कब्‍बन मिर्ज़ा

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कब्बन मिर्जा

कब्बन मिर्जा का नाम, जो हिंदी सिनेमा में दो मधुर गीत गाने के लिए जाना जाता है। वह लखनऊ के सीदी समाज से सम्बन्ध रखते थे। उनकी जड़ें अफ्रीका से थीं और उनके पूर्वजों को नवाबों द्वारा गुलाम के रूप में लखनऊ लाया गया था। लखनऊ में मोहर्रम उनके नौहा के बिना अधूरा था। मिर्जा कब्बन का परिचय एक रेडियो उद्घोषक के रूप में ही था। गीत संगीत तो उनके जीवन में था। इसलिए विविध भारती में शाम को एक आवाज गूंजती थी- छाया गीत सुनने वालों को कब्बन मिर्जा का आदाब। रेडियो के श्रोता इस आवाज के भी दीवाने थे। रेडियो की दुनिया में बृजमोहन, विनोद शर्मा, देवकीनंदन पांडे जैसे लोगों की आवाज़ फिल्म और विज्ञापनों के लिए तलाशी जाती रही, लेकिन कोई रेडियो उद्घोषक गायक के रूप में सफलता नहीं पा सका था।

परिचय

कब्बन मिर्जा का जन्म 1936 में लखनऊ के बाग शेरजंग क्षेत्र में हुआ था। कब्बन मिर्जा अस्‍सी के दशक के दौरान विविध भारती से रिटायर हुए। और फिर मुंबई के उपनगर मुंब्रा में रहते रहे। उनके एक (या शायद दोनों) बेटे अभी भी सऊदी अरब के एक मशहूर रेडियो स्‍टेशन से जुड़े हैं। इन्टरनेट पर उनका जन्म 1937-38 बताया गया है।

कैरियर

कब्‍बन मिर्जा का सम्बन्ध लखनऊ से था। वह 'विविधभारती' में उदघोषक नहीं बल्कि 'प्रोग्राम असिस्‍टेन्‍ट' थे। और आवाज़ खुरदुरी होने की वजह से प्रोग्राम भी करते थे। 'संगीत सरिता' कार्यक्रम से वो शुरूआत से जुड़े रहे थे। मुहर्रम में मर्सिए वग़ैरह भी वे गाते थे। 'विविध भारती' में उनका सबसे अहम योगदान रहा 'संगीत सरिता' का शुरूआती स्‍वरूप और उसे लोकप्रियता देना, जिसमें पहले किसी राग के बारे में बताया जाता, फिर उसका चलन, और फिर उस पर आधारित शास्‍त्रीय और फिल्‍मी रचना। ये क्‍लासिकल स्‍वरूप उन्‍हीं ने बनाया। बाद में इसे इंटरव्‍यू आधारित कर दिया गया।


पार्श्व गायन

'रज़िया सुल्तान' फ़िल्म दिल्ली की एकमात्र महिला सुल्तान रज़िया सुल्तान[1] के जीवन पर आधारित थी और इसमें शामिल है उनके ऐबिसिनियन ग़ुलाम जमालउद्दीन याकूत [2] के साथ प्रेम-सम्बन्ध। फ़िल्म में जमाल एक बहुत बड़ा सिपहसालार है, जो जब भी कभी वक़्त मिलता है, थोड़ा गा लेता है अपनी मस्ती में, पर वो कोई गायक नहीं है। ऐसे किरदार के पार्श्वगायन के लिए कमाल अमरोही ने ख़य्याम के सामने अपनी फ़रमाइश रख दी कि उन्हें ये दो ग़ज़लें किसी ऐसे गायक से गवानी है जो गायक नहीं है पर थोड़ा बहुत गा लेता है। पूरे भारत से 50 से भी ज़्यादा लोग आये और सब आवाज़ों में यह हुआ कि लगा कि वो सब मंझे हुए गायक हैं। किसी की भी आवाज़ में वह बात नज़र नहीं आयी जिसकी कमाल अमरोही को तलाश थी।

ऐसे ही कब्बन मिर्ज़ा भी आये। ख़य्याम, उनकी पत्नी और गायिका जगजीत कौर और कमाल अमरोही, तीनो ने उन्हें सुना। जब कब्बन मिर्ज़ा से यह पूछा गया कि उन्होंने कहाँ से गायन सीखा, तो उनका जवाब था कि उन्होंने कहीं से नहीं सीखा। किस तरह के गाने आप गा सकते हैं, पूछने पर कब्बन साहब लोकगीत सुनाते चले जा रहे थे। वह तीनों मुश्किल में पड़ गये क्योंकि उनको ज़रूरत थी एक ऐसे गायक की जो गायक न हो पर ग़ज़ल गा सके।

