प्रयाग

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इलाहाबाद / संगम / प्रयाग

  • इलाहाबाद उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक महत्वपूर्ण ज़िला है ।
  • यहाँ उत्तर प्रदेश का उच्च न्यायालय और एजी कार्यालय भी है ।
  • इलाहाबाद का अपना ऐतिहासिक महत्व है रामायण में इलाहाबाद, प्रयाग के नाम से वर्णित है।
  • इलाहाबाद गंगा और यमुना नदी पर बसा हुआ है । इलाहाबाद गंगा और यमुना के संगम के लिए बहुत प्रसिद्ध है । ऐसा माना जाता है कि इस संगम पर भूमिगत रूप से सरस्वती नदी भी आकर मिलती है ।
  • संगम का धार्मिक महत्व भी बहुत है ।
  • इलाहाबाद शहर का हिन्दी साहित्य में बहुत महत्वपूर्ण योगदान है ।
  • पूर्वी उत्तर प्रदेश में गंगा नदी के किनारे बसा इलाहाबाद भारत का पवित्र और लोकप्रिय तीर्थस्थल है । इस शहर का उल्लेख भारत के धार्मिक ग्रन्थों में भी मिलता है । वेद, पुराण, रामायण और महाभारत में इस स्थान को प्रयाग कहा गया है । गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का यहाँ संगम होता है, इसलिए हिन्दुओं के लिए इस शहर का विशेष महत्व है। 12 साल बाद यहाँ कुम्भ के मेले का आयोजन होता है । कुम्भ के मेले में 2 करोड़ की भीड़ इकट्ठा होने का अनुमान किया जाता है जो सम्भवत: विश्व में सबसे बड़ा जमावड़ा है ।

संगम स्थल

संगम, इलाहाबाद
Sangam Allahabad

गंगा-यमुना के संगम स्थल प्रयाग को पुराणों[1] में 'तीर्थराज' ( तीर्थों का राजा ) नाम से अभिहित किया गया है। इस संगम के सम्बन्ध में ॠग्वेद[2] में कहा गया है कि जहाँ कृष्ण (काले) और श्वेत (स्वच्छ) जल वाली दो सरिताओं का संगम है वहाँ स्नान करने से मनुष्य स्वर्गारोहण करता है। पुराणोक्ति यह हैं कि प्रजापति ने आहुति की तीन वेदियाँ बनायी थीं- कुरुक्षेत्र, प्रयाग और गया। इनमें प्रयाग मध्यम वेदी है। माना जाता है कि यहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती (पाताल से आने वाली) तीन सरिताओं का संगम हुआ है। पर सरस्वती का कोई बाह्य अस्तित्व दृष्टिगत नहीं होता। पुराणों[3] के अनुसार जो प्रयाग का दर्शन करके उसका नामोच्चारण करता है तथा वहाँ की मिट्टी का अपने शरीर पर आलेप करता है वह पापमुक्त हो जाता है। वहाँ स्नान करने वाला स्वर्ग को प्राप्त होता है तथा देह त्याग करने वाला पुन: संसार में उत्पन्न नहीं होता। यह केशव को प्रिय (इष्ट) है। इसे त्रिवेणी कहते है।

