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'''स्वामी रंगनाथनंद''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Ranganathananda'', जन्म- [[15 दिसंबर]], [[1908]]; मृत्यु- [[26 अप्रॅल]], [[2005]]) 'रामकृष्ण संघ' के एक [[हिन्दू]] संन्यासी थे। उनका पूर्व नाम 'शंकरन कुट्टी' था। वे [[रामकृष्ण मिशन]] के तेरहवीं संघ अध्यक्ष बने थे। [[कन्याकुमारी]] में विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माण के समय स्वामी रंगनाथनंद प्रारंभ से ही उसकी गतिविधियों से जुड़े रहे। शिला स्मारक के संस्थापक श्रीएकनाथ रानडे से उनकी बहुत घनिष्ठता थी। [[15 सितम्बर]], [[1970]] को [[प्रधानमंत्री]] [[इंदिरा गांधी]] 'विवेकानंद शिला स्मारक समिति' द्वारा आयोजित एक समारोह में आयीं। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वामी रंगनाथानंद ने ही की।
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स्वामी रंगनाथनन्द का जन्म [[केरल]] के त्रिकूर ग्राम में 15 दिसम्बर, 1908 को हुआ था। उनका नाम शंकरम् रखा गया था। आगे चलकर उन्होंने न केवल [[भारत]] अपितु विश्व के अनेक देशों में भ्रमण कर हिंदू चेतना एवं [[वेदांत]] के प्रति सार्थक दृष्टिकोण निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इससे उन्होंने अपने बचपन के शंकरम् नाम को सार्थक कर दिया।
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}}'''स्वामी रंगनाथानन्द''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Ranganathananda'', जन्म- [[15 दिसंबर]], [[1908]]; मृत्यु- [[26 अप्रॅल]], [[2005]]) 'रामकृष्ण संघ' के एक [[हिन्दू]] संन्यासी थे। उनका पूर्व नाम 'शंकरन कुट्टी' था। वे [[रामकृष्ण मिशन]] के तेरहवें संघ अध्यक्ष बने थे। [[कन्याकुमारी]] में विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माण के समय स्वामी रंगनाथानन्द प्रारंभ से ही उसकी गतिविधियों से जुड़े रहे। शिला स्मारक के संस्थापक श्रीएकनाथ रानडे से उनकी बहुत घनिष्ठता थी। [[15 सितम्बर]], [[1970]] को [[प्रधानमंत्री]] [[इंदिरा गांधी]] 'विवेकानंद शिला स्मारक समिति' द्वारा आयोजित एक समारोह में आयीं। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वामी रंगनाथानंद ने ही की।
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==परिचय==
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==विवेकानंद के गुरुभाई==
 
==विवेकानंद के गुरुभाई==
 
सन [[1926]] में वे [[मैसूर]] के रामकृष्ण मिशन से जुड़े। इसके बाद तो मिशन की गतिविधियों को ही उन्होंने अपने जीवन का एकमात्र कार्य बना लिया। [[रामकृष्ण परमहंस]] के प्रिय शिष्य, [[स्वामी विवेकानंद]] के गुरुभाई तथा मिशन के द्वितीय अध्यक्ष स्वामी शिवानंद ने उन्हें [[1933]] में संन्यास की दीक्षा दी। उन्होंने प्रारंभ में मैसूर और फिर [[बंगलौर]] में सफलतापूर्वक सेवाकार्य किये। इससे रामकृष्ण मिशन के काम में लगे संन्यासियों के मन में उनके प्रति प्रेम, आदर एवं श्रद्धा का भाव क्रमशः बढ़ने लगा।
 
