आनंदवाद

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आनंदवाद उस विचारधारा का नाम है जिसमें आनंद को ही मानव जीवन का मूल लक्ष्य माना जाता है। विश्व की विचारधारा में आनंदवाद के दो रूप मिलते हैं। प्रथम विचार के अनुसार आनंद इस जीवन में मनुष्य का चरम लक्ष्य है और दूसरी धारा के अनुसार इस जीवन में कठोर नियमों का पालन करने पर ही भविष्य में मनुष्य को परम आनंद की प्राप्ति होती है।

प्रथम धारा का प्रधान प्रतिपादक ग्रीक दार्शनिक एपिक्यूरस (341-270 ई.पू.) था। उसके अनुसार इस जीवन में आनंद की प्राप्ति सभी चाहते हैं। व्यक्ति जन्म से ही आनंद चाहता है और दु:ख से दूर रहना चाहता है। सभी आनंद अच्छे हैं, सभी दु:ख बुरे हैं। किंतु मनुष्य न तो सभी आनंदों का उपभोग कर सकता है और न सभी दु:खों से दूर रह सकता है। कभी आनंद के बाद दु:ख मिलता है और कभी दु:ख के बाद आनंद। जिस कष्ट के बाद 'आनंद' मिलता है वह कष्ट उस आनंद से अच्छा है जिसके बाद दु:ख मिलता है। अत: आनंद को चुनने में सावधानी की आवश्यकता है। आनंद के भी कई भेद होते हैं जिनमें मानसिक आनंद शारीरिक आनंद से श्रेष्ठ है। आदर्श रूप में वही आनंद सर्वोच्च है जिसमें दु:ख का लेश भी न हो, किंतु समाज और राज्य द्वारा निर्धारित नियमों की अवहेलना करके जो आनंद प्राप्त होता है वह दु:ख से भी बुरा है, क्योंकि मनुष्य को उस अवहेलना का दंड भोगना पड़ता है। सदाचारी और निरपराध व्यक्ति ही अपनी मनोवृत्ति को संयमित करके आचरण के द्वारा उच्च आनंद प्राप्त कर सकता है। इस दृष्टि एपिक्यूरस का आनंदवाद विषयोपभोग की शिक्षा नहीं देता, अपितु आनंदप्राप्ति के लिए सद्गुणों को अत्यावश्यक मानता है। एपिक्यूरस का यह मत कालांतर में हेय दृष्टि से देखा जाने लगा क्योंकि इसके माननेवाले सद्गुणों की उपेक्षा करके विषयोपभोग को ही प्रधानता देने लगे। आधुनिक पाश्चात्य दर्शन में जान लाक (1632-1704), डेविड ह्यूम (1711-1776), बेंथम (1739-1832) तथा जान स्टुअर्ट मिल (1806-1873) इस विचारधारा के प्रबल समर्थकों में से थे। मिल की उपयोगितावाद के अनुसार वह आनंद जिससे अधिक से अधिक लोगों का अधिक से अधिक लाभ हो, सर्वश्रेष्ठ है। केवल परिमाण के अनुसार ही नहीं, अपितु गुण के अनुसार भी आनंद के कई भेद हैं। मूर्ख और विद्वान्‌ के आनंद में गुणगत भेद है, परिमाणगत नहीं। पापी का आनंद सद्गुणी के आनंद से हीन है अत: लोगों को सद्गुणी बनकर सच्चा आनंद प्राप्त करना चाहिए।

भारत में चार्र्वाक दर्शन ने परलोक, ईश्वर आदि का खंडन करते हुए इस संसार में ही उपलब्ध आनंद के पूर्ण उपभोग को प्राणिमात्र का कर्तव्य माना है। काम ही सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ है। सभी कर्तव्य काम की पूर्ति के लिए किए जाते हैं। वात्स्यायन ने धर्म और अर्थ को काम का सहायक माना है। इसका तात्पर्य यह है कि सामाजिक आचरणों के सामान्य नियमों (धर्म) का उल्लंघन करते हुए काम की तृप्ति करना ही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।

