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अद्वैतवाद ([[संस्कृत]] शब्द, अर्थात एकत्ववाद या दो न होना), [[भारत]] के सनातन दर्शन [[वेदांत]] के सबसे प्रभावशाली मतों में से एक। इसके अनुयायी मानते है कि [[उपनिषद|उपनिषदों]] में इसके सिद्धांतों की पूरी अभिव्यक्ति है और यह वेदांत सूत्रों के द्वारा व्यस्थित है। जहाँ तक इसके उपलब्ध पाठ का प्रश्न है, इसका ऐतिहासिक आरंभ मांडूक उपनिषद पर [[छंद]] रूप में लिखित टीका मांडूक्य कारिका के लेखक गौड़पाद से जुड़ा हुआ है।
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'''अद्वैतवाद''' ([[संस्कृत]] शब्द, अर्थात 'एकत्ववाद' या 'दो न होना'), [[भारत]] के सनातन दर्शन [[वेदांत]] के सबसे प्रभावशाली मतों में से एक है। इसके अनुयायी मानते हैं कि [[उपनिषद|उपनिषदों]] में इसके सिद्धांतों की पूरी अभिव्यक्ति है और यह वेदांत सूत्रों के द्वारा व्यस्थित है। जहाँ तक इसके उपलब्ध पाठ का प्रश्न है, इसका ऐतिहासिक आरंभ [[मांडूक्योपनिषद|मांडूक उपनिषद]] पर [[छंद]] रूप में लिखित [[टीका]] 'मांडूक्य कारिका' के लेखक [[गौड़पाद]] से जुड़ा हुआ है।
==इतिहास==
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==स्थापना==
गौड़पाद सातवीं शताब्दी से पूर्व, शायद पहली पाँच शताब्दियों के कालखंड में कभी हुए थे। कहा जाता है कि उन्होंने [[बौद्ध|बौद्ध]] महायान के शून्यता दर्शन को अपना आधार बनाया था। उन्होंने तर्क दिया कि द्वैत है ही नहीं; [[मस्तिष्क]] जागृत अवस्था या स्वप्न में माया में ही विचरण करता है; और सिर्फ अद्वैत ही परम सत्य है। माया की अज्ञानता के कारण यह सत्य छिपा हुआ है। किसी वस्तु का स्वयं या किसी अन्य वस्तु से किसी वस्तु का अस्तित्व में आना है ही नहीं अंतत: कोई वैयक्तिक स्व या जीव नहीं है, केवल आत्मन या परमात्मा है, जिसमें जीव अस्थायी रूप से अंकित हो जाता है, बिल्कुल उसी तरह जैसे पूर्णाकाश का एक अंश किसी पात्र में भर जाता है और पात्र के टूटने पर वह वैयक्तिक आकाश फिर से पूर्णाकाश का अंश हो हाता है। मध्यकालीन दार्शनिक शंकर या [[शंकराचार्य]] (लगभग 700-750) ने गौड़पाद के सिद्धांतों के आधार पर मुख्यत: वेदांत सूत्रों पर अपनी टीका शारीरिक-मीमांसा-भाष्य में इस मत का विकास किया। शंकर ने तर्क दिया कि उपनिषद ब्रह्म (परम तत्त्व) की प्रकृति की शिक्षा देते है। और सिर्फ अद्वैत ब्रह्म ही परम सत्य है। शंकराचार्य के कई अनुयायियों ने उनकें कार्यों को जारी रखा और विस्तार प्रदान किया, जिनमें नौवीं शताब्दी के दार्शनिक वाचस्पति मिश्र उल्लेखनीय हैं। अद्वैत साहित्य बेहद विस्तृत है और [[हिन्दू]] विचारधारा में यह प्रमुख भूमिका अदा करता है।
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'अद्वैतवाद' विचारधारा की नीव गौड़पादाचार्य ने 215 कारीकायों (श्लोकों) से की थी। इनके शिष्य गोविन्दाचार्य हुए और उनके शिष्य [[दक्षिण भारत]] में जन्मे स्वामी शंकराचार्य हुए, जिन्होंने इन कारीकायों का भाष्य रचा था। यही विचार 'अद्वैतवाद' के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। स्वामी शंकराचार्य अत्यंत प्रखर बुद्धि के अद्वितीय विद्वान थे, जिन्होंने [[भारत]] में फैल रहे नास्तिक [[बौद्ध धर्म|बौद्ध]] और [[जैन धर्म|जैन मत]] को शास्त्रार्थ में परास्त कर [[वैदिक धर्म]] की रक्षा की। उनके प्रचार से भारत में नास्तिक मत तो समाप्त हो गया, पर 'मायावाद' अर्थात 'अद्वैतवाद' की स्थापना हो गयी।<ref>{{cite web |url= http://agniveerfan.wordpress.com/2011/10/19/adwait/|title= वेद और अद्वैतवाद|accessmonthday= 21 अगस्त|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=अग्निवीर फेन|language= हिन्दी}}</ref>
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====गौड़पाद द्वारा व्याख्या====
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गौड़पाद सातवीं [[शताब्दी]] से पूर्व, शायद पहली पाँच शताब्दियों के कालखंड में कभी हुए थे। कहा जाता है कि उन्होंने [[महायान|बौद्ध महायान]] के शून्यता दर्शन को अपना आधार बनाया था। उन्होंने तर्क दिया कि 'द्वैत' है ही नहीं; [[मस्तिष्क]] जागृत अवस्था या स्वप्न में माया में ही विचरण करता है; और सिर्फ 'अद्वैत' ही परम सत्य है। माया की अज्ञानता के कारण यह सत्य छिपा हुआ है। किसी वस्तु का स्वयं या किसी अन्य वस्तु से किसी वस्तु का अस्तित्व में आना है ही नहीं। अंतत: कोई वैयक्तिक स्व या जीव नहीं है, केवल आत्मन या परमात्मा है, जिसमें जीव अस्थायी रूप से अंकित हो जाता है, बिल्कुल उसी तरह जैसे पूर्णाकाश का एक अंश किसी पात्र में भर जाता है और पात्र के टूटने पर वह वैयक्तिक आकाश फिर से पूर्णाकाश का अंश हो हाता है।
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==शंकराचार्य का तर्क==
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मध्यकालीन दार्शनिक 'शंकर' या [[शंकराचार्य]] (लगभग 700-750) ने गौड़पाद के सिद्धांतों के आधार पर मुख्यत: वेदांत सूत्रों पर अपनी [[टीका]] 'शारीरिक-मीमांसा-भाष्य' में इस मत का विकास किया। शंकर ने तर्क दिया कि [[उपनिषद]] ब्रह्म (परम तत्त्व) की प्रकृति की शिक्षा देते है और सिर्फ अद्वैत ब्रह्म ही परम सत्य है। शंकराचार्य के कई अनुयायियों ने उनकें कार्यों को जारी रखा और विस्तार प्रदान किया, जिनमें नौवीं शताब्दी के दार्शनिक [[वाचस्पति मिश्र]] उल्लेखनीय हैं। अद्वैत साहित्य बेहद विस्तृत है और [[हिन्दू]] विचारधारा में यह प्रमुख भूमिका अदा करता है।
  