सन [[1926]] में वे [[मैसूर]] के रामकृष्ण मिशन से जुड़े। इसके बाद तो मिशन की गतिविधियों को ही उन्होंने अपने जीवन का एकमात्र कार्य बना लिया। [[रामकृष्ण परमहंस]] के प्रिय शिष्य, [[स्वामी विवेकानंद]] के गुरुभाई तथा मिशन के द्वितीय अध्यक्ष स्वामी शिवानंद ने उन्हें [[1933]] में संन्यास की दीक्षा दी। उन्होंने प्रारंभ में मैसूर और फिर [[बंगलौर]] में सफलतापूर्वक सेवाकार्य किये। इससे रामकृष्ण मिशन के काम में लगे संन्यासियों के मन में उनके प्रति प्रेम, आदर एवं श्रद्धा का भाव क्रमशः बढ़ने लगा।
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सन [[1939]] से [[1942]] तक वे रामकृष्ण मिशन, [[रंगून]] ([[बर्मा]]) के अध्यक्ष और पुस्तकालय प्रमुख रहे। इसके बाद [[1948]] तक वे कराची में अध्यक्ष के नाते कार्यरत रहे। [[भाजपा]] नेता [[लालकृष्ण आडवाणी]] ने अपने जीवन पर उनके उपदेशों के प्रभाव को स्पष्टतः स्वीकार किया था। देश विभाजन के बाद [[1962]] तक उन्होंने [[दिल्ली]] और फिर [[1967]] तक [[कोलकाता]] में रामकृष्ण मिशन की गतिविधियों का संचालन किया। इसके बाद वे [[हैदराबाद]] भेज दिये गये। [[1989]] में उन्हें रामकृष्ण मिशन का उपाध्यक्ष तथा [[1998]] में अध्यक्ष चुना गया। [[भारत]] के सांस्कृतिक दूत के नाते वे विश्व के अनेक देशों में गये। सब स्थानों पर उन्होंने अपनी विद्यत्ता तथा भाषण शैली से वेदांत का प्रचार किया। उन्होंने कई पुस्तकें लिखी। उनके भाषणों के कैसेट भी बहुत लोकप्रिय थे।
 
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[[कन्याकुमारी]] में विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माण के समय वे प्रारंभ से ही उसकी गतिविधियों से जुड़े रहे। शिला स्मारक के संस्थापक श्रीएकनाथ रानडे से उनकी बहुत घनिष्ठता थी। [[15 सितम्बर]], [[1970]] को [[प्रधानमंत्री]] [[इंदिरा गांधी]] 'विवेकानंद शिला स्मारक समिति' द्वारा आयोजित एक समारोह में आयीं। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वामी रंगनाथानंद ने ही की। अपने अध्यक्षीय भाषण में स्वामी जी ने कन्याकुमारी और विवेकानंद शिला स्मारक को भारत के नये प्रतीक की संज्ञा दी। जब स्वामी विवेकानंद केंद्र ने अपने कार्य के द्वितीय चरण में पूर्वोत्तर भारत में शैक्षिक एवं सेवा की गतिविधियां प्रारंभ कीं, तो स्वामी रंगनाथनंद ने सुदीर्घ अनुभव से प्राप्त अनेक महत्वपूर्ण सुझाव दिये। उन्होंने विवेकानंद केंद्र को समय की मांग बताया। एकनाथ जी एवं विवेकानंद केंद्र के साथ जुड़े समर्पित युवक एवं युवतियों को देखकर उन्हें बहुत प्रसन्नता होती थी।
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[[कन्याकुमारी]] में विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माण के समय वे प्रारंभ से ही उसकी गतिविधियों से जुड़े रहे। शिला स्मारक के संस्थापक श्रीएकनाथ रानडे से उनकी बहुत घनिष्ठता थी। [[15 सितम्बर]], [[1970]] को [[प्रधानमंत्री]] [[इंदिरा गांधी]] 'विवेकानंद शिला स्मारक समिति' द्वारा आयोजित एक समारोह में आयीं। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वामी रंगनाथानंद ने ही की। अपने अध्यक्षीय भाषण में स्वामी जी ने कन्याकुमारी और विवेकानंद शिला स्मारक को भारत के नये प्रतीक की संज्ञा दी। जब स्वामी विवेकानंद केंद्र ने अपने कार्य के द्वितीय चरण में पूर्वोत्तर भारत में शैक्षिक एवं सेवा की गतिविधियां प्रारंभ कीं, तो स्वामी रंगनाथानन्द ने सुदीर्घ अनुभव से प्राप्त अनेक महत्वपूर्ण सुझाव दिये। उन्होंने विवेकानंद केंद्र को समय की मांग बताया। एकनाथ जी एवं विवेकानंद केंद्र के साथ जुड़े समर्पित युवक एवं युवतियों को देखकर उन्हें बहुत प्रसन्नता होती थी।
 
