाहरात धारण कराये जाते हैं। मन्दिर में बधाई गायन होता है। हल्दी, केसर, दही, मिश्रित कर गोस्वामी कल्याण देव के वंशजों एवं भक्तों पर छिड़का जाता है, जिसको 'दधिकोत्सव' के नाम से जाना जाता है। मन्दिर कमेटी द्वारा बधाई के साथ-साथ नारियल लड्डू, वस्त्र, फल आदि लुटाया जाता है और मन्दिर परिसर "नन्द के आनन्द भये जय दाऊदयाल की ध्वनि के साथ गुंजायमान रहता है। इस अवसर पर मन्दिर परिसर एवं क़स्बे में भजन संध्या तथा रसिया दंगल, काव्य गोष्ठी, यज्ञ व शोभायात्रा आदि का आयोजन किया जाता है। ठाकुर श्री दाऊजी महाराज व धर्मपत्नी माता रेवती के दर्शन भाव से सारे कष्टों से मुक्ति मिलती है व मनोवांछित फल प्राप्त होता है।

पौराणिक आख्यान

ब्रज के राजा पालक और संरक्षक कहे जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के अग्रज बलराम जी पुराणों के अनुसार बलराम जी के रूप में शेषनाग के शेषयायी विष्णु भगवान के निर्देश पर अवतार लिया था। शेषनाग के जन्म की भी कथा है। कद्रू क गर्भ से कश्यप के पुत्र के रूप में शेषनाग का जन्म हुआ। भगवान विष्णु की आज्ञा से शेषनाग ने भूमण्डल को अपने सिर पर धारण कर लिया और सबसे नीचे के लोक में स्थित हो गये। तब अतिबल चाक्षप मनु पृथ्वी के सम्राट हुए। मनु ने यज्ञ किया और यज्ञ कुण्ड से 'ज्योतिस्मती' नामक कन्या उत्पन्न हुई। नागराज शेषनाग ने अपनी पत्नी 'नागलक्ष्मी' को आदेश दिया कि तुम मनु की कन्या के रूप में यज्ञ कुण्ड से उत्पन्न होना। एक दिन मनु ने स्नेह वश पुत्री से पूछा तुम कैसा वर चाहती हो? कन्या ने कहा कि जो सबसे अधिक बलवान हो, वही मेरा स्वामी हो। राजा ने सभी देवों को बुलाकर उनकी शक्ति को जाना तो उन्होंने भगवान संकर्षण को श्रेष्ठ बलवान बताते हुए उनके गुणों का बखान किया। संकर्षण को प्राप्त करने के लिए ज्योतिस्मती ने लाखों वर्षों तक विन्ध्याचल पर्वत पर तप किया। सबने अपने-अपने बल की प्रशंसा की लेकिन ज्योतिस्मती ने भगवान संकर्षण का स्मरण कर क्रोधित कर शनि को पंगु, शुक्र को काना, बृहस्पति को स्त्रीभाव, बुध को निष्फल, मंगल को वानरमुखी, चन्द्रमा को राज्य यक्ष्मा रोगी, सूर्य को दन्तविहीन, वरुण को जलन्धर रोग, यमराज को मानभंग का श्राप दे दिया। इन्द्र का श्राप ज्योतिषाल हो गया। तब ब्रह्माजी की दृष्टि उस तेजस्विनी पर पड़ी, उन्होंने भगवान संकर्षण को प्राप्त करने का वरदान दिया, लेकिन तब तक 27 चतुर्युगी बीत गये।

अवतार का आयोजन

तब ज्योतिस्मती आनर्त देश के राजा रैवत कन्या रेवती की देह में विलीन हो गई। जब दैत्य सेनाओं ने राजाओं के रूप में उत्पन्न होकर पृथ्वी को भयानक भार से दबा दिया, तब पृथ्वी ने गौ का रूप धारण कर ब्रह्मा जी की शरण ली। देव श्रेष्ठ ब्रह्माजी ने शंकरजी को विरजा नदी के तट पर 'भगवान संकर्षण' के दर्शन किये। देवताओं ने उन्हें पृथ्वी के भार वृतान्त सुनाया तब शेषशोभी भगवान शेषनाग से कहने लगे, तुम पहले रोहिणी के उदर से प्रकट हो, मैं देवकी के पुत्र के रूप में अभिभूर्त होऊँगा। इस प्रकार मल्ल विद्या के गुरु कृष्णाग्रज बलरामजी ने भाद्रपक्ष मास षष्ठी तिथि बुधवार के दिन मध्याह्न के समय तुलालग्न में पाँच ग्रह उच्च के थे, रोहिणी आनन्द और सुख से तृत्प किया।

हल षष्ठी के दिन मथुरा मण्डल और देश के समस्त बलदेव मन्दिरों में बृज के राजा बलराम का जन्मोत्सव आज भी उसी प्रकार मनाया जाता है। बलदेव छठ को दाऊजी में हलधर जन्मोत्सव का आयोजन बड़ी भव्यता के साथ किया जाता है। दाऊजी महाराज कमर में धोती बाँधे हैं। कानों में कुण्डल, गले में वैजयन्ती माला है। विग्रह के चरणों में सुषल तोष व श्रीदामा आदि सखाओं की मूर्तियाँ हैं। बृजमण्डल के प्रमुख देवालयों में स्थापित विग्रहों में बल्देव जी का विग्रह अति प्राचीन माना जाता है। यहाँ पर इतना बड़ा तथा आकर्षक विग्रह वैष्णव विग्रहों में दिखाई नहीं देता है। बताया जाता है कि गोकुल में श्रीमद बल्लभाचार्य महाप्रभु के पौत्र गोस्वामी गोकुलनाथ को बल्देव जी ने स्वप्न दिया कि श्याम गाय जिस स्थान पर प्रतिदिन दूध स्त्रावित कर जाती है, उस स्थान पर भूमि में उनकी प्रतिमा दबी हुई है, उन्होंने भूमि की खुदाई कराकर श्री विग्रह को निकाला तथा 'क्षीरसागर' का निर्माण हुआ। गोस्वामी जी ने विग्रह को कल्याण देवजी को पूजा-अर्चना के लिये सौंप दिया तथा मन्दिर का निर्माण कराया। उस दिन से आज तक कल्याण देव के वंशज ही मन्दिर में सेवा-पूजा करते हैं।


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