"सनातन गोस्वामी" के अवतरणों में अंतर

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सन 1514 अक्टूबर का महीना। [[चैतन्य महाप्रभु]] संन्यास रूप में नीलाचल में विराज रहे थे। श्री[[कृष्ण]]-प्रेम-रस से परिपूर्ण उनके हृदय सरोवर में उठी एक भाव तरंग श्रीकृष्ण लीलास्थली मधुर [[वृन्दावन]] के दर्शन की। देखते-देखते वह इतनी विशाल और वेगवती हो गयी कि नीलाचल के प्रेमी भक्तों के नीलाचल छोड़कर न जाने के विनयपूर्ण आग्रह का अतिक्रमण कर उन्हें बहा ले चली वृन्दावन के पथ पर। साथ चल पड़ी भक्तों की अपार भीड़ भावावेश में उनके साथ नृत्य और कीर्तन करती। गौड़ देश होते हुए उन्होंने झाड़खण्ड के रास्ते वृन्दावन जाना था। पर आश्चर्य! झाड़खण्ड न जाकर वे मुड़ चले गौड़ देश के राजा [[हुसेनशाह]] की राजधानी गौड़ की ओर। ऐसा कौन-सा प्रबल आकर्षण था, जो वृन्दावन की ओर बहती हुई उस भाव और प्रेम की सोतस्विनी के वेग को थामकर अपनी ओर मोड़ने में समर्थ हुआ, किसी की समझमें न आया।
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{{बहुविकल्प|बहुविकल्पी शब्द=सनातन|लेख का नाम=सनातन (बहुविकल्पी)}}
{{tocright}}  
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{{सनातन गोस्वामी विषय सूची}}
आकर्षण था अमरदेव और संतोषदेव नाम के दो भाइयों का, जो गौड़ देश के बादशाह हुसेनशाह के मन्त्री थे, अमरदेव प्रधानमन्त्री थे, संतोषदेव राजस्व-मन्त्री। दोनों भाई संस्कृत, फारसी और अरबी के महान विद्वान थे। दोनों मुसलमान राजा के अधीन होते हुए भी बड़े धर्मनिष्ठ और सदाचारी थे। दोनों का मान-सम्मान जैसा राज-दरबार में था, वैसा ही प्रजा और हिन्दू समाज में भी। दोनों का कृष्ण-प्रेम भी अतुलनीय था। दोनों महाप्रभु और उनके प्रेम-धर्म से आकृष्ट हो संसार त्यागकर उनके अनुगत्य में कृष्ण-प्राप्ति के पथपर चल पड़ने का संकल्प कर चुके थे। दोनों ने पहले ही महाप्रभु को कई पत्र लिखकर उनकी कृपा से उद्वार पाने की प्रार्थना की थी।
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{{चयनित लेख}}
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{{सूचना बक्सा साहित्यकार
महाप्रभु को उत्तर में लिखा था- "कृष्ण तुम्हारा उद्वार शीघ्र करेंगे। पर कुछ दिन प्रतीक्षा करो। जिस प्रकार परपुरुष से प्रेम करने वाली कुल-रमणी घर के कार्य में व्यस्त रहते हुए भी चिंतन द्वारा उसके नव-संगमरसका आस्वादन करती है, उसी प्रकार प्रभु की प्रेम-सेवा का मन से चिन्तन करते हुए संसार का कार्य करते रहो"-<ref>"पर व्यसनिनी नारी व्यग्रापि गृहकर्मसु।<br />
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|चित्र=Sanatana-Goswami.jpg
तदेवास्वादयत्यन्तर्नवसंग रसायनम्॥"</ref>
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|चित्र का नाम=सनातन गोस्वामी
महाप्रभु हुसेनशाह की राजधानी के निकट पहुँचकर वहाँ विश्राम कर रहे थे। दोनों भ्राताओं को जब उनके आगमन का संवाद मिला, उनके आनन्द का ओर-छोर न रहा। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि स्वयं महाप्रभु इतना मार्ग चलकर उनतक आने की अयाचित और अहैतु की कृपा करेंगे। उन्होंने उसी राज दीन वेश में वहाँ जाकर उन्हें दण्डवत् की। उनके चरणों में गिर कर पुलकाश्रु विसर्जन करते हुए उनसे प्रार्थना की- "प्रभु जब आपने इतनी कृपा की है तो हमारे उद्वार का भी उपाय करें। हमें अपने चरणों का सेवक बना लें। विषय-विष से अब हमारा जीवन दु:सह हो चला है" महाप्रभु ने दोनों को उठाकर आलिंगन किया। मृदु-मधुर कण्ठ से आशीर्वाद देते हुए कहा-"चिन्ता न करो। कृष्ण तुम्हारे ऊपर कृपा करेंगे। तुम दोनों उनके चिह्नित दास हो। तुम्हें वे अपने सेवा-कार्य में नियुक्त कर शीघ्र कृतार्थ करेंगे। आज से कृष्णदास के रूप में तुम्हारा नाम अमर औ सन्तोष की जगह हुआ सनातन और रूप।
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|पूरा नाम=सनातन गोस्वामी
<ref>प्रभु चिनि दुइ भाइर विमोचन।<br />
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|अन्य नाम=
शेषे नाम थुइलेन रूप-सनातन॥ (चैतन्य चरित 1/1-153)<br />
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|जन्म=1488 ई.<ref name="srk"/>
आज हैते दोंहार नाम रूप-सनातन। (चैतन्य चरित 2/1/195)<br />`
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|जन्म भूमि=
डा. नरेश चन्द्र जाना ने अपनी पुस्तक 'वृन्दावनेर छय गोस्वामी' (पृ0 39-41) में इस सम्बन्ध में शंका की है। उनकी धारणा है कि दोनों भाई के रूप-सनातन नाम पहले से ही थे, क्योंकि महाप्रभु जब दक्षिण में भ्रमण कर रहे थे तभी उन्होंने गोपाल भट्ट से कहा था-वृन्दावन शीघ्र जाना। तुम्हारी वहाँ रूप-सनातन से भेंट होगी-<br />
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|मृत्यु=1558 ई.<ref name="srk"/>
पुन: कहे अचिरे जाइवा वृन्दावन।<br />
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|मृत्यु स्थान=
मिलिब दुर्लभ रत्न रूप-सनातन॥ (भक्ति रत्नाकर 1/121)<br />
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|अभिभावक=मुकुन्ददेव (पितामह)
इस आधार पर डा. जाना की यह धारणा उचित नहीं लगती, क्योंकि यह तो लेखक का अपना वर्णन है। उसने महाप्रभु के ठीक शब्दों को तो उद्धत किया नहीं है। ग्रन्थ लिखने के समय दोनों भाईयों का नाम रूप-सनातन नाम ही प्रचलित था। यह भी संभव है कि महाप्रभु ने पहले ही उनके नाम रूप-सनातन रखने का निश्चय कर लिया हो और वे अपनी गोष्ठी में इसी नाम से दोनों को पुकारते रहे हों, क्योंकि उन्होंने पत्रों द्वारा महाप्रभु को पूर्ण आत्म-समर्पण कर दिया था और महाप्रभु ने अपने सेवकों के रूप में उन्हें स्वीकार भी कर लिया था। ऐसी अवस्था में उनके द्वारा उनका नाम रखा जाना स्वाभाविक नहीं था।</ref> महाप्रभु ने उन्हें पूर्ण रूप से आश्वस्त करने के लिए आगे कहा-
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|पालक माता-पिता=
 
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|पति/पत्नी=
"यहाँ आने का मेरा उद्देश्य ही है तुम दोनों को देखना और तुम्हें आश्वस्त करना कि तुम्हारा उद्वार निश्चित है। मेरा और कोई प्रयोजन नहीं हैं"- <ref>गौड़ निकट आसिते मोर नाहि प्रयोजन।<br />
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|संतान=
तोमा दोंहा देखिते मोर इहाँ आगमन॥"<br />(चैतन्य चरित 2/1/198</ref>
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|कर्म भूमि=[[वृन्दावन]] ([[मथुरा]])
 
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|कर्म-क्षेत्र=
यह देख-सुनकर सब अवाक्! लोग एक बार महाप्रभु की ओर देखते, एक बार रूप और सनातन की ओर। अब उनकी समझ में आया महाप्रभु के इतना रास्ता कटकर इधर आने का कारण। पर कौन हैं यह दोनों भाई, जिनके लिए महाप्रभु ने इतना कष्ट किया? ऐसा कौन-सा गुण है इनमें जिससे ये इतना लुब्ध हैं? यह उनकी अब भी समझ में नहीं आ रहा। महाप्रभु को उन्होंने यह कहते अवश्य सुना है कि "तुम मेरे चिह्नित दास हो।" पर दास के पास ये स्वयं इतना कष्ट उठाकर क्यों आये? दास कष्ट उठाता है स्वामी से मिलने के लिए, न कि स्वामी दास से मिलने के लिए। दास की गरज होती है स्वामी से, न कि स्वामी की दास से। पर वे क्या जाने कि भगवान् और उनके भक्त के बीच सम्बन्ध जगत् के स्वामी और दास जैसा नहीं होता। यहाँ गरज दोनों की दोनों से होती है। भक्त जितना भगवान् से मिलने को उत्सुक रहता हैं, उतना ही भगवान् भक्त से मिलने को। भक्त की जितनी भगवान् से अटकी होती है, उतनी ही भगवान् की भक्त से। सच तो यह है कि भगवान् ही सदा भक्त के पास आते हैं, भक्त भगवान् के पास नहीं जाते। भक्त विचारे की सामर्थ्य ही कहाँ जो उन तक पहुँच सके। वे केवल उस पर कृपा करने और उसे दर्शन देने ही उसके पास खींच ले जाता है। तभी न ध्रुव पास गये, उसे दर्शन देने के उद्देश्य से नहीं उसके दर्शन करने के उद्देश्य से-
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|मुख्य रचनाएँ=श्रीकृष्णलीलास्तव, वैष्णवतोषिणी, श्री बृहत भागवतामृत, हरिभक्तिविलास तथा भक्तिरसामृतसिंधु आदि की रचना की।
 
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|विषय=
"मधोर्वनं भृत्यदि दृक्षया गत:"<ref>भागवत 4/9/1</ref>
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|भाषा=[[हिन्दी]], [[संस्कृत]], [[फारसी भाषा|फारसी]], [[अरबी भाषा|अरबी]]  
 
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|विद्यालय=
महाप्रभु इन दोनों भाइयों के भक्ति भाव से आकृष्ट होकर तो रामकेलि आये थे ही, उनका एक और भी महत्त्वपूर्ण उद्देश्य था। वे इनकी असाधारण प्रतिभा और शक्ति का उपयोग [[वैष्णव धर्म]] के प्रचार के लिए करना चाहते थे, इनसे वैष्णव-शास्त्र लिखवाना और व्रज के लुप्त तीर्थों का उद्धार करवाना चाहते थे।
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|शिक्षा=
[[चित्र:madan-mohan-temple-1.jpg|मदन मोहन जी का मंदिर, [[वृन्दावन]]<br /> Madan Mohan temple, Vrindavan|thumb|200px]]
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|पुरस्कार-उपाधि=
==वंश-परम्परा==
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|प्रसिद्धि=[[सन्त]], कृष्ण-भक्त
रूप और सनातन के असाधारण व्यक्तित्व की गरिमा का सही मूल्यांकन करने के लिए उनकी वंश परम्परा पर दृष्टि डालना आवशृयक है उनके पूर्वपुरुष दक्षिण [[भारत]] में रहते थे। वे राजवंश के थे और जैसे राजकार्य में [[दक्ष]] थे वैसे ही शास्त्र-विद्या में प्रवीण। उनके भतीजे श्रीजीव गोस्वामी ने लघुवैष्णवतोषणी के अन्त में अपनी वंशपरम्परा का वर्णन इस प्रकार किया हैं—
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|विशेष योगदान=[[वृन्दावन]] धाम का पहला [[मदन मोहन मन्दिर वृन्दावन|मदनमोहन जी मन्दिर]] सनातन गोस्वामी ने ही स्थापित किया था, उसकी सेवा भी स्वयं करते थे।
 
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|नागरिकता=भारतीय
कर्नाटक देश के एक बड़े पराक्रमी राजा थे श्रीसर्वज्ञ जगद्गुरु।<ref>डा. दीनेशचन्द्रसेन और श्री नगेन्द्रनाथ बसु ने जगद्गुरु का आविर्भाव-काल चतुर्दश शताब्दी के शेष भाग में निर्दिष्ट किया है।</ref> वे भरद्वाज गोत्र के थे। बड़े धर्मनिष्ठ और वेदवित होने के कारण वे राजमण्डली के पूज्य पात्र थे। उनके पुत्र राजा अनिरुद्ध यजुर्वेद के अद्वितीय उपदेष्टा थें अनिरुद्ध के दो पुत्र हुए-रूपेश्वर और हरिहर। रूपेश्वर शास्त्रविद्या में और हरिहर शस्त्र-विद्या में प्रवीण थे। वैकुण्ठ प्राप्ति के दिन अनिरुद्ध ने अपने राज्य का दोनों पुत्र में बँटवारा कर दिया था। पर हरिहर ने रूपेश्वर का राज्य छीन लिया। रूपेश्वर राज्यच्युत हो पौरस्तदेश चले गये। वहाँ अपने सखा शिखरेश्वर के राज्य में मुख से वास करने लगे। उनके पद्मनाभ नाम के एक गुणवान पुत्र हुए। वे [[यजुर्वेद]] और समस्त उपनिषदों के श्रेष्ठ ज्ञाता थे। [[गंगा नदी|गंगा]] तीर पर वास करने की इच्छा से वे शिखर देश परित्याग कर राजा दनुजमर्दन के आह्नानपर नवहट्ट (नैहाटी)<ref> कुछ लोगों का मत है कि यहाँ तात्पर्य वर्धमान ज़िला के अन्तर्गत वर्तमान नैहाटी से है। पर डा. सुकुमारसेन द्वारा आविष्कृत सनातन, रूप और जीव के परिचयपत्र में उल्लेख है कि पद्मनाभ शिखर देश से कुमारहट्ट चले गये (डा. सुकुमारसेन, बांला साहित्येर इतिहास, प्रथम खण्ड, पूर्वार्ध, 3 य सं0 पृ0 302-303)। इससे सिद्ध है कि तात्पर्य कुमार हट्ट के सन्निकट नैहाटी से है।</ref> चले आये। उनके अठारह कन्या और पाँच पुत्र हुए। पुत्रों के नाम थे- पुरुषोत्तम, जगन्नाथ, नारायण, मुरारी और मुकुन्द। यशस्वी मुकुन्द के पुत्र हुए कुमार। कुमार किसी द्रोह के कारण नवहट्ट छोड़कर बंगदेश (पूर्व बंग) चले गये।<ref>भक्तिरत्नाकर के अनुसार वे बंगदेश के दक्षिण प्रान्त में बाकला चन्द्रद्वीप में जाकर रहने लगे (भक्ति रत्नाकर 1/561-565)।</ref> कुमार के भी कई पुत्र हुए, जिनके वैष्णव समाज में विशेष रूप से प्रसिद्ध हुए तीन- सनातन, रूप और वल्लभ (अनुपम)। इनमें सनातन सबसे बड़े और रूप उनसे छोटे और वल्लभ उनसे छोटे।
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|संबंधित लेख=[[चैतन्य महाप्रभु]], [[रूप गोस्वामी]], [[चैतन्य सम्प्रदाय]], [[वैष्णव सम्प्रदाय]], [[वृन्दावनदास ठाकुर]], [[कृष्णदास कविराज]], [[प्रभुदत्त ब्रह्मचारी]]
 
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|शीर्षक 1=
==बाल्यकाल और शिक्षा==
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|पाठ 1=
जन्म— सनातन गोस्वामी की जन्मतिथि के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कहना सम्भव नहीं जान पड़ता। डा. दीनेशचन्द्र सेन ने उनका जन्म सन् 1492 में बताया है।<ref>D.C. Sen: The Vaisnava Literature of Medieval Bengal  P.29.</ref> और भी कई विद्वानों ने डा. सेन का अनुसरण करते हुए उनका जन्म सन् 1492 या उसके आस-पास बताया। पर डा. सतीशचन्द्र मित्र ने उनका जन्म सन् 1465 (सं0 1522) में लिखा हैं। यही ठीक जान पड़ता है, क्योंकि महाप्रभु जब रामकेलि गये, उस समय सनातन गोस्वामी हुसेनशाह के प्रधानमन्त्री थे। महाप्रभु की आयु उस समय 28/29 वर्ष की थी। महाप्रभु का आविर्भाव हुआ 1486 में। वे रामकेलि गये सन्यास के पंचम वर्ष सन् 1514 या 1515 में। इस हिसाब से सनातन गोस्वामी की आयु डा. सेन के मत के अनुसार उस समय 23 वर्ष की होती। रामकेलि में महाप्रभु से मिलने के कई वर्ष पूर्व वे प्रधानमन्त्री हुए होंगे।<ref>भक्तिरत्नाकर में उल्लेख है कि श्री [[चैतन्य महाप्रभु]] ने संन्यास के पूर्व ही (अर्थात् सन् 1510 के पूर्व) रूप-सनातन की मन्त्री रूप में ख्याति सुनी थी (भक्ति रत्नाकर 1/364-383)।</ref> उस समय उनकी आयु केवल 18/19 वर्ष की या उससे कम होगी और रूप गोस्वामी की उससे भी कम, जो विश्वास करने योग्य नहीं। यदि उनका जन्म मित्र महाशय के अनुसार सन् 1465 में माना जाय, तो उनकी उम्र रामकेलि में महाप्रभु से उनके मिलने के समय 49।50 की होती है, जो प्रधानमन्त्री पद के लिए ठीक लगती है।
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|शीर्षक 2=
 