==आशावादी दृष्टिकोण==
 
==आशावादी दृष्टिकोण==
स्वामी रंगनाथनंद सदा आशावादी दृष्टिकोण अपनाते थे। एक निराश कार्यकर्ता को लिखे पत्र में उन्होंने कहा था- "यह एक दिन का कार्य नहीं है। पथ कण्टकाकीर्ण है, पर पार्थस्वामी हमारे भी सारथी बनने को तैयार हैं। उनके नाम पर और उनमें नित्य विश्वास रखकर हम [[भारत]] पर सदियों से पड़े दीनता के पर्वतों को भस्म कर देंगे। सैंकड़ों लोग संघर्ष के इस पथ पर गिरेंगे और सैकड़ों नये आरूढ़ होंगे। बढ़े चलो। पीछे मुड़कर मत देखो कि कौन गिर गया। ईश्वर ही हमारा सेनाध्यक्ष है। हम निश्चित ही सफल होंगे"।
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स्वामी रंगनाथानन्द सदा आशावादी दृष्टिकोण अपनाते थे। एक निराश कार्यकर्ता को लिखे पत्र में उन्होंने कहा था- "यह एक दिन का कार्य नहीं है। पथ कण्टकाकीर्ण है, पर पार्थस्वामी हमारे भी सारथी बनने को तैयार हैं। उनके नाम पर और उनमें नित्य विश्वास रखकर हम [[भारत]] पर सदियों से पड़े दीनता के पर्वतों को भस्म कर देंगे। सैंकड़ों लोग संघर्ष के इस पथ पर गिरेंगे और सैकड़ों नये आरूढ़ होंगे। बढ़े चलो। पीछे मुड़कर मत देखो कि कौन गिर गया। ईश्वर ही हमारा सेनाध्यक्ष है। हम निश्चित ही सफल होंगे"।
 
==मृत्यु==
 
==मृत्यु==
अपने शब्दों के अनुरूप कभी पीछे न देखने वाले संन्यासी योद्धा स्वामी रंगनाथनंद का देहांत [[26 अप्रैल]], [[2004]] को हृदयाघात से हुआ।
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अपने शब्दों के अनुरूप कभी पीछे न देखने वाले संन्यासी योद्धा स्वामी रंगनाथानन्द का देहांत [[26 अप्रैल]], [[2004]] को हृदयाघात से हुआ।
  
 
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05:46, 23 जनवरी 2022 के समय का अवतरण

स्वामी रंगनाथानन्द
स्वामी रंगनाथानन्द
पूरा नाम स्वामी रंगनाथानन्द
जन्म 15 दिसंबर, 1908
जन्म भूमि त्रिसुर, केरल
मृत्यु 26 अप्रॅल, 2005
मृत्यु स्थान बेलूर मठ, कोलकाता
कर्म भूमि भारत
प्रसिद्धि रामकृष्ण मिशन के तेरहवें संघ अध्यक्ष
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद
गुरु स्वामी शिवानन्द
दर्शन वेदान्त
अन्य जानकारी रामकृष्ण परमहंस के प्रिय शिष्य, स्वामी विवेकानंद के गुरुभाई तथा मिशन के द्वितीय अध्यक्ष स्वामी शिवानंद ने उन्हें 1933 में संन्यास की दीक्षा दी।

स्वामी रंगनाथानन्द (अंग्रेज़ी: Ranganathananda, जन्म- 15 दिसंबर, 1908; मृत्यु- 26 अप्रॅल, 2005) 'रामकृष्ण संघ' के एक हिन्दू संन्यासी थे। उनका पूर्व नाम 'शंकरन कुट्टी' था। वे रामकृष्ण मिशन के तेरहवें संघ अध्यक्ष बने थे। कन्याकुमारी में विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माण के समय स्वामी रंगनाथानन्द प्रारंभ से ही उसकी गतिविधियों से जुड़े रहे। शिला स्मारक के संस्थापक श्रीएकनाथ रानडे से उनकी बहुत घनिष्ठता थी। 15 सितम्बर, 1970 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी 'विवेकानंद शिला स्मारक समिति' द्वारा आयोजित एक समारोह में आयीं। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वामी रंगनाथानंद ने ही की।

परिचय

स्वामी रंगनाथनन्द का जन्म केरल के त्रिसूर ग्राम में 15 दिसम्बर, 1908 को हुआ था। उनका नाम शंकरम् रखा गया था। आगे चलकर उन्होंने न केवल भारत अपितु विश्व के अनेक देशों में भ्रमण कर हिंदू चेतना एवं वेदांत के प्रति सार्थक दृष्टिकोण निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इससे उन्होंने अपने बचपन के शंकरम् नाम को सार्थक कर दिया।

