दत्तात्रेय सम्प्रदाय का उदय महाराष्ट्र प्रदेश में हुआ था। यह सम्प्रदाय 'दत्तात्रेय' को कृष्ण का अवतार मानकर उनकी पूजा करता है। इस सम्प्रदाय के अनुयायी वैष्णव हैं और ये मूर्तिपूजा के घोर विरोधी हैं। इस सम्प्रदाय को 'मानभाउ', 'दत्त सम्प्रदाय', 'महानुभाव पन्थ' तथा 'मुनिमार्ग' भी कहते हैं। महाराष्ट्र प्रदेश, बरार के ऋद्धिपुर में इसके प्रधान महन्त का मठ है। परन्तु महाराष्ट्र में ही ये लोग लोकप्रिय नहीं हो पाये।
निन्दा तथा नियम
महाराष्ट्र के सन्तकवि एकनाथ, गिरिधर आदि ने अपनी कविताओं में दत्तात्रेय सम्प्रदाय की निन्दा की है। संवत 1839 ई. में पेशवा ने फ़रमान निकाला कि 'मानभाउ पन्थ पूर्णतया निन्दित है। उन्हें वर्णबाह्य समझा जाए। न तो उनका वर्णाश्रम से सम्बन्ध है और न ही छहों दर्शनों में स्थान है। कोई हिन्दू उनका उपदेश न सुने, नहीं तो जातिच्युत कर दिया जाएगा।' समाज उन्हें भ्रष्ट कहकर तरह-तरह के दोष लगाता था। जो भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि यह सुधारक पन्थ वर्णाश्रम धर्म की परवाह नहीं करता था और इसका ध्येय केवल भगवदभजन और उपासना मात्र था। यह भागवत मत की ही एक शाखा है। ये सभी सहभोजी हैं, किन्तु मांस, मद्य का सेवन नहीं करते और अपने सन्न्यासियों को मन्दिरों से अधिक सम्मान्य मानते हैं।
प्रवर्तक
दीक्षा लेकर जो भी इस पन्थ में प्रवेश करता है, वह पूर्ण गुरु पद का अधिकारी हो जाता है। ये अपने शवों को समाधि देते हैं। इनके मन्दिरों में एक वर्गाकार अथवा वृत्ताकार सौध होता है, वही परमात्मा का प्रतीक है। यद्यपि दत्तात्रेय को ये अपना मार्ग प्रवर्तक मानते हैं। प्रवर्त्तक के अवतीर्ण होने का विश्वास करते हैं। इस प्रकार अब तक पाँच प्रवर्तक हुए हैं और उनके अलग-अलग पाँच मंत्र भी हैं। पाँचों मंत्र दीक्षा में दिए जाते हैं। इनके गृहस्थ और संन्यासी दो ही आश्रम हैं। भगवदगीता इनका मुख्य ग्रन्थ है। इनका विशाल साहित्य मराठी में है। परन्तु गुप्त रखने के लिए एक भिन्न लिपि में लिखा हुआ है। लीलासंवाद, लीलाचरित्र और सूत्रपाठ का दत्तात्रेय-उपनिषद एवं संहिता इनके प्राचीन ग्रन्थ हैं।
संरक्षण तथा प्रसार
विक्रम के चौदहवीं शती के आरम्भ में सन्त चक्रधर ने इस सम्प्रदाय का जीर्णोद्वार किया था। जान पड़ता है कि, चक्रधर ने ही इस सम्प्रदाय में वे सुधार किये जो उस समय के हिन्दू समाज और संस्कृति के विपरीत लगते थे। इस कारण यह सम्प्रदाय सनातनी हिन्दुओं की दृष्टि में गिर गया और बाद को राज्य और समाज दोनों के द्वारा निन्दित माना जाने लगा। सन्त चक्रधर के बाद सन्त नागदेव भट्ट हुए, जो यादवराज रामचन्द्र और सन्त योगी ज्ञानेश्वर के समकालीन थे। यादवराज रामचन्द्र का समय संवत 1328-1363 है। सन्त नागदेव भट्ट ने भी इस सम्प्रदाय का अच्छा प्रसार किया।
वस्त्र-विन्यास
मानभाउ सम्प्रदाय वाले भूरे रंग के कपड़े पहनते हैं। तुलसी की कण्ठी और कुण्डल धारण करते हैं। अपना मत गुप्त रखते हैं और दीक्षा के पश्चात् अधिकारी को ही उपदेश देते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
हिन्दू धर्मकोश |लेखक: डॉ. राजबली पाण्डेय |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 312 |
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