कृत्रिम जीन
कृत्रिम जीन मनुष्य के द्वारा प्रयोग शाला में तैयार किया गया जीन (जीन, डी. एन. ए.) [1] के उस खंड को कहते हैं, जिसमें अनुवंशिक कूट [2] की निहित होता है। जीन संसार का सबसे विचित्र रसायन है, जिसमें अपनी प्रकृति उत्पन्न करने के साथ-साथ जीवधारियों के शरीर में होने वाली अनेक क्रियाओं को आरंभ और नियंत्रित करने की भी क्षमता होती है। इस प्रकार जीन जीवन की इकाई भी है।
वैज्ञानिक कार्य
1970 में भारत के डॉ. हरगोविंद खुराना, वितोरियो गासमेला तथा हांस वांद सांदे, नार्वे के रवेल क्लेप के साथ मिलकर कृत्रिम उपायों से प्रयोग शाला में जीवन की इकाई जीन को बनाने में सफल हुए। प्रयोग शाला में जीन का विशलेषण एक जटील समस्या रही है। इस समस्या के समाधान के लिए ये, वैज्ञानिक अपना कार्य 1965 से ही कर रहे थे। जिनका जीवन से घनिष्ठतम संबंध है और जीवन के संबंध में हम आज तक भी ठीक-ठीक नहीं जान सके हैं। इतना ही मालूम हो पाया है, कि हर जीवित प्राणी का शरीर अत्यंत सूक्ष्म कोशिकाओं से बना है। कोशिकाओं में जीवद्रव्य नामक तरल पदार्थ पाये जाते है।[3]
प्रोटीन का महत्व
जीवद्रव्य का निर्माण मुख्य रूप से प्रोटीन से हुआ है। प्रोटीन शरीर के लिए अत्यावश्यक है। उसके अभाव में शरीर अपनी कई क्रियाएँ पूरी नहीं कर सकता है। प्रोटीन को बनाने वाले रसायनों में एमिनों अम्ल प्रमुख हैं।
क्रोमोजोम
कोशिकाओं के अंदर जीवद्रव्य के अतिरिक्त एक केंद्रक भी होता है। केंद्रक में अत्यंत सूक्ष्म रेशे जैसी वस्तु भी होती है, जिसे क्रोमोजोम कहते हैं। क्रोमोजोम का निर्माण प्रोटीन और एमिनो अम्ल से होता है, एमिनो अम्ल कई जीवित वस्तुओं को बनाने वाले अत्यंत महत्वपूर्ण अणु हैं। एमिनो अम्ल दो हैं-
- डिआक्सीराइबोन्यूक्लि अम्ल (डी. एन. ए.)
- राइबोन्यूक्लि अम्ल (आर. एन. ए.)
डिआक्सीराइबोन्यूक्लि अम्ल (डी. एन. ए.)
जीन का निर्माण डी. एन. ए. द्वारा होता है। कोशिका विभाजन के बाद जब नये जीव के जीवन का सूत्रपात होता है, तो यही जीन पैत्रिक एवं शारीरिक गुणों के साथ-साथ माता-पिता से निकलकर संततियों में चले जाते हैं। यह अदान-प्रदान माता-पिता के डिंब तथा पिता के शुक्राणु [4] में होता है।[3]
राइबोन्यूक्लि अम्ल (आर. एन. ए.)
डॉ. हरगोविंद खुराना और उनके सहयोगी प्रयोग शाला में ट्रांसफर आर. एन. ए. का संश्लेषण करके कृत्रिम जीन तैयार करने में सफल हुए। ट्रांसफर आर. एन. ए.का वास्तविक संश्लेषण करने के पूर्व 77 न्यूक्लिओटाइडों में से कुछ न्यूक्लिओटाइडो का अलग-अलग छोटे-छोटे अंशों का संश्लेषण किया गया। इसके लिए 3-5 फास्फाडाई ऐस्टर बंध का सफलतापूर्वक निर्माण किया गया। उसके बाद डी. एन. ए. के वलय में ऐसे अनेक अंशों को, जो एक दूसरे के पूरक, पर अंशंत: एक दूसरे पर हुए [5] की क्रियाएं कराई गई। डी. एन. ए. लाइगेज का प्रयोग करके दोनों वलयों के मेल खाने वाले भागों को बैक्टिरियाजन्य एंजाइम की सहायता से जोड़ दिया गया।
क्रिया
उपर्युक्त क्रिया में प्रयुक्त होने वाले एंजाइम में द्विवलयधारी डी. एन. ए. अणु के किसी भी एक वलय के रिक्त स्थान (ब्रेक) की पूर्ति करने की क्षमता होती है और यह द्विवलयधारी डी. एन. ए. के एक वलय की मरम्मत भी कर सकता है। इस प्रकार एक ऐसे डी. एन. ए. अणु के संश्लेषण में सफलता मिली जिसके दो वलयों में से प्रत्येक में 77 न्यूक्लिओटाइड थे। यह अणु एलानीन ट्रांसफर आर. एन. ए. की प्राकृतिक जीन के समान है। इस प्रकार संश्लेषित अणु (कृत्रिम जीन) के गुणों का परीक्षण करने पर उसमें न्यूक्लिओटाइडो का वही क्रम पाया गया जो यीस्ट की एलानीन ट्रांसफर आर. एन. ए. की प्राकृतिक जीन में मिलता है। साथ-साथ यह प्राकृतिक जीन की ही भांति उपयुक्त एंजाइमों नथा अन्य रसायनों की उपस्थिति में अपनी प्रतिकृति बनाने की क्षमता भी रखता है। इस प्रकार साधारण रासायनिक यौगिकों से जीन का संश्लेषण संभव हो सका।[3]
कृत्रिम जीन का निर्माण
प्रयोग शाला में कृत्रिम जीन का निर्माण हो जाने के बाद भी यह पता लगाना बाकीं है कि इस जीन को जीवित कोशिका में कैसे प्रविष्ट कराया जाए तथा प्रविष्ट होने के बाद इसकी प्रतिक्रिया अनुकूल होगी या नहीं? इन समस्याओं पर अभी अध्ययन और अनुसंधन हो रहा है, कोई निष्कर्ष नहीं प्राप्त हो सका है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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