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|पाठ 2=
एक और प्रकार से भी मित्र महाशय के मत की पुष्टि होती है। श्रीरूप गोस्वामी ने गोविन्द-विरूदावली में लिखा है—
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|अन्य जानकारी=सनातन ने भक्ति सिद्धान्त, वृन्दादेवी मन्दिर तथा श्रीविग्रह की स्थापना की तथा वैष्णव-स्मृति ग्रन्थ का संकलन कर वैष्णव सदाचार का प्रचार किया। [[वृन्दावन]] पहँचकर सनातन ने अपनी अंतरंग साधना के साथ [[चैतन्य महाप्रभु|महाप्रभु]] द्वारा निर्दिष्ट-लीलातीर्थ- उद्धार' कृष्ण-भक्ति-प्रचार और कृष्ण-विग्रह-प्रकाश आदि का कार्य भी आरम्भ किया।
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|अद्यतन=
"हे प्रभो, इस समय मैं वृद्वप्राय और अन्धप्राय हो गया हूँ, फिर भी इस शरणागत के प्रति आपकी कृपादृष्टि नहीं हुई।"<ref>"पालितंकरणीदशा प्रमो मुहुरन्धंकरणी चमां गता।<br />
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}}
शुभंकरणी कृपा शुभैर्ण तवाद्-यंकरणी च मय्यभूत॥"(स्तवमाला)-</ref>
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'''सनातन गोस्वामी''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Sanatana Goswami'', जन्म: 1488 ई. - मृत्यु: 1558 ई.<ref name="srk">{{cite web |url=http://www.radhakunda.com/personalities/sanatana_gosvami.html |title=SRILA SANATANA GOSWAMI |accessmonthday= 15 दिसम्बर|accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= html|publisher= shriradhakund|language=English }}</ref>) [[चैतन्य महाप्रभु]] के प्रमुख शिष्य थे। उन्होंने [[गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय|गौड़ीय वैष्णव]] भक्ति सम्प्रदाय की अनेकों ग्रन्थों की रचना की। अपने भाई [[रूप गोस्वामी]] सहित [[वृन्दावन]] के छ: प्रभावशाली गोस्वामियों में वे सबसे ज्येष्ठ थे। जब भी इस भूमि पर [[भगवान]] [[अवतार]] लेते हैं तो उनके साथ उनके पार्षद भी आते हैं। श्री सनातन गोस्वामी ऐसे ही [[संत]] रहे, जिनके साथ हमेशा [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] एवं [[राधा|श्रीराधारानी]] हैं। [[वृन्दावन]] धाम का पहला [[मदन मोहन मन्दिर वृन्दावन|मदनमोहन जी मन्दिर]] सनातन गोस्वामी ने ही स्थापित किया था। भगवान कृष्ण का जो स्वरूप यहां स्थापित किया गया, उसे [[चैतन्य महाप्रभु]] के भक्त श्री अद्वैताचार्य ने प्रकट किया था।
 
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==परिचय==
गोविन्द-विरूदावली रूपगोस्वामी के 'भक्तिरसामृतसिन्धु' में उद्वत है। भक्तिरसामृतसिन्धु का रचना-काल सन् 1541 है। इस आधार पर गोविन्द-विरूदावली का रचनाकाल 1540 माना जाय और उस समय रूपगोस्वामी का आविर्भाव सन् 1470 के लगभग मानना होगा। सनातन गोस्वामी को रूपगोस्वामी से 4।5 साल बड़ा माना जाय, तो उनका जन्म 1465।66 के लगभग ही मानना होगा।
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{{main|सनातन गोस्वामी का परिचय}}
 
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श्री सनातन गोस्वामी जी का जन्म 1488 ई. के लगभग हुआ था। सन 1514 [[अक्टूबर]] में [[चैतन्य महाप्रभु]] सन्न्यास रूप में नीलाचल में विराज रहे थे। श्रीकृष्ण के प्रेम रस से परिपूर्ण श्रीकृष्ण लीलास्थली मधुर [[वृन्दावन]] के [[दर्शन]] की, उनके [[हृदय]] सरोवर में एक भाव तरंग उठी। देखते-देखते वह इतनी विशाल और वेगवती हो गयी कि नीलाचल के प्रेमी [[भक्त|भक्तों]] के नीलाचल छोड़कर न जाने के विनयपूर्ण आग्रह का अतिक्रमण कर उन्हें बहा ले चली, [[वृन्दावन]] के पथ पर साथ चल पड़ी भक्तों की अपार भीड़ भावावेश में उनके साथ [[नृत्य]] और [[कीर्तन]] करती।
==शिक्षा==
 
सनातन गोस्वामी के पितामह मुकुन्ददेव दीर्घकाल से गौड़ राज्य में किसी उच्च पद पर आसीन थे। वे रामकेलि में रहते थे। उनके पुत्र श्रीकुमार देव बाकलाचन्द्र द्वीप में रहते थे। कुमारदेव के देहावसान के पश्चात मुकुन्ददेव श्रीरूप-सनातन आदि को रामकेलि ले आये। उन्होंने रूप-सनातन की शिक्षा की सुव्यवस्था की। उन्हें प्रारम्भिक शिक्षा दिलायी रामभद्र वाणीविलास नामक एक पंडित से। उसके पश्चात उन्हें भेज दिया नवद्वीप, जो उस समय शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र था। वहाँ कुछ दिन प्रसिद्ध नैयायिक श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य से न्याय-शास्त्र की शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात वे उनके छोटे भाई विद्यावाचस्पति <ref> डा. दीनेशचन्द्र भट्टाचार्य ने सिद्धि किया है कि उनका प्रकृत नाम था विष्णुदास भट्टाचार्य (साहित्य परिषद पत्रिका, वर्ष 56 3य-4र्थ संख्या पृ0 66-81</ref> की [[टोल]] में पढ़ने लगे। असाधारण मेधावान् और प्रतिभा सम्पन्न होने के कारण दोनों थोड़े ही दिनों में साहित्य, व्याकरण और नाना शास्त्रों में पारंगत हो गये। परन्तु उन दिनों केवल संस्कृत साहित्य और शास्त्रादि में व्युत्पन्न होना ही वैषयिक जीवन में उन्नति करने के लिए पर्याप्त न था, क्योंकि सरकार का सारा काम फारसी और अरबी में हुआ करता था। इसलिए मुकुन्ददेव ने उन्हें अरबी और फारसी की शिक्षा देना भी आवश्यक समझा। इसके लिए उन्होंने दोनों भाइयों को सप्तग्राम भेज दिया। सप्तग्राम के शासक फकरूद्दीन उनके बंधु थें उनकी देखरेख में वे अरबी और फारसी के विशेषज्ञ मुल्लाओ से इन भाषाओं का अध्ययन करने लगे। थोड़े ही दिनों में उन्होंने इन भाषाओं में भी पूरा अधिकार प्राप्त कर लिया।
 
 
 
विभिन्न भाषाओं और शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहते हुए भी सनातन गोस्वामी प्रारम्भ से ही [[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवत]] में विशेष रूचि रखते थे। श्रीजीव गोस्वामी ने लघुवैष्णवतोषणी के अन्त में दी हुई। वंशपरिचायिका में उल्लेख किया है कि उन्हें बाल्यावस्था में स्वप्न में एक ब्राह्मण द्वारा श्रीमद्भागवत की एक प्रति प्राप्त हुई थी और प्रभात होने पर उसी ब्राह्मण ने वही प्रति उन्हें भेंट की थी। तभी से वे नियमित रूप से श्रीमद्भागवत का पाठ किया करते थे। अपने वृन्दावनवास के प्रारम्भ में उन्होंने परमानन्द भट्टाचार्य नामक एक भक्ति-सिद्ध आचार्य से भी भागवत के निगूढ़ तत्त्व की शिक्षा ग्रहण की थी।
 
वृहत्वैष्णवतोष्णी के प्रारम्भ में मंगलाचरण में उन्होंने उन सभी महानुभावों की वन्दना करते हुए, जिनसे उन्होंने शिक्षा ग्रहण की थी, लिखा है-
 
 
 
भट्टाचार्य सार्वभौम विद्यावाचस्पतीन् गुरुन्।
 
 
 
बन्दे विद्याभूषणञ्च गौड़देशविभूषणम्॥
 
 
बन्दे श्रीपरमानन्द भट्टाचार्य रसप्रियं।
 
 
रामभद्रं तथा बाणी विलासञ्चोपदेशकम्॥
 
 
 
==दीक्षा-गुरु==
 
उपर्युक्त मंगलाचरण में सनातन गोस्वामी ने केवल विद्यावाचस्पति के लिये 'गुरुन् शब्द का प्रयोग किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे उनके दीक्षा गुरु थे, और अन्य सब शिक्षा गुरु। 'गुरुन' शब्द बहुवचन होते हुए भी गौरवार्थ में बहुत बार एक वचन में प्रयुक्त होता है। यहाँ भी एक वचन में प्रयुक्त होकर विद्यावाचस्पति के साथ जुड़ा हुआ है।<ref> डा. सुशील कुमार दे ने भी अपनी पुस्तक Early History of the Vaisnava Faith and Movement in Bengal (p. 148 fn) में लिखा है “The word gurun in the passage expressly qualifies Vidyavavchaspatin only, and the plural is honontic”</ref> यदि विद्यावाचस्पति और सार्वभौम भट्टाचार्य दोनों दोनों से जुड़ा होता तो द्विवचन में प्रयुक्त किया गया होता। यदि जिनके नामों का यहाँ उल्लेख है उन सबसे जुड़ा होता तो दो बार 'बन्दे' शब्द का प्रयोग न किया गया होता। मनोहरदास ने भी अनुरागबल्ली में वृहत्-वैष्णवतोषणी के मंगलाचरण का यही अर्थ किया है-
 
 
 
श्रीसनातन कैल दशम टिप्पणी।
 
 
तार मंगलाचरणे एइ मत बाणी॥
 
 
विद्यावाचस्पति निज गुरु करिलेन जे।
 
 
ताँहार श्रीमुख वाक्य देख परतेके॥<ref>1 म मञ्जरी</ref>
 
 
श्रीनरहरि चक्रवर्ती ने भक्तिरत्नाकर में विद्यावाचस्पति को ही सनातन का गुरु कहा है-
 
 
श्रीसनातन के गुरु विद्यावाचस्पति थे। वे बीच-बीच में रामकेलि ग्राम में आकर रहा करते थे।<ref>"श्रीसनातन गुरु विद्यावाचस्पति।<br />
 
मध्ये-मध्ये रामकेलि ग्रामे ताँर स्थिति॥"(1।598</ref>
 
 
डा. राधागोविन्दनाथ ने<ref>चैतन्यचरितामृत, परिशिष्ट, पृ: 419</ref> भी कहा है कि वैष्णवतोषणी के मंगलाचरण में उक्त विद्यावाचस्पति ही सनातन के गुरु थे। गौड़ीय-वैष्णव समाज में प्रचलित मत भी यही है। पर डा. विमानबिहारी मजूमदार<ref>चैतन्यचरितेर उपादान, 2 य सं, पृ: 137</ref> और डा. जाना ने<ref>वृन्दावनेर छय गोस्वामी, पृ: 47-48</ref> श्रीचैतन्य महाप्रभु को सनातन गोस्वामी का दीक्षा-गुरु माना है। प्रमाण में उन्होंने कहा है कि वृहद्भागवतामृत के दशम और एकादश श्लोक में सनातन गोस्वामी ने स्पष्ट रूप से श्रीचैतन्य को प्रणाम किया है। श्लोक इस प्रकार है-
 
 
 
<ref>"नम: श्रीगुरुकृष्णाय निरूपाधिकृपाकृते।<br />
 
य श्रीचैतन्यरूपोऽभूत् तन्वन् प्रेमरसं कलौ॥<br />
 
भगवद्भक्ति शास्त्राणामयं सारस्यसंग्रह:।<br />
 
अनुभूतस्य चैतन्यदेवे तत्प्रियरूपत:॥"</ref>
 
-जो [[कलि युग]] में प्रेमरस का विस्तार करने के लिए श्रीचैतन्य रूप में अवतीर्ण हुए हैं, उन निरूपाधि-कृपाकारी श्रीकृष्णरूप गुरुवर को मैं प्रणाम करता हूँ। यह ग्रन्थ भगवद्भक्ति-शास्त्र समूह का सार-स्वरूप है, जो श्रीचैतन्यदेव के प्रिय रूप, (यदि रूप)<ref>[[ब्रजमंडल]] के छय गोस्वामियों के अनुसार श्रीचैतन्यदेव का प्रियरूप है उनका यति रूप, जिसके द्वारा उन्होंने राधा के भाव माधुर्य का आस्वादन किया। गौड़मण्डल के शिवानन्द सेन, नरहरि सरकार, वासु घोष। जिस प्रकार श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में कहा जाता है कि [[द्वारका]] और [[कुरुक्षेत्र]] के कृष्ण पूर्ण है, [[मथुरा]] के पूर्णतर और वृन्दावन के पूर्णतम, उसी प्रकार ये गौर पारम्यवादीगण यतिवेशधारी श्रीचैतन्य को उनका पूर्ण रूप, गया से लौटने पर उनके भावोन्मत्तरूप को उनका पूर्णतररूप और नवद्वीप के किशोर गौरांग को उनका पूर्णतम रूप मानते हैं।</ref> द्वारा अनुभूत हुआ है।" डा. मजूमदार और डा. जाना का इस आधार पर श्रीचैतन्य को सनातन गोस्वामी का दीक्षा-गुरु मानना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि यहाँ उन्होंने श्रीचैतन्यदेव की गुरुरूप में प्रणाम किया है अवश्य, पर दीक्षा-गुरु रूप में नहीं श्रीकृष्ण का अवतार होने के कारण जगद्गुरु रूप में। इन श्लोकों की टीका में उन्होंने स्वयं इस बात को स्पष्ट कर दिया है। टीका में उन्होंने लिखा है- " श्रीवैष्णव सम्प्रदाय रीत्या स्वस्यष्टदैवतरूपं श्रीगुरुवरं प्रणमति-वैष्णव सम्प्रदाय की रीति के अनुसार अपने इष्टदेव रूप में गुरुवर श्रीचैतन्यदेव को प्रणाम करता हूँ।" इष्ट समष्टि-गुरु रूप में साधक का गुरु होता है, दीक्षा-गुरु रूप में नहीं। वैष्णवशास्त्रानुसार श्रीमन्महाप्रभु हैं स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण तत्वत: समष्टिगुरु होते हुए भी व्यष्टिगुरु का कार्य नहीं करते। वे स्वयं किसी को दीक्षा नहीं देते। दीक्षा है कृष्ण-प्राप्ति का उपाय, श्रीकृष्ण हैं उपेय। उपेय स्वयं उपाय नहीं होता।
 
 
 
डा. राधागोविन्दनाथ ने इस सम्बन्ध में एक और तर्क उपस्थित किया है। श्री चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि श्रीचैतन्य महाप्रभु के दर्शनकर रूप-सनातन अपने घर चले गये और चैतन्य-चरण-प्राप्ति की आशा से उन्होंने दो पुरश्चरण करायें हरिभक्तिविलास 7।3 श्लोक की विधि के अनुसार पुरश्चरण दीक्षा के पश्चात ही होता है, उसके पूर्व नहीं। इससे स्पष्ट है कि श्रीचैतन्य का साक्षात् होने के पूर्व ही उनकी दीक्षा हो चुकी थी। रूप-सनातन ने विवाह किया या नहीं, इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। चैतन्य चरितामृत और भक्तिरत्नाकर में उनके परिवार-परिजन आदि का उल्लेख है। उसके आधार पर कुछ लोगों का अनुमान है कि उन्होंने विवाह किया थां पर किसी प्राचीन ग्रन्थ में उनके विवाह का स्पष्ट उल्लेख नहीं है।
 
 
 
==राज-कार्य==
 
===मन्त्रीपद पर नियुक्ति===
 
हुसेनशाह के दरबार में रूप-सनातन किस प्रकार राज-मन्त्री हुए, इस सम्बन्ध में श्रीसतीशचन्द्र मित्र ने 'सप्त गोस्वामी' ग्रन्थ में लिखा है-"शैशव में सनातन और उनके भाई बाकला से रामकेलि अपने पितामह मुकुन्ददेव के पास ले जाये गये। उन्होंने ही उनका लालन-पालन किया। मुकुन्ददेव राज दरबार में किसी उच्च पद पर आसीन थे। दरबार में उनका बड़ा सम्मान था। उनके पौत्रों ने अपनी असामान्य प्रतिभा और विद्या-बुद्धि के कारण सबका ध्यान सहज ही आकर्षित किया। कुछ दिन पश्चात गौड़ में भागीरथी के तीर पर मुकुन्द को परलोक-प्राप्ति हुई (सन् 1483)। उस समय सनातन की आयु 18 वर्ष थी। उसी समय उन्हें पितामह का पद प्राप्त हुआ।<ref>सप्त गोस्वामी, पृ0 67।</ref> यह मत ठीक नहीं लगता। हुसेनशाह गौड़ के सुलतान हुए 1492 ई. में। इसलिये 1483 ई. में रूप-सनातन का उनके मन्त्री पर पर नियुक्त होना नहीं बनता।
 
 
 
