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मदन मोहन जी का मंदिर, वृन्दावन
Madan Mohan temple, Vrindavan

वंश-परम्परा

रूप और सनातन के असाधारण व्यक्तित्व की गरिमा का सही मूल्यांकन करने के लिए उनकी वंश परम्परा पर दृष्टि डालना आवशृयक है उनके पूर्वपुरुष दक्षिण भारत में रहते थे। वे राजवंश के थे और जैसे राजकार्य में दक्ष थे वैसे ही शास्त्र-विद्या में प्रवीण। उनके भतीजे श्रीजीव गोस्वामी ने लघुवैष्णवतोषणी के अन्त में अपनी वंश परम्परा का वर्णन इस प्रकार किया हैं—

कर्नाटक देश के एक बड़े पराक्रमी राजा थे श्रीसर्वज्ञ जगद्गुरु।[1] वे भरद्वाज गोत्र के थे। बड़े धर्मनिष्ठ और वेदवित होने के कारण वे राजमण्डली के पूज्य पात्र थे। उनके पुत्र राजा अनिरुद्ध यजुर्वेद के अद्वितीय उपदेष्टा थें अनिरुद्ध के दो पुत्र हुए-रूपेश्वर और हरिहर। रूपेश्वर शास्त्रविद्या में और हरिहर शस्त्र-विद्या में प्रवीण थे। वैकुण्ठ प्राप्ति के दिन अनिरुद्ध ने अपने राज्य का दोनों पुत्र में बँटवारा कर दिया था। पर हरिहर ने रूपेश्वर का राज्य छीन लिया। रूपेश्वर राज्यच्युत हो पौरस्तदेश चले गये। वहाँ अपने सखा शिखरेश्वर के राज्य में मुख से वास करने लगे। उनके पद्मनाभ नाम के एक गुणवान पुत्र हुए। वे यजुर्वेद और समस्त उपनिषदों के श्रेष्ठ ज्ञाता थे। गंगा तीर पर वास करने की इच्छा से वे शिखर देश परित्याग कर राजा दनुजमर्दन के आह्नानपर नवहट्ट (नैहाटी)[2] चले आये। उनके अठारह कन्या और पाँच पुत्र हुए। पुत्रों के नाम थे- पुरुषोत्तम, जगन्नाथ, नारायण, मुरारी और मुकुन्द। यशस्वी मुकुन्द के पुत्र हुए कुमार। कुमार किसी द्रोह के कारण नवहट्ट छोड़कर बंगदेश (पूर्व बंग) चले गये।[3] कुमार के भी कई पुत्र हुए, जिनके वैष्णव समाज में विशेष रूप से प्रसिद्ध हुए तीन- सनातन, रूप और वल्लभ (अनुपम)। इनमें सनातन सबसे बड़े और रूप उनसे छोटे और वल्लभ उनसे छोटे।

राज-कार्य

मन्त्रीपद पर नियुक्ति

हुसैनशाह के दरबार में रूप-सनातन किस प्रकार राज-मन्त्री हुए, इस सम्बन्ध में श्रीसतीशचन्द्र मित्र ने 'सप्त गोस्वामी' ग्रन्थ में लिखा है-"शैशव में सनातन और उनके भाई बाकला से रामकेलि अपने पितामह मुकुन्ददेव के पास ले जाये गये। उन्होंने ही उनका लालन-पालन किया। मुकुन्ददेव राज दरबार में किसी उच्च पद पर आसीन थे। दरबार में उनका बड़ा सम्मान था। उनके पौत्रों ने अपनी असामान्य प्रतिभा और विद्या-बुद्धि के कारण सबका ध्यान सहज ही आकर्षित किया। कुछ दिन पश्चात गौड़ में भागीरथी के तीर पर मुकुन्द को परलोक-प्राप्ति हुई (सन् 1483)। उस समय सनातन की आयु 18 वर्ष थी। उसी समय उन्हें पितामह का पद प्राप्त हुआ।[4] यह मत ठीक नहीं लगता। हुसैनशाह गौड़ के सुलतान हुए 1492 ई. में। इसलिये 1483 ई. में रूप-सनातन का उनके मन्त्री पर पर नियुक्त होना नहीं बनता।

कई लेखकों ने इस सम्बन्ध में एक किवदन्ती का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है। हुसैनशाह ने अपने राजमिस्त्री पीरू को एक मन्दिरा-स्तम्भ[5] बनाने का आदेश दिया। जब उसका निर्माण पूरा होने को आया, उसने पीरू के साथ ऊपर चढ़कर उसका निरीक्षण किया। उसे देख वह बहुत प्रसन्न हुआ, पीरू की प्रशंसा की और उसे इनाम देने को कहा। पीरू ने कहा- "जहाँ पनाह, मैं इससे भी और अच्छा बना सकता हूँ।" यह सुन हुसैनशाह को क्रोध आया। उसने कहा- "नमकहराम, जब तू इससे अच्छा बना सकता है, तो क्यों नहीं बनाया? तुझे प्राण दण्ड मिलेगा।" तत्काल उसे मन्दिर के ऊपर से धक्का देने का अपने सिपाही को आदेश दिया। पर वह पहले उसे इनाम देने को कह चुका था, इसलिये मरने के पहले उससे इनाम भी मांगने को कहा। पीरू ने कहा-"मुझे जब मरना ही है तो और इनाम लेकर क्या करूगा। इस मन्दिरा का नाम मेरे नाम पर 'पीरूसा-मन्दिरा' रख दिया जाय।" हुसैनशाह ने उसे मन्दिरा के ऊपर से गिराकर मरवा दिया, पर मन्दिरा का नाम रख दिया "पीरूसा-मन्दिरा।"