विवेकानंद के गुरुभाई

सन 1926 में वे मैसूर के रामकृष्ण मिशन से जुड़े। इसके बाद तो मिशन की गतिविधियों को ही उन्होंने अपने जीवन का एकमात्र कार्य बना लिया। रामकृष्ण परमहंस के प्रिय शिष्य, स्वामी विवेकानंद के गुरुभाई तथा मिशन के द्वितीय अध्यक्ष स्वामी शिवानंद ने उन्हें 1933 में संन्यास की दीक्षा दी। उन्होंने प्रारंभ में मैसूर और फिर बंगलौर में सफलतापूर्वक सेवाकार्य किये। इससे रामकृष्ण मिशन के काम में लगे संन्यासियों के मन में उनके प्रति प्रेम, आदर एवं श्रद्धा का भाव क्रमशः बढ़ने लगा।

मिशन प्रमुख

सन 1939 से 1942 तक वे रामकृष्ण मिशन, रंगून (बर्मा) के अध्यक्ष और पुस्तकालय प्रमुख रहे। इसके बाद 1948 तक वे कराची में अध्यक्ष के नाते कार्यरत रहे। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपने जीवन पर उनके उपदेशों के प्रभाव को स्पष्टतः स्वीकार किया था। देश विभाजन के बाद 1962 तक उन्होंने दिल्ली और फिर 1967 तक कोलकाता में रामकृष्ण मिशन की गतिविधियों का संचालन किया। इसके बाद वे हैदराबाद भेज दिये गये। 1989 में उन्हें रामकृष्ण मिशन का उपाध्यक्ष तथा 1998 में अध्यक्ष चुना गया। भारत के सांस्कृतिक दूत के नाते वे विश्व के अनेक देशों में गये। सब स्थानों पर उन्होंने अपनी विद्यत्ता तथा भाषण शैली से वेदांत का प्रचार किया। उन्होंने कई पुस्तकें लिखी। उनके भाषणों के कैसेट भी बहुत लोकप्रिय थे।

कन्याकुमारी में विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माण के समय वे प्रारंभ से ही उसकी गतिविधियों से जुड़े रहे। शिला स्मारक के संस्थापक श्रीएकनाथ रानडे से उनकी बहुत घनिष्ठता थी। 15 सितम्बर, 1970 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी 'विवेकानंद शिला स्मारक समिति' द्वारा आयोजित एक समारोह में आयीं। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वामी रंगनाथानंद ने ही की। अपने अध्यक्षीय भाषण में स्वामी जी ने कन्याकुमारी और विवेकानंद शिला स्मारक को भारत के नये प्रतीक की संज्ञा दी। जब स्वामी विवेकानंद केंद्र ने अपने कार्य के द्वितीय चरण में पूर्वोत्तर भारत में शैक्षिक एवं सेवा की गतिविधियां प्रारंभ कीं, तो स्वामी रंगनाथानन्द ने सुदीर्घ अनुभव से प्राप्त अनेक महत्वपूर्ण सुझाव दिये। उन्होंने विवेकानंद केंद्र को समय की मांग बताया। एकनाथ जी एवं विवेकानंद केंद्र के साथ जुड़े समर्पित युवक एवं युवतियों को देखकर उन्हें बहुत प्रसन्नता होती थी।

आशावादी दृष्टिकोण

स्वामी रंगनाथानन्द सदा आशावादी दृष्टिकोण अपनाते थे। एक निराश कार्यकर्ता को लिखे पत्र में उन्होंने कहा था- "यह एक दिन का कार्य नहीं है। पथ कण्टकाकीर्ण है, पर पार्थस्वामी हमारे भी सारथी बनने को तैयार हैं। उनके नाम पर और उनमें नित्य विश्वास रखकर हम भारत पर सदियों से पड़े दीनता के पर्वतों को भस्म कर देंगे। सैंकड़ों लोग संघर्ष के इस पथ पर गिरेंगे और सैकड़ों नये आरूढ़ होंगे। बढ़े चलो। पीछे मुड़कर मत देखो कि कौन गिर गया। ईश्वर ही हमारा सेनाध्यक्ष है। हम निश्चित ही सफल होंगे"।

मृत्यु

अपने शब्दों के अनुरूप कभी पीछे न देखने वाले संन्यासी योद्धा स्वामी रंगनाथानन्द का देहांत 26 अप्रैल, 2004 को हृदयाघात से हुआ।


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