कई लेखकों ने इस सम्बन्ध में एक किवदन्ती का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है। हुसेनशाह ने अपने राजमिस्त्री पीरू को एक मन्दिरा-स्तम्भ<ref>उन दिनों प्राय: राजा अपनी राजधानी में एक ऊँचा मीनार बनवाये करते थे, जिस पर चढ़कर वे दूर तक निरीक्षण कर सकते थे। उसे 'मन्दिरा' कहा जाता था।</ref> बनाने का आदेश दिया। जब उसका निर्माण पूरा होने को आया, उसने पीरू के साथ ऊपर चढ़कर उसका निरीक्षण किया। उसे देख वह बहुत प्रसन्न हुआ, पीरू की प्रशंसा की और उसे इनाम देने को कहा। पीरू ने कहा- "जहाँ पनाह, मैं इससे भी और अच्छा बना सकता हूँ।" यह सुन हुसेनशाह को क्रोध आया। उसने कहा- "नमकहराम, जब तू  इससे अच्छा बना सकता है, तो क्यों नहीं बनाया? तुझे प्राण दण्ड मिलेगा।" तत्काल उसे मन्दिर के ऊपर से धक्का देने का अपने सिपाही को आदेश दिया। पर वह पहले उसे इनाम देने को कह चुका था, इसलिये मरने के पहले उससे इनाम भी मांगने को कहा। पीरू ने कहा-"मुझे जब मरना ही है तो और इनाम लेकर क्या करूगा। इस मन्दिरा का नाम मेरे नाम पर 'पीरूसा-मन्दिरा' रख दिया जाय।" हुसेनशाह ने उसे मन्दिरा के ऊपर से गिराकर मरवा दिया, पर मन्दिरा का नाम रख दिया "पीरूसा-मन्दिरा।"
 
 
 
मन्दिरा का शिरावरण अभी नहीं बना था। एक दिन हुसेनशाह हिंगा नामक एक प्यादे को साथ लेकर उसे देखने गया। शिरावरण को अधूरा देख वह बहुत दु:खी हुआ। हिंगा से कहा-"हिंगा, तू मोरगाँय (मोरग्राम) जा।" उसी समय उसका मुरशिद आ गया। उसकी अभ्यर्थना कर उसके साथ वार्तालाप में लग जाने के कारण वह यह न बता सका कि किस कार्य के लिये जाना है। हिंगा भी कुपित गौड़पति से यह पूछने का साहस न कर सका कि वह मोरगाँव किसलिये जाय। बस वह मोरगाँव चला गया। वहाँ विषष्ण मन से इधर-उधर फिरता रहा। सनातन गोस्वामी को जब उसकी दयनीय अवस्था का पता चला, तो उन्होंने उसे कुछ सुदक्ष मिस्त्रयों को साथ ले गौड़ जाने की सलाह दी। वह उन्हें लेकर गौड़ चला गया। हुसेनशाह मिस्त्रियों को देखकर प्रसन्न हुआ। उसे आश्चर्य हुआ कि हिंगा ने बिना बताये उसका अभिप्राय कैसे जान लिया। इस सम्बन्ध में उसे सनातन की कुशाग्र बुद्धि का पता चला। वह पहले भी अपने मुरशिद से रूप-सनातन दोनों भाईयों की प्रशंसा सुन चुका था। उसने तुरन्त उन्हें पालकी में बिठाकर आदर सहित ले आने का अपने कुतवाल केशव क्षत्री को आदेश दिया। उनके आने पर उसने मन्त्री पद स्वीकार कर राज्य-भार ग्रहण करने को कहा। राजाज्ञा उल्लंघन के भीषण परिणाम के भय से उन्हें मन्त्री पद स्वीकार करना पड़ा।<ref>डा. नरेशचन्द्र जाना : छय गोस्वामी, पृ0 25; कृष्णदास बाबा: उज्ज्वल नीलमणी, भूमिका, पृ0 9-11।</ref> श्रीसतीशचन्द्र मिश्र के मत और उपरोक्त किंवदंती में कितना तथ्य है नहीं कहा जा सकता। पर इतना निश्चित है कि सनातन गोस्वामी को मन्त्री पद पर नियुक्त किया गया उनकी असाधारण बुद्धिमत्ता के कारण ही। यह भक्तिरत्नाकर में नरहरि चक्रवर्ती के इस विवरण से स्पष्ट है-
 
 
"राजा ने जब शिष्ट लोगों के मुख से सुना कि सनातन और रूप की रंग-रंग में महामन्त्रीत्व भरा है, तो उन्होंने अपने अधिकार का प्रयोग कर उन्हें अपने निकट बुलवाया और राज्य भार उन पर सौंप दिया।"<ref>"सनातन रूप महामन्त्री सर्वाशेते।<br />
 
शुनिलेन राजा शिष्ट लोकेर मुखे ते॥<br />
 
गौड़ेर राजा जवन अनेक अधिकार।<br />
 
सनातन रूपे आनि दिल राज्य भार॥"(भक्ति रत्नाकर, 1।581-82</ref>
 
 
सनातन गोस्वामी अपने असाधारण व्यक्तित्व, विचक्षणता और कर्मठता के कारण हुसेनशाह के दक्षिण हस्त बन गये। राज्य के शासन और प्रतिरक्षा आदि का कोई भी महत्त्वपूर्ण कार्य हुसेनशाह
 
सनातन गोस्वामी के परामर्श के बिना न करते। उनके अनुज रूप और वल्लभ भी उनके प्रभाव से उच्च राज पद पर नियुक्त कर दिये गये। सनातन को उपाधि दी गयी 'साकर मल्लिक' और रूप को 'दबीर ख़ास'।<ref>कई विद्वानों के मत से दबीर ख़ास सनातन की उपाधि थी और साकर मल्लिक रूप की। पर चैतन्य चरितमृत और चैतन्यभागवत में सनातन की साकर मल्लिक उपाधि के सम्बन्ध में स्पष्ट प्रमाण है।</ref> 'मल्लिक' अरबी के 'मलिक' शब्द उत्पन्न है, जिसका अर्थ है 'राजा'। 'साकर' अरबी के 'सागिर' शब्द से उत्पन्न है, जिसका अर्थ है 'छोटा' या 'उप'। 'साकर मल्लिक' का अर्थ है छोटा राजा अर्थात् प्रधानमन्त्री, जिसका राजा के बाद स्थान है। 'दबीर ख़ास' फारसी के 'दबिर-इ-ख़ास' शब्द से उत्पन्न है, जिसका अर्थ है निजस्व-सचिव या प्राइवेट-सेक्रेटरी।
 
  
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==शिक्षा तथा दीक्षा==
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{{main|सनातन गोस्वामी का बाल्यकाल और शिक्षा|सनातन गोस्वामी को दीक्षा}}
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सनातन गोस्वामी के पितामह मुकुन्ददेव दीर्घकाल से गौड़ राज्य में किसी उच्च पद पर आसीन थे। वे रामकेलि में रहते थे। उनके पुत्र श्रीकुमार देव बाकलाचन्द्र द्वीप में रहते थे। कुमारदेव के देहावसान के पश्चात् मुकुन्ददेव श्रीरूप-सनातन आदि को रामकेलि ले आये। उन्होंने रूप-सनातन की शिक्षा की सुव्यवस्था की।<br />
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सनातन गोस्वामी ने मंगलाचरण में केवल विद्यावाचस्पति के लिये 'गुरुन्' शब्द का प्रयोग किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे उनके दीक्षा गुरु थे, और अन्य सब शिक्षा गुरु। 'गुरुन' शब्द बहुवचन होते हुए भी गौरवार्थ में बहुत बार एक वचन में प्रयुक्त होता है। यहाँ भी एक वचन में प्रयुक्त होकर विद्यावाचस्पति के साथ जुड़ा हुआ है।<ref> डॉ. सुशील कुमार देने भी अपनी पुस्तक Early History of the Vaisnava Faith and Movement in Bengal (p. 148 fn) में लिखा है “The word gurun in the passage expressly qualifies Vidyavavchaspatin only, and the plural is honontic”</ref> यदि विद्यावाचस्पति और सार्वभौम भट्टाचार्य दोनों दोनों से जुड़ा होता तो द्विवचन में प्रयुक्त किया गया होता।
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====रचना====
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सनातन गोस्वामी की रचनाएँ निम्न हैं-
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#श्रीकृष्णलीलास्तव
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#वैष्णवतोषिणी
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#श्री बृहत भागवतामृत
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#हरिभक्तिविलास तथा
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#भक्तिरसामृतसिंधु
 
==भक्ति-साधना==
 
==भक्ति-साधना==
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[[चित्र:Sanatana-Goswami-2.jpg|thumb|200px|left|सनातन तथा [[रूप गोस्वामी]]]]
 
सनातन गोस्वामी गौड़ दरबार में सुलतान के शिविर में रहते समय मुसलमानी वेश-भूषा में रहते, अरबी और फारसी में अनर्गल चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि रूप और सनातन जब रामकेलि महाप्रभु के दर्शन करने गये, उस समय नित्यानन्द और हरिदास ने, जो महाप्रभु के साथ थे, कहा-  
 
सनातन गोस्वामी गौड़ दरबार में सुलतान के शिविर में रहते समय मुसलमानी वेश-भूषा में रहते, अरबी और फारसी में अनर्गल चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि रूप और सनातन जब रामकेलि महाप्रभु के दर्शन करने गये, उस समय नित्यानन्द और हरिदास ने, जो महाप्रभु के साथ थे, कहा-  
 
 
रूप और साकर आपके दर्शन को आये हैं। यहाँ सनातन को ही साकर (मल्लिक) कहा गया है।<ref>रूप साकर आइला तोमा देखिबारे। (चैतन्य-चरितामृत 2।1।174</ref>
 
रूप और साकर आपके दर्शन को आये हैं। यहाँ सनातन को ही साकर (मल्लिक) कहा गया है।<ref>रूप साकर आइला तोमा देखिबारे। (चैतन्य-चरितामृत 2।1।174</ref>
[[चित्र:Madanmohan-2.jpg|मदन मोहन जी का मंदिर, [[वृन्दावन]]<br /> Madan Mohan temple, Vrindavan|thumb|200px]]
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{{main|सनातन गोस्वामी की भक्ति-साधना}}
वार्तालाप करते और विधर्मी सुलतान और अमीर-उमराव की सामाजिक रीतिनीति के अनुसार व्यवहार करते। पर दिन ढ़लते अपने गृह रामकेलि पहुँचते ही उद्भासित हो उठता उनका निज-स्वरूप। स्नान तर्पणादि के पश्चात शुद्व होकर वे लग पड़ते दान-ध्यान, पूजा-अर्चना, शास्त्र-पाठ और धर्म सम्बन्धी आलाप-आलोचना में। रामकेलि में और उसके आसपास सनातन गोस्वामी ने बना रखा था एक अपूर्व धार्मिकता का परिवेश। उनके द्वारा प्रतिष्ठित श्री [[मदन मोहन जी का मंदिर|मदन मोहन]] का मन्दिर और उनके बनवाये सनातन सागर, रूप सागर, दीधि, [[श्याम कुण्ड]], [[राधाकुण्ड गोवर्धन|राधाकुण्ड]], [[ललिता कुण्ड]], [[विशाखा कुण्ड]], [[सुरभी कुण्ड]] [[रंगदेवी कुण्ड]] और [[इन्दुरेखा कुण्ड]] आज भी वहाँ वर्तमान हैं। इन कुण्डों के किनारे आरोपित कदम्ब के वृक्षों के नीचे बैठकर वे कृष्ण-लीला का चिन्तन करते थे। भक्ति-रत्नाकर में नरहरि चक्रवर्ती का उल्लेख है-
 
 
उनके घर के निकट एक निभृत स्थान में कदम्ब के वृक्षों से घिरा हुआ श्यामकुण्ड था। वहाँ बैठकर वे वृन्दावन-लीला का चिन्तन करते-करते धैर्य खो बैठते और उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती।<ref>बाड़ीर निकटे अति बिभृत स्थाने ते<br />
 
कदम्ब-कानन धारा श्यामकुण्ड ताते<br />
 
वृन्दावन लीला तथा करये चिन्तन,<br />
 
ना धरे धैरज नेत्रे धारा अनुक्षण।(1।604-605</ref>
 
 
चैतन्य भागवत में दो जगह सनातन को साकर मल्लिक कहा गया है-
 
 
साकर मल्लिक आर रूप दुई भाई।
 
 
दुई प्रति कृपा दृष्ट्ये चाहिला गोसात्रि॥<ref>चैतन्य-भागवत 3।10।234</ref>
 
 
यहाँ रूप का नाम लिया गया है और सनातन को साकर मल्लिक कहा गया है। महाप्रभु ने साकर मल्लिक की ही जगह सनातन का नाम सनातन रखा इसका चैतन्य-भागवत में स्पष्ट उल्लेख है-
 
 
साकर मल्लिक नाम घुचाइया तान।
 
 
सनातन अवधूत थ्इलेन नाम॥<ref>चैतन्य-भागवत 3।10।268</ref>
 
 
गिरिजा शंकर राय चौधरी का मत है कि सनातन को ही साकर मल्लिक और दबीर ख़ास, इन दोनों नामों से पुकारा जाता था।<ref>श्रीचैतन्यदेव ओ ताँहार पार्षदगण, पृ0 147-149</ref> उनका कहना है कि चैतन्य-चरितामृत और चैतन्य-भागवत में कहीं भी 'दबीर ख़ास' शब्द का प्रयोग रूप के लिये नहीं किया गया। पर चैतन्य भागवत की निम्न पंक्तियों को देखकर ऐसा नहीं कहा जा सकता---
 
 
"दबीर ख़ासेरे प्रभु बलिते लागिल।
 
 
एखने तोमार कृष्ण प्रेम-भक्ति हैला॥"<ref>चैतन्य-भागवत 3।10।263</ref>
 
 
 
==आत्म-ग्लानि==
 
सनातन गोस्वामी की यह मनोवृत्ति उनके वंशगत वैशिष्ठ्य के कारण थी, जो अब तक दबी हुई थी उनके जटिल राजकार्य के दायित्वपूर्ण भार के कारण। दबी होते हुए भी यह भट्टे की अग्नि की तरह भीतर-भीतर सुलग रही थी। हवा का एक झोंका लगते ही इसे धधककर बाहर आ जाना था। झोंका आया जब हुसेनशाह की सेना ने निर्ममता से उड़ीसा के देव-देवियों की मूर्त्तियों को ध्वंस कर दिया। सनातन से यह न देखा गया। अनुताप की अग्नि उनके अन्तर में धूं-धूंकर जलने लगी। उन्हें अपने आपसे ग्लानि होने लगी। वह प्रधान-मन्त्रीत्व किस काम का, जिसमें अपने वैषयिक वैभव के लिये अपनी आत्मा को विधर्मी राजा के हाथों गिरवीं रख देना पड़े? वह वैभव सुख-सम्पत्ति और मान-सम्मान किस काम का, जिसमें अपनी नैसर्गिक प्रवृत्ति को विकास का अवसर न मिले? वह जीवन किस काम का, जिसके आन्तरिक और बाह्य स्वरूपों में दिन और रात के अन्तर को कम करने का कोई उपाय ही न हो? वे इस विषम स्थिति से परित्राण पाने का उपाय खोजने लगे।
 
 
 
==मन्त्रीत्व-त्याग और कारागार ==
 
इसी बीच हुआ महाप्रभु का रामेकेलि शुभागमन और रूप-सनातन के नवजन्म का शुभारम्भ। उनकी कृपादृष्टि पड़ते ही उनके कृष्ण-प्रेम में ऐसी बाढ़ आयी कि उनके सभी सांसारिक बन्धनों को छिन्न-भिन्न करती -दबीर ख़ास से प्रभु कहने लगे-अब समझ लो कि तुम्हें प्रेम-भक्ति प्राप्त हो गयी।" इससे पूर्व अर्द्वताचार्य ने दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहा था-
 
 
"काय, मन और वचन से मेरा यह आशीर्वाद है कि इन दोनों को प्रेम-भक्ति हो।"<ref>"कायमनोवचने मोहार एई कथा।<br />
 
ए-दुइर प्रेम भक्ति होउक सर्वथा॥"(चैतन्य-भागवत 3।10।261</ref>
 
 
इन पंक्तियों को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि उपरोक्त पंक्तियों में महाप्रभु ने अद्वैताचार्य के आशीर्वाद के परिणाम स्वरूप केवल सनातन गोस्वामी के प्रेम-भक्ति नाभ करने की बात कही हो। स्पष्ट है कि यहाँ 'दबीर ख़ास' शब्द का प्रयोग दोनों के लिये किया गया है। इससे यह संभव जान पड़ता है कि 'साकर मल्लिक' केवल सनातन की उपाधि रही हो और 'दबीर ख़ास' दोनों को पुकारा जाता रहा है। डा. जाना ने जयानन्द के चैतन्यमंगल से निम्न पंक्तियों को उद्धृत करके भी सिद्ध करने की चेष्टा की है कि दबीर ख़ास दोनों को कहा जाता था-
 
 
हेन काले दबीर ख़ास भाइ दुइ जने।
 
 
देखिञा चैतन्य चिनिलेन ततक्षणे॥
 
 
श्रीकृष्ण चैतन्य रहिलेन कुतूहले।
 
 
दबिर ख़ास हुइ भाइ गेला नीलाचले॥
 
 
 
हुई उन्हें बहा ले गयी कृष्ण-प्रेम के अनन्त [[अगाध]] सागर की ओर। महाप्रभु के रामकेलि से जाते ही दोनों भाईयों का सांसारिक जीवन असंभव हो गया। इससे परित्राण पाने के उद्देश्य से उन्हीं दो शास्त्रज्ञ ब्राह्मणों को बहुत सा धन देकर उनसे कृष्ण-मन्त्र के दो पुरश्चरण करवाये<ref>चैतन्य चरित 2।19।4-5</ref> पुरश्चरण के पश्चात दोनों ने संसार त्यागकर वृन्दावन जाने का निश्चय किया। सनातन के ऊपर राजकार्य का दायित्व अधिक था। इसलिये दोनों ने आपस में परामर्श कर स्थिर किया कि पहले रूप गुप्त रूप से वृन्दावन की यात्रा करेंगे। फिर कुछ दिन बाद सनातन उनसे वृन्दावन में जा मिलेंगे। पर रूप-सनातन पर आत्मीय स्वजन और आश्रित ब्राह्मण, पंडित साधु-सज्जन आदि के भरण-पोषण का दायित्व भी कम न था। संसार त्याग करने के पूर्व उन्हें उन सबकी समुचित व्यवस्था करनी थी। तदर्थ रूप स्वोपार्जित विपुल धनराशि लेकर फतेहाबाद चले गये। उन्होंने अपने परिवार के लोगों को पहले ही फतेहाबाद और चन्द्रद्वीप भेज दिया था।<ref>भक्ति रत्नाकर 1।648-49</ref> चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि उन्होंने अपने संचित धन का आधा ब्राह्मण और वैष्णवों में बांट दिया। बाक़ी में से आधा परिवार के लोगों को उनके पोषण के लिये देकर दस हज़ार मुद्रायें एक
 