मन्दिरा का शिरावरण अभी नहीं बना था। एक दिन हुसैनशाह हिंगा नामक एक प्यादे को साथ लेकर उसे देखने गया। शिरावरण को अधूरा देख वह बहुत दु:खी हुआ। हिंगा से कहा-"हिंगा, तू मोरगाँय (मोरग्राम) जा।" उसी समय उसका मुरशिद आ गया। उसकी अभ्यर्थना कर उसके साथ वार्तालाप में लग जाने के कारण वह यह न बता सका कि किस कार्य के लिये जाना है। हिंगा भी कुपित गौड़पति से यह पूछने का साहस न कर सका कि वह मोरगाँव किसलिये जाय। बस वह मोरगाँव चला गया। वहाँ विषष्ण मन से इधर-उधर फिरता रहा। सनातन गोस्वामी को जब उसकी दयनीय अवस्था का पता चला, तो उन्होंने उसे कुछ सुदक्ष मिस्त्रयों को साथ ले गौड़ जाने की सलाह दी। वह उन्हें लेकर गौड़ चला गया। हुसैनशाह मिस्त्रियों को देखकर प्रसन्न हुआ। उसे आश्चर्य हुआ कि हिंगा ने बिना बताये उसका अभिप्राय कैसे जान लिया। इस सम्बन्ध में उसे सनातन की कुशाग्र बुद्धि का पता चला। वह पहले भी अपने मुरशिद से रूप-सनातन दोनों भाईयों की प्रशंसा सुन चुका था। उसने तुरन्त उन्हें पालकी में बिठाकर आदर सहित ले आने का अपने कुतवाल केशव क्षत्री को आदेश दिया। उनके आने पर उसने मन्त्री पद स्वीकार कर राज्य-भार ग्रहण करने को कहा। राजाज्ञा उल्लंघन के भीषण परिणाम के भय से उन्हें मन्त्री पद स्वीकार करना पड़ा।[6] श्रीसतीशचन्द्र मिश्र के मत और उपरोक्त किंवदंती में कितना तथ्य है नहीं कहा जा सकता। पर इतना निश्चित है कि सनातन गोस्वामी को मन्त्री पद पर नियुक्त किया गया उनकी असाधारण बुद्धिमत्ता के कारण ही। यह भक्तिरत्नाकर में नरहरि चक्रवर्ती के इस विवरण से स्पष्ट है-

"राजा ने जब शिष्ट लोगों के मुख से सुना कि सनातन और रूप की रंग-रंग में महामन्त्रीत्व भरा है, तो उन्होंने अपने अधिकार का प्रयोग कर उन्हें अपने निकट बुलवाया और राज्य भार उन पर सौंप दिया।"[7]

सनातन गोस्वामी अपने असाधारण व्यक्तित्व, विचक्षणता और कर्मठता के कारण हुसैनशाह के दक्षिण हस्त बन गये। राज्य के शासन और प्रतिरक्षा आदि का कोई भी महत्त्वपूर्ण कार्य हुसैनशाह सनातन गोस्वामी के परामर्श के बिना न करते। उनके अनुज रूप और वल्लभ भी उनके प्रभाव से उच्च राज पद पर नियुक्त कर दिये गये। सनातन को उपाधि दी गयी 'साकर मल्लिक' और रूप को 'दबीर ख़ास'।[8] 'मल्लिक' अरबी के 'मलिक' शब्द उत्पन्न है, जिसका अर्थ है 'राजा'। 'साकर' अरबी के 'सागिर' शब्द से उत्पन्न है, जिसका अर्थ है 'छोटा' या 'उप'। 'साकर मल्लिक' का अर्थ है छोटा राजा अर्थात् प्रधानमन्त्री, जिसका राजा के बाद स्थान है। 'दबीर ख़ास' फारसी के 'दबिर-इ-ख़ास' शब्द से उत्पन्न है, जिसका अर्थ है निजस्व-सचिव या प्राइवेट-सेक्रेटरी।

आत्म-ग्लानि

सनातन गोस्वामी की यह मनोवृत्ति उनके वंशगत वैशिष्ठ्य के कारण थी, जो अब तक दबी हुई थी उनके जटिल राजकार्य के दायित्वपूर्ण भार के कारण। दबी होते हुए भी यह भट्टे की अग्नि की तरह भीतर-भीतर सुलग रही थी। हवा का एक झोंका लगते ही इसे धधककर बाहर आ जाना था। झोंका आया जब हुसैनशाह की सेना ने निर्ममता से उड़ीसा के देव-देवियों की मूर्त्तियों को ध्वंस कर दिया। सनातन से यह न देखा गया। अनुताप की अग्नि उनके अन्तर में धूं-धूंकर जलने लगी। उन्हें अपने आपसे ग्लानि होने लगी। वह प्रधान-मन्त्रीत्व किस काम का, जिसमें अपने वैषयिक वैभव के लिये अपनी आत्मा को विधर्मी राजा के हाथों गिरवीं रख देना पड़े? वह वैभव सुख-सम्पत्ति और मान-सम्मान किस काम का, जिसमें अपनी नैसर्गिक प्रवृत्ति को विकास का अवसर न मिले? वह जीवन किस काम का, जिसके आन्तरिक और बाह्य स्वरूपों में दिन और रात के अन्तर को कम करने का कोई उपाय ही न हो? वे इस विषम स्थिति से परित्राण पाने का उपाय खोजने लगे।

मन्त्रीत्व-त्याग और कारागार

इसी बीच हुआ महाप्रभु का रामेकेलि शुभागमन और रूप-सनातन के नवजन्म का शुभारम्भ। उनकी कृपादृष्टि पड़ते ही उनके कृष्ण-प्रेम में ऐसी बाढ़ आयी कि उनके सभी सांसारिक बन्धनों को छिन्न-भिन्न करती -दबीर ख़ास से प्रभु कहने लगे-अब समझ लो कि तुम्हें प्रेम-भक्ति प्राप्त हो गयी।" इससे पूर्व अर्द्वताचार्य ने दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहा था-

"काय, मन और वचन से मेरा यह आशीर्वाद है कि इन दोनों को प्रेम-भक्ति हो।"[9]

इन पंक्तियों को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि उपरोक्त पंक्तियों में महाप्रभु ने अद्वैताचार्य के आशीर्वाद के परिणाम स्वरूप केवल सनातन गोस्वामी के प्रेम-भक्ति नाभ करने की बात कही हो। स्पष्ट है कि यहाँ 'दबीर ख़ास' शब्द का प्रयोग दोनों के लिये किया गया है। इससे यह संभव जान पड़ता है कि 'साकर मल्लिक' केवल सनातन की उपाधि रही हो और 'दबीर ख़ास' दोनों को पुकारा जाता रहा है। डा. जाना ने जयानन्द के चैतन्यमंगल से निम्न पंक्तियों को उद्धृत करके भी सिद्ध करने की चेष्टा की है कि दबीर ख़ास दोनों को कहा जाता था-

