कार्तिक
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विवरण | कार्तिक हिन्दू पंचांग के अनुसार वर्ष का आठवाँ माह है। यह समस्त तीर्थों तथा धार्मिक कृत्यों से भी पवित्र माना जाता है। |
अंग्रेज़ी | अक्टूबर-नवम्बर |
हिजरी माह | ज़िलहिज्ज - मुहर्रम |
व्रत एवं त्योहार | करवा चौथ, अक्षय नवमी, अहोई अष्टमी, दीपावली, गोवर्धन पूजा, यम द्वितीया (भैया दूज), देवोत्थान एकादशी, गोपाष्टमी |
पिछला | आश्विन |
अगला | मार्गशीर्ष |
विशेष | कार्तिक मास में वृंदा यानि तुलसी की पूजा का काफ़ी महत्त्व है। भगवान विष्णु तुलसी के हृदय में शालिग्राम के रूप में निवास करते हैं। स्वास्थ्य को समर्पित इस मास में तुलसी पूजा व तुलसी दल का प्रसाद ग्रहण करने से श्रेष्ठ स्वास्थ्य प्राप्त होता है। |
अन्य जानकारी | कार्तिक मास में समस्त त्यागने योग्य वस्तुओं में मांस विशेष रूप से त्याज्य है। श्रीदत्त के 'समयप्रदीप' [1] तथा कृत्यरत्नाकर [2] में उद्धृत महाभारत के अनुसार कार्तिक मास में मांसभक्षण, विशेष रूप से शुक्ल पक्ष में, त्याग देने से इसका पुण्य शत वर्ष तक के तपों के बराबर हो जाता है। |
अद्यतन | 12:24, 5 नवम्बर 2016 (IST)
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कार्तिक हिन्दू पंचांग के अनुसार वर्ष का आठवाँ माह है। यह माह बड़ा ही पवित्र माना जाता है। यह समस्त तीर्थों तथा धार्मिक कृत्यों से भी पवित्रतर है। इसका माहात्म्य स्कन्द पुराण [3], नारद पुराण[4], पद्म पुराण[5] में भी मिलता है। भारतीय संस्कृति में समय की गणना की पद्धति चंद्रमा की गति पर आधारित है, जबकि पाश्चात्य देशों में यही पद्धति सौर की गति से प्रभावित है। चूंकि चंद्रमा पृथ्वी के सबसे निकट स्थित एक आकाशीय पिंड है, इसलिए हमारे पूर्वजों ने इसे समय की गणना का सबसे सूक्ष्म साधन मान कर इसकी गति पर आधारित बारह मासों की रचना की। शास्त्रों में कहा गया है कि कार्तिक मास में मनुष्य की सभी आवश्यकताओं, जैसे- उत्तम स्वास्थ्य, पारिवारिक उन्नति, देव कृपा आदि का आध्यात्मिक समाधान बड़ी आसानी से हो जाता है।
- कार्तिक मास को दामोदर मास भी कहा जाता है। देखें दामोदर मास
मोक्ष का द्वार
कार्तिक मास को मनुष्य के मोक्ष का द्वार भी कहा गया है। 'मुमुक्ष' अर्थात् किसी आशा से ईश्वर की आराधना करने वाले मनुष्य की आकांक्षाएं जब ईश्वरीय कृपा से पूर्ण हो जाती हैं और उनका क्षय भी नहीं होता तो मनुष्य को सद्गति प्राप्त होती है। यही मोक्ष की वास्तविक अवस्था है। कार्तिक मास में ईश्वरीय आराधना से सभी कुछ प्राप्त करने की व्यापक संभावनाएं होती हैं। इस मास में स्वास्थ्य की प्राप्ति हेतु भगवान धन्वंतरी की आराधना का प्रावधान और यम को संतुष्ट कर पूर्ण आयु प्राप्त कर लेने की आध्यात्मिक व्यवस्था है। वहीं दूसरी ओर अमावस्या को देवी लक्ष्मी को प्रसन्न कर सम्पन्नता को प्राप्त करने का मार्ग भी है। साथ ही इसी मास की एकादशी को विगत चार माह से सोये देव भी जागृत हो जाते हैं और सभी पूर्व आराधनाओं का शाश्वत फल प्रदान करते हैं।
शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि कार्तिक में भगवान श्रीहरि की आराधना व उनका मंगल गान करने से वे चार माह की योग निद्रा से जागते हैं। चूंकि भगवान विष्णु मनुष्य के लिए सर्व कल्याणकारी देव हैं, इसीलिए उनके जागते ही सभी समस्याओं के समाधान का मार्ग खुल जाता है। इस मास में प्रत्येक घर की शक्ति अर्थात् लक्ष्मी स्वरूपा महिलाएँ यदि भगवान का दीप जला कर स्तुति करती हैं तो कार्तिक मास में पूरे परिवार की उन्नति और सांमजस्य का द्वार खुलता है। सभी को खुद की और अपने सम्बन्धी परिजनों से सम्बन्धित आवश्यकताएं और आकांक्षाएं होती हैं। ईश्वरीय आराधना में सकाम आराधना का भी अपना एक अलग महत्त्व है। ईश्वर के जागने के ठीक पहले धन्वंतरी का अवतरण दिवस धनतेरस, यम को समर्पित यम दीप दान, कृष्ण विजय की प्रतीक नरक चौदस और लक्ष्मी पूजन का दिन दीपावली मनाया जाता है।
आध्यात्मिक महत्त्व
कार्तिक पूर्णिमा का आध्यात्मिक महत्त्व है। इस दिन भगवान विष्णु का मत्स्यावतार हुआ था। स्पष्ट है कि जल में विचरण कर रहे मत्स्य की भांति मनुष्य को लचीलेपन और विपरीत से विपरीत परिस्थिति में स्वयं को विचलित न होने की प्रेरणा देने के लिए ही भगवान श्रीहरि ने यह रूप धारण किया था। कार्तिक मास की पूर्णिमा को ही भगवान शिव ने त्रिपुर नामक राक्षस का वध किया था और 'त्रिपुरारी' कहलाए। महादेव द्वारा त्रिपुर का वध संकेत है कि मनुष्य को तीन दोषों- काम, क्रोध व लोभ [6] का नाश करने के लिए हमेशा प्रयास करते रहना चाहिए। कार्तिक मास के लगभग बीस दिन मनुष्य को देव आराधना द्वारा स्वयं को पुष्ट करने के लिए प्रेरित करते हैं।
मास के पंचकर्म
कार्तिक मास में देव आराधना हेतु पांच आचरणों के पालन का बहुत महत्त्व बताया गया है। इन आचरणों के पालन से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं और जीवन में वास्तविक प्रगति की संभावनाएं प्रबल होती हैं।
- दीप दान - कार्तिक मास की पहले पंद्रह दिनों की रातें वर्ष की सबसे काली रातों में से होती हैं। लक्ष्मी पति के जागने के ठीक पूर्व के इन पंद्रह दिनों में प्रतिदिन दीप का प्रज्ज्वलन करने से जीवन में नई दिशा मिलती है।
- तुलसी पूजा - कार्तिक मास में वृंदा यानी तुलसी की पूजा का काफ़ी महत्त्व है। भगवान विष्णु तुलसी के हृदय में शालिग्राम के रूप में निवास करते हैं। स्वास्थ्य को समर्पित इस मास में तुलसी पूजा व तुलसी दल का प्रसाद ग्रहण करने से श्रेष्ठ स्वास्थ्य प्राप्त होता है।
- भूमि शयन - भूमि पर सोने से मनुष्य विलासिता में जीने की प्रवृत्ति से कुछ दिनों के लिए मुक्त होता है। इससे स्वास्थ्य लाभ होता है और शारीरिक व मानसिक विकार भी दूर होते हैं।
