- राजस्थानी की प्रमुख बोली 'मारवाड़ी' का यह साहित्यिक रूप है।
- कुछ लोग डिंगल को मारवाड़ी से भिन्न चारणों की एक अलग भाषा बतलाते हैं, किंतु ऐसा मानना निराधार है।
- डिंगल को भाटभाषा भी कहा गया है।
- मारवाड़ी के साहित्यिक रूप का नाम डिंगल क्यों पड़ा, इस प्रश्न पर बहुत मत- वैभिन्न्य है -
- डॉ. श्यामसुन्दर दास के अनुसार - 'पिंगल के सादृश्य पर यह एक गढ़ा हुआ शब्द है।'
- तेस्सितोरी के अनुसार डिंगल का अर्थ है 'अनियमित' या 'गँवारू'। साहित्य के क्षेत्र में ब्रज की तुलना में गँवारू होने का कारण यह नाम पड़ा।
- हरप्रसाद शास्त्री 'डगर' से 'डिंगल' बनाते हैं। 'डगर' का अर्थ है 'जांगल देश की भाषा'।
- गजराज ओझा के अनुसार 'ड' - प्रधान भाषा होने से 'पिंगल' के सादृश्य पर 'प' के स्थान पर 'ड' रखकर 'डिंगल' शब्द टवर्ग या ड-प्रधान भाषा के लिए बनाया गया।
- पुरुषोत्तमदास स्वामी के अनुसार डिम + गल से डिंगल बना है। 'डिम' अर्थात् डमरू की ध्वनि या रणचण्डी की ध्वनि। गल = गला या ध्वनि, अर्थात् वीर रस की ध्वनि वाली भाषा।
- किशोर सिंह के अनुसार 'डी' धातु का अर्थ है 'उड़ाना'। ऊँचे स्वर से पढ़े जाने से, डिंगल उड़ने वाली भाषा है।
- उदयराज के अनुसार डग= पाँखें, +ल= लिये हुए; या डग= लम्बा क़दम या तेज़ चाल+ ल = लिये हुए। अर्थात् 'डिंगल' स्वतंत्र या तेज़ चलने वाली भाषा है।
- जगदीश सिंह गहलौत के अनुसार डींग+ गठ्ठ (अर्थात् ऊँची बोली) से डिंगल है।
- बद्रीप्रसाद के अनुसार डिंगीय डीघी (=ऊँची) + गठ्ठ (=बात, स्वर) से डिंगल है।
- मोतीलाल मेनारिया के अनुसार 'डिंगल' बना है।
- गणपतिचन्द्र के अनुसार राजस्थान के किसी छोटे भाग का नाम प्राचीनकाल में 'डगल' था। उसी आधार पर वहाँ की भाषा 'डिंगल' कहलाई।
- चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के अनुसार डिंगल यादृच्छात्मक अनुकरण शब्द है।
- नरोत्तमदास स्वामी के अनुसार कुशललाल रचित पिंगल 'शिरोमणि' [1] में उडिंगल नागराज का एक छन्द शास्त्रकार के रूप में उल्लेख मिलता है। जैसे 'पिंगल' से पिंगल' का नाम पड़ा है, उसी प्रकार 'उडिंगल' से 'उडिंगल' ही बाद में 'डिंगल' हो गया।
- डॉ. सुकुमार सेन तथा विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार संस्कृत शब्द डिंगर (=गँवारू, निम्न) से इसका सम्बन्ध है अर्थात् मूलत: डिंगल गँवारू लोगों की भाषा थी। वस्तुत: इनमें कोई भी मत युक्तियुक्त नहीं है।
- कुछ सम्भावना नरोत्तम स्वामी के मत की ही हो सकती है। कुछ ग्रंथों में डिंगल का पुराना नाम 'उडिंगल' मिलता भी है। डिंगल नाम बहुत पुराना नहीं है। इसका प्रथम प्रयोग डिंगल के प्रसिद्ध कवि बाँकीदास की पुस्तक 'कुकवि बत्तीसी' [2] में मिलता है।
- साहित्य में डिंगल का प्रयोग 13 वीं सदी के मध्य से लेकर आज तक मिलता है। डॉ. तेस्सितोरी ने 'डिंगल' के प्राचीन और अर्वाचीन दो भेद किए हैं। 17 वीं सदी के मध्य तक की भाषा को प्राचीन और उसके बाद की भाषा को अर्वाचीन माना है। डिंगल के प्रसिद्ध कवि नरपति नाल्ह, ईसरदास, पृथ्वीराज, करणीदीन, बाँकीदास, सरलादास तथा बालाबख़्श आदि हैं।
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