कोंकण
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कोंकण भारत के पश्चिमी भाग में सह्य पर्वत और अरब सागर के बीच उस भूभाग की वह पतली पट्टी है जिसमें ठाणा, कोलाबा, रत्नागिरि, बंबई और उसके उपनगर, गोमांतक (गोवा) तथा उसके दक्षिण का कुछ अंश सम्मिलित है। यह भाग कोंकण कहलाता है। कोंकण का क्षेत्र फल 3,907 वर्गमील है।
इतिहास
प्राचीन काल में भड़ोच से दक्षिण का भूभाग अपरांत कहलाता था और उसी को कोंकण भी कहते थे। सातवीं शती ई. के ग्रंथ प्रपंचहृदय में कोंकण का कूपक, केरल, मूषक, आलूक, पशुकोंकण और परकोंकण के रूप में उल्लेख हुआ है। सह्याद्रि खंड में सात कोंकण कहे गए है- केरल, तुलंग, सौराष्ट्र, कोंकण, करहाट, कर्णाट और बर्बर। इससे ऐसा जान पड़ता है कि लाट से लेकर केरल तक की समस्त पट्टी कोंकण मानी जाती थी। चीनी यात्री युवानच्वांग के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता हे कि कोंकण से वनवासी, बेलगाव, धारवाड़, और घाटापलिकड का प्रदेश अभिप्रेत था। मध्यकाल में कोंकण के तीन भाग कहे जाते थे- तापी से लेकर बसई तक बर्बर, वहाँ से बाणकोट तक विराट और उसके आगे देवगढ़ तक किरात कहा जाता था। प्राचीन साहित्य में इसे अपरांत का उत्तरी भाग माना गया है। महाभारत[1] में अपरांत भूमि का सागर द्वारा परशुराम के लिए उत्सर्जित किये जाने का उल्लेख है। कोंकण का उल्लेख दशकुमारचरित के आठवें उच्छवास में है।[2]
नामकरण
इस प्रदेश के नामकरण के संबंध में लोगों में अनेक प्रकार के प्रवाद प्रचलित हैं। एक मत के अनुसार परशुराम की माता कुंकणा के नाम पर इस प्रदेश को कोंकण कहते हैं। इस क्षेत्र में जमदग्नि, परशुराम और रेणुका की मूर्ति कोंकण देव के नाम से पूजित हैं। कुछ लोग इसके मूल में चेर देश के कांग अथवा कोंगु को देखते है; कुछ इसका विकास तमिल भाषा से मानते है। वस्तुस्थिति जो भी हो, यह नाम ईसा पूर्व चौथी शती से ही प्रचलित चला आ रहा है। महाभारत, हरिवंश, विष्णु पुराण, वरामिहिरकृत बृहत्संहिता, कल्हण कृत राजरंगिणी एवं चालुक्य नरेशों के अभिलेखों में कोंकण का उल्लेख है। पेरिप्लस, प्लीनी टॉलेमी, स्टेबो, अलबेरूनी आदि विदेशों लेखकों ने भी इसकी चर्चा की है। उन दिनों यूनान, मिस्र, चीन आदि देश के लोग भी इस देश और इसके नाम से परिचित थे। बेबिलोन, रोम आदि के साथ इसका व्यापारिक संबंध था। भड़ोच, चाल, बनवासी, नवसारी, शूर्पारक, चंद्रपुर और कल्याण व्यापार के केंद्र थे।
कोंकण पर अधिकार
ईसा पूर्व की तीसरी-दूसरी शती में यह प्रदेश मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत था। पश्चात् इस प्रदेश पर सातवाहनों का अधिकार हुआ। चौथी-पाँचवी शती ई. में यह कलचुरि नरेशों के अधिकार में आया। छठीं शती ई. में यहाँ स्थानीय चालुक्यनरेश पुलकेशिन ने अपना अधिकार स्थापित किया। उसके आद लगभग साढ़े चार सौ वर्ष तक यह भूभाग सिलाहार नरेशों के अधिकार में रहा। 1260 ई. में देवगिरि नरेश महादेव ने इसे अपने राज्य में सम्मिलित किया। 1347 ई. में यादव नरेश नागरदेव को पराजित कर गुजरात सुलतान ने इस पर अपना अधिकार जमाया। जब 16वीं शती का पुर्तग़ालियों ने भारत में प्रवेश किया तो उन्होंने यहाँ के निवासियों का धर्मोन्मूलन कर ईसाई मत फैलाया। छत्रपति शिवाजी के समय जंजीरा को छोड़कर समूचा कोंकण उनके अधिकार में रहा, पश्चात् 1739 ई. तक पुर्तग़ालियों का इस पर एक छत्र अधिकार रहा। उस वर्ष चिमणजी अप्पा ने बसई के क़िले को जीत कर पुर्तग़ालियों की सत्ता नष्ट कर दी और कोंकण पर पेशवा की सत्ता स्थापित हुई, पश्चात् वह अंग्रेज़ों के अधिकार में चला गया।
कोंकण प्रदेश में अनेक बौद्ध एवं हिंदू लयण हैं। ठाणा ज़िले में कन्हेरी, कांदिब्त, जोगेश्वरी मंडपेश्वर, मागाठन, धारापुरी (एलिफैंटा) कोंडाणे आदि स्थानों के लयण काफ़ी प्रसिद्ध हैं।
भौगोलिक दृष्टि
भौगोलिक दृष्टि से इस भूभाग में 75 से 100 इंच तक वर्षा प्रति वर्ष होती है। समुद्र तटीय क्षेत्रों में नारियल के वृक्ष होते हैं और पश्चिमी घाट के ढाल वनों से आच्छादित है। इस प्रदेश में कोई बड़ी और महत्त्वपूर्ण नदी नहीं हैं। फिर भी यह क्षेत्र काफ़ी उपजाऊ है। धान, दाल, चारा, काफ़ी पैदा होती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व 49, 66-67
- ↑ माथुर, विजयेन्द्र कुमार ऐतिहासिक स्थानावली, द्वितीय संस्करण- 1990 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, पृष्ठ संख्या- 228।
बाहरी कड़ियाँ
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