गुजरात (आज़ादी से पूर्व)
गुजरात के शासक राजा कर्ण[1] को पराजित कर अलाउद्दीन ने 1297 ई. में इसे दिल्ली सल्तनत के अन्तर्गत कर लिया। 1391 ई. में मुहम्मदशाह तुग़लक़ द्वारा नियुक्त गुजरात के सूबेदार जफ़र ख़ाँ ने दिल्ली सल्तनत की अधीनता को त्याग दिया। जफ़र ख़ाँ ‘सुल्तान मुजफ़्फ़र शाह’ की उपाधि ग्रहण कर 1407 ई. में गुजरात का स्वतंत्र सुल्तान बना। उसने मालवा के राजा हुशंगशाह को पराजित कर उसकी राजधानी धार को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। 1411 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
अहमदशाह (1411-1443 ई.)
तातार ख़ाँ का पुत्र अहमद ‘अहमदशाह’ की पदवी ग्रहण कर सिंहासन पर बैठा। उसे गुजरात के स्वतंत्र राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। वह बड़ा ही पराक्रामी एवं योग्य शासक था। उसने अपने शासन काल में मालवा, असीरगढ़ एवं राजपूताना के अनेक राज्यों पर विजय प्राप्त की थीं। अहमदशाह ने असाबल के समीप अहमदनगर नामक नगर की स्थापना की। कालान्तर में उसने अपनी राजधानी को पटना से अहमदनगर स्थानान्तरित किया। 1443 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। उसने गुजरात में प्रथम बार हिन्दुओ पर जज़िया कर लगाया। प्रशासन के पदों पर दासों को बड़ी मात्रा में नियुक्ति किया। अहमदशाह के काल में मिस्र के प्रसिद्ध विद्वान् 'बद्रुद्दीन दामामीनी' गुजरात की यात्रा की। अहमद की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मुहम्मदशाह द्वितीय गद्दी पर बैठा। 1451 ई. में मुहम्मद की मृत्यु को गई। लोग मुहम्मदशाह को उसकी दानी प्रवृत्ति के कारण 'जरबख्श' अर्थात् 'स्वर्णदान करने वाला' कहते थे। अपने मृदुल स्वभाव के कारण उसने 'करीम या दयालु' की उपाधि प्राप्त की। फलस्वरूप इसी वर्ष कुतुबुद्दीन अहमद सिंहासन पर बैठा। उसने 1458 ई. तक शासन किया। कुतुबुद्दीन के बाद फ़तह ख़ाँ ‘बुल-फ़तह महमूद’ की उपाधि ग्रहण कर गुजरात का सुल्तान बना। इतिहास में उसका नाम महमूद बेगड़ा के नाम से उल्लिखित है।
सुल्तान महमूद बेगड़ा (1458-1511 ई.)
महमूद को ‘बेगड़ा’ की उपाधि गिरिनार व जूनागढ़ तथा चम्पानेर के क़िलों को जीतने के बाद मिली। वह अपने वंश का सर्वाधिक प्रतापी शासक था। उसने गिरिनार के समीप ‘मुस्तफ़ाबाद’ की स्थापना कर उसे अपनी राजधानी बनाया। चम्पानेर के समीप बेगड़ा ने 'महमूदबाद' की स्थापना की। वह धार्मिक रूप से असहिष्णु था। बेगड़ा ने गुजरात के समुद्र तटों पर बढ़ रहे पुर्तग़ाली प्रभाव को कम करने के लिए मिस्र के शासक से नौ-सेना की सहायता लेकर पुर्तग़ालियो से संघर्ष किया, परन्तु महमूद को सफलता नहीं मिली। संस्कृत का विद्वान् 'उदयराज' महमूद बेगड़ा का दरबारी कवि था तथा उसने 'महमूद चरित' नामक काव्य लिखा। बार्थेमा एवं बारबोसा ने महमूद के विषय में अनेक रोचक जानकारी उपलब्ध करायी है। अपने शासन काल के अंतिम वर्षों में उसने द्वारिका की विजय की। 23 नवम्बर, 1511 को इसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र खलील ख़ाँ मुजफ़्फ़र शाह द्वितीय की पदवी ग्रहण कर सिंहासन पर बैठा। उसका मुख्य संघर्ष मेवाड़ के राणा सांगा से हुआ। उसने मेदनी राय के ख़िलाफ़ मालवा के शासक महमूद ख़िलजी की सहायता की थी। अप्रैल, 1526 ई. में उसकी मृत्यु के बाद बाहदुरशाह (1526 से 1537 ई.) गुजरात के सिंहासन पर बैठा। 1531 ई. में उसने मालवा को जीतकर गुजरात में मिला लिया। इसे उसकी महान् सैनिक उपलब्धि में गिना जाता था। 1534 ई. में उसके द्वारा चित्तौड़ पर आक्रमण किया गया। 1535 ई. में मुग़ल शासक हुमायूँ ने उसे बुरी तरह पराजित कर गुजरात के बाहर खदेड़ दिया। परन्तु हुमायूँ के वापस होने पर बहादुर शाह ने पुनः गुजरात पर अधिकार कर लिया। 1537 ई. में उसकी हत्या पुर्तग़ालियो द्वारा कर दी गई। 1572-1573 ई. में अकबर ने गुजरात को मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया।
