अनिल बिस्वास
अनिल बिस्वास
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पूरा नाम | अनिल कृष्ण बिस्वास |
अन्य नाम | दादा, अनिल दा आदि |
जन्म | 7 जुलाई, 1914 |
जन्म भूमि | बारीसाल, पूर्वी बंगाल |
मृत्यु | 31 मई, 2003 |
मृत्यु स्थान | दिल्ली |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | संगीतकार |
मुख्य फ़िल्में | 'रोटी' (1942), 'किस्मत' (1943), 'अनोखा प्यार' (1948), 'तराना' (1951), 'वारिस' (1954), 'परदेसी' (1957), 'चार दिल चार राहें' (1959) आदि। |
पुरस्कार-उपाधि | संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्ध गीत | 'दूर हटो ऐ दुनिया वालो', 'रूठ के तुम तो चल दिए', 'दिल जलता है तो जलने दे', 'बदली तेरी नज़र तो नज़ारे बदल गए'। |
अन्य जानकारी | अनिल बिस्वास शास्त्रीय संगीत के निष्णात होने के साथ लोक-संगीत के अच्छे जानकार थे। उनकी धुनों में जो संगीत है, वह अब हमारी विरासत बन गया है। |
अनिल बिस्वास (अंग्रेज़ी: Anil Biswas, जन्म: 7 जुलाई, 1914; मृत्यु: 31 मई, 2003) बॉलीवुड के प्रसिद्ध संगीतकार थे। हिन्दी फ़िल्मों के गीत-संगीत के स्वर्ण-युग के सारथी अनिल बिस्वास रहे हैं। उन्होंने न सिर्फ अपने संगीत से फ़िल्म संगीत को शास्त्रीय, कलात्मक और मधुर बनाया बल्कि अनेक गायक-गायिकाओं को तराशकर हीरे-जवाहरात की तरह प्रस्तुत किया। इनमें तलत महमूद, मुकेश, लता मंगेशकर, सुरैया के नाम प्रमुखता से गिनाए जा सकते हैं। अनिल बिस्वास शास्त्रीय संगीत के निष्णात होने के साथ लोक-संगीत के अच्छे जानकार थे। उनकी धुनों में जो संगीत है, वह अब हमारी विरासत बन गया है।[1]
जीवन परिचय
अनिल बिस्वास का जन्म बारीसाल, पूर्वी बंगाल में 7 जुलाई, 1914 को हुआ था, जो अब बांग्लादेश है। वे स्वतंत्रता संग्राम में भी शामिल हुए और बंगाल के महान् कवि और संगीतकार काज़ी नज़रुल इस्लाम के भी संपर्क में रहे। वे काफ़ी कम उम्र में कोलकाता चले आए और उसके बाद वहाँ से 1934 में मुंबई चले गए। मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में आकर उन्होंने देखा कि यहाँ तो हर प्रांत का संगीत मौजूद है। अनिल दा ने अपने प्रयत्नों से इसे और अधिक विस्तार दिया। मुंबई पहुँचते ही उन्हें 'धर्म की देवी' नाम की फ़िल्म में संगीत देने का अवसर मिला और उसके बाद यह सिलसिला बरसों तक चलता रहा।
'दिल जलता है तो जलने दे...' से मुकेश ने अपने करियर की शुरूआत की और उसके बाद अनेक हिट गाने गए। अनिल बिस्वास को हिंदी फ़िल्म संगीत में पहली बार ऑर्केस्ट्रा का इस्तेमाल करने का श्रेय भी दिया जाता है। 1949 में उन्होंने तलत महमूद से आरज़ू फ़िल्म में पहली बार गाना गवाया जो सुपरहिट रहा--'ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल....'।[2]
कार्यक्षेत्र
कलकत्ता से मुंबई आए अनिल दा का सफर फ़िल्म जगत् में सिर्फ 26 साल रहा। 1961 में बीस दिनों में छोटे भाई सुनील और बड़े बेटे के निधन ने अनिल दा को भीतर से तोड़ दिया। वे मुंबई से दिल्ली चले गए और मृत्युपर्यंत साउथ एक्सटेंशन में रहे। यहाँ रहते हुए भी उन्होंने आकाशवाणी को अपनी सेवाएँ दीं और 'हम होंगे कामयाब एक दिन' जैसा कौमी तराना युवा पीढ़ी को दिया। इस गीत की शब्द रचना में उन्होंने कवि गिरिजाकुमार माथुर से सहयोग किया था। अनिल बिस्वास की पत्र-पत्रिका और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चर्चा 1994 में हुई, जब मध्य प्रदेश शासन के संस्कृति विभाग ने उन्हें लता मंगेशकर अलंकरण से सम्मानित किया। लता मंगेशकर अपने गायन के आरंभिक चरण में गायिका नूरजहाँ से प्रभावित थीं। अनिल दा ने लता को इस 'प्रेत बाधा' से मुक्ति दिलाकर शुद्ध-सात्विक लता मंगेशकर बनाया। अनिल दा के संगीत में लताजी के कुछ उम्दा गीतों की बानगी निम्नलिखित गीतों में सुनी जा सकती है-
