उत्तरा बाओकर

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उत्तरा बाओकर
उत्तरा बाओकर
उत्तरा बाओकर
पूरा नाम उत्तरा बाओकर
जन्म 5 अगस्त, 1944; मृत्यु- 12 अप्रॅल, 2023
जन्म भूमि सांगली, महाराष्ट्र
मृत्यु 12 अप्रॅल, 2023
मृत्यु स्थान पुणे, महाराष्ट्र
कर्म भूमि भारती
कर्म-क्षेत्र अभिनय, रंगमंच
विद्यालय राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय
प्रसिद्धि टेलीविजन व रंगमंच अभिनेत्री
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख फ़िल्में
फ़िल्में 'तमस', 'एक दिन अचानक' आदि।
धारावहिक 'उड़ान', 'अंतराल', 'रिश्ते', 'कोरा कागज', 'नजराना', 'जस्सी जैसी कोई नहीं' और 'जब लव हुआ' आदि।
अन्य जानकारी सुरेखा सीकरी और मनोहर सिंह के साथ उत्तरा बाओकर ने हिंदी रंगमंच की एक जबरदस्त तिकड़ी बनाई थी। उनके अनुशासन के कायल रहे दिवंगत मनोहर सिंह बताते थे कि प्रस्तुति के एक घंटे पहले वह ध्यान लगाकर बैठ जाती थीं ताकि एकाग्रता ना भंग हो।

उत्तरा बाओकर (अंग्रेज़ी: Uttara Baokar, जन्म- 5 अगस्त, 1944; मृत्यु- 12 अप्रॅल, 2023) भारतीय रंगमंच, फिल्म और टेलीविजन अभिनेत्री थीं। गोविन्द निहलानी की फिल्म ‘तमस’ में अपने अभिनय के बाद उत्तरा बाओकर सुर्खियों में आई थीं। उन्होंने सुमित्रा भावे की फीचर फिल्मों में भी काम किया था। इसके अलावा उन्होंने 'उड़ान', 'अंतराल', 'रिश्ते', 'कोरा कागज', 'नजराना', 'जस्सी जैसी कोई नहीं' और 'जब लव हुआ' जैसे कई टीवी सीरियल्स में भी काम किया था। दरअसल, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में अभिनय की बारीकियां सीखने वालीं उत्तरा बाओकर ने ‘मुख्यमंत्री’ में पद्मावती, ‘मीना गुर्जरी’ में मीना, शेक्सपियर के ‘ओथेलो’ में डेसडेमोना और नाटककार गिरीश कर्नाड के नाटक ‘तुगलक’ में मां की भूमिका के अलावा विभिन्न लोकप्रिय नाटकों में यादगार किरदार निभाया था।

परिचय

उत्तरा बाओकर का जन्म 5 अगस्त, सन 1944 को महाराष्ट्र के सांगली जिले में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। नौकरी के सिलसिले में पिता के दिल्ली आने के कारण पूरे परिवार को दिल्ली आना पड़ा। सांगली अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिए भी जाना जाता है। वहीं की परंपरा का असर था कि उत्तरा संगीत का प्रशिक्षण लेकर मराठी रंगमंच के संगीत नाटक परंपरा का हिस्सा बनना चाहती थीं। उत्तरा बाओकर बताती थीं कि रानावि (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) के शुरूआती दिनों में वह अभिनय के नाम पर वही करती थीं जो निर्देशक उन्हें कहते थे और वह बिलकुल यांत्रिक होता था।[1]

शिक्षा

उत्तरा बाओकर 'राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय' (रानावि) से प्रशिक्षित होने वाली शुरूआती अभिनेत्रियों में से एक थी। 1965 में दिल्ली से स्नातक करने के बाद उन्होंने रानावि में प्रवेश लिया था। यह भी इत्तिफाक़न था। इब्राहिम अलकाजी को संस्कृत के एक सम्मेलन में संस्कृत नाटक की प्रस्तुति करनी थी। इसके लिए वह करोलबाग के एक समूह तक पहुंचे जो रेडियो के लिए संस्कृत में नाटक करता था। वेलिणकर साहब के द्वारा चलाए जाने वाले समूह के साथ उन्होंने कालिदास का ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ जिसमें प्रियंवदा की भूमिका करते हुए उत्तरा बाओकर को अपनी अभिनय क्षमता पर विश्वास हुआ। संगीत का प्रशिक्षण ले रही उत्तरा बाओकर की राह इसके बाद बदल गई और स्नातक करने के बाद उन्होंने रानावि में आवेदन कर दिया और दाखिला भी ले लिया।

अभिनय की शुरुआत

जॉन आसबर्न का नाटक ‘लुक बैक इन एंगर’ करते हुए निर्देशक अलकाजी ने तंग आकर उन्हें डांटा “उत्तरा नाउ गो फॉर योर ऑन।” इसके बाद उनके अभिनय की दिशा बदल गई। उन्होंने अपने अनुभव, प्रशिक्षण और तैयारी का इस्तेमाल किरदार का सुर पकड़ने में किया और एक के बाद एक यादगार भूमिकाएं निभाईं। रानावि से स्नातक करने के बाद उत्तरा बाओकर रंगमंडल का हिस्सा हो गई और 1968 से 1987 तक रंगमंडल में लंबे समय तक काम किया।

