शैव दर्शन
शैव दर्शन भारतीय दर्शनशास्त्र में अतिप्राचीन माना जाता है। इस दर्शन के अनुसार 36 तत्त्व माने गए हैं।
आंध्र के कालमुख शैव
वारंगल, 12वीं सदी में उत्कर्ष पर रहे आन्ध्र प्रदेश के काकतीयों की प्राचीन राजधानी था। वर्तमान शहर के दक्षिण–पूर्व में स्थित वारंगल दुर्ग कभी दो दीवारों से घिरा हुआ था, जिनमें भीतरी दीवार के पत्थर के द्वार (संचार) और बाहरी दीवार के अवशेष मौजूद हैं। 1162 ई. में निर्मित 1000 स्तम्भों वाला शिव मन्दिर शहर के भीतर ही स्थित है। कालमुख य अरध्य शैव के कवियों ने तेलुगु भाषाओं की अभूतपूर्व उन्नति कियी। शैव मत के अंतर्गत कालमुख सम्प्रदाय का यह उत्कर्ष काल था। वारंगल के संस्कृत कवियों में सर्वशास्त्र विशारद के लेखक वीरभल्लातदेशिक और नलकीर्तिकामुदी के रचयिता अगस्त्य के नाम उल्लेखनीय हैं। कहा जाता है कि अलंकारशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रतापरुद्रभूषण का लेखक विद्यनाथ यही अगस्त्य था। गणपति का हस्तिसेनापति जयप, नृत्यरत्नावली का रचयिता था। संस्कृत कवि शाकल्यमल्ल भी इसी का समकालीन था। तेलगु के कवियों में रंगनाथ रामायणुम का लेखक पलकुरिकी सोमनाथ मुख्य है। इसी समय भास्कर रामायणुम भी लिखी गई। वारंगल नरेश प्रतापरुद्र स्वयं भी तेलगु का अच्छा कवि था। आज के प्रसिद्ध तिरुपति मंदिर में जो मूर्ति है, वह मूर्ति वीरभद्र स्वामी की है। कहा जाता है कि कृष्ण देवराय के काल में रामानुज आचार्य ने इस मंदिर को वैष्णवीकरण किया और वीरभद्र की मूर्ति को बालाजी का नाम दिया गया।
कश्मीरी शैव सम्प्रदाय
वसुगुप्त को कश्मीर शैव दर्शन की परम्परा का प्रणेता माना जाता है। उन्होंने 9वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में कश्मीरी शैव सम्प्रदाय का गठन किया। इनके कल्लट और सोमानन्द दो प्रसिद्ध शिष्य थे। इनका दार्शनिक मत 'ईश्वराद्वयवाद' था। सोमानन्द ने "प्रत्यभिज्ञा मत" का प्रतिपादन किया। प्रतिभिज्ञा शब्द का तात्पर्य है कि साधक अपनी पूर्वज्ञात वस्तु को पुन: जान ले। इस अवस्था में साधक को अनिवर्चनीय आनन्दानुभूति होती है। वे अद्वैतभाव में द्वैतभाव और निर्गुण में भी सगुण की कल्पना कर लेते थे। उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिए कोरे ज्ञान और निरीभक्ति को असमर्थ बतलाया। दोनों का समन्वय ही मोक्ष प्राप्ति करा सकता है। यद्यपि शुद्ध भक्ति बिना द्वैतभाव के संभव नहीं है और द्वैतभाव अज्ञान मूलक है; किन्तु ज्ञान प्राप्त कर लेने पर जब द्वैत मूलक भाव की कल्पना कर ली जाती है, तब उससे किसी प्रकार की हानि की संभावना नहीं रहती। इस प्रकार इस सम्प्रदाय में कतिपय ऐसे भी साधक थे, जो योग-क्रिया द्वारा रहस्य का वास्तविक पता पाना चाहते थे, क्योंकि उनकी धारणा थी कि योग-क्रिया से हम माया के आवरण को समाप्त कर सकते हैं और इस दशा में ही मोक्ष की सिद्ध सम्भव है।
वीरशैव
वीरशैव वह परम्परा है, जिसमें भक्त शिव परम्परा से बंधा हो। यह दक्षिण भारत में बहुत लोकप्रिय हुई। ये वेदों पर आधारित धर्म है और भारत का तीसरा सबसे बड़ा शैव मत है। इसके अधिकांश उपासक कर्नाटक में हैं और भारत का दक्षिण राज्यों महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडु मे वीरशैव उपासक अधिकतम हैं। यह एकेश्वरवादी धर्म है। तमिल में इस धर्म को शिवाद्वैत धर्म अथवा लिंगायत धर्म भी कहते हैं। उत्तर भारत में इस धर्म का औपचारिक नाम शैवागम है। वीरशैव की सभ्यता को द्राविड सभ्यता कहते हैं। इतिहासकारों के अनुसार लगभग 1700 ईसापूर्व में वीरशैव अफ़ग़ानिस्तान, कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में बस गये। तभी से वे लोग अपने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये वैदिक संस्कृत में मन्त्र रचने लगे।
