ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया -डॉ अशोक कुमार शुक्ला
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ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया -डॉ अशोक कुमार शुक्ला
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संपादक | अशोक कुमार शुक्ला |
प्रकाशक | भारतकोश पर संकलित |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 80 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | रमेश भाई से जुडे आलेख |
प्रकार | संस्मरण |
विनोवा दर्शन का साक्षात्कार थे रमेश भाई
आलेख: डॉ एस एस द्धिवेदी
सर्वोदय आन्दोलन के लोगों से मेरा किशोरावस्था से ही परिचय हो गया था। एक बार मेरे गाँव में स्थित पंडित नेहरू इण्टर कॉलेज सदरपुर में सर्वोदयी लोगों की सभा हुई जिसको कई लोगों ने सम्बोधित किया। निश्चित ही वह रमेश भाई के द्वारा आयोजित रही होगी क्योंकि उसमें दिल्ली के लक्ष्मी भाई भी शामिल थे जो कि उनके मित्र थे और उनके माध्यम से वह हरदोई कई बार आये थे। बाद में वे भारत के खादी कमीशन के चेयरमैन बने और प्रशंसनीय कार्य किया।
सर्वोदयी लोगों का यह समूह एक अभियान के तहत काम कर रहा था जिसमें दिन में यह लोग सभाओं के माध्यम से सर्वोदय दर्शन पर चर्चा करते एवं उसके प्रचार प्रसार के लिये काम करते। सभा के बाद इस समूह के लोग अलग अलग गाँव में जाते। वहाँ रात में ग्रामीणों की सभा करते और अलग अलग गाँव के किसी घर में रुक जाते। उनके भोजन विश्राम की व्यवस्था वह परिवार बहुत श्रद्धा भक्ति से करता था। कॉलेज की मीटिंग के बाद मेरे गाँव सदरपुर में मेरे पिता स्वर्गीय श्री लक्ष्मी नारायण जी का आतिथ्य श्री लक्ष्मी भाई ने ग्रहण किया। रात में हम उनकी विचारधारा से परिचित हुये एवं एक विशाल जनसभा रात में आयोजित हुई जिसको लक्ष्मी भाई ने सम्बोधित किया।
उस समय पर उनकी सुनाई एक कविता आज भी मुझे याद है जिसमें एक जलते हुए पेड़ को छोडकर पक्षियों का जोड़ा इसलिये नहीं गया क्योंकि उसने अच्छे समय में इस पेड़ के साथ सुखद क्षण बिताये थे। दुःख में साथ न छोड़कर वह जोड़ा मित्रता को परिभाषित कर रहा था।
इस कविता में कुछ था जिसे मै आज तक भूला नहीं हूँ। इतनी दूर दूर के गौरवशाली महानुभावों को जनपद में लाना एवं उनके विचारों से जनसामान्य को लाभान्वित कराना रमेश भाई के माध्यम से ही सम्भव हो सका था। वास्तव में उनके सर्वोदय आन्दोलन में जाने के बाद पूरे भारत से सर्वोदयी लोग हरदोई में आने लगे थे। बाद में मैं पढाई पूरी करने के बाद अपने काम काज में व्यस्त हो गया एवं कभी कभी अख़बारों में रमेश भाई व सर्वोदय आश्रम की खबरें पढ़ लेता। रमेश भाई की मृत्यु की ख़बर मुझे अख़बार से ही मिली।
इस बीच मैं गॉधी भवन का सदस्य होने के नाते यहाँ की गतिविधियों से मैं जुड गया। इस वर्ष 1 जनवरी 2013 से सिटी मजिस्ट्रेट अशोक कुमार शुक्ला जी ने गाँधी भवन में नियमित प्रार्थना कराने का निर्णय लिया जिसमें सर्वोदय आश्रम की प्रमुख भूमिका रखी गयी और इस प्रकार सर्वोदय आश्रम के लोगों के साथ जुड़ने व उनको समझने का मुझे पुनः मौका मिला। धीरे धीरे मैं समझ सका कि सर्वोदय आश्रम क्या है? किसके नेतृत्व से प्रारम्भ हुआ एवं इसकी गतिविधियाँ व विचारधारायें क्या हैं? आदरणीय रमेश भाई एवं उनके परिवार के लोगों के बारे में धीरे धीरे मुझे बहुत कुछ पता चला। इनमें से कुछ बातें मुझे बहुत गहरे तक प्रभावित कर गयी।