हेन काले दबीर ख़ास भाइ दुइ जने।

देखिञा चैतन्य चिनिलेन ततक्षणे॥

श्रीकृष्ण चैतन्य रहिलेन कुतूहले।

दबिर ख़ास हुइ भाइ गेला नीलाचले॥

हुई उन्हें बहा ले गयी कृष्ण-प्रेम के अनन्त अगाध सागर की ओर। महाप्रभु के रामकेलि से जाते ही दोनों भाईयों का सांसारिक जीवन असंभव हो गया। इससे परित्राण पाने के उद्देश्य से उन्हीं दो शास्त्रज्ञ ब्राह्मणों को बहुत सा धन देकर उनसे कृष्ण-मन्त्र के दो पुरश्चरण करवाये[10] पुरश्चरण के पश्चात दोनों ने संसार त्यागकर वृन्दावन जाने का निश्चय किया। सनातन के ऊपर राजकार्य का दायित्व अधिक था। इसलिये दोनों ने आपस में परामर्श कर स्थिर किया कि पहले रूप गुप्त रूप से वृन्दावन की यात्रा करेंगे। फिर कुछ दिन बाद सनातन उनसे वृन्दावन में जा मिलेंगे। पर रूप-सनातन पर आत्मीय स्वजन और आश्रित ब्राह्मण, पंडित साधु-सज्जन आदि के भरण-पोषण का दायित्व भी कम न था। संसार त्याग करने के पूर्व उन्हें उन सबकी समुचित व्यवस्था करनी थी। तदर्थ रूप स्वोपार्जित विपुल धनराशि लेकर फतेहाबाद चले गये। उन्होंने अपने परिवार के लोगों को पहले ही फतेहाबाद और चन्द्रद्वीप भेज दिया था।[11] चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि उन्होंने अपने संचित धन का आधा ब्राह्मण और वैष्णवों में बांट दिया। बाक़ी में से आधा परिवार के लोगों को उनके पोषण के लिये देकर दस हज़ार मुद्रायें एक

बनिये के पास सनातन गोस्वामी के ख़र्च के लिये जमा कर दी। जो बचा उसे सज्जन ब्राह्मणों के पास आकस्मिक विपत्तियों के लिये जमा कर दिया। जयानन्द ने चैतन्यमंगल में लिखा है कि इस प्रकार उन्होंने बाइस लाख स्वर्ण मुद्राओं का बँटवारा कर स्वयं वैराग्य वेष धारण कर परमार्थ पथ का अनुसरण किया।

रूप के राजसभा त्यागने के पश्चात सनातन ने भी राजसभा जाना बन्द कर दिया। हुसैनशाह से कहना भेजा-"मेरा स्वास्थ्य ठीक, नहीं रहता। मैं अब राजकार्य करने के योग्य नहीं हूँ।" हुसैनशाह को संदेह होना स्वाभाविक था। उसने सोचा दबीर ख़ास तो बिना कुछ कहे सुने कहीं चला गया ही है, शाकर मलिक भी भाग निकलने की तैयारी में है। उस समय राज्य के चारों ओर युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। ऐसे समय सनातन जैसे कुशल प्रधानमन्त्री का घर बैठे रहना उसे कब अच्छा लग सकता था? उसने तत्काल राजवैद्य को भेजा सनातन की परीक्षा करने। राजवैद्य ने लौटकर सनातन के निरोग होने का संवाद दिया। हुसैनशाह को क्रोध आया। दूसरे दिन वह स्वयं गया सनातन के रामकेलि प्रासाद में उन्हें देखने। उसने देखा उन्हें प्रसन्न मुद्रा में साधु-वैष्णवों के बीच बैठे धर्म-चर्चा करते। भ्रकुटी तानते हुए उसने कहा-'सनातन! जानते नहीं इस समय राज्य की कैसी परिस्थिति है? ऐसे समय बीमारी का बहाना कर तुम्हारा घर बैठे रहना क्या राज-विद्रोह का सूचक नहीं है? छोड़ो इस पागलपन को और राज्य की बागडोर पूर्ववत् हाथ में लो। नहीं तो राजाज्ञा की अवहेलना का दण्ड भोगने के लिये तैयार रहो।" पर सनातन अपने हृदय-सिंहासन पर गौड़ेश्वर के बदले परमेश्वर को बिठा चुके थे। उन्होंने दृढ़ता के स्वर में उत्तर दिया-

"जहाँपनाह, मैं अब भगवान् का दास हूँ, और किसी का नहीं। भगवान् की सेवा छोड़कर अब मेरे लिये और किसी की सेवा सम्भव ही नहीं। दरबार का कार्य अब मैं नहीं करूँगां मुझे क्षमा करें।"

हुसैनशाह को अपने प्रधानमन्त्री से अपनी आज्ञा की अवहेलना कब बरदास्त हो सकती थी? उसने तत्काल उन्हें बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया। उड़ीसा के युद्ध में हुसैनशाह का सेनापति हार खाकर लौट आया। इस बार हुसैनशाह ने सव्यं सेना लेकर राजा प्रतापरुद्र का मुक़ाबला करने का निश्चय किया। सनातन जैसे तीक्ष्ण बुद्धिवाले सहायक की आवश्यकता पड़ी। उन्हें कारागार से बुलाकर उसने कहा-

"सनातन! मेरी बात मानो, हट छोड़ दो। अपना दायित्वपूर्ण कार्य फिर से सम्हालो और मेरे साथ उड़ीसा के युद्ध में चलो।"

सनातन ने दो टूक जवाब दिया-

"नहीं, जहाँपनाह, यह मुझसे नहीं होगा। आपकी सेना मार्ग के सभी देव-मन्दिरों को ध्वंस करती और देव-मूर्तियों को कलुषित करती जायेगी। यह मैं अपने नेत्रों से न देख सकूंगा। मैं इस पापकार्य में साझी न बनूँगा।"

सनातन को फिर कारागार में डाल हुसैनशाह ने ससैन्य उड़ीसा के लिए प्रस्थान किया। सनातन कारागार में पड़े निरन्तर महाप्रभु का चिन्तन करते रहे और उनसे प्रार्थना करते रहे-

"गौर सुन्दर! तुमने रूप पर कृपा की। उसे भव-बन्धन से मुक्त कर दियां मेरे ऊपर कब कृपा करोगे नाथ? तुम्हारे सिवा अब मेरा कौन है, जिसकी कृपा का भरोसा रख प्राण धारण कर सकूं?"

कारागार से मुक्ति

कुछ ही दिन बाद उन्हें मिला रूप का एक गुप्त पत्र। उसमें सांकेतिक भाषा में लिखा था-

"महाप्रभु ने वृन्दावन की यात्रा प्रारम्भ कर दी है। मैं और वल्लभ भी वृन्दावन जा रहे हैं। अमुक बनिये के पास दस हज़ार मुद्रा छोड़े जा रहे हैं। आप उन्हें काराध्यक्ष को उत्कोच में देकर कारागार से मुक्ति पाने का उपाय करें और यथाशीघ्र वृन्दावन चले आयें।[12] सनातन ने ऐसा ही किया। काराध्यक्ष पर उन्होंने पहले अनुग्रह किया था। वह उनका अहसानमन्द था। पर हुसैनशाह का उसे भय था इसलिये सनातन गोस्वामी को मुक्त करने में असमर्थ था। सनातन गोस्वामी ने उससे कहा-"हुसैनशाह यदि उड़ीसा के युद्ध से जीवित लौट आये, तो उससे कहना-