अत: कब्बन मिर्ज़ा भी रिजेक्ट हो गये। पर अगली सुबह कमाल साहब का ख़य्याम साहब को टेलीफ़ोन आया कि आप फ़्री हैं तो अभी आप तशरीफ़ लायें। नाश्ता उनके साथ हुआ। नाश्ता हुआ तो कमाल साहब कहने लगे कि रात भर मुझे नींद नहीं आई, यह जो आवाज़ है जो हमने कल सुनी कब्बन मिर्ज़ा की, यही वह आवाज़ है जिसकी तलाश मैं कर रहा था। ख़य्याम चौंक कर बोले, "कमाल साहब, लेकिन उनको गाना तो आता नहीं!" तो कमाल अमरोही ने ख़य्याम का हाथ पकड़ कर बोले, "ख़य्याम साहब, आप मेरे केवल संगीतकार ही नहीं हैं, आप तो मेरे दोस्त भी हैं। आपको मेरे लिए यह करना है, मुझे इन्ही की आवाज़ चाहिये।"

फिर क्या था, शुरू हुई कब्बन मिर्ज़ा की संगीत शिक्षा।मख़य्याम साहब ने उन्हे तीन-चार महीने स्वर और ताल का ज्ञान दिलवाया और उसके बाद गाने की रेकॉर्डिंग शुरू हुई। अक्सर यह होता है कि रेकॉर्डिंग के वक़्त संगीतकार रेकॉर्डिंग करवाता है अपने रेकॉर्डिस्ट से, और असिस्टैण्ट जो होते हैं वह ऑरकेस्ट्रा संभालते हैं। पर उस दिन क्योंकि कब्बन मिर्ज़ा नये थे, गा नहीं पा रहे थे, इसलिए ख़य्याम साहब ने जगजीत कौर को भेजा रेकॉर्डिंग पर, असिस्टैण्ट को भी अन्दर भेजा, और ख़ुद कंडक्ट किया। इस तरह से रेकॉर्ड हुआ कब्बन मिर्ज़ा का गाया तेरा हिज्र मेरा नसीब है...। "तेरा हिज्र मेरा नसीब है..." ग़ज़ल में कुछ ऐसी बात है कि जिसे एक बार सुनने के बाद एक और बार सुनने का मन होता है। कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ में एक ऐसा आकर्षण है कि जो सीधे दिल में उतर जाता है।

प्रसिद्धि

ख़य्याम साहब का दिव्य जादुई संगीत, दिल की सतह को छू लेने वाली बांसुरी और संतूर की शुरूआती धुन और फिर रबाब की तरंगें और इन वाद्य यंत्रों के बीच आती है दिल को झकझोर देने वाली क़ब्बन मिर्ज़ा की आवाज़। कब्बन साहब की अद्भुत, गरही और कड़क आवाज़ जिस गहराई से निकली, संगीत प्रेमियों के दिल में उसी गहराई तक पहुंची भी। गीत के बोल तेरा हिज्र मेरा नसीब है... एक भारी लेकिन असर छोड़ती आवाज। फिल्म तो नहीं चली। लेकिन कब्बन मिर्जा के गीत घर घर गूंजने लगे।

निधन

ऐसी मोहक आवाज़ के धनी कब्बन मिर्ज़ा गले के कैन्सर से ग्रस्त हो कर इस दुनिया से चल बसे। पर जैसा कि इस ग़ज़ल की दूसरी लाइन में कहा गया है कि "मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों, तू कहीं भी हो मेरे साथ है", वैसे ही कब्बन मिर्ज़ा ही भले इस दुनिया में नहीं हैं, पर उनकी गायी हुई 'रज़िया सुल्तान' की इन दो ग़ज़लों ने उनकी आवाज़ को अमर कर दिया है, जो हमेशा हमारे साथ रहेगी उन्हें गले का कैन्सर हो गया था पर उनकी मृत्यु के बारे में ठीक-ठीक कहीं कुछ लिखा नहीं गया है, पर कहीं कहीं 'Late Kabban Mirza' कह कर उल्लेख है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1205-1240
  2. धर्मेन्द्र द्वारा निभाया चरित्र)

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