तेन्कलै हिन्दू धर्म में वैष्णव के दो उप-संप्रदायों में एक है। दूसरा संप्रदाय 'वडकलै' है। हालांकि दोनों संप्रदाय संस्कृत एवं तमिल ग्रंथों का प्रयोग करते हैं तथा विष्णु की पूजा करते हैं, लेकिन तेन्कलै तमिल भाषा और दक्षिण भारतीय संतों, आलवारों के भजनों का संकलन नालयिरा प्रबंधम पर अधिक निर्भर रहते हैं।
सैद्धांतिक मतभेद
14वीं सदी में तेन्कलै वडकलै से अलग हो गए थे। दोनों संप्रदायों के बीच मुख्य सैद्धांतिक मतभेद भगवान विष्णु की कृपा दृष्टि के प्रश्न पर केंद्रित है। तेन्कलै का मानना है कि अंतिम मुक्ति की प्रक्रिया विष्णु से शुरू होती है और भक्तों को विष्णु की इच्छा के सामने आत्म-समर्पण से अधिक कुछ और करने की आवश्यकता नहीं है। यह बिल्ली पर उसके बच्चों की असहायता एवं पूर्ण निर्भरता का उदाहरण देता है। इस तरह इसके सिद्धांत को 'मार्जरा न्याय'[1] के रूप में जाना जाता है। विष्णु की पत्नी श्री (लक्ष्मी) के बारे में भी दोनों पंथों के दृष्टिकोणों में अंतर है। तेन्कलै मानते हैं कि श्री दिव्य होने के बावजूद ससीम हैं और भक्तों व विष्णु के बीच केवल मध्यस्थ की भूमिका निभा सकती हैं।
संस्थापक
पिल्लै लोकाचार्य को सामान्यत: तेन्कलै संप्रदाय का संस्थापक तथा 'मानवला' या 'वारावार मुनि' (1370-1443) को इसका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नेता माना जाता है। इस संप्रदाय का मुख्य केंद्र तिरुनेल्वेली के पास नांगनूर, तमिलनाडु राज्य में है तथा तेन्कलै को श्रीवैष्णव का "दक्षिणी मत" कहा जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बिल्ली का साम्यानुमान