"सनातन बेड़ी पहने लघुशंका के लिये बाहर गये और गंगा में डूबकर मर गये।" इतना कह जब उन्होंने मुद्राओं की थैली उसके सामने रखी, उसे लोभ आ गया। उसने बेड़ी काटकर स्वयं उन्हें गंगा के पार पहुँचा दिया।[13][14]

वृन्दावन में एकान्त भजन और लुप्त तीर्थोद्धार

ब्रजधाम पहुँचते ही सनातन गोस्वामी ने पहले सुबुद्धिराय से साक्षात् किया, फिर लोकनाथ गोस्वामी और भूगर्भ पण्डित से, जो महाप्रभु के आदेश से पहले ही ब्रज में आ गये थें तत्पश्चात उन्होंने जमुना-पुलिन पर आदित्य टीला नाम के निर्जन स्थान में रहकर आरम्भ किया एकान्त भजन-साधन, त्याग और वैराग्य का जीवन। किसी पद कर्ता ने उनके भजनशील जीवन का सजीव चित्र इन शब्दों में खींचा है—

"कभू कान्दे, कभू हासे, कभू प्रेमनान्दे भासे

कभू भिक्षा, 'कभु उपवास।

छेंड़ा काँथा, नेड़ा माथा, मुखे कृष्ण गुणगाथा

परिधान छेंड़ा बहिर्वास

कखनओ बनेर शाक अलवने करि पाक

मुखे देय दुई एक ग्रास।"[15]

उस समय वृन्दावन में बस्ती नाम मात्र को ही थी। इसलिये साधकों को मधुकरी के लिये मथुरा जाना पड़ता। सनातन गोस्वामी की तन्मयता जब कुछ कम होती तो वे कंधे पर झोला लटका मथुरा चले जाते। वहाँ जो भी भिक्षा मिलती उससे उदरपूर्ति कर लेते। कुछ दिन बाद उन्होंने महाप्रभु के आदेशानुसार व्रज की लीला-स्थलियों के उद्धार का कार्य प्रारम्भ किया। इसके पूर्व लोकनाथ गोस्वामी ने इस दिशा में कुछ कार्य किया था। उसे आगे बढ़ाते हुए उन्होंने व्रज के वनों, उपवनों और पहाड़ियों में घूमते हुए और कातर स्वर से व्रजेश्वरी की कृपा प्रार्थना करते हुए, शास्त्रों, लोक-गाथाओं और व्रजेश्वरी की कृपा से प्राप्त अपने दिव्य अनुभवों के आधार पर एक-एक लुप्त तीर्थ का उद्धार किया।

नीलाचल में एक वर्ष

इस कार्य में संलग्न रहते हुए एक वर्ष बीत गया, तो महाप्रभु का विरह उन्हें असह्य हो गया। महाप्रभु ने स्वयं ही एक बार नीलाचल जाने को उनसे कहा था। इसलिये वे झारिखण्ड के जंगल के रास्ते नीलाचल की पदयात्रा पर चल पड़े। मार्ग में चलते-चलते अनाहार और अनियम के कारण उन्हें विषाक्त खुजली रोग हो गया। उसके कारण सारे शरीर से क्लेद बहिर्गत होते देख वे लगे इस प्रकार विचार करने-एक तो मैं वैसे ही म्लेक्ष राजा की सेवा में रह चुकने के कारण अपवित्र और अस्पृश्य हूँ। अब इस रोग को लेकर नीलाचल जा रहा हूं इसके रहते मैं मन्दिर में तो जा सकूंगा ही नहीं, महाप्रभु के दर्शन करना भी कठिन होगा, क्योंकि महाप्रभु जगन्नाथ जी के मन्दिर के पास रहते हैं, जहाँ होकर जगन्नाथ जी के सेवकों का आना-जाना लगा रहता है। यदि मुझसे उनका शरीर छू गया तो अपराध होगा। ऐसे शरीर का भार ढोते रहने से तो अच्छा यह होगा कि मैं रथयात्रा के समय जगन्नाथ जी के नीचे प्राण त्यागकर इस विपद से छुटकारा पाऊँ सद्गति भी लाभ करूँ। ऐसा करने का निश्चय कर वे कर नीलाचल पहुँचे।

नीलाचल में उनके ठहरने का उपयुक्त स्थान था, यवन हरिदास की पर्णकुटी। हरिदास अपने को दीन, पतित और अस्पृश्य जान नगर के एक कोने में अपनी पर्णकुटी में रहते थे। किसी को स्पर्श करने के भय से जगन्नाथ जी और महाप्रभु के दर्शन करने नहीं जाते थे। महाप्रभु स्वयं नित्य जगन्नाथजी के उपल-भोग के दर्शन कर अपने परम प्रिय भक्त हरिदास को दर्शन देने उनकी कुटी पर जाया करते थे। सनातन भी हरिदास की ही तरह अपने को पतित और अस्पृश्य मानते थे। इसलिये वे उनकी खोज करते-करते उनकी कुटिया पर जा पहुँचे। थोड़ी ही देर बाद महाप्रभु नित्य की भाँति जगन्नाथजी के दर्शन कर वहाँ पहुँचे। सनातन ने उन्हें दूर से ही दण्डवत् की। वे उन्हें देख आनन्द विभोर हो गये और दोनों भुजायें फैलाकर आलिंगन करने के लिये उनकी ओर अग्रसर हुए। पर वे जितना आगे बढ़ते सनातन उतना पीछे हटते जाते। पीछे हटतेहुए दैन्य और विनय भरे स्वर में उन्होंने कहा-

"प्रभु स्पर्श न करें। मैं हूँ पतित, पामर, यवनों के संग के कारण जातिभ्रष्ट एक पापी जीव और मेरे अंग से निकल रहा है घृणित क्लेद। यह आपके अंग में लग जायेगा और मैं और भी अधिक पाप का भागी बनूंगा।"

पर महाप्रभु कब मानने वाले थे? उन्होंने आनन्द के आवेश में बलपूवक बार-बार उन्हें आलिंगन किया। खुजली का क्लेद उनके सारे शरीर में लग गया। सनातन की आत्मग्लानि पराकाष्ठा पर पहुँच गयी। महाप्रभु ने सनातन के रहने की व्यवस्था हरिदास ठाकुर के निकट ही कर दी। सनातन दैन्य के कारण मन्दिर में दर्शन करने न जाते। हरिदास ठाकुर की ही तरह मन्दिर के चक्र को दूर से देख प्रणाम कर लेते। महाप्रभु नित्य भक्तगण के साथ उनके पास जाते, उन्हें आलिंगन करते और उनके साथ कृष्ण-लीला-कथा की आलोचना कर आनन्दमग्न होते। नित्यप्रति का उनका आलिंगन सनातन को असह्य हो गया। वे शीघ्र किसी प्रकार प्राण-त्याग करने की बात सोचने लगे।