  
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05:51, 21 अगस्त 2014 का अवतरण

अद्वैतवाद (संस्कृत शब्द, अर्थात 'एकत्ववाद' या 'दो न होना'), भारत के सनातन दर्शन वेदांत के सबसे प्रभावशाली मतों में से एक है। इसके अनुयायी मानते हैं कि उपनिषदों में इसके सिद्धांतों की पूरी अभिव्यक्ति है और यह वेदांत सूत्रों के द्वारा व्यस्थित है। जहाँ तक इसके उपलब्ध पाठ का प्रश्न है, इसका ऐतिहासिक आरंभ मांडूक उपनिषद पर छंद रूप में लिखित टीका 'मांडूक्य कारिका' के लेखक गौड़पाद से जुड़ा हुआ है।

स्थापना

'अद्वैतवाद' विचारधारा की नीव गौड़पादाचार्य ने 215 कारीकायों (श्लोकों) से की थी। इनके शिष्य गोविन्दाचार्य हुए और उनके शिष्य दक्षिण भारत में जन्मे स्वामी शंकराचार्य हुए, जिन्होंने इन कारीकायों का भाष्य रचा था। यही विचार 'अद्वैतवाद' के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। स्वामी शंकराचार्य अत्यंत प्रखर बुद्धि के अद्वितीय विद्वान थे, जिन्होंने भारत में फैल रहे नास्तिक बौद्ध और जैन मत को शास्त्रार्थ में परास्त कर वैदिक धर्म की रक्षा की। उनके प्रचार से भारत में नास्तिक मत तो समाप्त हो गया, पर 'मायावाद' अर्थात 'अद्वैतवाद' की स्थापना हो गयी।[1]

गौड़पाद द्वारा व्याख्या

गौड़पाद सातवीं शताब्दी से पूर्व, शायद पहली पाँच शताब्दियों के कालखंड में कभी हुए थे। कहा जाता है कि उन्होंने बौद्ध महायान के शून्यता दर्शन को अपना आधार बनाया था। उन्होंने तर्क दिया कि 'द्वैत' है ही नहीं; मस्तिष्क जागृत अवस्था या स्वप्न में माया में ही विचरण करता है; और सिर्फ 'अद्वैत' ही परम सत्य है। माया की अज्ञानता के कारण यह सत्य छिपा हुआ है। किसी वस्तु का स्वयं या किसी अन्य वस्तु से किसी वस्तु का अस्तित्व में आना है ही नहीं। अंतत: कोई वैयक्तिक स्व या जीव नहीं है, केवल आत्मन या परमात्मा है, जिसमें जीव अस्थायी रूप से अंकित हो जाता है, बिल्कुल उसी तरह जैसे पूर्णाकाश का एक अंश किसी पात्र में भर जाता है और पात्र के टूटने पर वह वैयक्तिक आकाश फिर से पूर्णाकाश का अंश हो हाता है।

शंकराचार्य का तर्क

मध्यकालीन दार्शनिक 'शंकर' या शंकराचार्य (लगभग 700-750) ने गौड़पाद के सिद्धांतों के आधार पर मुख्यत: वेदांत सूत्रों पर अपनी टीका 'शारीरिक-मीमांसा-भाष्य' में इस मत का विकास किया। शंकर ने तर्क दिया कि उपनिषद ब्रह्म (परम तत्त्व) की प्रकृति की शिक्षा देते है और सिर्फ अद्वैत ब्रह्म ही परम सत्य है। शंकराचार्य के कई अनुयायियों ने उनकें कार्यों को जारी रखा और विस्तार प्रदान किया, जिनमें नौवीं शताब्दी के दार्शनिक वाचस्पति मिश्र उल्लेखनीय हैं। अद्वैत साहित्य बेहद विस्तृत है और हिन्दू विचारधारा में यह प्रमुख भूमिका अदा करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वेद और अद्वैतवाद (हिन्दी) अग्निवीर फेन। अभिगमन तिथि: 21 अगस्त, 2014।

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