वाराणसी

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काशी महाजनपद
Kashi Great Realm

काशी / बनारस / वाराणसी

वाराणसी, काशी अथवा बनारस भारत देश के उत्तर प्रदेश का एक प्राचीन और धार्मिक महत्ता रखने वाला शहर है। वाराणसी का पुराना नाम काशी है। वाराणसी विश्व का प्राचीनतम बसा हुआ शहर है। यह गंगा नदी किनारे बसा है और हज़ारों साल से उत्तर भारत का धार्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। दो नदियों वरुणा और असि के मध्य बसा होने के कारण इसका नाम वाराणसी पडा। बनारस या वाराणसी का नाम पुराणों, रामायण, महाभारत जैसे अनेकानेक ग्रन्थों में मिलता है। संस्कृत पढने प्राचीन काल से ही लोग वाराणसी आया करते थे। वाराणसी के घरानों की हिन्दुस्तानी संगीत मे अपनी ही शैली है।

स्थिति

वाराणसी भारतवर्ष की सांस्कृतिक एवं धार्मिक नगरी के रूप में विख्यात है। इसकी प्राचीनता की तुलना विश्व के अन्य प्राचीनतम नगरों जेरुसलम, एथेंस तथा पीकिंग से की जाती है। वाराणसी गंगा के बाएँ तट पर अर्द्धचंद्राकार में 25० 18’ उत्तरी अक्षांश एवं 83० 1’ पूर्वी देशांतर पर स्थित है। प्राचीन वाराणसी की मूल स्थिति विद्वानों के मध्य विवाद का विषय रही है।

विद्वानों के मतानुसार

शेरिंग, मरडाक, ग्रीब्ज, और पारकर प्रभृति विद्वानों के मतानुसार प्राचीन वाराणसी वर्तमान नगर के उत्तर में सारनाथ के समीप स्थित थी। किसी समय वाराणसी की स्थिति दक्षिण भाग में भी रही होगी। लेकिन वर्तमान नगर की स्थिति वाराणसी से पूर्णतया भिन्न है, जिससे यह प्राय: निश्चित है कि वाराणसी नगर की प्रकृति यथासमय एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापित होने की रही है। यह विस्थापन मुख्यतया दक्षिण की ओर हुआ है। पर किसी पुष्ट प्रमाण के अभाव में विद्वानों का उक्त मत समीचीन नहीं प्रतीत होता है।

हेवेल की दृष्टि में

हेवेल की दृष्टि में वाराणसी नगर की स्थिति विस्थापन प्रधान थी, अपितु प्राचीन काल में भी वाराणसी का वर्तमान स्वरूप सुरक्षित था।(6) हेवेल के मतानुसार बुद्ध पूर्व युग में आधुनिक सारनाथ एक घना जंगल था और यह विभिन्न धर्मावलंबियों का आश्रय स्थल भी था। भौगोलिक दशाओं के परिप्रेक्ष्य में हेवेल का मत युक्तिसंगत प्रतीत होता है। वास्तव में वाराणसी नगर का अस्तित्व बुद्ध से भी प्राचीन है तथा उनके आविर्भाव के सदियों पूर्व से ही यह एक धार्मिक नगरी के रूप में ख्याति प्राप्त था। सारनाथ का उद्भव महात्मा बुद्ध के प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन के उपरांत हुआ। रामलोचन सिंह ने भी कुछ संशोधनों के साथ हेवेल के मत का समर्थन किया है। उनके अनुसार नगर की मूल स्थिति प्राय: उत्तरी भाग में स्वीकार करनी चाहिए।(7) हाल के अकथा उत्खनन से इस बात की पुष्टि होती है कि वाराणसी की प्राचीन स्थिति उत्तर में थी जहाँ से 1300 ईसा पूर्व के अवशेष प्रकाश में आये हैं।

इतिहास

ऐतिहासिक आलेखों से प्रमाणित होता है कि ईसा पूर्व की छठी शताब्दी में वाराणसी भारतवर्ष का बड़ा ही समृद्धशाली और महत्वपूर्ण राज्य था । मध्य युग में यह कन्नौज राज्य का अंग था और बाद में बंगाल के पाल नरेशों का इस पर अधिकार हो गया था । सन् 1194 में शहाबुद्दीन गौरी ने इस नगर को लूटा- पाटा और क्षति पहुँचायी । मुग़ल काल में इसका नाम बदल कर मुहम्मदाबाद रखा गया । बाद में इसे अवध दरबार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखा गया । बलवंत सिंह ने बक्सर की लड़ाई में अंग्रेज़ों का साथ दिया और इसके उपलक्ष्य में वाराणसी को अवध दरबार से स्वतंत्र कराया । सन् 1911 में अंग्रेज़ों ने महाराज प्रभुनारायण सिंह को वाराणसी का राजा बना दिया । सन् 1950 में यह राज्य स्वेच्छा से भारतीय गणराज्य में शामिल हो गया।