एक दिन कृष्ण-कथा कहते-कहते हठात् सनातन की ओर देखते हुए महाप्रभु कहने लगे-

"सनातन! कहीं देह-त्याग करने से कृष्ण-प्राप्ति होती है। ऐसा हो तब तो एक ही क्षण में कोटि-कोटि प्राण त्याग देना भी उचित है। कृष्ण-प्राप्ति होती है भजन से और भक्ति से। इसके सिवा कृष्ण-प्राप्ति का और कोई उपाय नहीं है। भजन में नवविद्या भक्ति श्रेष्ठ है। इसमें कृष्ण-प्रेम और कृष्ण को देन की महान शक्ति है। इसमें भी सर्वश्रेष्ठ है नाम-संकीर्तन। निरपराध हो नाम-कीर्तन करने से प्रेम-धन की प्राप्ति होती है।"[16]

अन्तर्यामी प्रभु के मुख से यह सुन सनातन को आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा-"प्रभु, आप सर्वज्ञ और स्वतंत्र हैं। मैं आपकी काठ की पुतली हूँ। जैसे नचायेंगे वैसे नाचूंगा। पर मेरे जैसे नीच, अधम व्यक्ति को जीवित रखने से आपका क्या लाभ होगा?"

उत्तर में महाप्रभु ने कहा-"तुमने मुझे आत्मसमर्पण किया है। तुम्हारा देह मेरा निज-धन है। दूसरे का धन नाश करने का तुम्हें क्या अधिकार है? तुम्हें धर्माधर्म का इतना भी ज्ञान नहीं? तुम्हारा शरीर तो मेरा प्रधान साधन है। इसके द्वारा मुझे करना है- लीला-तीर्थों का उद्धार, वैष्णव-सदाचार का निर्धारण और शिक्षण, कृष्ण-भक्ति का प्रचार, वैराग्य के आदर्श की स्थापना और कितना कुछ और, जिसे मैं नहीं कर सकता माँ की आज्ञा से नीलाचल में ही पड़े रहने के कारण। सनातन का सर नीचा हो गया। उन्होंने आत्म-हत्या का संकल्प छोड़ दिया। हरिदास और सनातन को आलिंगन कर महाप्रभु मध्यान्ह-कृत्य के लिये चले गये।

कुछ ही दिन श्रीजगन्नाथदेव की रथयात्रा का समय आ गया। प्रति वर्ष की भाँति गौण देश के अनेकों भक्तों का आगमन हुआ। वर्षाकाल के चार महीने उन्होंने नीलाचल में व्यतीत किये। महाप्रभु ने एक-एक कर उन सबसे सनातन का परिचय कराया। रथयात्रा के दिन उन्होंने सदा की भाँति रथ के आगे रसमय नृत्य किया। उसे देख सनातन चमत्कृत और कृत-कृत्य हुए। ज्येष्ठ मास में एक दिन महाप्रभु ने सनातन की परीक्षा की। उस दिन वे यमेश्वर के शिव-मन्दिर के बगीचे में भिक्षा को गये हुए थे। भिक्षा के समय उन्होंने सनातन को भी बुलवा भेजा। महाप्रभु का निमन्त्रण प्राप्तकर सनातन बहुत प्रसन्न हुए। ठीक मध्यान्ह के समय समुद्र के किनारे-किनारे उत्तप्त बालुका पर चलते हुए वे यमेश्वर पहुँचे। तप्त बालुका पर चलने के कारण उनके पैर में छाले पड़ गये। पर महाप्रभु ने उन्हें आमन्त्रित किया है, इस कारण उनका मन इतना आनन्दोल्लसित था कि उन्हें इसका कुछ भान ही न हुआ। महाप्रभु के सेवक गोविन्द ने महाप्रभु की भिक्षा का अवशेष पात्र उनके सामने रख दिया। प्रसाद ग्रहणकर जब वे महाप्रभु के विश्राम-स्थान पर गये, तो उन्होंने पूछा-

"सनातन, तुम कौन से मार्ग से आये?"

"समुद्र के किनारे-किनारे" सनातन ने उत्तर दिया।

"समुद्र के किनारे-किनारे, तप्त बालुका पर से! सिंहद्वार के शीतल पथ से क्यों नहीं आये? बालुका से अवश्य तुम्हारे पैर जल गये होंगे और उनमें छाले पड़ गये होंगे। फिर तुम आये कैसे?"

"मुझे कष्ट कुछ नहीं हुआ प्रभु। छालों का मुझे पता भी नहीं पड़ा। सिंहद्वार से आने का मेरा अधिकार ही कहाँ? उधर जगन्नाथजी के सेवकों का आना-जाना लगा रहता है। उनमें से किसी को मेरा स्पर्श हो जाये तो अपराधी न बनूं।"

यह सुन महाप्रभु सनातन को परीक्षा में सफल जान बोले-"सनातन, मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। मैं जानता हूँ कि तुम सारे जगतृ को पवित्र करने की शक्ति रखते हो। तुम्हारे स्पर्श से देवगण और मुनिगण भी पवित्र हो सकते हैं। पर मर्यादा का पालन करना भक्त का स्वभाव है। मर्यादा की रक्षा तुम नहीं करोगे तो कौन करेगा?"

इतना कह महाप्रभु ने सनातन को प्रेम से आलिंगन किया। फिर दोनों अपने-अपने मार्ग से अपने-अपने स्थान को चले गये। महाप्रभु के अंतरंग भक्त पंडित जगदानन्द गौड़ देश की यात्रा पर गये हुए थे। उस दिन जब वे लौटकर आये तो सनातन के दर्शन करने गये। सनातन ने कहा-

"पंडितजी, मैं इस समय एक बड़ी उलझन में पड़ा हूँ। आप महाप्रभु के निजजन हैं। मुझे उचित परामर्श देने की कृपा करें। मुझे महाप्रभु नित्य आलिंगन करते हैं। मेरे रोगी शरीर के विषाक्त रस से उनका कनक-कान्तिमय दिव्य देह सन जाता है। मैंने आत्महत्या कर इस दु:ख से परित्राण पाने का निश्चय किया था। पर महाप्रभु ने निषेध कर दिया। अब मैं क्या करूँ?"