- ब्रह्म आचरण का पालन - ब्रह्म आचरण के पालन का अर्थ है, किसी भी ऐसे आचरण से दूर रहने के लिए स्वयं को प्रेरित करना, जिससे ईश्वरीय आकर्षण में कमी न आए।
- द्विदलन निषेध - कार्तिक मास में दालों का सेवन नहीं करना चाहिए। इस माह में सामान्य हल्के-फुल्के भोजन को उत्तम बताया गया है।
विशेष बिंदु
- कार्तिक मास में एक हज़ार बार यदि गंगा नदी में स्नान करें और माघ मास में सौ बार स्नान करें, वैशाख मास में नर्मदा में करोड़ बार स्नान करें तो उन स्नानों का जो फल होता है, वह फल प्रयाग में कुम्भ के समय पर स्नान करने से प्राप्त होता है। सम्पूर्ण कार्तिक मास में गृह से बाहर किसी नदी अथवा सरोवर में स्नान करना चाहिए।
- गायत्री मंत्र का जाप करते हुए हविष्यान्न केवल एक बार ग्रहण करना चाहिए।
- व्रती इस व्रत के आचरण से वर्ष भर के समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।[7]।
- कार्तिक मास में समस्त त्यागने योग्य वस्तुओं में मांस विशेष रूप से त्याज्य है। श्रीदत्त के 'समयप्रदीप' [8] तथा कृत्यरत्नाकर [9] में उद्धृत महाभारत के अनुसार कार्तिक मास में मांसभक्षण, विशेष रूप से शुक्ल पक्ष में, त्याग देने से इसका पुण्य शत वर्ष तक के तपों के बराबर हो जाता है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि भारत के समस्त महान् राजा, जिनमें ययाति, राम तथा नल का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, कार्तिक मास में मांस भक्षण नहीं करते थे। इसी कारण से उनको स्वर्ग की प्राप्ति हुई। नारद पुराण [10] के अनुसार कार्तिक मास में मांस खाने वाला चाण्डाल हो जाता है। [11]
- शिव, चण्डी, सूर्य तथा अन्यान्य देवों के मन्दिरों में कार्तिक मास में दीप जलाने तथा प्रकाश करने की बड़ी प्रशंसा की गयी है।
- समस्त कार्तिक मास में भगवान केशव का मुनि (अगस्त्य) पुष्पों से पूजन किया जाना चाहिए। ऐसा करने से अश्वमेध यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता है[12]।
- कार्तिक पूर्णिमा शरद ऋतु की अन्तिम तिथि है। जो बहुत ही पवित्र और पुण्यदायिनी मानी जाती है। इस अवसर पर कई स्थानों पर मेले लगते हैं।
- सोनपुर में हरिहर क्षेत्र का मेला तथा गढ़मुक्तेश्वर, मेरठ, बटेश्वर, आगरा, पुष्कर, अजमेर आदि के विशाल मेले इसी पर्व पर लगते हैं।
- ब्रजमण्डल और कृष्णोपासना से प्रभावित अन्य प्रदेशों में इस समय रासलीला होती है।
- इस तिथि पर किसी को भी बिना स्नान और दान के नहीं रहना चाहिए।
- स्नान पवित्र स्थान एवं पवित्र नदियों में करना चाहिए एवं दान अपनी शक्ति के अनुसार करना चाहिए। न केवल ब्राह्मण को अपितु निर्धन सम्बन्धियों, बहिन, बहिन के पुत्रों, पिता की बहिनों के पुत्रों, फूफा आदि को भी दान देना चाहिए।
- पुष्कर, कुरुक्षेत्र तथा वाराणसी के तीर्थ स्थान इस कार्तिकी स्नान और दान के लिए अति महत्त्वपूर्ण हैं।
