क्रमांक
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शिलालेख
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अनुवाद
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1.
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अढवषाभिंसितस देवन प्रिअस प्रिअद्रशिस रञो कलिग विजित [।] दिअढमत्रे प्रणशतमहस्त्रे ये ततो अपवुढे शतसहस्त्रमत्रे तत्र हते बहुतवतके व मुटे[।]
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आठ वर्षों से अभिषिक्त देवों के प्रियदर्शी राजा से कलिंग विजित हुआ। डेढ़ लाख प्राणी यहाँ से बाहर ले जाये गये (कैद कर लिये गये), सौ हज़ार (एक लाख) वहाँ आहत (घायल) हुए; [और] उससे [भी] बहुत अधिक संख्या में मरे।
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2.
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ततो पच अधुन लधेषु कलिगेषु तिव्रे ध्र्मशिलनं ध्रमकमत ध्रमनुशस्ति च देवनं प्रियसर [।] सो अस्ति अनुसोचन देवनं प्रियस विजिनिति कलिगनि [।]
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अत्पश्चात् अब कलिंग के उपलब्ध होने पर देवों के प्रिय का धर्मवाय (धर्मपालन), धर्मकामता (धर्म की इच्छा) और धर्मानुशासन तीव्र हुए। सो कलिंग के विजेता देवों के प्रिय को अनुशय (अनुशोचन; पछतावा) है।
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3.
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अविजितं हि विजिनमनो यो तत्र वध न मरणं व अपवहों व जनस तं बढं वेदनियमंत गुरुमतं च देवनं प्रियस [।] इदं पि चु ततो गुरुमततरं देवनं प्रियस [।] व तत्र हि
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क्योंकि [मैं] विजित [देश] को अविजित ही मानता हूँ; यदि वहाँ जन (मनुष्यों) का वध, मरण वा अपवाह (कैद कर ले जाना) होता है। यह (वध आदि) देवों के प्रिय से अत्यंत वेदनीय (दु:खदायी) और गुरु (भारी) माना गया है। यह वध आदि देवों के प्रिय द्वारा उससे भी अधिक भारी माना गया है।
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4.
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वसति ब्रमण व श्रमण व अंञे व प्रषंड ग्रहथ व येसु विहित एष अग्रभुटि-सुश्रुष मतपितुषु सुश्रुष गुरुनं सुश्रुष मित्रसंस्तुतसहयञतिकेषु दसभटकनं संमप्रतिपति द्रिढभतित तेषं तत्र भोति अपग्रथों व वधों व अभिरतन व निक्रमणं [।] येषं व संविहितनं [सि] नहो अविप्रहिनों ए तेष मित्रसंस्तुतसहञतिक वसन
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[क्योंकि] वहाँ ब्राह्मण, श्रमण,दूसरे पाषण्ड (पंथवाले) और गृहस्थ बसते हैं, जिसमें ये विहित (प्रतिष्ठित) हैं- सबसे पहले (आगे) भरण [पोषण], माता-पिता की शुश्रूषा; मित्रों, प्रशंसितों (या परिचितों), सहायकों [तथा] सम्बन्धियों के प्रति [एवं] दासों और वेतनभोगी नौकरों के प्रति सम्यक बर्ताव [तथा] दृढ़भक्ति। उनका (ऐसे लोगों का) वहाँ उपघात (अपघात) का वध अथवा सुख से रहते हुओं का विनिष्क्रमण (निष्क्रमण, देअशनिकाला) होता है। अथवा जिन व्यवस्थित [लोगों] का स्नेह अक्षुण्ण है, उनके मित्र, प्रशंसित (या परिचित), सहायकों और सम्बन्धियों को व्यसन (दु:ख) की प्राप्ति होती है।
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5.
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प्रपुणति तत्र तं पि तेष वो अपघ्रथो भोति [।] प्रतिभंग च एतं सव्रं मनुशनं गुरुमतं च देवनं प्रियस [।] नस्ति च एकतरे पि प्रषंअडस्पि न नम प्रसदो [।] सो यमत्रो जनो तद कलिगे हतो च मुटो च अपवुढ च ततो
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[इसलिए] वहाँ उनका (मित्रादि का भी) [अक्षुण्ण स्नेह के कारण] उपघात हो जाता है। यह दशा सब मनुष्यों की है; पर देवों के प्रिय द्वारा अधिक भारी (दु:खद) मानी गयी है। ऐसा [कोई] भी जनपद नहीं है, जहाँ ब्राह्मणों और श्रमणों के वर्ग न हों। कहीं भी जनपद [ऐसा स्थान] नहीं है, जहाँ मनुष्यों का किसी न किसी पाषण्ड (पंथ) में प्रसाद (प्रीति, स्थिति) न हो। सो तब (उस समय) कलिंग के उपलब्ध होने पर जितने जन मनुष्य मारे गये, मर गये और बाहर निकाले गये, उनमें से
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6.
