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13:43, 13 अक्टूबर 2011 का अवतरण

  • इस खण्ड में आधिदैविक रूप से ॐकार की उपासना की जाती है; क्योंकि मधुर उद्गान प्राणी में प्राणों को संचार करता है।
  • इस प्रकार वह अन्धकार और सभी प्रकार के भय से प्राणी को मुक्त करने की चेष्टा करता है।
  • प्राण और सूर्य को वह समान मानता है।
  • अत: इस प्राण और उस सूर्य में ही ॐकार को मानकर उपासना करनी चाहिए।
  • उद्गाता जिस 'साम' के द्वारा उद्गीथ की उपासना करे, सदा उसी का चिन्तन भी करे।
  • जिस छन्द के द्वारा स्तुति करता हो, उस छन्द का चिन्तन करे।
  • जिन स्तोत्रों से स्तुति करता हो, उस स्तोत्रों का चिन्तन करे।
  • जिस दिशा का चिन्तन करता हो, उस दिशा का चिन्तन करे।
  • इस प्रकार अन्त में अपने आत्म-स्वरूप और कामना आदि का चिन्तन प्रमाद-रहित होकर करे। तभी उसे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है।


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