जगदानन्द के तो महाप्रभु प्राण थे। सनातन के क्लेदभरे शरीर से उनका नित्य स्पर्श होना सुन वे काँप गये। उन्होंने कहा-"

सनातन, इसका सीधा उपाय यही है कि तुम रथयात्रा के पश्चात शीघ्र वृन्दावन चले जाओ। यहाँ और अधिक रहने का क्या काम? महाप्रभु के दर्शन तुमने कर ही लिये। जगन्नाथ के दर्शन रथयात्रा के दिन कर लोगे। उसके पश्चात जितने दिन यहाँ रहोगे तुम्हें इस विपद का सामना करना पड़ेगा। फिर महाप्रभु ने तुम्हें जो दायित्वपूर्ण कार्य सौंपा है, उसके लिये भी तो तुम्हारा और विलम्ब न कर वृन्दावन पहुँच जाना ही उचित है।"

दूसरे दिन जब फिर महाप्रभु उनसे और हरिदास से मिलने गये, हरिदास ने उनकी चरण-बन्दना की और उन्होंने हरिदास को आलिंगन किया। सनातन ने आलिंगन के भय से दूर से ही दण्डवत की। उनके बुलाने पर भी निकट नहीं आये। वे उनकी ओर जितना बढ़े उतना वे पीछे हटते गये। पर उन्होंने बलपूर्वक उन्हें पकड़कर आलिंगन किया। जब वे दोनों को लेकर बैठ गये, निर्विण्ण सनातन ने हाथ जोड़कर कातर स्वर से निवेदन किया-

"प्रभु, मुझे एक बड़ा कष्ठ है। मैं आया था यहाँ आपके दर्शन और संग द्वारा अपना कल्याण सिद्ध करने। पर देख रहा हूँ कि हो रहा है उसका उलटा। मेरे स्पर्श से आपका शरीर नित्य दुर्गधयुक्त क्लेद से सन जाता है। आपको उससे तनिक भी घृणा नहीं होती। पर मुझे अपराध लगता है और मेरा सर्वनाश होता है। इसलिए आप मुझे आज्ञा दें, जिससे मैं वृन्दावन चला जाऊँ। कल पंडित जगदानन्द ने भी मुझे यही उपदेश किया है।"

महाप्रभु का मुखारबिन्द क्रोध से तमतमा गया। जगदानन्द पर क्रोध करते हुए वे गरज-गरजकर कहने लगे-"जगा! कल का जगा तुम्हें उपदेश करेगा, तुम जो व्यवहार और परमार्थ में उसके गुरुतुल्य हो और मेरे भी उपदेष्टा के समान हो। उसे इतना गर्व! इतना साहस उसका!"

सनातन महाप्रभु की क्रोधोदीप्त मूर्ति को निर्निमेष देखते रहे। उनके गण्डस्थल से बह चली प्रेमाश्रुकी धार। फिर कुछ अपने को सम्हाल उनके चरण पकड़कर बोले-"प्रभु, आज मैंने जाना कि जगदानन्द कितने भाग्यशाली हैं और मैं कितना अभागां उन्हें आप अपना समझते हैं, इसलिए कठोर भाषा द्वारा तिरस्कार करते हुए आत्मीयता का मधुपान कराते हैं। मुझे पराया समझते हैं, इसीलिए गौरव-स्तुति द्वारा तिक्त निम्बरस का पान कराते हैं। यह मेरा ही दुर्भाग्य है कि मेरे प्रति आपका आत्मीयता-ज्ञान आज तक न हुआ। इसमें आपका दोष कुछ नहीं, क्योंकि आप स्वतन्त्र ईश्वर हैं।"

यह सुन महाप्रभु कुछ लज्जित हुए। मधुर कण्ठ से सनातन को सान्त्वना देते हुए बोले-

"सनातन, ऐसे मत कहो। मुझे जगदानन्द तुमसे अधिक प्रिय कदापि नहीं। पर मुझे मर्यादा-लंघन पसन्द नहीं। तुम्हारे जैसे शास्त्र-पारदर्शी व्यक्ति को उपदेश कर जगदानन्द ने तुम्हारी मर्यादा का लंघन किया। इसलिए मैंने उसकी भर्त्सना की। तुम्हारी स्तुति की तुम्हारे गुण देखकर, तुम्हें बहिरंग जानकर नहीं। तुम्हें अपना देह लगता है वीभत्स। पर मुझे लगता है अमृत के समान, क्योंकि वह अप्राकृत है। प्राकृत होता तो भी मैं उसकी उपेक्षा न कर सकता, क्योंकि मैं ठहरा सन्न्यासी। सन्न्यासी के लिये अच्छा-बुरा, भद्र-अभद्र कुछ नहीं होता। उसकी सम-बृद्धि होती है।"

"यह सुन हरिदास ने कहा-"प्रभु यह सब तुम्हारी प्रतारणा है।" "प्रतारणा नहीं हरिदास। सुनो, तुमसे अपने मन की बात कहता हूँ। तुम्हारे सबके प्रति मेरा पालक अभिमान रहता है। मैं अपने को पालक मानता हूँ, तुम्हें पाल्यं माता को बालक का अमेध्य जैसे चन्दन के समान लगता है, वैसे ही सनातन का क्लेद मुझे चन्दन जैसा लगता है। इसके अतिरिक्त वैष्णव-देह प्राकृत होता ही कब है? वह अप्राकृत, चिदानन्दमय होता है। दीक्षा के समय जब भक्त आत्मसमर्पण करता है, तभी कृष्ण उसे आत्मसम कर लेते हैं। उसका देह चिदानन्दमय कर देते हैं। उस अप्राकृत देह से ही वह उनका भजन करता है-

दीक्षाकाले भक्त करे आत्मसमर्पण।

सेइ काले कृष्ण तारे करे आत्मसम॥

सेइ देह करे तार चिदानन्दमय।

अप्राकृत देहे तार चरन भजय॥[17]

इतना कह प्रभु सनातन से बोले-

"सनातन, तुम दु:ख न मानना। तुम्हारा आलिंगन करने से मुझे अपार सुख होता है। उसमें मुझे चन्दन और कस्तूरी की गंध आती है। इसलिए तुम इस बात की चिन्ता छोड़ो कि मेरे आलिंगन से तुम्हें अपराध होता है। निश्चिन्त होकर इस वर्ष यहाँ रहो और मुझे अपने संग का सुख दो। वर्ष के पश्चात मैं तुम्हें वृन्दावन भेज दूंगा।"

कहते-कहते उन्होंने सनातन को फिर आलिंगन किया। आलिंगन के साथ ही उनका खुजली रोग जाता रहा और देह स्वर्ण की तरह दीप्तिमान हो गया। हरिदास यह देख चमत्कृत! उन्होंने कहा-

"प्रभु, तुम्हारी लीला बड़ी विचित्र है। इसे तुम्हारे सिवा और कौन जान सकता है? तुम्हीं ने सनातन को झारिखण्ड का पानी पिलाकर उनके शरीर में रोग उपजाया उनकी परीक्षा लेने के लिए और तुम्हीं ने उनका आलिंगन कर उसे दूर किया।"