 
 
बनिये के पास सनातन गोस्वामी के ख़र्च के लिये जमा कर दी। जो बचा उसे सज्जन ब्राह्मणों के पास आकस्मिक विपत्तियों के लिये जमा कर दिया। जयानन्द ने चैतन्यमंगल में लिखा है कि इस प्रकार उन्होंने बाइस लाख स्वर्ण मुद्राओं का बँटवारा कर स्वयं वैराग्य वेष धारण कर परमार्थ पथ का अनुसरण किया।
 
 
 
रूप के राजसभा त्यागने के पश्चात सनातन ने भी राजसभा जाना बन्द कर दिया। हुसेनशाह से कहना भेजा-"मेरा स्वास्थ्य ठीक, नहीं रहता। मैं अब राजकार्य करने के योग्य नहीं हूँ।" हुसेनशाह को संदेह होना स्वाभाविक था। उसने सोचा दबीर ख़ास तो बिना कुछ कहे सुने कहीं चला गया ही है, शाकर मलिक भी भाग निकलने की तैयारी में है। उस समय राज्य के चारों ओर युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। ऐसे समय सनातन जैसे कुशल प्रधानमन्त्री का घर बैठे रहना उसे कब अच्छा लग सकता था? उसने तत्काल राजवैद्य को भेजा सनातन की परीक्षा करने। राजवैद्य ने लौटकर सनातन के निरोग होने का संवाद दिया। हुसेनशाह को क्रोध आया। दूसरे दिन वह स्वयं गया सनातन के रामकेलि प्रासाद में उन्हें देखने। उसने देखा उन्हें प्रसन्न मुद्रा में साधु-वैष्णवों के बीच बैठे धर्म-चर्चा करते। भ्रकुटी तानते हुए उसने कहा-'सनातन! जानते नहीं इस समय राज्य की कैसी परिस्थिति है? ऐसे समय बीमारी का बहाना कर तुम्हारा घर बैठे रहना क्या राज-विद्रोह का सूचक नहीं है? छोड़ो इस पागलपन को और राज्य की बागडोर पूर्ववत् हाथ में लो। नहीं तो राजाज्ञा की अवहेलना का दण्ड भोगने के लिये तैयार रहो।" पर सनातन अपने हृदय-सिंहासन पर गौड़ेश्वर के बदले परमेश्वर को बिठा चुके थे। उन्होंने दृढ़ता के स्वर में उत्तर दिया-
 
 
 
"जहाँपनाह, मैं अब भगवान् का दास हूँ, और किसी का नहीं। भगवान् की सेवा छोड़कर अब मेरे लिये और किसी की सेवा सम्भव ही नहीं। दरबार का कार्य अब मैं नहीं करूँगां मुझे क्षमा करें।"
 
 
 
हुसेनशाह को अपने प्रधानमन्त्री से अपनी आज्ञा की अवहेलना कब बरदास्त हो सकती थी? उसने तत्काल उन्हें बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया। उड़ीसा के युद्ध में हुसेनशाह का सेनापति हार खाकर लौट आया। इस बार हुसेनशाह ने सव्यं सेना लेकर राजा प्रतापरुद्र का मुक़ाबला करने का निश्चय किया। सनातन जैसे तीक्ष्ण बुद्धिवाले सहायक की आवश्यकता पड़ी। उन्हें कारागार से बुलाकर उसने कहा-
 
 
 
"सनातन! मेरी बात मानो, हट छोड़ दो। अपना दायित्वपूर्ण कार्य फिर से सम्हालो और मेरे साथ उड़ीसा के युद्ध में चलो।"
 
 
 
सनातन ने दो टूक जवाब दिया-
 
 
 
"नहीं, जहाँपनाह, यह मुझसे नहीं होगा। आपकी सेना मार्ग के सभी देव-मन्दिरों को ध्वंस करती और देव-मूर्तियों को कलुषित करती जायेगी। यह मैं अपने नेत्रों से न देख सकूंगा। मैं इस पापकार्य में साझी न बनूँगा।"
 
 
 
सनातन को फिर कारागार में डाल हुसेनशाह ने ससैन्य उड़ीसा के लिए प्रस्थान किया। सनातन कारागार में पड़े निरन्तर महाप्रभु का चिन्तन करते रहे और उनसे प्रार्थना करते रहे-
 
 
 
"गौर सुन्दर! तुमने रूप पर कृपा की। उसे भव-बन्धन से मुक्त कर दियां मेरे ऊपर कब कृपा करोगे नाथ? तुम्हारे सिवा अब मेरा कौन है, जिसकी कृपा का भरोसा रख प्राण धारण कर सकूं?"
 
 
 
==कारागार से मुक्ति==
 
कुछ ही दिन बाद उन्हें मिला रूप का एक गुप्त पत्र। उसमें सांकेतिक भाषा में लिखा था-
 
 
 
"महाप्रभु ने वृन्दावन की यात्रा प्रारम्भ कर दी है। मैं और वल्लभ भी वृन्दावन जा रहे हैं। अमुक बनिये के पास दस हज़ार मुद्रा छोड़े जा रहे हैं। आप उन्हें काराध्यक्ष को उत्कोच में देकर कारागार से मुक्ति पाने का उपाय करें और यथाशीघ्र वृन्दावन चले आयें।<ref>चैतन्य चरित 2।19।30-34</ref> सनातन ने ऐसा ही किया। काराध्यक्ष पर उन्होंने पहले अनुग्रह किया था। वह उनका अहसानमन्द था। पर हुसेनशाह का उसे भय था इसलिये सनातन गोस्वामी को मुक्त करने में असमर्थ था। सनातन गोस्वामी ने उससे कहा-"हुसेनशाह यदि उड़ीसा के युद्ध से जीवित लौट आये, तो उससे कहना-
 
 
 
"सनातन बेड़ी पहने लघुशंका के लिये बाहर गये और गंगा में डूबकर मर गये।" इतना कह जब उन्होंने मुद्राओं की थैली उसके सामने रखी, उसे लोभ आ गया। उसने बेड़ी काटकर स्वयं उन्हें गंगा के पार पहुँचा दिया।<ref>चैतन्य चरित 2।20।14</ref><ref>काराध्यक्ष का नाम था शेख हबू। आज भी गौड़ के इंगलिहार ग्राम में शेख हबू के घर और सनातन के कारागृह के अवशेष विद्यमान हैं। (गौड़ेर इतिहास खण्ड2, पृ0 109।</ref>
 
 
 
==वृन्दावन के पथ पर==
 
सनातन गोस्वामी ने दरवेश का भेष बनाया और अपने पुराने सेवक ईशान को साथ ले चल पड़े वृन्दावन की ओर। उन्हें हुसेनशाह के सिपाहियों द्वारा पकड़े जाने का भय था। इसलिये राजपथ से जाना ठीक न था। दूसरा मार्ग था पातड़ा पर्वत होकर, जो बहुत कठिन और विपदग्रस्त था। उसी मार्ग से जाने का उन्होंने निश्चय किया। सनातन को आज मुक्ति मिली है। हुसेनशाह के बन्दीखाने से ही नहीं, माया के जटिल बन्धन से भी। उस मुक्ति के लिये ऐसी कौन सी क़ीमत है, जिसे देने को वे प्रस्तुत नहीं। इसलिये धन-सम्पत्ति, स्वजन-परिजन, राजपद, मान और मर्यादा सभी को तृणवत् त्यागकर आज वे चल पड़े हैं दीन-हीन दरवेश के छद्मवेश में पातड़ा पर्वत के ऊबड़-खाबड़ कंटकाकीर्ण, निर्जन पथ पर। दिन-रात लगातार चलते-चलते वे पर्वत के निकट एक भुइयाँ की जमींदारी में जा पहुँचे। उसने उनका बड़ा आदर-सत्कार किया और कहा-
 
 
 
"आप लोग थके हुए हैं। रात्रि में यहीं भोजन और विश्राम करें। सवेरे मेरे आदमी आपकों पर्वत पार करा देंगे।"
 
 
 
दो दिन के उपवासी सनातन ने नदी में स्नान कर रंधन और भोजन किया। पर उन्हें भुइयाँ द्वारा किये गये असाधारण आदर-सत्कार से कुछ संदेह हुआं उन्होंने सुन रखा था कि उस स्थान के भुइयाँ पर्यटकों का बड़ा आदर-सत्कार करते हैं, उन्हें अपने पास ठहरने को स्थान देते हैं और रात्रि में उनका सब कुछ लूटकर उनकी हत्या कर देते हैं। सनातन के पास तो लूटे जाने के लिये कुछ था नहीं। पर उन्हें ईशान का कुछ पता नहीं था। उन्होंने पूछा उससे-
 
 
 
"तेरे पास कुछ है?"
 
 
 
"मेरे पास सात अशर्फियाँ है" उसने उत्तर दिया-
 
 
 
"सात अशरफियाँ! मैंने तुझे साथ लिया था वैराग्य पथ पर अपना साथी जान। पर तूने मुझे धोखा दिया। धिक्कार है तुझे"
 
 
 
कह सनातन ने ईशान की भर्त्सना की। अशरफियाँ उससे लेकर भुइयाँ के सामने रखीं और कहा-
 
 
 
"हमारे पास यह अशरफियाँ हैं। इन्हें आप ले लें और हमें निर्विघ्न पहाड़ पार करा दें।"
 
 
 
भुइयाँ सनातन की सरलता और सत्यवादिता से प्रभावित हुआ। उसने कहा-
 
 
 
"आपने मुझे एक पाप कर्म से बचा लिया। मुझे मेरे ज्योतिषी ने पहले ही बता दिया था कि आपके साथी के पास आठ अशरफियाँ हैं। रात्रि में आप दोनों की हत्या कर मैं उन्हें ले लेता। पर अब मैं अशरफियाँ नहीं लूंगा। पहाड़ यूं ही पार करा पुण्य का भागी बनूँगा।" सनातन ने आग्रह करते हुए फिर कहा-
 
 
 
"यदि आप नहीं लेगें, तो कोई और हमें मार कर ले लेगा। इसलिए आप ही लेकर हमारी प्राण-रक्षा करें।"<ref>चैतन्य चरित 2।29-31</ref>
 
 
 
भुइयाँ ने तब अशरफियाँ ले लीं। दूसरे दिन चार सिपाहियों को साथ कर उन्हें पहाड़ के उस पार पहुँचा दिया। पहाड़ पारकर सनातन ने ईशान से कहा-
 
 
 
"भुइयाँ ने आठ अशरफियों की बात कही थी। तेरे पास और भी कोई अशरफी है क्या?"
 
 
 
ईशान ने एक अशरफी और छिपा रखने की बात स्वीकार की। तब सनातन ने गम्भीर होकर कहा-
 
 
 
"ईशान, तेरी निर्भरता है अर्थ पर, मेरी भगवान् पर। मैंने जिस पथ को अंगीकार किया है, तू उसका अधिकारी अभी नहीं है। इसलिये शेष बची उसी अशरफी को लेकर तू घर लौट जा।"
 
 
 
ईशान सनातन को साश्रुनयन प्रणाम कर अनिच्छापूर्वक रामकेलि लौट गया। सनातन एकाकी आगे बढ़े। चलते-चलते वे हाजीपुर पहुँचे। हाजीपुर में उनकी भेंट हुई अपने भगिनीपति श्रीकान्त से। श्रीकान्त हुसेनशाह के दरबार में किसी बड़े पद पर नियुक्त थे। बादशाह के लिए घोड़े ख़रीदने हाजीपुर आये थे। हाजीपुर [[पटना]] के उस पार शोनपुर के पास एक ग्राम है, जहाँ [[कार्तिक पूर्णिमा]] से एक महीने तक एक विशाल मेले में देश के विभिन्न स्थानों से हाथी घोड़े बिकने आया करते थे। आज भी इन्हीं दिनों वह मेला वहाँ लगा करता है।
 
 
 
श्रीकान्त से राजमन्त्री सनातन का भिक्षुक वेश ने देखा गया। उन्होंने उनसे वस्त्र बदलने का आग्रह किया। पर वह निष्फल रहा। अन्त में उन्होंने एक मोटा कम्बल देते हुए कहा-
 
 
 
"इसे तो लेना ही पड़ेगा, क्योंकि पश्चिम में शीत बहुत है। इसके बिना बहुत कष्ट होगा।"
 
 
 
कम्बल कन्धे पर डाल सनातन वृन्दावन की ओर चल दिये, महाप्रभु से मिलने की छटपटी में लम्बे-लम्बे क़दम बढ़ाते हुए; पथ में कभी आहार करते हुए, कभी निराहार रहते हुए; कभी नींद भर सोते हुए कभी रात भर जाग कर महाप्रभु की याद में अश्रु विसर्जन करते हुए। अनशन, अनिद्रा और मार्ग के कष्ट से उनका शरीर शीर्ण हो रहा था। पर उन्हें कष्ट का अनुभव नहीं हो रहा था। उनके पैरों में चलने की शक्ति नहीं रही थी। पर वे चल रहे थे, गौर-प्रेम-मदिरा के नशे में छके से, गिरते, पड़ते और लड़खड़ाते हुए।
 
 
 
==काशी में महाप्रभु से मिलन==
 
कुछ ही दिनों में वे काशी पहुँचे। वहाँ पहुँचते ही सुसंवाद मिला कि महाप्रभु वृन्दावन से लौटकर कुछ दिनों से [[काशी]] में चन्द्रशेखर आचार्य के घर ठहरे हुए हैं। उनके नृत्य कीर्तन के कारण काशी में भाव-भक्ति की अपूर्व बाढ़ आयी हुई है। यह सुन उनके आनन्द की सीमा न रही। दूसरे ही क्षण दीन-हीन वेश में वे चन्द्रशेखर आचार्य के दरवाजे पर उपस्थित हुए। उनके प्राण महाप्रभु के दर्शन के लिये छटपट कर रहे थे। पर वे अपने को दीन और अयोग्य जान भीतर जाने का साहस नहीं जुटा पा रहे थें विशाल गौड़ देश के मुख्यमन्त्री, जिनके दरवाजे पर उनके कृपाकटाक्ष के लोभ से सैंकड़ों सामंत प्रतीक्षा में बैठे रहते। आज चन्द्रशेखर आचार्य के घर के बाहर बैठे अपने को अनधिकारी जान दरवाज़ा खटखटाने का भी साहस नहीं कर पा रहे!यही तो है भक्ति महारानी का अलौकिक प्रभाव! जो उनका आश्रय ग्रहण करता है, उसमें वे इतना दैन्य भर देती है कि वह महान होते हुए भी अपने को दीन मानता है, पवित्र होते हुए भी अपने को अपवित्र मानता है, भक्ति धन का सर्वोच्च धनी होते हुए भी अपने को उसका कंगाल मानता है, प्रभु के इतना निकट आकर भी अपने को अपराधी जान उनसे मिलने के लिए उनका दरवाज़ा खटखटाने में भी संकोच करता है।
 
 
 
पर उसे प्रभु का दरवाज़ा खटखटाने की आवश्यकता ही कब पड़ती है? उसके आगमन पर अन्तर्यामी प्रभु के प्राण बज उठते हैं और वे सिंहासन छोड़कर उसे अपने बाहुपाश में भर लेने को स्वयं भाग पड़ते हैं। महाप्रभु को अपने प्राण-सनातन के आगमन की ख़बर पड़ गयी। प्राण-प्राण से मिलने को भाग पड़े। उच्च स्वर से 'हरे कृष्ण' हरे कृष्ण' कहते सनातन को उनका मधुर कण्ठस्वर पहचानने में देर न लगी। उन्होंने जैसे ही सिर ऊँचा किया तो देखा कि उनके प्राण धन श्रीगौरांग कनक-कान्ति सी दिव्य छटा विखरते, प्रेमाश्रुपूर्ण नेत्रों से उनकी ओर एकटक निहारते, भाव गदगद कण्ठ से मेरे सनातन! मेरे प्राण! कहते, दोनों भुजायें पसारे उन्हें आलिंगन करने उनकी ओर बढ़े आ रहे हैं! सनातन चिरअपराधी की तरह उनके चरणों में लोट गये। उन्होंने झट उठाकर हृदय से लगाना चाहा। पर सनातन छिटककर अलग जा खड़े हुये और हाथ जोड़कर कातर स्वर कहने लगे-'प्रभु, मैं नीच, पामर, विषयी, यवनसेवी आपके स्पर्श करने योग्य नहीं। मुझे न छुएँ।"
 
 
 
"नहीं, नहीं, सनातन। दैन्य रहने दो। तुम्हारे दैन्य से मेरी छाती फटती है।<ref>भक्तिरत्नाकर का मत है कि श्रीचैतन्य महाप्रभु ने अपने विभिन्न परिवारों द्वारा विभिन्न भाव और शक्ति का प्रकाश किया है। सनातन और रूप द्वारा दैन्प्य का प्रकाश किया है-</ref> तुम अपने भक्तिबल से ब्रह्मांड तक को पवित्र करने की शक्ति रखते हो। मुझे भी अपना स्पर्श प्राप्त कर धन्य होने दो।" कहते-कहते महाप्रभु ने सनातन को अपनी भुजाओं में भर नेत्रों के प्रेमजल से अभिषिक्त कर दिया। चन्द्रशेखर से महाप्रभु ने कहा सनातन का क्षौर करा उनका दरवेश-वेश बदलने को। चन्द्रशेखर ने क्षौर और गंगा-स्नान करा उन्हें एक नूतन वस्त्र पहरने को दिया। सनातन ने उसे स्वीकार करते हुए कहा-" यदि मेरा वेश बदलना है तो मुझे अपना व्यवहार किया कोई पुराना वस्त्र देने की कृपा करें।"
 