वाराणसी विभिन्न मत-मतान्तरों की संगम स्थली रही है । विद्या के इस पुरातन और शाश्वत नगर ने सदियों से धार्मिक गुरुओं, सुधारकों और प्रचारकों को अपनी ओर आकृष्ट किया है । भगवान बुद्ध और शंकराचार्य के अलावा रामानुज, वल्लभाचार्य, संत कबीर, गुरु नानक, तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभु, रैदास आदि अनेक संत इस नगरी में आये ।

विश्वनाथ मन्दिर, वाराणसी
Vishwanath Temple, Varanasi

भारतीय स्वातंत्रता आंदोलन

भारतीय स्वातंत्रता आंदोलन में भी वाराणसी सदैव अग्रणी रही है । राष्ट्रीय आंदोलन में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों का योगदान स्मरणीय है । इस नगरी को क्रांतिकारी सुशील कुमार लाहिड़ी, अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद तथा जितेद्रनाथ सान्याल सरीखे वीर सपूतों को जन्म देने का गौरव प्राप्त है । महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जैसे विलक्षण महापुरुष के अतिरिक्त राजा शिव प्रसाद गुप्त, बाबूराव विष्णु पराड़कर, श्री श्रीप्रकाश, डॉ. भगवान दास, लाल बहादुर शास्री, डॉ. संपूर्णानंद, कमलेश्वर प्रसाद, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुटबिहारी लाल जैसे महापुरुषों का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा।

भौगोलिक स्वरूप

वाराणसी नगर की रचना गंगा के किनारे है, जिसका विस्तार लगभग 5 मील में है। ऊँचाई पर बसे होने के कारण अधिकतर वाराणसी बाढ़ की विभीषिका से सुरक्षित रहता है, परंतु वाराणसी के मध्य तथा दक्षिणी भाग के निचने इलाके प्रभावित होते हैं।

धरातल की संरचना

वाराणसी के धरातल की संरचना ठोस कंकड़ों से हुई हैं। आधुनिक राजघाट का चौरस मैदान जहाँ नदी-नालों के कटाव नहीं मिलते, शहर बसाने के लिए उपयुक्त था। वाराणसी शहर के उत्तर में वरुणा और दक्षिण में अस्सी नाला है, उत्तर-पश्चिम की ओर यद्यपि ऐसा कोई प्राकृतिक साधन (पहाड़ियाँ, झील, नदी इत्यादि) नहीं है जिससे नगर की सुरक्षा हो सके, तथापि यह निश्चित है कि काशी के समीपवर्ती गहन वन, जिनका उल्लेख जातकों, जैन एवं पौराणिक ग्रंथों में आया है, काशी की सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहे होंगे।(8)

अर्थव्यव्स्था

उद्योग

वाराणसी के कारीगरों के कला- कौशल की ख्याति सुदूर प्रदेशों तक में रही है। वाराणसी आने वाला कोई भी यात्री यहाँ के रेशमी किमखाब तथा जरी के वस्रों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । यहाँ के बुनकरों की परंपरागत कुशलता और कलात्मकता ने इन वस्तुओं को संसार भर में प्रसिद्धि और मान्यता दिलायी है । विदेश व्यापार में इसकी विशिष्ट भूमिका है । इसके उत्पादन में बढ़ोत्तरी और विशिष्टता से विदेशी मुद्रा अर्जित करने में बड़ी सफलता मिली है । रेशम तथा जरी के उद्योग के अतिरिक्त, यहाँ पीतल के बर्तन तथा उन पर मनोहारी काम और संजरात उद्योग भी अपनी कला और सौंदर्य के लिए विख्यात हैं । इसके अलावा यहाँ के लकड़ी के खिलौने भी दूर- दूर तक प्रसिद्ध हैं, जिन्हें कुटीर उद्योगों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हैं ।