- मन में किसी की प्रीत बसा ले (आराम)
- बदली तेरी नज़र तो नज़ारे बदल गए (बड़ी बहू)
- रूठ के तुम तो चल दिए (जलती निशानी)।[1]
लोकप्रियता
'आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है दूर हटो, दूर हटो, दूर हटो ऐ दुनिया वालो, हिन्दुस्तान हमारा है'।
भारत की आजादी के 4 साल पहले देशभक्ति का यह तराना गली-गली गूँजा था। बच्चे-बच्चे की जबान पर था। फ़िल्म किस्मत (1943) के इस गीत को बड़नगर (मध्य प्रदेश) के गीतकार कवि प्रदीप ने लिखा था और पूर्वी बंगाल के संगीतकार अनिल बिस्वास ने जोशीले संगीत से सँवारा था। इस गीत को सुनकर देशभक्तों की रगों में ख़ून की रफ्तार तेज हो जाती थी।[1]
संगीत के पितामह
हिंदी सिने संगीत के पितामह कहे जाने वाले दादा अनिल बिस्वास की सबसे बड़ी ख़ासियत थी उनका ज्ञान और उनका समर्पण। उन्होंने ऐसा कोई गाना नहीं बनाया जो उनकी मरज़ी के ख़िलाफ़ हो। अनिल बिस्वास की संगीत-यात्रा पर कुबेर दत्त की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक भी आई है। अनिल दा ही वो संगीतकार हैं जिन्होंने तलत महमूद को विश्वास दिलाया कि उनकी आवाज़ की लरजिश ही उनकी दौलत है। अनिल दा ही वो संगीतकार हैं जिन्होंने डांट-डपटकर कई प्रतिभाओं को संवारा और लता मंगेशकर भी उन्हीं प्रतिभाओं में से एक हैं। लता जी बड़े ही सम्मान के साथ अनिल बिस्वास का ज़िक्र करती हैं। स्वयं लताजी ने इस बात को स्वीकार किया है कि अनिल दा ने उन्हें समझाया कि गाते समय आवाज़ में परिवर्तन लाए बगैर श्वास कैसे लेना चाहिए।[1] यह आवाज़ तथा श्वास प्रक्रिया की योग कला है। अनिल दा उन्हें लतिके कहकर पुकारते थे। इसी तरह मुकेश को सहगल की आवाज़ के प्रभाव से मुक्त कराकर उसे मुकेशियाना शैली प्रदान करने में अनिल दा का हाथ है। तलत महमूद की मखमली आवाज़ पर अनिल दा फिदा थे। तलत की आवाज़ के कम्पन और मिठास को अनिल दा ने रेशम-सी आवाज़ कहा था। किशोर कुमार से फ़िल्म 'फरेब' (1953) में अनिल दा ने संजीदा गाना क्या गवाया, आगे चलकर इस शरारती तथा नटखट गायक के संजीदा गाने देव आनंद और राजेश खन्ना के प्लस-पाइंट हो गए।[3]
प्रतिभाओं की प्रतिस्पर्धा
अनिल बिस्वास के दौर में एक से बढ़कर एक संगीतकार रहे। इसका लाभ यह हुआ कि संगीतकारों की स्वस्थ स्पर्धा के चलते श्रोताओं को मधुर से मधुरतम गीत मिले। उस दौर में नरेन्द्र शर्मा, कवि प्रदीप, गोपालसिंह नेपाली, इंदीवर, डी.एन. मधोक जैसे गीतकार भी हुए, जिनके गीत कविता की तरह भावपूर्ण और सार्थक होते थे। नौशाद, रोशन, मदन मोहन, सचिन देव बर्मन, सज्जाद, ग़ुलाम हैदर, वसंत देसाई, हेमंत कुमार, शंकर-जयकिशन और खय्याम जैसे संगीतकारों के तालाब में अनिल दा सदैव कमल की भाँति रहते हुए सबका मार्गदर्शन करते रहे। सी. रामचंद्र अपने को अनिल दा का शिष्य मानते थे। ये तमाम संगीतकार एक-दूसरे की इज्जत करते हुए फ़िल्म-संगीत के खजाने में अपना विनम्र योगदान करते रहे।[1]
सम्मान और पुरस्कार
निधन
अनिल बिस्वास का दिल्ली में 31 मई, 2003 को निधन हो गया। वे 89 वर्ष के थे और कुछ समय से बीमार चल रहे थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 रूठ के तुम तो चल दिए.. (हिंदी) वेबदुनिया हिंदी। अभिगमन तिथि: 29 सितम्बर, 2013।
- ↑ अनिल बिस्वास नहीं रहे (हिंदी) बीबीसी हिंदी डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 29 सितम्बर, 2013।
- ↑ [shrota.blogspot.in/2008/09/80_26.html संगीतकार अनिल बिस्वास] (हिंदी) श्रोता (ब्लॉग़)। अभिगमन तिथि: 29 सितम्बर, 2013।