चिकित्सक होने के नाते चिकित्सा से जुड़े अनेक सामाजिक बातों से अनायास ही मेरा परिचय होता रहता है। यह प्रसंग भी चिकित्सा से ही जुडा है जिसका उल्लेख मैं करना चाहूॅगा।
भाई जी की बेटी रश्मि 10-12 साल की उम्र में किडनी की बीमारी का शिकार हो गयी। उसके एक भी स्वस्थ किडनी नहीं थी जिससे वह सामान्य जीवन जी पाती। अतः दिल्ली के डाक्टरों ने किडनी ट्रांसप्लांट का सुझाव दिया। रमेश भाई ने कभी सोचा नहीं कि कहीं और से किडनी का इन्तजाम किया जाये। उनका यह सोचना था कि बच्ची हमारी है इसलिये किडनी देने की ज़िम्मेदारी हमारी ही बनती है। यहाँ तक सोचना एक सामान्य बात हो सकती थी, परन्तु उन्होंने अपनी पत्नी पर जोर डाला कि किडनी तो मैं ही दूँगा और किसी की सुनने को तैयार नहीं हुये। उनकी पत्नी उर्मिला जी ने उनसे बहुत कहा कि किडनी तो मैं ही देना चाहूँगी क्योंकि उनको यह भी लग रहा था कि अत्यन्त व्यस्त इनका जीवन पता नहीं किडनी के अभाव में किसी समस्या से प्रभावित न हो जाये। बत्रा हॉस्पिटल दिल्ली के डाक्टर रमेश कुमार को भी यही पता था कि रश्मि के पापा किडनी देगे। इसी बीच एक दिन डॉक्टर साहब से उर्मिला जी ने मुलाकात की एवं उनको बताया कि किडनी मेरे पति रमेश भाई देना चाह रहे हैं जबकि देने की मेरी इच्छा है। यह सुनकर डाक्टर साहब अपने पेशेवर रूखेपन से बोले कि यह कोई आप लोगों की मर्ज़ी
की बात है कि जो चाहेगा वह किडनी देगा? अरे जब माँ है और उसकी किडनी मिल सकती है तो पिता की किडनी हमें क्यों चाहिये?
और इस प्रकार डॉक्टर के रूखे निर्णायक फैसले से माँ की किडनी रश्मि को मिल सकी।
वस्तुतः अपने किडनी देने के प्रयास में उनका मानना था कि महिलायें तो वैसे भी बहुत शारीरिक ज़िम्मेदारियाँ लेती है। जहाँ सम्भव हो वहाँ पुरुषों को वह ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए। यह दूसरी बात है कि कुछ साल बाद उसको पुनः किडनी की ज़रूरत पड़ी और दोबारा किडनी रमेश भाई ने दी।
बत्रा अस्पताल दिल्ली में यह अपने तरीक़े का केस था कि एक बच्ची के लिये माता पिता दोनों ने किडनी दी। यह बात सर्वोदय आश्रम की मित्र दमन सिंह जो प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की पुत्री हैं के ज़रिए उनके माता पिता को पता चली और इस प्रकार प्रधानमंत्री जी का भी दमन के मित्रों के प्रति सम्मान बढ गया। दिल्ली के उत्सवों एवं राज्यसभा के गलियारों में जब कभी वह निर्मला देशपाण्डे जी को मिलते तो रश्मि का हाल ज़रूर पूछते।
एक परिवार के स्वधर्म पालन ने इतने उच्च पदस्थ व्यक्ति को भी यह नोटिस लेने पर मजबूर किया कि यह कोई अलग ढंग का काम है जिसे सामान्यतः लोग नहीं करते।
मुझे इस सम्बन्ध में थोडी जानकारी थी। बाद में उर्मिला बहन ने विस्तार से मेरे पूछे जाने पर इस विषय की पूरी जानकारी दी।
वास्तव में ऐसे समय में जब किडनी बेची ख़रीदी जाती हो। इसके लिये गिरोह काम करते हों। स्वजनों के बजाय किसी ग़रीब की किडनी पर पैसे वालों की निगाह रहती हो। अस्पतालों में भाई चुपचाप डॉक्टर को इसलिये पैसे देने का प्रस्ताव रखता हो कि डाक्टर कह दे कि उससे ब्लड ग्रुप नहीं मिल रहा। ऐसे में बच्ची को माता पिता दोनों के द्वारा किडनी दिया जाना एक स्वस्थ एवं ज़िम्मेदाराना सोच का प्रतीक है। रमेश भाई की ज़िन्दगी से जुड़े इस पहलू ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। ईश्वर से कामना है कि इस प्रकार की सोच सबको प्रदान करे जिससे समाज सही दिशा में जा सके।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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