अध्यापक व सीरियल

रंगमंडल के बाद रानावि में उत्तरा बाओकर अध्यापक हो गई। आवाज पर अपनी पकड़ के हुनर को वह प्रशिक्षु अभिनेताओं को सौंपने लगी। स्पीच उनके अभिनय की खास बात थी। प्रशिक्षक होने का यह दौर ज्यादा दिनों तक नहीं चला और मुम्बई चली गईं, जहां टेलीविजन और सिनेमा में काम किया। जिसमें वह काम करना दिल्ली के दिनों में ही शुरू कर चुकी थीं। गोविन्द निहलानी की ‘तमस’ और मृणाल सेन की ‘एक दिन अचानक’ में उनकी भूमिका को सराहा भी गया था। मनोरंजन चैनलों की भरमार के बीच उन्होंने ‘उड़ान’, ‘कोरा कागज’, ‘जस्सी जैसी कोई नहीं’ जैसे धारावाहिकों में काम किया लेकिन टीवी की यांत्रिक होती चली जाती दुनिया उनको रास नहीं आई और उन्होंने टीवी से से भी किनारा कर लिया। पुणे में रहने के दौरान उन्होंने मराठी रंगमंच और मराठी फिल्मों में भी यादगार भूमिकाएं निभाईं।[1]

सोचने वाली अभिनेत्री

उत्तरा बाओकर एक सोचने वाली अभिनेत्री थीं और निर्देशकों के लिए चुनौती। उनके अभिनय प्रक्रिया को याद करते हुए उनके निर्देशक रहे एम.के. रैना लिखते हैं कि "वह काफी मुश्किल सवाल पूछा करती थी और कठोर व्याख्या करती थी। मेरे जवाबों के बाद वह शांति से अपने किरदार को कुरदेनी लगतीं और अपने प्रस्तुति की परिकल्पना करने लगती जो धीरे-धीरे जटिल परतों वाले किरदार के रूप में सामने आता। वह कम बोलती थीं लेकिन अपने अभिनय कौशल को सहजता से साकार कर देती थी। अनुशासन उनके लिए बहुत जरूरी था जिसमें दूसरों को ना पाकर वह कुढती भी थीं।"

सुरेखा सीकरी और मनोहर सिंह के साथ उन्होंने हिंदी रंगमंच की एक जबरदस्त अभिनय तिकड़ी बनाई थी। उनके अनुशासन के कायल रहे दिवंगत मनोहर सिंह बताते थे कि प्रस्तुति के एक घंटे पहले उत्तरा बाओकर ध्यान लगा कर बैठ जाती थी ताकि एकाग्रता ना भंग हो। वह इतनी सचेत अभिनेत्री थीं कि नाटकों से फिल्मों में अभिनय के लिए गईं तो अपने निर्देशकों से कहा कि वह लाउड हुआ करें तो उनको टोक दिया जाए।

विविध भूमिकाएँ

मंच पर उत्तरा बाओकर ने विविध शैलियों में अलग-अलग तरह की भूमिकाएं निभाईं- ‘थ्री पैनी ऑपेरा’ में पॉली, ‘ऑथेलो’ में डेस्डीमोना और एमेलिया, ‘तुग़लक’ में सौतेली मां, ‘लुक बैक इन एंगर’ में हेलेना, ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ में शीलवती, ‘बरनम वन’ में लेडी मैकबेथ, ‘जस्मा ओडन’ में जस्मा, ‘बेगम का तकिया’ में रौनक बेगम, मुख्यमंत्री में ‘पद्मावती’, स्कन्दगुप्त में ‘देवसेना’, आधे-अधूरे में ‘बिन्नी’, विरासत में ‘भाभी’ और उमराव में ‘उमराव जान’। उन्होंने निर्देशकों की कई पीढ़ियों के साथ काम किया और जयंत दलवी के नाटक ‘संध्या छाया’ का अनुवाद कर उसका निर्देशन भी किया।[1]

मृत्यु

अविवाहित रहने का फैसला करने वाली उत्तरा बाओकर मंच के किरदारों की तरह जीवन में भी काफी सशक्त रहीं। उन्नासी वर्ष की उत्तरा बाओकर के पुणे के एक हस्पताल में 13 अप्रॅल, 2023 को अंतिम सांस लेते ही भारतीय रंगमंच के एक युग का अवसान हो गया, जिसने हिंदी रंगमंच का समृद्ध दौर निर्मित किया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 ...वह एक सोचने वाली अभिनेत्री थीं (हिंदी) rangwimarsh.blogspot.com। अभिगमन तिथि: 22 मार्च, 2024।

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