- कार्तिकेय व्रत कार्तिक माह की षष्ठी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। स्वामी कार्तिकेय इसके देवता हैं।[13]
आधुनिक काल में वर्ष गणना
- आधुनिक काल में वर्ष का आरम्भ भारत के विभिन्न भागों में कार्तिक या चैत्र मास में होता है। प्राचीन कालों में विभिन्न देशों में विभिन्न उपयोगों के लिए विभिन्न मासों में वर्ष का आरम्भ होता था। कुछ वैदिक वचनों से प्रकट होता है कि गणना पूर्णिमान्त थी और वर्ष फाल्गुन पूर्णिमा के उपरान्त आरम्भ होता था और बसन्त वर्ष की प्रथम ऋतु था[14]
- कालनिर्णय[15] में माधव ने कहा है कि वेद पूर्णिमान्त मास पर आरूढ़ हैं।
- स्मृतिचन्द्रिका[16] का कथन है कि दक्षिणापथ में अमान्त एवं उत्तरापथ (उत्तर भारत) में पूर्णिमान्त गणना होती है।
- वेदांगज्योतिष[17] के मत से युग (पाँच वर्ष) का प्रथम वर्ष माघ शुक्ल (मकर संक्रांति या उत्तरायण) से आरम्भ होता है।
- अल्बरूनी[18] का उल्लेख है कि चैत्र, भाद्रपद, कार्तिक, मार्गशीर्ष से भारत के विभिन्न भागों में वर्ष का आरम्भ होता है।
- कौटिल्य[19] ने कहा है कि प्रशासन के आय-व्यय-निरीक्षण-कार्यालय में कर्म संवत्सर चान्द्र था जो आषाढ़ की पूर्णिमा को समाप्त होता था।
- महाभारत, वनपर्व[20] में वर्ष के चैत्रारम्भ का उल्लेख है। यह सम्भव है कि वर्ष मार्गशीर्ष से आरम्भ होता था, क्योंकि अनुशासन,[21] ने मार्गशीर्ष से कार्तिक तक के एक भक्त व्रत के फलों का वर्णन किया है।
- कृत्यरत्नाकर[22] ने ब्रह्म पुराण को उद्धृत कर लिखा है कि कृतयुग में मार्गशीर्ष की प्रतिपदा से वर्ष आरम्भ होता था।[23]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ समयप्रदीप (46
- ↑ कृत्यरत्नाकर(पृ. 397-399
- ↑ स्कन्द पुराण के वैष्णव खण्ड का नवम अध्याय
- ↑ नारद पुराण (उत्तरार्ध) अध्याय 22;
- ↑ पद्म पुराण 4.92
- ↑ जो वात, पित्त और कफ से उत्पन्न होते हैं
- ↑ विष्णुधर्मोत्तर, 81, 1-4; कृत्यकल्पतरु, 418 द्वारा अदघृत; हेमाद्रि, 2.762
- ↑ समयप्रदीप (46
- ↑ कृत्यरत्नाकर(पृ. 397-399
- ↑ नारद पुराण (उत्तरार्ध, 21-58
- ↑ 'बकपंचक'
- ↑ तिथितत्त्व 147
- ↑ हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.605; व्रतकालविवेक, पृष्ठ 24
- ↑ तैत्तिरीय ब्राह्मण 1|1|2|13; कौषीतकि ब्राह्मण 5|1; शांखायन ब्राह्मण 19|3; ताण्ड्य ब्राह्मण 5|9|7-12 आदि)।
- ↑ कालनिर्णय पृ. 61
- ↑ स्मृतिचन्द्रिका श्राद्ध, पृ. 377
- ↑ वेदांगज्योतिष 1|5
- ↑ सचौ 2, पृ. 8-9
- ↑ कौटिल्य, अर्थशास्त्र 2|6, पृ. 63
- ↑ महाभारत, वनपर्व130|14-16
- ↑ महाभारत। अनुशासन, 106|17-30
- ↑ कृत्यरत्नाकर पृ. 452
- ↑ पुस्तक- धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-4|लेखक- पांडुरंग वामन काणे | पृष्ठ संख्या- 321
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