दोलयात्रा (होली) तक महाप्रभु ने सनातन को पास रखा। दिन प्रतिदिन उनके साथ तत्वालोचना की और पूरा किया साध्य-साधन सम्बन्धी अपने उस उद्देशृय का परवर्ती अध्याय, जो उन्होंने वाराणसी में उन्हें दिया था। दोलयात्रा के पश्चात साश्रुनयन उन्हें विदा किया।

वृन्दावन प्रत्यागमन और मदनगोपाल की सेवा

वृन्दावन पहुँचकर सनातन ने जमुना पुलिन के वन प्रान्त से परिवेष्टित आदित्य टीले के निर्जन स्थान में अपनी पर्णकुटी में फिर आरम्भ किया अपनी अंतरंग साधना के साथ महाप्रभु द्वारा निर्दिष्ट-लीलातीर्थ- उद्धार' कृष्ण-भक्ति-प्रचार और कृष्ण-विग्रह-प्रकाश आदि का कार्य।

श्रीविग्रह की प्राप्ति

ग्राउस ने लिखा है कि वृन्दावन आने के पश्चात श्रीसनातनादि गौड़ीय गोस्वामियों ने सर्वप्रथम वृन्दादेवी के मन्दिर की स्थापना की, जिसका अब कहीं कोई चिह्न नहीं है।[18] उसके पश्चात अन्य मन्दिरों और श्रीविग्रहों की स्थापना का कार्य आरम्भ हुआ। एक दिन सनातन मथुरा गये मधुकरी के लिए। दामोदर चौबे के घर में प्रवेश करते ही उन्हें दीखी श्रीश्री मदनगोपाल की नयनाभिराम मूर्ति। दर्शन करते ही उन्हें लगा कि जैसे उसने उनके मन-प्राण चुरा लिए। वे एक अपूर्व भाव-समाधि में डूब गये और उनके अन्तर में जाग पड़ी श्रीमूर्ति की सेवा की प्रबल आकाँक्षा। उस आकाँक्षा को लेकर वे आदित्य टीले पर अपनी कुटिया में लौट आये। उन्होंने बहुत चेष्टा की उसे दबाने की –ऐसी आकाँक्षा से क्या लाभ, जिसकी पूर्ति सम्भव ही नहीं? वह चौबे परिवार अपने प्राणप्रिय ठाकुर को मुझे क्यों सौंपने लगा? सौंप भी दे तो मेरे पास वह साधन ही कहाँ, जिनके द्वारा उनकी सेवा कर मैं उन्हें सुखी कर सकू? पर आकाँक्षा बड़ी दुर्दमनीय सिद्ध हुई। वे जितना उसे दबाने की चेष्टा करते, उतना ही वह और प्रबल होती जाती। चलते-फिरते, सोते-जागते, यहाँ तक कि भजन-पूजन करते समय भी मदनगोपाल की वह नयनमनविमोहन मूर्ति बार-बार मानसपट पर उदित हो उन्हें अस्थिर कर देती। वे बार-बार मथुरा जाते और मधुकरी के बहाने दामोदर चौबे के घर उसके दर्शन कर लौट आते।

चौबेजी की पत्नी का मदनगोपाल जी के प्रति सुन्दर, सरल वात्सल्य, भाव था। उनका एक लड़का था, जिसका नाम था सदन। वे मदन और सदन दोनों से बराबर का प्रेम करतीं, दोनों का लाड़-चाव और दोनों की सेवा-सुश्रुषा एक सी करतीं। दोनों में किसी प्रकार का भेदभाव न रखतीं। कहते हैं कि मदन गोपालजी भी उस परिवार के एक बालक की ही तरह वहाँ रहते और सदन के साथ खेला-कूदा करते। धीरे-धीरे चौबे परिवार के साथ सनातन हिलमिल गये। चौबे-पत्नी का मदनगोपाल जी के प्रति सहज, स्वाभाविक प्रेम देख उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उनके मन में इच्छा जागी शुद्धा रागमयी भक्ति की कसौटी पर उसे कसने की। इस उद्देश्य से एक दिन उन्होंने उससे कहा-

"माँ, तुम बड़े स्नेह से मदनगोपाल की सेवा करती हो, सो ठीक है। पर घर के एक बालक की कक्षा में उनहें रख ठीक उसी रीति से उनकी सेवा करना ठीक नहीं लगता। इष्ट की सेवा-परिचर्या होती चाहिये इष्ट की तरह, विशेष विधि-विधान के साथ। इष्ट में और तुम्हारे पुत्र सदन में तो भेद है न। उसी के अनुसार दोनों की सेवा में भी भेद होना उचित है।" भोली व्रजमाईने कहा-

"बाबा, आपका कहना ठीक हैं। मैं अब ऐसा ही करूँगी।"

दूसरी बार फिर जब वे उसके घर गये, तो उन्हें देखते ही वह बोली-

"बाबा, आपका उपदेश पालन करने की मैंने चेष्टा की। पर वह मदनगोपाल को अच्छा नहीं लगा। उस दिन स्वप्न में उन्होंने राग करते हुए मुझसे कहा- 'माँ, अब तुम मुझमें और सदना में भेद बरतने लगी हो। सदना को अपना बेटा समझ अपने निकट रखती हो। मुझे इष्ट मान, सेवा-परिचर्या का आडम्बर खड़ा कर, अपने से दूर रखती हो। यह मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता।"

सनातन यह सुनकर अवाक! एक मीठी सिहरन उनके अंग में दौड़ गयी। नेत्रों से अश्रुबिन्दु टप-टप गिरने लगे। मदनगोपालजी ने व्रजमाई के समक्ष अपने प्रेमस्वरूप का और उसकी प्रेम-सेवा के प्रति अपने लोभ का जैसा उद्घाटन किया, उसे देख वे मन ही मन उसके भाग्य की प्रशंसा करने लगे। साथ ही अपने इष्ट-सेवा के उपदेश के परिणाम-स्वारूप मदनगोपाल को उसके वात्सल्य-प्रेम रस से कुछ समय वंचित रखने के कारण अपने को दोषी मान उनसे क्षमा-प्रार्थना करने लगे। मदनगोपाल की प्रेम-सेवा का सौभाग्य स्वयं प्राप्त करने की आशा सनातन को पहले ही दुराशा प्रतीत होती थीं अब उस पर और भी पानी फिर गया। जब मदनगोपाल को उस व्रजमाई की सेवा इतनी प्रिय है और उसमें थोड़ी सी कमी आने पर भी वे अधीर हो उठते हैं, तो उसकी सेवा छोड़ उनकी क्यों अंगीकार करना चाहेंगे?