तमिल शैव
छठी से नवीं शताब्दी के मध्य तमिल देश में उल्लेखनीय शैव भक्तों का जन्म हुआ, जो कवि भी थे। सन्त तिरुमूलर शिवभक्त तथा प्रसिद्ध तमिल ग्रंथ तिरुमन्त्रम् के रचयिता थे। तमिल शैव सिद्धान्त यह एक महत्वपूर्ण दक्षिण भारतीय अनेकान्त यथार्थवादी समूह था। इसके अनुसार विश्व वास्तविक तथा आत्माएं अनेक हैं। यह आंदोलन अंशत: आदि शैव संतों की कविताओं तथा अंशतः नयनारों (7वीं से 10वी सदी के बीच) की उत्तम भक्ति पूर्ण कविताओं से विकसित हुआ। इस पंथ के मान्य ग्रंथों के चार वर्गों में 2 वेद, 28 आगम, 12 तिमुरई तथा 14 शैव सिद्धान्त शास्त्र शामिल हैं, यद्यपि वेदों का उच्च स्थान है। पर एक्यं शिव द्वारा अपने भक्तों के लिए वर्णित गोपनीय आगमों को अधिक महत्त्व दिया गया है। 13वीं तथा 14वीं सदी के आरम्भ में छ: आचार्य द्वारा सिद्धान्त शास्त्र रचे गए थे।
कापालिक शैव
कापालिक सम्प्रदाय महाव्रत सम्प्रदाय का ही नामान्तर प्रतीत होता है। यामुन मुनि के आगम प्रामाण्य, शिवपुराण तथा आगमपुराण में विभिन्न तान्त्रिक सम्प्रदायों के भेद दिखाय गये हैं। वाचस्पति मिश्र ने चार माहेश्वर सम्प्रदायों के नाम लिये हैं। यह प्रतीत होता है कि श्रीहर्ष ने नैषध[1] में समसिद्धान्त नाम से जिसका उल्लेख किया है, वह कापालिक सम्प्रदाय ही है। कापालिक नाम के उदय का कारण नर कपाल धारण करना बताया जाता है। वस्तुतः यह भी बहिरंग मत ही है। इसका अन्तरंग रहस्य प्रबोध-चन्द्रोदय की प्रकाश नाम की टीका में प्रकट किया गया है। तदनुसार इस सम्प्रदाय के साधक कपालस्थ अर्थात् ब्रह्मारन्ध्र उपलक्षित नरकपालस्थ अमृत या चान्द्रीपान करते थे। इस प्रकार के नामकरण का यही रहस्य है। इन लोगों की धारणा के अनुसार यह अमृतपान है, इसी से लोग महाव्रत की समाप्ति करते थे, यही व्रतपारणा थी। बौद्ध आचार्य हरिवर्मा और असंग के समय में भी कापालिकों के सम्प्रदाय विद्यमान थे। सरबरतन्त्र में 12 कापालिक गुरुओं और उनके 12 शिष्यों के नाम सहित वर्णन मिलते हैं। गुरुओं के नाम हैं- आदिनाथ, अनादि, काल, अमिताभ, कराल, विकराल आदि। शिष्यों के नाम हैं- नागार्जुन, जडभरत, हरिश्चन्द्र, चर्पट आदि। ये सब शिष्य तन्त्र के प्रवर्तक रहे हैं। पुराणादि में कापालिक मत के प्रवर्तक धनद या कुबेर का उल्लेख है।
लकुलीश सम्प्रदाय
वैदिक लकुलीश लिंग, रुद्राक्ष और भस्म धारण करते थे, तांत्रिक पाशुपत लिंगतप्त चिह्न और शूल धारण करते थे तथा मिश्र पाशुपत समान भावों से पंचदेवों की उपासना करते थे। मध्य काल के पूर्वार्द्ध में ( 6-10 शती) लकुलीश के पाशुपत मत और कापालिक संप्रदायों का पता चलता है। गुजरात में लकुलीश मत का बहुत पहले ही प्रादुर्भाव हो चुका था। पर पंडितों का मत है कि उसके तत्वज्ञान का विकास विक्रम की सातवीं-आठवीं शताब्दी में हुआ होगा। कालांतर में यह मत दक्षिण भारत और मध्य भारत में फैला। लकुलीश सम्प्रदाय या नकुलीश सम्प्रदाय के प्रवर्तक ‘लकुलीश’ माने जाते हैं। लकुलीश को स्वयं भगवान शिव का अवतार माना गया है। लकुलीश सिद्धांत पाशुपतों का ही एक विशिष्ट मत है। इसका उदय गुजरात में हुआ था। वहाँ इसके दार्शनिक साहित्य का सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ के पहले ही विकास हो चुका था। इसलिए उन लोगों ने शैव आगमों की नयी शिक्षाओं को नहीं माना। यह सम्प्रदाय छठी से नवीं शताब्दी के बीच मैसूर और राजस्थान में भी फैल चुका था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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