दूसरी विचारधारा के अनुसार संसार के नश्वर पदार्थों के उपभोग से उत्पन्न आनंद नाश्वान्‌ है। अत: प्राणी को अविनाशी आनंद की खोज करनी चाहिए। इसके लिए हमें इस संसार का त्याग करना पड़े तो वह भी स्वीकार होगा। उपनिषदों में सर्वप्रथम इस विचारधारा का प्रतिपादन मिलता है। मनुष्य की इंद्रियों को प्रिय लगनेवाला आनंद (प्रेय) अंत में दु:ख देता है। इसलिए उस आनंद की खोज करनी चाहिए जिसका परिणाम कल्याणकारी हो (श्रेय)। आनंद का मूल आत्मा मानी गई है और आत्मा को आनंदरूप कहा गया है। विद्वान्‌ संसार में भटकने की अपेक्षा अपने आप में स्थित आनंद को ढूँढ़ते हैं। आनंदावस्था जीव की पूर्णता है। अपनी शुद्ध आत्मा को प्राप्त करने के बाद आनंद अपने आप प्राप्त हो जाता है। उपनिषदों के दर्शन को आधार मानकर चलनेवाले सभी धार्मिक और दार्शनिक संप्रदायों में आनंद को आत्मा की चरम अभिव्यक्ति माना गया है। शंकर, रामानुज, मध्व, वल्लभ, निंबार्क, चैतन्य और तांत्रिक संप्रदाय तथा अरविंद दर्शन किसी न रूप में आनंद को आत्मा की पूर्णता का रूप मानते हैं।

बौद्ध दर्शन में संसार को दु:खमय माना गया है। दु:खमय संसार को त्यागकर निर्वाणपद प्राप्त करना प्रत्येक बौद्ध का लक्ष्य है। निर्वाणावस्था को आनंदावस्था और महासुख कहा गया है। जैन संप्रदाय में भी शरीर घोर कष्ष्ट देने के बाद नित्य 'ऊर्घ्व्गमन' करता हुआ असीम आनंदोपलब्धि करता है। पूर्वमीमांसा में सांसारिक आनंद को 'अनर्थ' कहकर तिरस्कृत किया गया है और उस धर्म के पालन का विधान है जो वेदों द्वारा विहित है और जिसका परिणाम आनंद है।[1]

अफ़लातून के अनुसार सद्गुणी जीवन पूर्णानंद का जीवन है, यद्यपि आनंद स्वयं व्यक्ति का ध्येय नहीं है। अरस्तू के अनुसार वे सभी कर्म जिनसे मनुष्य-मनुष्य बनता है, कर्तव्य के अंतर्गत आते हैं। इन्हीं कर्मों का परिणाम आनंद है। एडिमोनिज्म स्तोइक दर्शन में सांसारिक आनंद को आत्मा का रोग माना गया है। इस रोग से मुक्त रहकर सद्गुणों का निरपेक्ष भाव से सेवन करने पर आध्यात्मिक आनंद प्राप्त करना ही मनुष्य का सच्चा लक्ष्य है। नव्य अफ़लातूनी दर्शन में सांसारिक विषयों की अपेक्षा ईश्वर और जीव की अभेदावस्था से उत्पन्न आनंद को उच्च माना गया है। ईसाई दार्शनिक आगस्तिन (353-430) ने बड़े जोरदार शब्दों में ईश्वरसाक्षात्कार से उत्पन्न आनंद की तुलना में सांसारिक आनंद को मरे व्यक्ति का आनंद माना है। स्पिनोज़ा (1632-1677) ने कहा, 'नित्य और अनंत तत्व के प्रति जो प्रेम उत्पन्न होता है वह ऐसा आनंद प्रदान करता है जिसमें दु:ख का लेश भी नहीं है। इमानुएल कांट (1724-1804) का कहना है कि सर्वोत्तम श्रेय (गुड) इस संसार में नहीं प्राप्त हो सकता, क्योंकि यहाँ लोग अभाव और कामनाओं के शिकार होते हैं। आचार के अनुल्लंघनीय नियमों को (एथिकल इंपरेटिव) पहचानकर चलने पर मनुष्य अपनी इंद्रियों की भूख का दमन कर सकता है। मनुष्य की इच्छा स्वतंत्र है। उसका कुछ कर्तव्य है, अत: वह करता है। कर्तव्य-कर्तव्य के लिए है। कर्तव्य का अन्य कोई लक्ष्य नहीं है। निर्विकार भाव से कर्तव्यपथ पर चलनेवाले व्यक्ति को सच्चे आनंद की प्राप्ति होनी चाहिए, किंतु इस संसार में कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति को आनंद की प्राप्ति आवश्यक नहीं है। अत: कांट के अनुसार भी वास्तविक आनंद सांसारिक नहीं, कर्तव्यपालन से उत्पन्न पारमार्थिक आनंद ही पूर्ण आनंद है।[2] (रा.पां.)


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 374-75 |
  2. सं.ग्रं.-महाभारत, शांतिपर्व; उपनिषद्; शंकर, रामानुज, वल्लभ तथा निंबार्क के ग्रंथ; तंत्रालोक; माधव: सर्वदर्शनसंग्रह; अफ़लातून के 'लाज़' और 'रिपब्लिक'; जेलर: ग्रीक दर्शन; मिल: यूटिलिटेरियनिज्म।

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