पर सनातन का अनुमान ठीक न थां जिस दिन से मदनगोपाल की उनके ऊपर दृष्टि पड़ी थी। उनके हृदय में भी एक नवीन आलोड़न की सृष्टि होने लगी थी। उनका मन भी सनातन की प्रेम-सेवा-रस का आस्वादन करने के लिये मचलने लग गया था। ज्यों-ज्यों सनातन का आकर्षण उनके प्रति बढ़ता जा रहा था, उनका आकर्षण भी सनातन के प्रति बढ़ता जा रहा था। सनातन को सुखद आश्चर्य हुआ जब एक दिन दामोदर चौबे की पत्नी ने उदास होकर अश्रु-गद्गद् कण्ठ से उनसे कहा-

"बाबा आज से तुम्हें लेना है मदनगोपाल की सेवा का सम्पूर्ण भार। गोपाल अब बड़ा हो गया है। माँ के आँचल तले रहना नहीं चाहता। कल रात स्वप्न में उसने मुझसे कहा उसे तुम्हें सौंप देने को। मैं भी अब बूढ़ी हो गयी हूँ। हाथ-पैर चलते नहीं। कहीं ठाकुर को मेरे कारण कष्ट भोगना पडत्रे, इससे अच्छा है। कि अवस्था और अधिक बिगड़ने के पूर्व उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति को सौंप दूँ, जो उनकी सेवा प्रेम से करे।"

इस प्रकार अपने भाग्य के सूर्य को अकस्मात् उदय होता देख सनातन का हृदय कमल आनन्द से खिल उठा। प्रेम के आवेश में अपने हृदय-धन को साथ ले वे अपनी कुटी को चले गये। मदनगोपालजी के श्रीविग्रह का एक प्राचीन इतिहास है। कहते हैं कि सत्ययुग में महाराज अम्बरीष इनकी सेवा करते थें कालक्रम से ये लंकापति रावण के पास पहुँचे। रामचन्द्र द्वारा लंका-विजय के पश्चात जानकी जीने उनकी सेवा की। फिर श्रीशत्रुघ्न द्वारा इन्हें मथुरा लाया गया। बहुत दिन बाद श्रीअद्वैत प्रभु ने आदित्य टीला के भूगर्भ से इनका उद्धार कर मथुरा के चौबे परिवार को इनकी सेवा का भार दिया।[19] कुछ लोगों का यह भी कहना है कि श्रीकृष्ण के प्रपौत्र महाराज बज्रनाभ ने ब्रजमण्डल में अपने अनुसन्धान के फलस्वरूप जिन आठ विग्रहों का आविष्कार किया था, इनमें इन मदनगोपालजी का श्रीविग्रह भी था।[20]



वीथिका-गौड़ीय संप्रदाय

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. डा. दीनेशचन्द्रसेन और श्री नगेन्द्रनाथ बसु ने जगद्गुरु का आविर्भाव-काल चतुर्दश शताब्दी के शेष भाग में निर्दिष्ट किया है।
  2. कुछ लोगों का मत है कि यहाँ तात्पर्य वर्धमान ज़िला के अन्तर्गत वर्तमान नैहाटी से है। पर डा. सुकुमारसेन द्वारा आविष्कृत सनातन, रूप और जीव के परिचयपत्र में उल्लेख है कि पद्मनाभ शिखर देश से कुमारहट्ट चले गये (डा. सुकुमारसेन, बांला साहित्येर इतिहास, प्रथम खण्ड, पूर्वार्ध, 3 य सं0 पृ0 302-303)। इससे सिद्ध है कि तात्पर्य कुमार हट्ट के सन्निकट नैहाटी से है।
  3. भक्तिरत्नाकर के अनुसार वे बंगदेश के दक्षिण प्रान्त में बाकला चन्द्रद्वीप में जाकर रहने लगे (भक्ति रत्नाकर 1/561-565)।
  4. सप्त गोस्वामी, पृ0 67।
  5. उन दिनों प्राय: राजा अपनी राजधानी में एक ऊँचा मीनार बनवाये करते थे, जिस पर चढ़कर वे दूर तक निरीक्षण कर सकते थे। उसे 'मन्दिरा' कहा जाता था।
  6. डा. नरेशचन्द्र जाना : छय गोस्वामी, पृ0 25; कृष्णदास बाबा: उज्ज्वल नीलमणी, भूमिका, पृ0 9-11।
  7. "सनातन रूप महामन्त्री सर्वाशेते।
    शुनिलेन राजा शिष्ट लोकेर मुखे ते॥
    गौड़ेर राजा जवन अनेक अधिकार।
    सनातन रूपे आनि दिल राज्य भार॥"(भक्ति रत्नाकर, 1।581-82
  8. कई विद्वानों के मत से दबीर ख़ास सनातन की उपाधि थी और साकर मल्लिक रूप की। पर चैतन्य चरितमृत और चैतन्यभागवत में सनातन की साकर मल्लिक उपाधि के सम्बन्ध में स्पष्ट प्रमाण है।
  9. "कायमनोवचने मोहार एई कथा।
    ए-दुइर प्रेम भक्ति होउक सर्वथा॥"(चैतन्य-भागवत 3।10।261
  10. चैतन्य चरित 2।19।4-5
  11. भक्ति रत्नाकर 1।648-49
  12. चैतन्य चरित 2।19।30-34
  13. चैतन्य चरित 2।20।14
  14. काराध्यक्ष का नाम था शेख हबू। आज भी गौड़ के इंगलिहार ग्राम में शेख हबू के घर और सनातन के कारागृह के अवशेष विद्यमान हैं। (गौड़ेर इतिहास खण्ड2, पृ0 109।
  15. -वे कृष्ण प्रेमरस में सदा डूबे रहते। कभी रोते, कभी हंसते, कभी भिक्षा करते, कभी उपवासी रहते, कभी बन का साग-पात अलोना पकाकर उसके दो-एक ग्रास मुख में दे लेते। फटा-पुराना बहिर्वास और कथा धारण करते और कृष्ण के नाम-गुण-लीला का गान करते हुए एक अलौकिक आनन्द के नशे में शरीर की सुध-बुध भूले रहते।
  16. "सनातन, देह त्यागे कृष्ण जदि पाइये।
    कोटि-देह क्षणेके त छाड़िते पारिये॥
    देह त्यागे कृष्ण ना पाइ, पाइये भजने।
    कृष्ण प्राप्त्येंर कोन उपाय नाहि, भक्ति बिने॥
    भजनेर मध्ये श्रेष्ठ नव विधा भक्ति।
    'कृष्ण प्रेम' 'कृष्ण' दिते धरे महाशक्ति॥
    तार मध्ये सर्वश्रेष्ठ-नाम-संकीर्तन।
    निरपराध नाम हैते पाय प्रेम-धन॥"(चैतन्य चरित 3।4।54-55, 65-66
  17. चैतन्य चरित 3।4।184-185
  18. Growse: A District Memoir, 3rd. Ed. p. 24
  19. श्रीसतीशचन्द्र मिश्र: सप्त गोस्वामी, पृ0 109
  20. वही

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