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शतभगे व सहस्त्रभगं व अज गुरुमतं वो देवनं प्रियस [।] यो पि च अपकरेयति छमितवियमते वे देवनं प्रियस यं शकों छमनये [।] य पि च अटवि देवनं प्रियस विजिते भोति त पि अनुनेति अपुनिझपेति [।] अनुतपे पि च प्रभवे
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सौवाँ भाग वा हजारवाँ भाग भी [यदि आहत होता, मारा जाता या निकाला जाता तो] आज देवों के प्रिय से भारी (खेदजनक) माना जाता। जो भी अपकार करता है, [वह भी] देवों के प्रिय द्वारा क्षंतव्य माना गया है यदि [वह] क्षमा किया जा सके। जो भी अटवियों (वन्य प्रदेशों) [के निवासी] देवों के प्रिय के विजित (राज्य) में है, उन्हें भी [वह] शांत करता है और ध्यानदीक्षित कराता है। अनुताप (पछतावा) होने पर भी देवों के प्रिय का प्रभाव उन्हें कहा [बताया] जाता है, जिसमें [वे अपने दुष्कर्मों पर] लज्जित हो और न मारे जायँ।
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7.
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देवनं प्रियस वुचति तेष किति अवत्रपेयु न च हंञेयसु [।] इछति हि देवनं प्रियों अव्रभुतन अछति संयमं समचरियं रभसिये [।] एषे च मुखमुते विजये देवन प्रियस यो ध्रमविजयों [।] सो चन पुन लधो देवनं प्रियस इह च अंतेषु
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देवों का प्रिय भूतों (प्राणियों) की अक्षति, संयम समचर्या और मोदवृत्ति (मोद) की इच्छा करता है। जो धर्मविजय है, वहीं देवों के प्रिय द्वारा मुख्य विजय मानी गयी है। पुन: देवों के प्रिय की वह [धर्मविजय] यहा [अपने राज्य में] और सब अंतों (सीमांतस्थित राज्यों) में उपलब्ध हुई है।
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8.
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अषपु पि योजन शतेषु यत्र अंतियोको नम योरज परं च तेन अंतियोकेत चतुरे 4 रजनि तुरमये नम अंतिकिनि नम मक नम अलिकसुदरो नम निज चोड पण्ड अब तम्बपंनिय [।] एवमेव हिद रज विषवस्पि योन-कंबोयेषु नभक नभितिन
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[वह धर्मविजय] छ: सौ योजनों तक, जहाँ अंतियोक नामक यवनराज है और उस अंतियोक से परे चार राजा-तुरमय (तुलमय), अंतिकिनी, मक (मग) और अलिकसुन्दर नामक हैं, और नीचे (दक्षिण में) चोड़ पाण्डय एवं ताम्रपर्णियों (ताम्रपर्णीवालों) तक [उपलब्ध हुई है] ऐसे ही यहाँ राजा के विषय (राज्य) में यवनों [और] कांबोजों में, नाभक और नाभपंति (नभिति) में,
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9.
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भोज-पितिनिकेषु अन्ध्रपलिदेषु सवत्र देवनं प्रियस ध्रुमनुशस्ति अनुवटंति [।] यत्र पि देवन प्रियस दुत न व्रंचंति ते पि श्रुतु देवनं प्रियस ध्रमवुटं विधेन ध्रुमनुशास्ति ध्रुमं अनुविधियंति अनुविधियशांति च [।] यो च लधे एतकेन भोति सवत्र विजयों सवत्र पुन
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भोजों [और] पितिनिकों में [तथा] आंध्रो [और] पुलिन्दों में सर्वत्र देवों के प्रिय धर्मानुशासन का [लोग] अनुवर्तन (अनुसरण) करते हैं। जहाँ देवों के प्रिय दूत न भी जाते हैं, वे भी देवों के प्रिय के धर्मवृत्त को, अनुविधान (आचरण) करते हैं और अनुविधान (आचरण) करेंगे।
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10.
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विजयो प्रतिरसो सो [।] लध भोति प्रति ध्रमविजयस्पि [।] लहुक तु खो स प्रित [।] परत्रिकेव महफल मेञति देवन प्रियो [।] एतये च अठये अयो ध्रमदिपि दि पस्त[।] किति पुत्र पपोत्र मे असु नवं विजयं म विजेतविक मञिषु [।] स्पकस्पि यो विजये छंति च लहुदण्डतं च रोचेतु [।] तं एवं विज [यं] मञ [तु]
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अब तक जो विजय उपलब्ध हुई है, वह विजय सर्वत्र प्रीतिरसवाली है। वह प्रीति धर्मविजय में गाढ़ी हो जाती है। किंतु वह प्रीति निश्चय ही लघुतापूर्ण (क्षुद्र, हलकी) है। देवों का प्रिय पारत्रिक (पारलौकिक) [प्रीति आनन्द] को महाफलवाला मानता है। इस अर्थ (प्रयोजन) के लिए यह धर्मलिपि लिखायी गयी, जिसमें [जो] मेरे पुत्र [और] प्रपौत्र हों, [वे] नवीन विजय को प्राप्त करने योग्य भी मानें। स्वरस (अपनी खुशी) से प्राप्त विजय में [वे] शांति और लघुदण्डता को पसन्द करे तथा उसको ही विजय माने, जो धर्मविजय हैं।
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11.
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यो ध्रुमविजयो [।] सो हिदलोकिको परलोकिको [।] सव्र च निरति भोतु य स्त्रमरति [।] स हि हिदलोकिक परलोकिक [।]
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वह [धर्मविजय] इहलौकिक [और] पारलौकिक [फल देनेवाली है] जो धर्मरति (उद्यमरति) उद्यम से उत्पन्न आनन्द है [है, वही] सब [प्रकार का] आनन्द हो (माना जाये), क्योंकि वह (धर्म या उद्यम का आनन्द इहलौकिक और पारलौकिक) [फल देनेवाला है]।
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