इंद्रजौ
इंद्रजौ या इंद्रयव एक फली के बीज का नाम है। संस्कृत, बँगला तथा गुजराती में भी बीज का यही नाम है। परंतु इस फली के पौधे को हिंदी में कोरैया या कुड़ची, संस्कृत में कुटज या कलिंग, बँगला और अंग्रेजी में कुड़ची तथा लैटिन में होलेरहेना एटिडिसेंटेरिका कहते हैं।
इसके पौधे चार फुट से 10 फुट तक ऊँचे तथा छाल आधे इंच तक मोटी होती है। पत्ते चार इंच से आठ इंच तक लंबे, शाखा पर आमने-सामने लगते हैं। फूल गुच्छेदार, श्वेत रंग के तथा फलियाँ एक से दो फुट तक लंबी और चौथाई इंच मोटी, इंच मोटी, दो-दो एक साथ जुड़ी, लाल रंग की होती हैं। इनके भीतर बीज कच्चे रहने पर हरे और पकने पर जौ के रंग के होते हैं। इनकी आकृति भी बहुत कुछ जौ की सी होती है, परंतु ये जौ से लगभग ड्योढ़े बड़े होते हैं।
इस पौधे की दो जातियाँ हैं-काली और श्वेत। ऊपर जिस पौधे का वर्णन किया गया है वह काली कोरैया और उसके बीज कड़वा इंद्रजौ कहलाते हैं। दूसरे प्रकार के पौधे को लैटिन में राइटिया टिंक्टोरिया तथा उसके बीज को हिंदी में मीठा इंद्रजौ कहते हैं। काला पौधा समस्त भारत में पाया जाता है।
काले पौधे की छाल, जड़ और बीज प्राचीन काल से अति उपयोगी ओषधि माने जाते हैं। छाल विशेष लाभदायक होती है। आयुर्वेदिक मतानुसार यह कड़वी, शुष्क, गरम और कृमिनाशक तथा रक्ततिसार, आमातिसार इत्यादि अतिसारों में बड़ी लाभदायक है। मरोड़ के दस्त के रोग में, जिसमें रक्त भी जाता है, इसे आशीर्वादस्वरूप कहा है। बवासीर के खून को भी बंद करती है। जूड़ी (मलेरिया), अँतरिया तथा मियादी बुखार में इसका सत्व, प्रमेह और कामला में शहद के साथ इसका स्वरस तथा प्रदर में इसका चूर्ण लोहभस्म के साथ देने का विधान है।
रासायनिक विश्लेषण से इसकी छाल में कोनेसीन, कुर्चीन और कुर्चिसीन नामक तीन उपक्षार (ऐल्कलॉएड) पाए गए है, जिनका प्रयोग ऐलोपैथिक उपचार में भी होता है।
आयुर्वेद के अनुसार इस पौधे की जड़ और बीज, अर्थात् इंद्रजौ में भी पूर्वोक्त गुण होते हैं। ये ग्राही होते हैं। ये ग्राही और शीतल तथा आँतों की ऐसी व्याधि में, जिसमें रक्त गिरने के साथ ज्वर भी रहता है, मठे के साथ अति लाभदायक कहे गए हैं। स्तंभन के साथ इनमें आँव के पाचन का भी गुण होता है।
इस जाति के श्वेत पौधे के फूलों में एक प्रकार की सुगंध होती है जो काले पौधे के फूलों में नहीं होती। श्वेत पौधें की छाल लाल रंग लिए बादामी तथा चिकनी होती है। फलियों के अंत में बालों का गुच्छा सा होता है। यह पौधा औषधि के काम में नहीं आता।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 500 |