स्थापत्य कला में योगदान
प्रान्तीय शैलियों में सबसे अधिक विकसित शैली गुजरात की वास्तुकला शैली थी। इस शैली को ‘सर्वाधिक स्थानीय भारतीय शैली’ माना जाता है। डॉ. सरस्वती के अनुसार, ‘इनके अनोखेपन को इस उच्च श्रेणी की विशिष्ट शैली और एक विभिन्न प्रकार की इस्लामिक संरक्षणता की संयुक्त उपज कहकर इसकी सबसे अच्छी व्याख्या की जा सकती है।’ गुजरात शैली में पत्थर की कटाई का काम बड़ी कुशलता से किया जाता था। जहाँ पहले लकड़ी के खम्भे, थोड़े नक़्क़ाशी करके लगये जाते थे, वहाँ पर अब पत्थर का उपयोग होने लगा था। यहाँ पर अहमदशाही वंश के शासकों के संरक्षण में कई महत्त्वपूर्ण इमारतों का निर्माण किया गया। अहमदशाह ने अहमदाबाद की नींव डाली थी।
- बाबा फ़रीद का मक़बरा- यह प्रसिद्ध सूफ़ी संत 'फ़रीदुद्दीन गंज-ए-शकर' का मक़बरा है। यह मक़बरा गुजरात की मुस्लिम स्थापत्य शैली का प्रथम उदाहरण है।
- जामा मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण अहमदशाह ने 1423 ई. में अहमदाबाद में करवाया। इस मस्जिद को गुजरात वास्तुकला शैली का सर्वोत्कृष्ट नमूना माना जाता है। डॉ. वर्गेस ने, जिसने आर्कियालॉजिकल सर्वे आफ़ वेस्टर्न इंडिया की अपनी पाँच जिल्दों में प्राचीन एवं मध्यकालीन वास्तुकला के इतिहास एवं विशेषताओं का पूरा वर्णन किया है, लिखा है कि, ‘‘यह शैली स्वदेशी कला की सारी सुन्दरता तथा परिपूर्णता की उस एश्वर्य के साथ मिलावट थी, जिसकी अपनी कृतियों में ही कमी थी’’। यह एक ऐसे वर्गाकार भू-भाग पर निर्मित है, जिसके चारों ओर 4 खानकाह निर्मित हैं। मस्जिद के मेहराबों मिम्बर में क़रीब 260 खम्भे लगे हैं। मस्जिद के खम्भों एवं गैलरियों पर सघन खुदाई हुई है। पर्सी ब्राउन का मत है कि, ‘पूरे देश में नहीं तो, कम से कम पश्चिमी भारत में यह मस्जिद निर्माण कला का श्रेष्ठतम नमूना है।’ फ़र्ग्युसन ने इस मस्जिद की तुलना रामपुर के राणाकुम्भा के मंदिर से की है। मस्जिद क़िले में प्रवेश के लिए बने चौड़े रास्ते में तीन 37 फुट ऊँचे दरवाज़ों का निर्माण किया गया है।
- भड़ौच की जामा मस्जिद- 1300 ई. में निर्मित यह मस्जिद हिन्दू मंदिरों के अवशेष से बनाई गई थी।
- खम्भात की जामा मस्जिद- 1425 ई. में निर्मित इस मस्जिद के पूजागृह की तुलना दिल्ली की कुतुब मस्जिद एवं अजमेर के अढ़ाई दिन के झोपड़े से की जाती है।
- हिलाल ख़ाँ क़ाज़ी की मस्जिद- ढोलका में स्थित इस मस्जिद का निर्माण 1333 ई. में हुआ। इस मस्जिद में पूर्णतः स्थानीय शैली में दो ऊँची मीनारों का निर्माण हुआ है।
- टंका मस्जिद- ढोलका में स्थित इस मस्जिद का निर्माण 1361 ई. में किया गया। अलंकृत स्तम्भों वाली इस मस्जिद में हिन्दू शैली की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है।
- अहमदशाह का मक़बरा- इस मक़बरे का निर्माण जामा मस्जिद के पूर्व में स्थित अहाते में मुहम्मदशाह ने करवाया। इस वर्गाकार इमारत का प्रवेश द्वार दक्षिण भाग में है। मक़बरे के ऊपर बड़े गुम्बद का निर्माण किया गया है। कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण इमारतों में पाटन में स्थित शेख़ फ़रीद का मक़बरा, अहमदाबाद में सैय्यद आलम की मस्जिद, कुतुबुद्दीनशाह की मस्जिद, रानी रूपवती की मस्जिद आदि उल्लेखनीय है।
गुजरात में इस्लामी स्थापत्य कला का गौरवपूर्ण आरंभ महमूद बेगड़ा के सिंहासनारूढ़ (1149-1511 ई.) होने से होता है, जिसने तीन नगरों - चंपानेर, जूनागढ़, और खेदा की स्थापना की। इन स्थानों पर उसने शानदार इमारतें बनवायीं। उसके द्वारा निर्मित इमारतों में चंपानेर की जामी मस्जिद, मनोहर इमारतें आदि हैं। इसके अतिरिक्त सीदी सैय्यद मस्जिद, सैय्यद उस्मान का रोजा मुहम्मद गौस की मस्जिद इत्यादि गुजरात स्थापत्य कला के अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रायकरन
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