प्रयाग की व्युत्पत्ति

प्रयाग शब्द की व्युत्पत्ति वनपर्व[4] यज धातु से मानी गयी है। उसके अनुसार सर्वात्मा ब्रह्मा ने सर्वप्रथम यहाँ यजन किया था (आहुति दी थी) इसलिए इसका नाम प्रयाग पड़ गया। पुराणों में प्रयागमण्डल, प्रयाग और वेणी अथवा त्रिवेणी की विविध व्याख्याएँ की गयी है। मत्स्य तथा पद्म पुराण के अनुसार प्रयागमण्डल पाँच योजन की परिधि में विस्तृत है और उसमें प्रविष्ट होने पर एक-एक पद पर अश्वमेध यज्ञ का पुण्य मिलता है। प्रयाग की सीमा प्रतिष्ठान (झूँसी) से वासुकि सेतु तक तथा कंबल और अश्वतर नागों तक स्थित है। यह तीनों लोकों में प्रजापति की पुण्यस्थली के नाम से विख्यात है। पद्म पुराण[5] के अनुसार 'वेणी' क्षेत्र प्रयाग की सीमा में 20 धनुष तक की दूरी में विस्तृत है। वहाँ प्रयाग, प्रतिष्ठान (झूँसी) तथा अलर्कपुर (अरैल) नाम के तीन कूप हैं। पुराणों[6] के अनुसार वहाँ तीन अग्निकुण्ड़ भी हैं जिनके मध्य से होकर गंगा बहती है। वनपर्व[7] तथा मत्स्य पुराण[8] में बताया गया है कि प्रयाग में नित्य स्नान को 'वेणी' अर्थात दो नदियों (गंगा और यमुना) का संगम स्नान कहते हैं। वनपर्व[9] तथा अन्य पुराणों में गंगा और यमुना के मध्य की भूमि को पृथ्वी का जघन या कटिप्रदेश कहा गया है। इसका तात्पर्य है पृथ्वी का सबसे अधिक समृद्ध प्रदेश अथवा मध्य भाग।

त्रिवेणी संगम

गंगा यमुना और सरस्वती के त्रिवेणीसंगम को 'ओंकार' नाम से अभिहित किया गया है। 'ओंकार' का 'ओम' परब्रह्म परमेश्वर की ओर रहस्यात्मक संकेत करता है। यही सर्वसुखप्रदायिनी त्रिवेणी का भी सूचक है। ओंकार का अकार सरस्वती का प्रतीक, उकार यमुना का प्रतीक तथा मकार गंगा का प्रतीक है। तीनों क्रमश: प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा संकर्षण (हरि के व्यूह) को उद्भूत करने वाली है। इस प्रकार इन तीनों का संगम त्रिवेणी नाम से विख्यात है।[10] नरसिंहपुराण[11] में विष्णु को प्रयाग में योगमूर्ति के रूप में स्थित बताया गया है। मत्स्य पुराण[12] के अनुसार रुद्र द्वारा एक कल्प के उपरान्त प्रलय करने पर भी प्रयाग नष्ट नहीं होता। उस समय प्रतिष्ठान के उत्तरी भाग में ब्रह्मा छद्म वेश में, विष्णु वेणी माधव रूप में तथा शिव वट वृक्ष के रूप में आवास करते हैं और सभी देव, गंधर्व, सिद्ध तथा ऋषि पापशक्तियों से प्रयाग मण्डल की रक्षा करते हैं। इसीलिए मत्स्य पुराण[13] में तीर्थयात्री को प्रयाग जाकर एक मास निवास करने तथा संयमपूर्वक देवताओं और पितरों की पूजा करके अभीष्ट फल प्राप्त करने का विधान है।

शिरोमुंडन

इसी प्रकार क्षौर कर्म (शिरोमुंडन) भी प्रयाग में सम्पन्न होने पर पाप मुक्ति हेतु माना गया है। बच्चों और विधवाओं के क्षौर कर्म का विधान तो है ही, यहाँ तक कि सधवा पत्नियों के क्षौर कर्म का भी विधान 'त्रिस्थली सेतु' के अनुसार मिलता है। वहाँ बताया गया है कि सधवा स्त्रियों को अपने केशों की सुन्दर वेणी बनाकर, सभी प्रकार के केशविन्यास सम्बन्धी व्यंजनों से सजाकर पति की आज्ञा से (वेणी के अग्र भाग का) क्षौर कर्म कराना चाहिए। तत्पश्चात कटी हुई वेणी को अंजली में लेकर उसके बराबर स्वर्ण या चाँदी की वेणी भी लेकर जुड़े हाथ से संगम स्थल पर बहा देना चाहिए और कहना चाहिए कि सभी पाप नष्ट हो जायें और हमारा सौभाग्य उत्तरोत्तर वृद्धि पर रहे। नारी के लिए एक मात्र प्रयाग में ही क्षौर कर्म कराने का विधान है।