 
 
तब मिश्रजी अपना व्यवहार किया एक पुराना वस्त्र ले आये। सनातन ने उसके दो टुकड़े कर डोर –कौपीन और वर्हिवास के रूप में उसे धारण किया। तभी से गौड़ीय-वैष्णवों में वैराग्य वेश की प्रथा प्रारम्भ हुई। जो अब तक चली आ रही है। उस दिन तपन मिश्र के घर महाप्रभु का निमन्त्रण था। महाप्रभु के वहाँ भिक्षा ग्रहण करने के पश्चात सनातन ने उनका प्रसाद सेवन किया। दूसरे दिन महाप्रभु के भक्त एक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण ने सनातन से अनुरोध किया कि वे जब तक काशी में रहें, प्रसाद उनके घर ग्रहण किया करे। सनातन ने उसे स्वीकार नहीं किया वे भिक्षा का झोला हाथ में ले चले विभिन्न स्थानों से मधुकरी माँगने।
 
 
 
रामानन्द द्वारे कन्दपेर दर्पनाशे।
 
 
 
दामोदर द्वारे निरपेक्ष परकाशे॥
 
 
 
हरिदास द्वारे सहिष्णुता जानाइल।
 
 
 
सनातन रूप द्वारे दैन्य प्रकाशिल॥<ref>प्रथम तरंग 630, 631</ref>
 
 
महाप्रभु यह देख बहुत उल्लसित हुए। वे उच्छवसित कण्ठ से चन्द्रशेखर और तपन मिश्र से सनातन के वैराग्य की प्रशंसा करने लगे। वे सनातन का गुण्-गान करते जाते, पर बार-बार उनके कंधे पर रखे भोटे कम्बल की ओर देखते जाते। सनातन को उनकी तीक्ष्ण दृष्टि का अर्थ समझने में देर न लगी। वे गये गंगातट पर। देखा कि एक भिखारी अपनी पुरानी गूदड़ी धूप में सुखा रहा है। कातर स्वर से उससे बोले-
 
 
 
"भाई, मेरा एक उपकार करो। मेरा यह कम्बल ले लो और यह बदले में यह गूदड़ी मुझे दे दो। मैं तुम्हारा बड़ा उपकार मानूँगा।"
 
 
 
भिखारी की भृकुटि चढ़ गयी। वह समझा कि यह बाबाजी स्वयं भिखारी होते हुए मेरी दरिद्रता का मज़ाक़ बना रहा है। पर सनातन के समझाने पर वह इस विनिमय के लिये तैयार हो गया। उसकी गूदड़ी प्रेम से कंधे पर डाल वे चन्द्रशेखर आचार्य के घर लौट आये। उन्हें देख महाप्रभु के मुखारविन्द पर छा गयी अपार आनन्द की दिप्ति। सब कुछ जानकर भी विस्मय का भाव दिखाते हुए उन्होंने कहा-
 
 
 
"सनातन, कम्बल क्या हुआ?"
 
 
 
सनातन के मुख से स्वेच्छा से कम्बल को गूदड़ी से बदल लेने की बात सुन महाप्रभु आनन्द से डगमग होते हुए बोले-हाँ, तभी तो मैं सोचता था कि कृष्ण जैसे सुवैद्य ने जब तुम्हें विषय-रोग से मुक्त किया है, तो उसका अंतिम चिह्न भी क्यों रखेगें?।<ref>चैतन्य-चरितामृत 2।20।90॥</ref>
 
 
 
इस प्रकार श्रीमन्महाप्रभु ने हुसेनशाह के प्रधानमन्त्री को सर्वत्यागी वैरागी का रूप देकर खड़ा किया वैराग्य और दैन्य के आदर्श का वह मानचित्र, जिसके सहारे वैष्णव-धर्म में नये प्राण फूंकने का उन्होंने संकल्प किया था। इसके पश्चात आरम्भ हुआ प्रश्नोत्तर का वह क्रम, जिसके द्वारा महाप्रभु ने सनातन के माध्यम से जगत् में विशुद्ध भागवत-धर्म का प्रचार किया। सनातन एक के बाद एक प्रश्न करते जाते और महाप्रभु प्रसन्न मुख से उसका उत्तर देते जाते। कुछ दिन पूर्व गोदावरी के तीर पर रामानन्द राय से महाप्रभु के संलाप के माध्यम से उद्घाटित हुआ था भागवत-धर्म के निर्यास व्रज-रस तत्त्व का गूढ़ रहस्य। अब [[वाराणसी]] में गंगातट पर उनके सनातन के साथ संलाप से प्रकाशित हुआ वैष्णव साधना का क्रम और निगूढ़ तत्व।
 
 
 
पहले महाप्रभु ने श्री [[कृष्ण]] की भगवत्ता और उनके विभिन्न अवतारों का वर्णन किया। फिर साधन-भक्ति और रागानुगा-भक्ति का विस्तार से निरूपण किया। दो महीने सनातन को अपने घनिष्ठ सान्निध्य में रख वैष्णव-सिद्धान्त में निष्णात करने के पश्चात उन्होंने कहा-
 
 
 
"सनातन, कुछ दिन पूर्व मैंने तुम्हारे भाई रूप को प्रयाग में कृष्ण रस का उपदेश कर और उसके प्रचार के लिए शक्ति संचार कर वृन्दावन भेजा है। तुम भी वृन्दावन जाओ। तुम्हें मैं सौंप रहा हूँ चार दायित्वपूर्ण कार्यो का भार। तुम वहाँ जाकर मथुरा मण्डल के लुप्त तीर्थों और लीला स्थलियों का उद्धार करो, शुद्ध भक्ति सिद्धान्त की स्थापना करो, कृष्ण-विग्रह प्रकट करो। और वैष्णव-स्मृति ग्रन्थ का संकलन कर वैष्णव सदाचार का प्रचार करो।"
 
 
 
इसके पश्चात कंगालों के ठाकुर परम करुण गौरांग महाप्रभु ने दयाद्र चित्त से, करुणा विगलित स्वर में कहा-
 
 
 
"इनके अतिरिक्त एक और भी महत्त्वपूर्ण दायित्व तुम्हें संभालना होगा। मेरे कथा-कंरगधारी कंगाल वैष्णव भक्त, जो वृन्दावन भजन करने जायेगें, उनकी देख-रेख भी तुम्हीं को करनी होगी।"<ref>चैतन्य-चरितामृत 2।25।176</ref> सनातन ने कहा-
 
 
 
"प्रभु! यदि मेरे द्वारा यह कार्य कराने हैं, तो मेरे मस्तक पर चरण रख शक्ति संचार करने की कृपा करें।"
 
 
 
महाप्रभु ने सनातन के मस्तक पर अपना हस्त कमल रख उन्हें आर्शीवाद दिया। आज महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य कर सनातन वृज जाने के लिये महाप्रभु से विदा हो रहे हैं। पर उनके प्राण उनके चरणों से लिपटे हैं। वे उन्हें जाने कब दे रहे हैं? पैर आगे बढ़ते-बढ़ते पीछे लौट रहे हैं। जाते-जाते वे अश्रुपूर्ण नेत्रों से बार-बार महाप्रभु की ओर देख रहे हैं और मन ही मन कह रहे हैं न जाने कब फिर उनका भाग्योदय होगा। कब फिर करुणा और प्रेम की उस साक्षात मूर्ति के दर्शन कर वे विरहाग्नि से जर-जर अपने प्राणों को शीतल कर सकेगें। सनातन जब वृन्दावन की ओर चले उसी समय रूप और बल्लभ उनसे मार्ग में मिलने के उद्देश्य से वृन्दावन से प्रयाग की ओर चले। पर दोनों का मिलन न हुआ, क्योंकि सनातन गये राजपथ से, रूप और वल्लभ आये दूसरे पथ से गंगा के किनारे-किनारे। महाप्रभु ने नीलाचल से [[वृन्दावन]] की यात्रा की सन् 1515 के शरद काल में<ref>चैतन्य चरित 2।18।112</ref> वृन्दावन से लौटते समय वे प्रयाग होते हुए काशी आये। सनातन का उनसे साक्षात हुआ, सन् 1516 के माघ फाल्गुन अर्थात् जनवरी-फ़रवरी में और उन्होंने वृन्दावन की यात्रा की दो महीने पीछे अप्रेल-में।
 
 
 
==वृन्दावन में एकान्त भजन और लुप्त तीर्थोद्धार==
 
ब्रजधाम पहुँचते ही सनातन गोस्वामी ने पहले सुबुद्धिराय से साक्षात् किया, फिर लोकनाथ गोस्वामी और भूगर्भ पण्डित से, जो महाप्रभु के आदेश से पहले ही ब्रज में आ गये थें तत्पश्चात उन्होंने जमुना-पुलिन पर आदित्य टीला नाम के निर्जन स्थान में रहकर आरम्भ किया एकान्त भजन-साधन, त्याग और वैराग्य का जीवन। किसी पद कर्ता ने उनके भजनशील जीवन का सजीव चित्र इन शब्दों में खींचा है—
 
 
 
"कभू कान्दे, कभू हासे, कभू प्रेमनान्दे भासे
 
 
कभू भिक्षा, 'कभु उपवास।
 
 
छेंड़ा काँथा, नेड़ा माथा, मुखे कृष्ण गुणगाथा
 
 
परिधान छेंड़ा बहिर्वास
 
 
कखनओ बनेर शाक अलवने करि पाक
 
 
मुखे देय दुई एक ग्रास।"<ref>-वे कृष्ण प्रेमरस में सदा डूबे रहते। कभी रोते, कभी हंसते, कभी भिक्षा करते, कभी उपवासी रहते, कभी बन का साग-पात अलोना पकाकर उसके दो-एक ग्रास मुख में दे लेते। फटा-पुराना बहिर्वास और कथा धारण करते और कृष्ण के नाम-गुण-लीला का गान करते हुए एक अलौकिक आनन्द के नशे में शरीर की सुध-बुध भूले रहते।</ref>
 
 
 
उस समय वृन्दावन में बस्ती नाम मात्र को ही थी। इसलिये साधकों को मधुकरी के लिये मथुरा जाना पड़ता। सनातन गोस्वामी की तन्मयता जब कुछ कम होती तो वे कंधे पर झोला लटका मथुरा चले जाते। वहाँ जो भी भिक्षा मिलती उससे उदरपूर्ति कर लेते। कुछ दिन बाद उन्होंने महाप्रभु के आदेशानुसार व्रज की लीला-स्थलियों के उद्धार का कार्य प्रारम्भ किया। इसके पूर्व लोकनाथ गोस्वामी ने इस दिशा में कुछ कार्य किया था। उसे आगे बढ़ाते हुए उन्होंने व्रज के वनों, उपवनों और पहाड़ियों में घूमते हुए और कातर स्वर से व्रजेश्वरी की कृपा प्रार्थना करते हुए, शास्त्रों, लोक-गाथाओं और व्रजेश्वरी की कृपा से प्राप्त अपने दिव्य अनुभवों के आधार पर एक-एक लुप्त तीर्थ का उद्धार किया।
 
 
 
==नीलाचल में एक वर्ष==
 
इस कार्य में संलग्न रहते हुए एक वर्ष बीत गया, तो महाप्रभु का विरह उन्हें असह्य हो गया। महाप्रभु ने स्वयं ही एक बार नीलाचल जाने को उनसे कहा था। इसलिये वे झारिखण्ड के जंगल के रास्ते नीलाचल की पदयात्रा पर चल पड़े। मार्ग में चलते-चलते अनाहार और अनियम के कारण उन्हें विषाक्त खुजली रोग हो गया। उसके कारण सारे शरीर से क्लेद बहिर्गत होते देख वे लगे इस प्रकार विचार करने-एक तो मैं वैसे ही म्लेक्ष राजा की सेवा में रह चुकने के कारण अपवित्र और अस्पृश्य हूँ। अब इस रोग को लेकर नीलाचल जा रहा हूं इसके रहते मैं मन्दिर में तो जा सकूंगा ही नहीं, महाप्रभु के दर्शन करना भी कठिन होगा, क्योंकि महाप्रभु जगन्नाथ जी के मन्दिर के पास रहते हैं, जहाँ होकर जगन्नाथ जी के सेवकों का आना-जाना लगा रहता है। यदि मुझसे उनका शरीर छू गया तो अपराध होगा। ऐसे शरीर का भार ढोते रहने से तो अच्छा यह होगा कि मैं रथयात्रा के समय जगन्नाथ जी के नीचे प्राण त्यागकर इस विपद से छुटकारा पाऊँ सद्गति भी लाभ करूँ। ऐसा करने का निश्चय कर वे कर नीलाचल पहुँचे।
 
 
 
नीलाचल में उनके ठहरने का उपयुक्त स्थान था, यवन हरिदास की पर्णकुटी। [[हरिदास]] अपने को दीन, पतित और अस्पृश्य जान नगर के एक कोने में अपनी पर्णकुटी में रहते थे। किसी को स्पर्श करने के भय से जगन्नाथ जी और महाप्रभु के दर्शन करने नहीं जाते थे। महाप्रभु स्वयं नित्य जगन्नाथजी के उपल-भोग के दर्शन कर अपने परम प्रिय भक्त हरिदास को दर्शन देने उनकी कुटी पर जाया करते थे। सनातन भी हरिदास की ही तरह अपने को पतित और अस्पृश्य मानते थे। इसलिये वे उनकी खोज करते-करते उनकी कुटिया पर जा पहुँचे। थोड़ी ही देर बाद महाप्रभु नित्य की भाँति जगन्नाथजी के दर्शन कर वहाँ पहुँचे। सनातन ने उन्हें दूर से ही दण्डवत् की। वे उन्हें देख आनन्द विभोर हो गये और दोनों भुजायें फैलाकर आलिंगन करने के लिये उनकी ओर अग्रसर हुए। पर वे जितना आगे बढ़ते सनातन उतना पीछे हटते जाते। पीछे हटतेहुए दैन्य और विनय भरे स्वर में उन्होंने कहा-
 
 
 
"प्रभु स्पर्श न करें। मैं हूँ पतित, पामर, यवनों के संग के कारण जातिभ्रष्ट एक पापी जीव और मेरे अंग से निकल रहा है घृणित क्लेद। यह आपके अंग में लग जायेगा और मैं और भी अधिक पाप का भागी बनूंगा।"
 
 
 
पर महाप्रभु कब मानने वाले थे? उन्होंने आनन्द के आवेश में बलपूवक बार-बार उन्हें आलिंगन किया। खुजली का क्लेद उनके सारे शरीर में लग गया। सनातन की आत्मग्लानि पराकाष्ठा पर पहुँच गयी। महाप्रभु ने सनातन के रहने की व्यवस्था हरिदास ठाकुर के निकट ही कर दी। सनातन दैन्य के कारण मन्दिर में दर्शन करने न जाते। हरिदास ठाकुर की ही तरह मन्दिर के चक्र को दूर से देख प्रणाम कर लेते। महाप्रभु नित्य भक्तगण के साथ उनके पास जाते, उन्हें आलिंगन करते और उनके साथ कृष्ण-लीला-कथा की आलोचना कर आनन्दमग्न होते। नित्यप्रति का उनका आलिंगन सनातन को असह्य हो गया। वे शीघ्र किसी प्रकार प्राण-त्याग करने की बात सोचने लगे।
 
 
 
एक दिन कृष्ण-कथा कहते-कहते हठात् सनातन की ओर देखते हुए महाप्रभु कहने लगे-
 
 
"सनातन! कहीं देह-त्याग करने से कृष्ण-प्राप्ति होती है। ऐसा हो तब तो एक ही क्षण में कोटि-कोटि प्राण त्याग देना भी उचित है। कृष्ण-प्राप्ति होती है भजन से और भक्ति से। इसके सिवा कृष्ण-प्राप्ति का और कोई उपाय नहीं है। भजन में नवविद्या भक्ति श्रेष्ठ है। इसमें कृष्ण-प्रेम और कृष्ण को देन की महान शक्ति है। इसमें भी सर्वश्रेष्ठ है नाम-संकीर्तन। निरपराध हो नाम-कीर्तन करने से प्रेम-धन की प्राप्ति होती है।"<ref>"सनातन, देह त्यागे कृष्ण जदि पाइये।<br />
 
कोटि-देह क्षणेके त छाड़िते पारिये॥<br />
 
देह त्यागे कृष्ण ना पाइ, पाइये भजने।<br />
 
कृष्ण प्राप्त्येंर कोन उपाय नाहि, भक्ति बिने॥<br />
 
भजनेर मध्ये श्रेष्ठ नव विधा भक्ति।<br />
 
'कृष्ण प्रेम' 'कृष्ण' दिते धरे महाशक्ति॥<br />
 
तार मध्ये सर्वश्रेष्ठ-नाम-संकीर्तन।<br />
 
निरपराध नाम हैते पाय प्रेम-धन॥"(चैतन्य चरित 3।4।54-55, 65-66</ref>
 
 
अन्तर्यामी प्रभु के मुख से यह सुन सनातन को आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा-"प्रभु, आप सर्वज्ञ और स्वतंत्र हैं। मैं आपकी काठ की पुतली हूँ। जैसे नचायेंगे वैसे नाचूंगा। पर मेरे जैसे नीच, अधम व्यक्ति को जीवित रखने से आपका क्या लाभ होगा?"
 
