तब मेरी पीड़ा अकुलाई! जग से निंदित और उपेक्षित, होकर अपनों से भी पीड़ित, जब मानव ने कंपित कर से हा! अपनी ही चिता बनाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! सांध्य गगन में करते मृदु रव उड़ते जाते नीड़ों को खग, हाय! अकेली बिछुड़ रही मैं, कहकर जब कोकी चिल्लाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! झंझा के झोंकों में पड़कर, अटक गई थी नाव रेत पर, जब आँसू की नदी बहाकर नाविक ने निज नाव चलाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई!
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