हर सुबह को कोई दोपहर चाहिए,
मैं परिंदा हूं उड़ने को पर चाहिए।
मैंने मांगी दुआएँ, दुआएँ मिलीं,
उन दुआओं का मुझ पे असर चाहिए।
जिसमें रहकर सुकूं से गुजारा करूँ,
मुझको अहसास का ऐसा घर चाहिए।
ज़िंदगी चाहिए मुझको मान भरी,
चाहे कितनी भी हो मुख़्तासर, चाहिए।
लाख उसको अमल में न लाऊँ कभी,
शानोशौकत का समाँ मगर चाहिए।
जब मुसीबत पड़े और भारी पड़े,
तो कहीं एक तो चश्मेतर चाहिए।