 
 
उत्तर में महाप्रभु ने कहा-"तुमने मुझे आत्मसमर्पण किया है। तुम्हारा देह मेरा निज-धन है। दूसरे का धन नाश करने का तुम्हें क्या अधिकार है? तुम्हें धर्माधर्म का इतना भी ज्ञान नहीं? तुम्हारा शरीर तो मेरा प्रधान साधन है। इसके द्वारा मुझे करना है- लीला-तीर्थों का उद्धार, वैष्णव-सदाचार का निर्धारण और शिक्षण, कृष्ण-भक्ति का प्रचार, वैराग्य के आदर्श की स्थापना और कितना कुछ और, जिसे मैं नहीं कर सकता माँ की आज्ञा से नीलाचल में ही पड़े रहने के कारण। सनातन का सर नीचा हो गया। उन्होंने आत्म-हत्या का संकल्प छोड़ दिया। हरिदास और सनातन को आलिंगन कर महाप्रभु मध्यान्ह-कृत्य के लिये चले गये।
 
 
 
कुछ ही दिन श्रीजगन्नाथदेव की रथयात्रा का समय आ गया। प्रति वर्ष की भाँति गौण देश के अनेकों भक्तों का आगमन हुआ। वर्षाकाल के चार महीने उन्होंने नीलाचल में व्यतीत किये। महाप्रभु ने एक-एक कर उन सबसे सनातन का परिचय कराया। रथयात्रा के दिन उन्होंने सदा की भाँति रथ के आगे रसमय नृत्य किया। उसे देख सनातन चमत्कृत और कृत-कृत्य हुए। ज्येष्ठ मास में एक दिन महाप्रभु ने सनातन की परीक्षा की। उस दिन वे यमेश्वर के शिव-मन्दिर के बगीचे में भिक्षा को गये हुए थे। भिक्षा के समय उन्होंने सनातन को भी बुलवा भेजा। महाप्रभु का निमन्त्रण प्राप्तकर सनातन बहुत प्रसन्न हुए। ठीक मध्यान्ह के समय समुद्र के किनारे-किनारे उत्तप्त बालुका पर चलते हुए वे यमेश्वर पहुँचे। तप्त बालुका पर चलने के कारण उनके पैर में छाले पड़ गये। पर महाप्रभु ने उन्हें आमन्त्रित किया है, इस कारण उनका मन इतना आनन्दोल्लसित था कि उन्हें इसका कुछ भान ही न हुआ। महाप्रभु के सेवक गोविन्द ने महाप्रभु की भिक्षा का अवशेष पात्र उनके सामने रख दिया। प्रसाद ग्रहणकर जब वे महाप्रभु के विश्राम-स्थान पर गये, तो उन्होंने पूछा-
 
 
 
"सनातन, तुम कौन से मार्ग से आये?"
 
 
 
"समुद्र के किनारे-किनारे" सनातन ने उत्तर दिया।
 
 
 
"समुद्र के किनारे-किनारे, तप्त बालुका पर से! सिंहद्वार के शीतल पथ से क्यों नहीं आये? बालुका से अवश्य तुम्हारे पैर जल गये होंगे और उनमें छाले पड़ गये होंगे। फिर तुम आये कैसे?"
 
 
 
"मुझे कष्ट कुछ नहीं हुआ प्रभु। छालों का मुझे पता भी नहीं पड़ा। सिंहद्वार से आने का मेरा अधिकार ही कहाँ? उधर जगन्नाथजी के सेवकों का आना-जाना लगा रहता है। उनमें से किसी को मेरा स्पर्श हो जाये तो अपराधी न बनूं।"
 
 
 
यह सुन महाप्रभु सनातन को परीक्षा में सफल जान बोले-"सनातन, मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। मैं जानता हूँ कि तुम सारे जगतृ को पवित्र करने की शक्ति रखते हो। तुम्हारे स्पर्श से देवगण और मुनिगण भी पवित्र हो सकते हैं। पर मर्यादा का पालन करना भक्त का स्वभाव है। मर्यादा की रक्षा तुम नहीं करोगे तो कौन करेगा?"
 
 
 
इतना कह महाप्रभु ने सनातन को प्रेम से आलिंगन किया। फिर दोनों अपने-अपने मार्ग से अपने-अपने स्थान को चले गये। महाप्रभु के अंतरंग भक्त पंडित जगदानन्द गौड़ देश की यात्रा पर गये हुए थे। उस दिन जब वे लौटकर आये तो सनातन के दर्शन करने गये। सनातन ने कहा-
 
 
 
"पंडितजी, मैं इस समय एक बड़ी उलझन में पड़ा हूँ। आप महाप्रभु के निजजन हैं। मुझे उचित परामर्श देने की कृपा करें। मुझे महाप्रभु नित्य आलिंगन करते हैं। मेरे रोगी शरीर के विषाक्त रस से उनका कनक-कान्तिमय दिव्य देह सन जाता है। मैंने आत्महत्या कर इस दु:ख से परित्राण पाने का निश्चय किया था। पर महाप्रभु ने निषेध कर दिया। अब मैं क्या करूँ?"
 
 
 
जगदानन्द के तो महाप्रभु प्राण थे। सनातन के क्लेदभरे शरीर से उनका नित्य स्पर्श होना सुन वे काँप गये। उन्होंने कहा-"
 
 
 
सनातन, इसका सीधा उपाय यही है कि तुम रथयात्रा के पश्चात शीघ्र वृन्दावन चले जाओ। यहाँ और अधिक रहने का क्या काम? महाप्रभु के दर्शन तुमने कर ही लिये। जगन्नाथ के दर्शन रथयात्रा के दिन कर लोगे। उसके पश्चात जितने दिन यहाँ रहोगे तुम्हें इस विपद का सामना करना पड़ेगा। फिर महाप्रभु ने तुम्हें जो दायित्वपूर्ण कार्य सौंपा है, उसके लिये भी तो तुम्हारा और विलम्ब न कर वृन्दावन पहुँच जाना ही उचित है।"
 
 
 
दूसरे दिन जब फिर महाप्रभु उनसे और हरिदास से मिलने गये, हरिदास ने उनकी चरण-बन्दना की और उन्होंने हरिदास को आलिंगन किया। सनातन ने आलिंगन के भय से दूर से ही दण्डवत की। उनके बुलाने पर भी निकट नहीं आये। वे उनकी ओर जितना बढ़े उतना वे पीछे हटते गये। पर उन्होंने बलपूर्वक उन्हें पकड़कर आलिंगन किया। जब वे दोनों को लेकर बैठ गये, निर्विण्ण सनातन ने हाथ जोड़कर कातर स्वर से निवेदन किया-
 
 
 
"प्रभु, मुझे एक बड़ा कष्ठ है। मैं आया था यहाँ आपके दर्शन और संग द्वारा अपना कल्याण सिद्ध करने। पर देख रहा हूँ कि हो रहा है उसका उलटा। मेरे स्पर्श से आपका शरीर नित्य दुर्गधयुक्त क्लेद से सन जाता है। आपको उससे तनिक भी घृणा नहीं होती। पर मुझे अपराध लगता है और मेरा सर्वनाश होता है। इसलिए आप मुझे आज्ञा दें, जिससे मैं वृन्दावन चला जाऊँ। कल पंडित जगदानन्द ने भी मुझे यही उपदेश किया है।"
 
 
 
महाप्रभु का मुखारबिन्द क्रोध से तमतमा गया। जगदानन्द पर क्रोध करते हुए वे गरज-गरजकर कहने लगे-"जगा! कल का जगा तुम्हें उपदेश करेगा, तुम जो व्यवहार और परमार्थ में उसके गुरुतुल्य हो और मेरे भी उपदेष्टा के समान हो। उसे इतना गर्व! इतना साहस उसका!"
 
 
 
सनातन महाप्रभु की क्रोधोदीप्त मूर्ति को निर्निमेष देखते रहे। उनके गण्डस्थल से बह चली प्रेमाश्रुकी धार। फिर कुछ अपने को सम्हाल उनके चरण पकड़कर बोले-"प्रभु, आज मैंने जाना कि जगदानन्द कितने भाग्यशाली हैं और मैं कितना अभागां उन्हें आप अपना समझते हैं, इसलिए कठोर भाषा द्वारा तिरस्कार करते हुए आत्मीयता का मधुपान कराते हैं। मुझे पराया समझते हैं, इसीलिए गौरव-स्तुति द्वारा तिक्त निम्बरस का पान कराते हैं। यह मेरा ही दुर्भाग्य है कि मेरे प्रति आपका आत्मीयता-ज्ञान आज तक न हुआ। इसमें आपका दोष कुछ नहीं, क्योंकि आप स्वतन्त्र ईश्वर हैं।"
 
 
 
यह सुन महाप्रभु कुछ लज्जित हुए। मधुर कण्ठ से सनातन को सान्त्वना देते हुए बोले-
 
 
 
"सनातन, ऐसे मत कहो। मुझे जगदानन्द तुमसे अधिक प्रिय कदापि नहीं। पर मुझे मर्यादा-लंघन पसन्द नहीं। तुम्हारे जैसे शास्त्र-पारदर्शी व्यक्ति को उपदेश कर जगदानन्द ने तुम्हारी मर्यादा का लंघन किया। इसलिए मैंने उसकी भर्त्सना की। तुम्हारी स्तुति की तुम्हारे गुण देखकर, तुम्हें बहिरंग जानकर नहीं। तुम्हें अपना देह लगता है वीभत्स। पर मुझे लगता है अमृत के समान, क्योंकि वह अप्राकृत है। प्राकृत होता तो भी मैं उसकी उपेक्षा न कर सकता, क्योंकि मैं ठहरा सन्यासी। सन्यासी के लिये अच्छा-बुरा, भद्र-अभद्र कुछ नहीं होता। उसकी सम-बृद्धि होती है।"
 
 
 
"यह सुन हरिदास ने कहा-"प्रभु यह सब तुम्हारी प्रतारणा है।" "प्रतारणा नहीं हरिदास। सुनो, तुमसे अपने मन की बात कहता हूँ। तुम्हारे सबके प्रति मेरा पालक अभिमान रहता है। मैं अपने को पालक मानता हूँ, तुम्हें पाल्यं माता को बालक का अमेध्य जैसे चन्दन के समान लगता है, वैसे ही सनातन का क्लेद मुझे चन्दन जैसा लगता है। इसके अतिरिक्त वैष्णव-देह प्राकृत होता ही कब है? वह अप्राकृत, चिदानन्दमय होता है। दीक्षा के समय जब भक्त आत्मसमर्पण करता है, तभी कृष्ण उसे आत्मसम कर लेते हैं। उसका देह चिदानन्दमय कर देते हैं। उस अप्राकृत देह से ही वह उनका भजन करता है-
 
 
दीक्षाकाले भक्त करे आत्मसमर्पण।
 
 
सेइ काले कृष्ण तारे करे आत्मसम॥
 
 
सेइ देह करे तार चिदानन्दमय।
 
 
अप्राकृत देहे तार चरन भजय॥<ref>चैतन्य चरित 3।4।184-185</ref>
 
 
इतना कह प्रभु सनातन से बोले-
 
 
 
"सनातन, तुम दु:ख न मानना। तुम्हारा आलिंगन करने से मुझे अपार सुख होता है। उसमें मुझे चन्दन और कस्तूरी की गंध आती है। इसलिए  तुम इस बात की चिन्ता छोड़ो कि मेरे आलिंगन से तुम्हें अपराध होता है। निश्चिन्त होकर इस वर्ष यहाँ रहो और मुझे अपने संग का सुख दो। वर्ष के पश्चात मैं तुम्हें वृन्दावन भेज दूंगा।"
 
 
 
कहते-कहते उन्होंने सनातन को फिर आलिंगन किया। आलिंगन के साथ ही उनका खुजली रोग जाता रहा और देह स्वर्ण की तरह दीप्तिमान हो गया। हरिदास यह देख चमत्कृत! उन्होंने कहा-
 
 
 
"प्रभु, तुम्हारी लीला बड़ी विचित्र है। इसे तुम्हारे सिवा और कौन जान सकता है? तुम्हीं ने सनातन को झारिखण्ड का पानी पिलाकर उनके शरीर में रोग उपजाया उनकी परीक्षा लेने के लिए और तुम्हीं ने उनका आलिंगन कर उसे दूर किया।"
 
 
 
दोलयात्रा (होली) तक महाप्रभु ने सनातन को पास रखा। दिन प्रतिदिन उनके साथ तत्वालोचना की और पूरा किया साध्य-साधन सम्बन्धी अपने उस उद्देशृय का परवर्ती अध्याय, जो उन्होंने वाराणसी में उन्हें दिया था। दोलयात्रा के पश्चात साश्रुनयन उन्हें विदा किया।
 
 
 
==वृन्दावन प्रत्यागमन और मदनगोपाल की सेवा==
 
वृन्दावन पहुँचकर सनातन ने जमुना पुलिन के वन प्रान्त से परिवेष्टित आदित्य टीले के निर्जन स्थान में अपनी पर्णकुटी में फिर आरम्भ किया अपनी अंतरंग साधना के साथ महाप्रभु द्वारा निर्दिष्ट-लीलातीर्थ- उद्धार' कृष्ण-भक्ति-प्रचार और कृष्ण-विग्रह-प्रकाश आदि का कार्य।
 
 
 
==श्रीविग्रह की प्राप्ति==
 
[[ग्राउस]] ने लिखा है कि वृन्दावन आने के पश्चात श्रीसनातनादि गौड़ीय गोस्वामियों ने सर्वप्रथम वृन्दादेवी के मन्दिर की स्थापना की, जिसका अब कहीं कोई चिह्न नहीं है।<ref>Growse: A District Memoir, 3rd. Ed. p. 24</ref> उसके पश्चात अन्य मन्दिरों और श्रीविग्रहों की स्थापना का कार्य आरम्भ हुआ। एक दिन सनातन मथुरा गये मधुकरी के लिए। दामोदर चौबे के घर में प्रवेश करते ही उन्हें दीखी श्रीश्री मदनगोपाल की नयनाभिराम मूर्ति। दर्शन करते ही उन्हें लगा कि जैसे उसने उनके मन-प्राण चुरा लिए। वे एक अपूर्व भाव-समाधि में डूब गये और उनके अन्तर में जाग पड़ी श्रीमूर्ति की सेवा की प्रबल आकाँक्षा। उस आकाँक्षा को लेकर वे आदित्य टीले पर अपनी कुटिया में लौट आये। उन्होंने बहुत चेष्टा की उसे दबाने की –ऐसी आकाँक्षा से क्या लाभ, जिसकी पूर्ति सम्भव ही नहीं? वह चौबे परिवार अपने प्राणप्रिय ठाकुर को मुझे क्यों सौंपने लगा? सौंप भी दे तो मेरे पास वह साधन ही कहाँ, जिनके द्वारा उनकी सेवा कर मैं उन्हें सुखी कर सकू? पर आकाँक्षा बड़ी दुर्दमनीय सिद्ध हुई। वे जितना उसे दबाने की चेष्टा करते, उतना ही वह और प्रबल होती जाती। चलते-फिरते, सोते-जागते, यहाँ तक कि भजन-पूजन करते समय भी मदनगोपाल की वह नयनमनविमोहन मूर्ति बार-बार मानसपट पर उदित हो उन्हें अस्थिर कर देती। वे बार-बार मथुरा जाते और मधुकरी के बहाने दामोदर चौबे के घर उसके दर्शन कर लौट आते।
 
 
चौबेजी की पत्नी का मदनगोपाल जी के प्रति सुन्दर, सरल वात्सल्य, भाव था।  उनका एक लड़का था, जिसका नाम था सदन। वे मदन और सदन दोनों से बराबर का प्रेम करतीं, दोनों का लाड़-चाव और दोनों की सेवा-सुश्रुषा एक सी करतीं। दोनों में किसी प्रकार का भेदभाव न रखतीं। कहते हैं कि मदन गोपालजी भी उस परिवार के एक बालक की ही तरह वहाँ रहते और सदन के साथ खेला-कूदा करते। धीरे-धीरे चौबे परिवार के साथ सनातन हिलमिल गये। चौबे-पत्नी का मदनगोपाल जी के प्रति सहज, स्वाभाविक प्रेम देख उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उनके मन में इच्छा जागी शुद्धा रागमयी भक्ति की कसौटी पर उसे कसने की। इस उद्देश्य से एक दिन उन्होंने उससे कहा-
 
 
 
"माँ, तुम बड़े स्नेह से मदनगोपाल की सेवा करती हो, सो ठीक है। पर घर के एक बालक की कक्षा में उनहें रख ठीक उसी रीति से उनकी सेवा करना ठीक नहीं लगता। इष्ट की सेवा-परिचर्या होती चाहिये इष्ट की तरह, विशेष विधि-विधान के साथ। इष्ट में और तुम्हारे पुत्र सदन में तो भेद है न। उसी के अनुसार दोनों की सेवा में भी भेद होना उचित है।" भोली व्रजमाईने कहा-
 
 
 
"बाबा, आपका कहना ठीक हैं। मैं अब ऐसा ही करूँगी।"
 
 
 
दूसरी बार फिर जब वे उसके घर गये, तो उन्हें देखते ही वह बोली-
 
 
 
"बाबा, आपका उपदेश पालन करने की मैंने चेष्टा की। पर वह मदनगोपाल को अच्छा नहीं लगा। उस दिन स्वप्न में उन्होंने राग करते हुए मुझसे कहा- 'माँ, अब तुम मुझमें और सदना में भेद बरतने लगी हो। सदना को अपना बेटा समझ अपने निकट रखती हो। मुझे इष्ट मान, सेवा-परिचर्या का आडम्बर खड़ा कर, अपने से दूर रखती हो। यह मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता।"
 
 
 
सनातन यह सुनकर अवाक! एक मीठी सिहरन उनके अंग में दौड़ गयी। नेत्रों से अश्रुबिन्दु टप-टप गिरने लगे। मदनगोपालजी ने व्रजमाई के समक्ष अपने प्रेमस्वरूप का और उसकी प्रेम-सेवा के प्रति अपने लोभ का जैसा उद्घाटन किया, उसे देख वे मन ही मन उसके भाग्य की प्रशंसा करने लगे। साथ ही अपने इष्ट-सेवा के उपदेश के परिणाम-स्वारूप मदनगोपाल को उसके वात्सल्य-प्रेम रस से कुछ समय वंचित रखने के कारण अपने को दोषी मान उनसे क्षमा-प्रार्थना करने लगे। मदनगोपाल की प्रेम-सेवा का सौभाग्य स्वयं प्राप्त करने की आशा सनातन को पहले ही दुराशा प्रतीत होती थीं अब उस पर और भी पानी फिर गया। जब मदनगोपाल को उस व्रजमाई की सेवा इतनी प्रिय है और उसमें थोड़ी सी कमी आने पर भी वे अधीर हो उठते हैं, तो उसकी सेवा छोड़ उनकी क्यों अंगीकार करना चाहेंगे?
 