प्रयाग में आत्महत्या करने का सामान्य सिद्धान्त के अनुसार निषेध है। कुछ अपवादों के लिए ही इसको प्रोत्साहन दिया जाता हैं ब्राह्मण के हत्यारे, सुरापान करने वाले, ब्राह्मण का धन चुराने वाले, असाध्य रोगी, शरीर की शुद्धि में असमर्थ, वृद्धि जो रोगी भी हो, रोग से मुक्त न हो सका हो, ये सभी प्रयाग में आत्मघात कर सकते हैं।[14] गृहस्थ जो संसार के जीवन से मुक्त होना चाहता हो वह भी त्रिवेणी संगम पर जाकर वट वृक्ष के नीचे आत्मघात कर सकता है। पत्नी के लिए पति के साथ सहमरण या अनुमरण का विधान है, पर गर्भिणी के लिए यह विधान नहीं है।[15] प्रयाग में आत्मघात करने वाले को पुराणों के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति होती है।[16] के अनुसार योगी गंगा-यमुना के संगम पर आत्महत्या करके स्वर्ग प्राप्त करता है और पुन: नरक नहीं देख सकता। प्रयाग में वैश्यों और शूद्रों के लिए आत्महत्या विवशता की स्थिति में यदा-कदा ही मान्य थी। किन्तु ब्राह्मणों और क्षत्रियों के द्वारा आत्म-अग्न्याहुति दिया जाना एक विशेष विधान के अनुसार उचित था। अत: जो ऐसा करना चाहें तो ग्रहण के दिन यह कार्य सम्पन्न करते थे, या किसी व्यक्ति को मूल्य देकर डूबने के लिए क्रय कर लेते थे।[17] सामान्य धारणा यह थी कि इस धार्मिक आत्मघात से मनुष्य जन्म और मरण के बन्धन से मुक्ति पा जाता है और उसे स्थायी अमरत्व (मोक्ष) अथवा निर्वाण की प्राप्ति होती है। इस धारणा का विस्तार यहाँ तक हुआ कि अहिंसावादी जैन धर्मावलम्बी भी इस धार्मिक आत्मघात को प्रोत्साहन देने लगे। कुछ पुराणों के अनुसार तीर्थयात्रा आरम्भ करके रास्ते में ही व्यक्ति यदि व्यक्ति प्रयाग का नाम स्मरण कर ले तो ब्रह्मलोक को पहुँच जाता है और वहाँ संन्यासियों, सिद्धों तथा मुनियों के बीच रहता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मत्स्य 109.15; स्कन्द, काशी0 7.45; पद्म 6.23.27-34 तथा अन्य
  2. ऋग्वेद खिल सूक्त (10.75)
  3. मत्स्य (104.12), कूर्म (1.36.27) तथा अग्नि (111.6-7) आदि
  4. वनपर्व (87.18-19)
  5. पद्म पुराण (1.43-26)
  6. मत्स्य (110.4) और अग्नि (111.12)
  7. वनपर्व (85.81 और 85)
  8. मत्स्य0 (104.16-17)
  9. वनपर्व (85.75)
  10. (त्रिस्थलीसेतु, पृष्ठ 8)
  11. नरसिंहपुराण(64.17)
  12. मत्स्य पुराण(111.4-10)
  13. मत्स्य पुराण(10.4.18)
  14. आदिपुराण और अत्रिस्मृति
  15. नारदीय, पूर्वाद्ध, 7.52-53
  16. कूर्म0 (1.36.16-39)
  17. अलबरूनी का भारत, भाग 2, पृ0 170)

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