कला

संगीत

वाराणसी गायन एवं वाद्य दोनों ही विद्याओं का केंद्र रहा है । सुमधुर ठुमरी भारतीय कंठ संगीत को वाराणसी की विशेष देन है । इसमें धीरेंद्र बाबू, बड़ी मोती, छोती मोती, सिध्देश्वर देवी, रसूलन बाई, काशी बाई, अनवरी बेगम, शांता देवी तथा इस समय गिरिजा देवी आदि का नाम समस्त भारत में बड़े गौरव एवं सम्मान के साथ लिया जाता है । इनके अतिरिक्त बड़े रामदास तथा श्रीचंद्र मिश्र, गायन कला में अपनी सानी नहीं रखते । तबला वादकों में कंठे महाराज, अनोखे लाल, गुदई महाराज, कृष्णा महाराज देश- विदेश में अपना नाम कर चुके हैं । शहनाई वादन एवं नृत्य में भी काशी में नंद लाल, उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ तथा सितारा देवी जैसी प्रतिभाएँ पैदा हुई हैं ।

गंगा नदी, वाराणसी
Ganga River, Varanasi

साहित्य

वाराणसी संस्कृत साहित्य का केंद्र तो रही ही है, लेकिन इसके साथ ही इस नगर ने हिन्दी तथा उर्दू में अनेक साहित्यकारों को भी जन्म दिया है, जिन्होंने साहित्य सेवा की तथा देश में गौरव पूर्ण स्थान प्राप्त किया । इनमें भारतेंदु हरिश्चंद्र, अयोध्यासिंह उपाध्याय "हरिऔध', जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, श्याम सुंदर दास, राय कृष्ण दास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, रामचंद्र वर्मा, बेचन शर्मा "उग्र", विनोदशंकर व्यास, कृष्णदेव प्रसाद गौड़ तथा डॉ. संपूर्णानंद उल्लेखनीय हैं । इनके अतिरिक्त उर्दू साहित्य में भी यहाँ अनेक जाने- माने लेखक एवं शायर हुए हैं । जिनमें मुख्यतः श्री विश्वनाथ प्रसाद शाद, मौलवी महेश प्रसाद, महाराज चेतसिंह, शेखअली हाजी, आगा हश्र कश्मीरी, हुकुम चंद्र नैयर, प्रो. हफीज बनारसी, श्री हक़ बनारसी तथा नजीर बनारसी का नाम आता है।

पर्यटन

वाराणसी, पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है । यहाँ अनेक धार्मिक, ऐतिहासिक एवं सुंदर दर्शनीय स्थल है, जिन्हें देखने के लिए देश के ही नहीं, संसार भर से पर्यटक आते हैं और इस नगरी तथा यहाँ की संस्कृति की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं । कला, संस्कृति, साहित्य और राजनीति के विविध क्षेत्रों में अपनी अलग पहचान बनाये रखने के कारण वाराणसी अन्य शहरों की अपेक्षा अपना विशिष्ट स्थान रखती है । देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी की जननी संस्कृत की उद्भव स्थली काशी सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है ।

वाराणसी के घाट

वाराणसी (काशी) में गंगा तट पर अनेक सुंदर घाट बने हैं, इनमें से असी, दशाश्वमेध, तुलसी, हनुमान, केदार, मानमंदिर, हरिश्चंद्र, मणिकर्णिका, सिंधिया तथा राजघाट आदि प्रमुख घाट हैं। ये सभी घाट किसी- न-किसी पौराणिक या धार्मिक कथा से संबंधित हैं । वाराणसी के घाट गंगा नदी के धनुष की आकृति होने के कारण मनोहारी लगते हैं। सभी घाटों के पूर्वार्भिमुख होने से सूर्योदय के समय घाटों पर पहली किरण दस्तक देती है। उत्तर दिशा में राजघाट से प्रारम्भ होकर दक्षिण में अस्सी घाट तक सौ से अधिक घाट हैं। मणिकर्णिका घाट पर चिता की अग्नि कभी शांत नहीं होती, क्योंकि बनारस के बाहर मरने वालों की अन्त्येष्टी पुण्य प्राप्ति के लिये यहीं की जाती है । कई हिन्दू मानते हैं कि वाराणसी में मरने वालों को मोक्ष प्राप्त होता है ।

वाराणसी में गंगा नदी के घाट
Ghats of Ganga River in Varanasi


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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