 
 
पर सनातन का अनुमान ठीक न थां जिस दिन से मदनगोपाल की उनके ऊपर दृष्टि पड़ी थी। उनके हृदय में भी एक नवीन आलोड़न की सृष्टि होने लगी थी। उनका मन भी सनातन की प्रेम-सेवा-रस का आस्वादन करने के लिये मचलने लग गया था। ज्यों-ज्यों सनातन का आकर्षण उनके प्रति बढ़ता जा रहा था, उनका आकर्षण भी सनातन के प्रति बढ़ता जा रहा था। सनातन को सुखद आश्चर्य हुआ जब एक दिन दामोदर चौबे की पत्नी ने उदास होकर अश्रु-गद्गद् कण्ठ से उनसे कहा-
 
 
 
"बाबा आज से तुम्हें लेना है मदनगोपाल की सेवा का सम्पूर्ण भार। गोपाल अब बड़ा हो गया है। माँ के आँचल तले रहना नहीं चाहता। कल रात स्वप्न में उसने मुझसे कहा उसे तुम्हें सौंप देने को। मैं भी अब बूढ़ी हो गयी हूँ। हाथ-पैर चलते नहीं। कहीं ठाकुर को मेरे कारण कष्ट भोगना पडत्रे, इससे अच्छा है। कि अवस्था और अधिक बिगड़ने के पूर्व उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति को सौंप दूँ, जो उनकी सेवा प्रेम से करे।"
 
 
 
इस प्रकार अपने भाग्य के सूर्य को अकस्मात् उदय होता देख सनातन का हृदय कमल आनन्द से खिल उठा। प्रेम के आवेश में अपने हृदय-धन को साथ ले वे अपनी कुटी को चले गये।
 
मदनगोपालजी के श्रीविग्रह का एक प्राचीन इतिहास है। कहते हैं कि सत्ययुग में महाराज [[अम्बरीष]] इनकी सेवा करते थें कालक्रम से ये लंकापति रावण के पास पहुँचे। रामचन्द्र द्वारा लंका-विजय के पश्चात जानकी जीने उनकी सेवा की। फिर श्रीशत्रुघ्न द्वारा इन्हें मथुरा लाया गया। बहुत दिन बाद श्रीअद्वैत प्रभु ने आदित्य टीला के भूगर्भ से इनका उद्धार कर मथुरा के चौबे परिवार को इनकी सेवा का भार दिया।<ref>श्रीसतीशचन्द्र मिश्र: सप्त गोस्वामी, पृ0 109</ref> कुछ लोगों का यह भी कहना है कि श्रीकृष्ण के प्रपौत्र महाराज बज्रनाभ ने ब्रजमण्डल में अपने अनुसन्धान के फलस्वरूप जिन आठ विग्रहों का आविष्कार किया था, इनमें इन मदनगोपालजी का श्रीविग्रह भी था।<ref>वही</ref>
 
 
 
==अलोना साग और बाटी का भोग==
 
सनातन गोस्वामी ने अपनी कुटिया के निकट ही एक फूँस की झोंपड़ी का निर्माण किया और उसमें मदनगोपाल जी को स्थापित किया। उनके भोग के लिये वे मधुकरी पर ही निर्भर करते। मधुकरी में जो आटा मिलता उसकी अंगाकड़ी (बाटी) बनाकर भोग के रूप में उनके सामने प्रस्तुत करते। साथ में निवेदन करते जंगली पत्तियों का बना अलोना साग। कुछ दन बीते ठाकुर को इस आटे के पिंड और अलोने साग को किसी प्रकार निगलते। संकोच में पड़कर वे अपने प्रेमी भक्त से कुछ न कह सके। पर अन्त में उनसे न रहा गया। स्वप्न में दर्शन देकर कहा-
 
 
 
"सनातन, अलोने साग के साथ तुम्हारी अंगाकड़ी मेरे गले के नीचे नहीं उतरतीं और कब तक उसे जबरदस्ती ठेलता रहूँगा। उसके साथ थोड़ा नमक दिया करो न।"
 
 
 
सनातन के नेत्रों से बह चली प्रेमाश्रु की धारा। कातर स्वर से उन्होंने कहा-
 
 
 
"प्रभु मैं ठहरा आपका एक तुच्छ सेवक, जिसका डोर-कौपीन के सिवा कोई सम्बल नहीं। आप आज नमक की कह रहे हैं, कल गुड़ की कहेंगे, रसों राजभोग की, तो मैं कहाँ से लाऊँगा? यदि आपकी राजभोग की इच्छा है, तो स्वयं ही उसकी व्यवस्था कर लें।"
 
 
 
यह कैसी सनातन की निष्टुरता अपने ही प्राणप्रिय मदनगोपाल के प्रति! जिनकी सेवा की तीव्र आकाँक्षा ने उन्हें पागल कर रखा था, उन्हीं की सेवा में ऐसी कृपणता और उदासीनता! ऐसी कौन सी वस्तु थी, जिसे विरक्त होते हुए भी मदनगोपाल की सेवा के लिए वे संग्रह नहीं कर सकते थे, जब उन जैसे महात्मा की इच्छापूर्ति करने के किसी भी अवसर के लिए बड़े-बड़े धनी व्यक्ति लालायित रहते थे? बात कुछ गूढ़ है। थोड़ा गहराई में उतरे बिना समझ में आने की नहीं। सनातन मदनगोपाल की सेवा के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर सकते थे, पर उस भजन-पथ को नहीं त्याग सकते थे, जो उनकी सर्वोत्तम सेवा का अधिकार जन्माने के लिए आवश्यक था। उनकी सर्वोत्तम सेवा है मानसी-सेवा। मानसी-सेवा में किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता। सेवा के जो उपकरण वैकुण्ठ में भी प्राप्त न होते हो उन्हें साधक मानसी-सेवा में स्वेच्छा से चुटा सकता है। देश, काल, समाज और प्रकृति के नियमों की सीमा से बाहर रहकर इष्ट की प्राणभर मनचाही सेवा कर उन्हें सुखी कर सकता है। मानसी-सेवा का अधिकार प्राप्त उसे होता है, जिसका अन्त:करण शुद्ध होता है। अन्त:करण की शुद्धि के लिये त्याग-वैराग्ययुक्त एकांतिक भजन-पथ का अनुशीलन आवश्यक है। यदि सनातन मदनगोपाल के राजभोग के लिए तरह-तरह की सामग्री जुटाने में लग जाते, तो उनकी परापेक्षा बढ़ जाती और वे एकांतिक भजन-पथ से च्युत हो जाते। इष्ट की सर्वोत्तम मानसी-सेवा की योग्यता प्राप्त करने के लिए उनकी व्यावहारिक सेवा की सीमा बाँधना आवश्यक था।<ref>व्यावहारिक सेवा की सीमा वैरागियों और मानसी सेवा के अधिकारी साधकों के लिए ही है, साधारण लोगों के लिए नहीं। साधारण लोगों के लिए सामर्थ्यानुसार उत्तम से उत्तम ठाकुर-सेवा का शास्त्र-विधान है। </ref>
 
 
 
इसके अतिरिक्त स्वयं उनके इष्ट ने महाप्रभु में जगद्गुरु का दायित्व ओटते हुए उन्हें आज्ञा दी थी वैराग्यमय जीवन का चरम आदर्श स्थापित करने की। गुरु-आज्ञा ईश्वराज्ञा से भी अधिक बलवती है। तब वे गुरुरूपी इष्ट की आज्ञा का पालन करते या उपास्यरूपी इष्ट की इच्छा की पूर्ति करते? इसीलिए उन्हें दो टूक कह देना पड़ा मदनगोपालजी से-अपने उत्तम भोग की व्यवस्था आप स्वयं कर लें। यदि कहा जाय कि ऐसा कह सनातन गोस्वामी ने उनकी मर्यादा की हानि की, तो इसके लिए भी मूल रूप से दोषी मदनगोपाल ही हैं। वे क्या जानते नहीं थे कि सनातन एक निष्किञ्चन साधक हैं, जिनका डोर-कौपीन के सिवा दूसरा कोई सम्बल नहीं? उनकी सेवा अंगीकार करने के पहले उन्हें नहीं समझ लेना चाहिए था कि उन्हें भी उन्हीं की तरह रूखी-सूखी खाकर रहना पड़ेगा? असल बात यह है कि उनसे अपने प्रेमी भक्तों के साथ चुहल किये बिना भी तो नहीं रहा जाता। वे उनके साथ जानबूझ कर अटपटा व्यवहार कर, उन्हें झूठा-सच्चा उलहना देकर या किसी न किसी प्रकार उन्हें उपहासास्पद स्थिति में डालकर और उनकी खरी-खोटी सुनकर प्रसन्न होते हैं। उन रसिक-शेखर को उनकी खरी-खोटी जितनी अच्छी लगती है, उतनी वेद-स्तुति भी अच्छी नहीं लगती।
 
  
==मन्दिर का निर्माण==
+
==वृन्दावन आगमन==
मदनगोपाल को अपनी व्यवस्था आप करनी पड़ी। उस दिन पंजाब के एक बड़े व्यापारी श्रीरामदास कपूर जमुना के रास्ते नाव में कहीं जा रहे थे। नाव अनेक प्रकार की बहुमूल्य सामग्री से लदी थी, जिसे उन्हें कहीं दूर जाकर बेचना था। दैवयोग से आदित्य टीले के पास जाकर नाव फँस गयी जल के भीतर रेत के एक टीले में और एक ओर टेढ़ी हो गयी। मल्लाह ने बहुत कोशिश की उसे निकालने की, पर वह टस-से-मस न हुई। आदित्य टीले के पास यदि बस्ती का कोई चिह्न होता तो कुछ लोगों को बुलाकर उनकी सहायता से उसे सीधा कर रेत में से निकाल लेते। पर वह जन-मानवहीन बिलकुल सूनसान स्थान था। ऊपर से कृष्णपक्ष की रात्रि का अंधियारा घिरा आ रहा थां रामदास चिन्ता में पड़ गये-नाव यदि ऐसे ही पड़ी रही तो उसके डूब जाने का भय है। डाकुओं का भी इस स्थान में आतंक बना रहता है। यदि उन्हें ख़बर पड़ गयी तो किसी समय टूट पड़ सकते हैं।
+
{{main|सनातन गोस्वामी का वृन्दावन आगमन}}
 +
'सनातन गोस्वामी ने दरवेश का भेष बनाया और अपने पुराने सेवक ईशान को साथ ले चल पड़े [[वृन्दावन]] की ओर। उन्हें [[हुसैनशाह]] के सिपाहियों द्वारा पकड़े जाने का भय था। इसलिये [[राजपथ]] से जाना ठीक न था। दूसरा मार्ग था पातड़ा पर्वत होकर, जो बहुत कठिन और विपदग्रस्त था। उसी मार्ग से जाने का उन्होंने निश्चय किया। सनातन को आज मुक्ति मिली है। हुसैनशाह के बन्दीखाने से ही नहीं, माया के जटिल बन्धन से भी। उस मुक्ति के लिये ऐसी कौन सी क़ीमत है, जिसे देने को वे प्रस्तुत नहीं।
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[[चित्र:madan-mohan-temple-1.jpg|[[मदन मोहन मन्दिर वृन्दावन|मदन मोहन जी का मंदिर, वृन्दावन]]<br /> Madan Mohan temple, Vrindavan|thumb|200px]]
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==चैतन्य महाप्रभु से मिलन==
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{{main|सनातन गोस्वामी का चैतन्य महाप्रभु से मिलन}}
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सनातन गोस्वामी कुछ दिनों में [[काशी]] पहुँचे। वहाँ पहुँचते ही सुसंवाद मिला कि महाप्रभु [[वृन्दावन]] से लौटकर कुछ दिनों से काशी में चन्द्रशेखर आचार्य के घर ठहरे हुए हैं। उनके [[नृत्य]]-[[कीर्तन]] के कारण काशी में भाव-भक्ति की अपूर्व बाढ़ आयी हुई है। यह सुन उनके आनन्द की सीमा न रही।
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==मदनगोपाल विग्रह की प्राप्ति==
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{{main|सनातन गोस्वामी को मदनगोपाल विग्रह की प्राप्ति}}
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वृन्दावन पहुँचकर [[सनातन गोस्वामी|सनातन]] ने जमुना पुलिन के वन प्रान्त से परिवेष्टित आदित्य टीले के निर्जन स्थान में अपनी पर्णकुटी में फिर आरम्भ किया, अपनी अंतरंग साधना के साथ महाप्रभु द्वारा निर्दिष्ट-लीलातीर्थ- उद्धार' [[कृष्ण]]-भक्ति-प्रचार और कृष्ण-विग्रह-प्रकाश आदि का कार्य आरम्भ किया।<br />
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मदनगोपाल को अपनी व्यवस्था आप करनी पड़ी। उस दिन पंजाब के एक बड़े व्यापारी श्रीरामदास कपूर जमुना के रास्ते नाव में कहीं जा रहे थे। नाव अनेक प्रकार की बहुमूल्य सामग्री से लदी थी, जिसे उन्हें कहीं दूर जाकर बेचना था। दैवयोग से आदित्य टीले के पास जाकर नाव फँस गयी जल के भीतर रेत के एक टीले में और एक ओर टेढ़ी हो गयी।<br />
 +
सनातन गोस्वामी ने अपनी [[कुटिया]] के निकट ही एक फूँस की झोंपड़ी का निर्माण किया और उसमें मदनगोपाल जी को स्थापित किया। उनके भोग के लिये वे मधुकरी पर ही निर्भर करते। मधुकरी में जो आटा मिलता उसकी अंगाकड़ी (बाटी) बनाकर भोग के रूप में उनके सामने प्रस्तुत करते।
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{{seealso|सनातन गोस्वामी द्वारा मदनमोहन मन्दिर का निर्माण|सनातन गोस्वामी द्वारा मदनमोहन की सेवा}}
  
सोचते-सोचते हठात् उन्हें दीख पड़ी टीले के ऊपर टिम-टिमाते हुए एक दीपक की क्षीण शिखा। आशा की एक किरण फूट निकली उनके भीतर घुमड़ते निराशा के घोर अन्धकार में। नौका से उतरकर वे आये तैर कर किनारे और द्रुतगति से चढ़ गये टीले के ऊपर। ऊपर जाते ही दीखी सामने कुटिया में मदनगोपाल की नयनाभिराम मूर्ति और उसके सामने ध्यानमग्न बैठे एक तेजस्वी महात्मा। मंगलमय उन दोनों मूर्तियों के दर्शन करते ही उन्हें लगा कि जैसे उनके अमंगल के बादल छँट गये। महात्मा के चरणों में गिरकर उन्होंने कातर स्वर से निवेदन की अपनी दु:खभरी कहानी और कहा-
+
==भक्ति सिद्धान्त==
फ़
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{{main|सनातन गोस्वामी का भक्ति सिद्धान्त}}
"मुझे विश्वास है कि आप कृपा करें तो इस विपद से मेरा उद्धार अवश्य हो जायगा। यदि आप कृपा न करेंगे तो मेरा सर्वस्व लुट जायगा। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि आपकी कृपा से नाव सुरक्षितृ निकल आयी, तो इस बार व्यापार में जो भी लाभ होगा, उसे आपके ठाकुरजी की सेवा में लगा दूँगा।"
+
[[चैतन्य महाप्रभु|श्रीचैतन्य महाप्रभु]] ने एक बार [[सनातन गोस्वामी]] की असाधारण शक्ति का मूल्यांकन करते हुए कहा था- "तुम्हारे भीतर मुझ तक को समझाने और पथ प्रदर्शन करने की शक्ति है। कितनी बार तुमने इसका परिचय भी दिया है।"<ref>"आमा के ओ बुझाइते तुमि धर शक्ति।</small><br />
 +
कत गञि बुझायाछ व्यवहार-भक्ति॥"(चैतन्य चरित 3/4/163</ref>
 +
इस शक्ति के कारण ही उन्होंने उनके शरीर को अपने उद्देश्य की सिद्धि का प्रधान साधन माना था- तोमार शरीर मोर प्रधान साधन।"<ref>चैतन्य चरित 3/4/73</ref>
  
सनातन मदनगोपाल जी की ओर देख थोड़ा मुस्काये और रामदास को आश्वस्त करते हुए बोले-
+
==सनातन और हुसैनशाह==
 +
{{main|सनातन गोस्वामी और हुसैनशाह}}
 +
हुसैनशाह के दरबार में रूप-सनातन किस प्रकार राज-मन्त्री हुए, इस सम्बन्ध में श्रीसतीशचन्द्र मित्र ने 'सप्त गोस्वामी' ग्रन्थ में लिखा है-"शैशव में सनातन और उनके भाई बाकला से रामकेलि अपने पितामह मुकुन्ददेव के पास ले जाये गये। उन्होंने ही उनका लालन-पालन किया।
  
"चिन्ता मत करो। हमारे मदनगोपालजी शीघ्र इस विपद से तुम्हारी रक्षा करेंगे।"
+
==वंश परम्परा==
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{{main|सनातन गोस्वामी की वंश परम्परा}}
 +
रूप और [[सनातन गोस्वामी|सनातन]] के असाधारण व्यक्तित्व की गरिमा का सही मूल्यांकन करने के लिए उनकी वंश परम्परा पर दृष्टि डालना आवशृयक है। उनके पूर्वपुरुष दक्षिण [[भारत]] में रहते थे। वे राजवंश के थे और जैसे राजकार्य में [[दक्ष]] थे वैसे ही शास्त्र-विद्या में प्रवीण थे। 
  
सनातन गोस्वामी का आशीर्वाद लेकर टीले से उतरे रामदास को अभी कुछ ही क्षण हुए थे, उन्होंने देखा कि न जाने कहाँ से जमुना में आयी एक नयी धार और नौका को मुक्त कर सही पथ पर ले चली। रामदास को उस बार व्यापार में आशातीत लाभ हुआ। कुछ दन बाद वे गये लौटकर वृन्दावन और उस विपुल धनराशि को मदनगोपाल जी की सेवा में नियुक्त कर कृतार्थ हुए। उसी धन से मदनगोपाल जी के लिये आदित्य टीले पर एक सुन्दर मन्दिर और नाटशाला का निर्माण हुआ और भू-सम्पत्ति क्रय कर ठाकुर के भोग-राग और सेवा-परिचर्या की उत्तम से उत्तम स्थायी व्यवस्था की गयी। रामदास और उनकी पत्नी सनातन गोस्वामी से दीक्षा लेकर धन्य हुए। इस प्रकार मदनगोपालजी ने अपने मनोनुकूल सेवा-पूजा की व्यवस्था अपने-आप कर ली और सनातन गोस्वामी की झोंपड़ी से निकलकर तीर्थराज रूप से भक्तों को दर्शन देने के उपयुक्त मंचपर जा विराजे। कालान्तर में जब श्रीराधा को उनके बाम भाग में विराजमान किया गया उनका नाम हो गया 'मदनमोहन' या श्रीराधामदनमोहन'।<ref>श्री कविराज गोस्वामी के समय यह दोनों ही नाम प्रचलित थे, जैसा कि उनके इस उल्लेख से स्पष्ट है-<br />
+
==नीलाचल में==
एइ ग्रन्थ लेखाय मोरे मदनमोहन।<br />
+
{{main|सनातन गोस्वामी नीलाचल में}}
आमार लिखन जेन शुकेर पठन॥<br />
+
महाप्रभु ने स्वयं ही एक बार नीलाचल जाने को सनातन गोस्वामी से कहा था। इसलिये वे झारिखण्ड के जंगल के रास्ते नीलाचल की पदयात्रा पर चल पड़े। मार्ग में चलते-चलते अनाहार और अनियम के कारण उन्हें विषाक्त खुजली रोग हो गया। उसके कारण सारे शरीर से क्लेद बहिर्गत होते देख, वे इस प्रकार विचार करने लगे, एक तो मैं वैसे ही म्लेक्ष राजा की सेवा में रह चुकने के कारण अपवित्र और अस्पृश्य हूँ।
सेइ लिखि मदनगोपाल जे लिखाय।<br />
 
काष्ठेर पुतली जेन कुहके नाचाय॥ (चैतन्य चरित 1।8।73-74</ref>
 
  
मदनमोहन की प्रेम-सेवा के आवेश में सनातन महाप्रभु की आज्ञा भूल गये। कुछ दिन बाद उसकी याद आयी, तब उनके चरणों में दण्डवत् कर अश्रहुगद्गद् कण्ठ से बोले-
+
==विविध घटनाएँ==
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{{main|सनातन गोस्वामी विविध घटनाएँ}}
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नन्दग्राम में जिस कुटी में [[सनातन गोस्वामी]] भजन करते थे, वह आज भी विद्यमान है। इसमें रहते समय एक बार मदनगोपाल जी ने उनके ऊपर विशेष कृपा की। यद्यपि वे मदनगोपालजी को [[वृन्दावन]] में छोड़कर यहाँ चले आये थे, मदनगोपाल उन्हें भूले नहीं थे। वे छाया की तरह हर समय उनके आगे-पीछे रहते और उनके योग-क्षेम की चिन्ता रखते।
  
"ठाकुर, अब मुझे छुट्टी दें, जिससे मैं एकान्तवास में वैराग्यधर्म का पूर्णरूप से पालन करते हुए अपना भजन और महाप्रभु द्वारा निर्दिष्ठ कार्य कर सकूं।"
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<div align="center">'''[[सनातन गोस्वामी का परिचय|आगे जाएँ »]]'''</div>
  
वे श्रीकृष्णदास ब्रह्मचारी पर मदनमोहन की सेवा का भार छोड़कर अन्यत्र चले गये। कभी गोवर्धन की तरहटी में, कभी गोकुल के वन-प्रान्त में, कभी राधाकुण्ड और नन्दग्राम में किसी वृक्षतले या पर्णकुटी में रहकर अपना भजन-साधन और महाप्रभु द्वारा आदिष्ट तीर्थोद्धारादि का कार्य करते रहे। पर बीच-बीच में मदनमोहन की याद उन्हें सताती रही। उनके दर्शन करने और यह देखने कि उनकी सेवा ठीक से चल रही है या नहीं, वे वृन्दावन जाते रहे। वृन्दावन में पुराने मदनमोहन के मन्दिर के पीछे उनकी भजनकुटी आज भी विद्यमान है।
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Disamb2.jpg सनातन एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- सनातन (बहुविकल्पी)
सनातन गोस्वामी विषय सूची


सनातन गोस्वामी
सनातन गोस्वामी
पूरा नाम सनातन गोस्वामी
जन्म 1488 ई.[1]
मृत्यु 1558 ई.[1]
अभिभावक मुकुन्ददेव (पितामह)
कर्म भूमि वृन्दावन (मथुरा)
मुख्य रचनाएँ श्रीकृष्णलीलास्तव, वैष्णवतोषिणी, श्री बृहत भागवतामृत, हरिभक्तिविलास तथा भक्तिरसामृतसिंधु आदि की रचना की।
भाषा हिन्दी, संस्कृत, फारसी, अरबी
प्रसिद्धि सन्त, कृष्ण-भक्त
विशेष योगदान वृन्दावन धाम का पहला मदनमोहन जी मन्दिर सनातन गोस्वामी ने ही स्थापित किया था, उसकी सेवा भी स्वयं करते थे।
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख चैतन्य महाप्रभु, रूप गोस्वामी, चैतन्य सम्प्रदाय, वैष्णव सम्प्रदाय, वृन्दावनदास ठाकुर, कृष्णदास कविराज, प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
अन्य जानकारी सनातन ने भक्ति सिद्धान्त, वृन्दादेवी मन्दिर तथा श्रीविग्रह की स्थापना की तथा वैष्णव-स्मृति ग्रन्थ का संकलन कर वैष्णव सदाचार का प्रचार किया। वृन्दावन पहँचकर सनातन ने अपनी अंतरंग साधना के साथ महाप्रभु द्वारा निर्दिष्ट-लीलातीर्थ- उद्धार' कृष्ण-भक्ति-प्रचार और कृष्ण-विग्रह-प्रकाश आदि का कार्य भी आरम्भ किया।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

सनातन गोस्वामी (अंग्रेज़ी:Sanatana Goswami, जन्म: 1488 ई. - मृत्यु: 1558 ई.[1]) चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। उन्होंने गौड़ीय वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय की अनेकों ग्रन्थों की रचना की। अपने भाई रूप गोस्वामी सहित वृन्दावन के छ: प्रभावशाली गोस्वामियों में वे सबसे ज्येष्ठ थे। जब भी इस भूमि पर भगवान अवतार लेते हैं तो उनके साथ उनके पार्षद भी आते हैं। श्री सनातन गोस्वामी ऐसे ही संत रहे, जिनके साथ हमेशा श्रीकृष्ण एवं श्रीराधारानी हैं। वृन्दावन धाम का पहला मदनमोहन जी मन्दिर सनातन गोस्वामी ने ही स्थापित किया था। भगवान कृष्ण का जो स्वरूप यहां स्थापित किया गया, उसे चैतन्य महाप्रभु के भक्त श्री अद्वैताचार्य ने प्रकट किया था।

परिचय

श्री सनातन गोस्वामी जी का जन्म 1488 ई. के लगभग हुआ था। सन 1514 अक्टूबर में चैतन्य महाप्रभु सन्न्यास रूप में नीलाचल में विराज रहे थे। श्रीकृष्ण के प्रेम रस से परिपूर्ण श्रीकृष्ण लीलास्थली मधुर वृन्दावन के दर्शन की, उनके हृदय सरोवर में एक भाव तरंग उठी। देखते-देखते वह इतनी विशाल और वेगवती हो गयी कि नीलाचल के प्रेमी भक्तों के नीलाचल छोड़कर न जाने के विनयपूर्ण आग्रह का अतिक्रमण कर उन्हें बहा ले चली, वृन्दावन के पथ पर साथ चल पड़ी भक्तों की अपार भीड़ भावावेश में उनके साथ नृत्य और कीर्तन करती।

शिक्षा तथा दीक्षा

सनातन गोस्वामी के पितामह मुकुन्ददेव दीर्घकाल से गौड़ राज्य में किसी उच्च पद पर आसीन थे। वे रामकेलि में रहते थे। उनके पुत्र श्रीकुमार देव बाकलाचन्द्र द्वीप में रहते थे। कुमारदेव के देहावसान के पश्चात् मुकुन्ददेव श्रीरूप-सनातन आदि को रामकेलि ले आये। उन्होंने रूप-सनातन की शिक्षा की सुव्यवस्था की।
सनातन गोस्वामी ने मंगलाचरण में केवल विद्यावाचस्पति के लिये 'गुरुन्' शब्द का प्रयोग किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे उनके दीक्षा गुरु थे, और अन्य सब शिक्षा गुरु। 'गुरुन' शब्द बहुवचन होते हुए भी गौरवार्थ में बहुत बार एक वचन में प्रयुक्त होता है। यहाँ भी एक वचन में प्रयुक्त होकर विद्यावाचस्पति के साथ जुड़ा हुआ है।[2] यदि विद्यावाचस्पति और सार्वभौम भट्टाचार्य दोनों दोनों से जुड़ा होता तो द्विवचन में प्रयुक्त किया गया होता।

रचना

सनातन गोस्वामी की रचनाएँ निम्न हैं-

  1. श्रीकृष्णलीलास्तव
  2. वैष्णवतोषिणी
  3. श्री बृहत भागवतामृत
  4. हरिभक्तिविलास तथा
  5. भक्तिरसामृतसिंधु

भक्ति-साधना

सनातन तथा रूप गोस्वामी

सनातन गोस्वामी गौड़ दरबार में सुलतान के शिविर में रहते समय मुसलमानी वेश-भूषा में रहते, अरबी और फारसी में अनर्गल चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि रूप और सनातन जब रामकेलि महाप्रभु के दर्शन करने गये, उस समय नित्यानन्द और हरिदास ने, जो महाप्रभु के साथ थे, कहा- रूप और साकर आपके दर्शन को आये हैं। यहाँ सनातन को ही साकर (मल्लिक) कहा गया है।[3]

वृन्दावन आगमन

'सनातन गोस्वामी ने दरवेश का भेष बनाया और अपने पुराने सेवक ईशान को साथ ले चल पड़े वृन्दावन की ओर। उन्हें हुसैनशाह के सिपाहियों द्वारा पकड़े जाने का भय था। इसलिये राजपथ से जाना ठीक न था। दूसरा मार्ग था पातड़ा पर्वत होकर, जो बहुत कठिन और विपदग्रस्त था। उसी मार्ग से जाने का उन्होंने निश्चय किया। सनातन को आज मुक्ति मिली है। हुसैनशाह के बन्दीखाने से ही नहीं, माया के जटिल बन्धन से भी। उस मुक्ति के लिये ऐसी कौन सी क़ीमत है, जिसे देने को वे प्रस्तुत नहीं।

चैतन्य महाप्रभु से मिलन

सनातन गोस्वामी कुछ दिनों में काशी पहुँचे। वहाँ पहुँचते ही सुसंवाद मिला कि महाप्रभु वृन्दावन से लौटकर कुछ दिनों से काशी में चन्द्रशेखर आचार्य के घर ठहरे हुए हैं। उनके नृत्य-कीर्तन के कारण काशी में भाव-भक्ति की अपूर्व बाढ़ आयी हुई है। यह सुन उनके आनन्द की सीमा न रही।

मदनगोपाल विग्रह की प्राप्ति

वृन्दावन पहुँचकर सनातन ने जमुना पुलिन के वन प्रान्त से परिवेष्टित आदित्य टीले के निर्जन स्थान में अपनी पर्णकुटी में फिर आरम्भ किया, अपनी अंतरंग साधना के साथ महाप्रभु द्वारा निर्दिष्ट-लीलातीर्थ- उद्धार' कृष्ण-भक्ति-प्रचार और कृष्ण-विग्रह-प्रकाश आदि का कार्य आरम्भ किया।
मदनगोपाल को अपनी व्यवस्था आप करनी पड़ी। उस दिन पंजाब के एक बड़े व्यापारी श्रीरामदास कपूर जमुना के रास्ते नाव में कहीं जा रहे थे। नाव अनेक प्रकार की बहुमूल्य सामग्री से लदी थी, जिसे उन्हें कहीं दूर जाकर बेचना था। दैवयोग से आदित्य टीले के पास जाकर नाव फँस गयी जल के भीतर रेत के एक टीले में और एक ओर टेढ़ी हो गयी।
सनातन गोस्वामी ने अपनी कुटिया के निकट ही एक फूँस की झोंपड़ी का निर्माण किया और उसमें मदनगोपाल जी को स्थापित किया। उनके भोग के लिये वे मधुकरी पर ही निर्भर करते। मधुकरी में जो आटा मिलता उसकी अंगाकड़ी (बाटी) बनाकर भोग के रूप में उनके सामने प्रस्तुत करते। इन्हें भी देखें: सनातन गोस्वामी द्वारा मदनमोहन मन्दिर का निर्माण एवं सनातन गोस्वामी द्वारा मदनमोहन की सेवा

भक्ति सिद्धान्त

श्रीचैतन्य महाप्रभु ने एक बार सनातन गोस्वामी की असाधारण शक्ति का मूल्यांकन करते हुए कहा था- "तुम्हारे भीतर मुझ तक को समझाने और पथ प्रदर्शन करने की शक्ति है। कितनी बार तुमने इसका परिचय भी दिया है।"[4] इस शक्ति के कारण ही उन्होंने उनके शरीर को अपने उद्देश्य की सिद्धि का प्रधान साधन माना था- तोमार शरीर मोर प्रधान साधन।"[5]

सनातन और हुसैनशाह

हुसैनशाह के दरबार में रूप-सनातन किस प्रकार राज-मन्त्री हुए, इस सम्बन्ध में श्रीसतीशचन्द्र मित्र ने 'सप्त गोस्वामी' ग्रन्थ में लिखा है-"शैशव में सनातन और उनके भाई बाकला से रामकेलि अपने पितामह मुकुन्ददेव के पास ले जाये गये। उन्होंने ही उनका लालन-पालन किया।

वंश परम्परा

रूप और सनातन के असाधारण व्यक्तित्व की गरिमा का सही मूल्यांकन करने के लिए उनकी वंश परम्परा पर दृष्टि डालना आवशृयक है। उनके पूर्वपुरुष दक्षिण भारत में रहते थे। वे राजवंश के थे और जैसे राजकार्य में दक्ष थे वैसे ही शास्त्र-विद्या में प्रवीण थे।

नीलाचल में

महाप्रभु ने स्वयं ही एक बार नीलाचल जाने को सनातन गोस्वामी से कहा था। इसलिये वे झारिखण्ड के जंगल के रास्ते नीलाचल की पदयात्रा पर चल पड़े। मार्ग में चलते-चलते अनाहार और अनियम के कारण उन्हें विषाक्त खुजली रोग हो गया। उसके कारण सारे शरीर से क्लेद बहिर्गत होते देख, वे इस प्रकार विचार करने लगे, एक तो मैं वैसे ही म्लेक्ष राजा की सेवा में रह चुकने के कारण अपवित्र और अस्पृश्य हूँ।

विविध घटनाएँ

नन्दग्राम में जिस कुटी में सनातन गोस्वामी भजन करते थे, वह आज भी विद्यमान है। इसमें रहते समय एक बार मदनगोपाल जी ने उनके ऊपर विशेष कृपा की। यद्यपि वे मदनगोपालजी को वृन्दावन में छोड़कर यहाँ चले आये थे, मदनगोपाल उन्हें भूले नहीं थे। वे छाया की तरह हर समय उनके आगे-पीछे रहते और उनके योग-क्षेम की चिन्ता रखते।


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वीथिका-गौड़ीय संप्रदाय

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 SRILA SANATANA GOSWAMI (English) (html) shriradhakund। अभिगमन तिथि: 15 दिसम्बर, 2015।
  2. डॉ. सुशील कुमार देने भी अपनी पुस्तक Early History of the Vaisnava Faith and Movement in Bengal (p. 148 fn) में लिखा है “The word gurun in the passage expressly qualifies Vidyavavchaspatin only, and the plural is honontic”
  3. रूप साकर आइला तोमा देखिबारे। (चैतन्य-चरितामृत 2।1।174
  4. "आमा के ओ बुझाइते तुमि धर शक्ति।
    कत गञि बुझायाछ व्यवहार-भक्ति॥"(चैतन्य चरित 3/4/163
  5. चैतन्य चरित 3/4/73

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