सार्वभौम भट्टाचार्य चैतन्य महाप्रभु के शिष्य थे। इन्होंने 'गौरांक' (चैतन्य महाप्रभु) की शत-श्लोकी स्तुति की रचना की थी, जिसे 'चैतन्य शतक' नाम से जाना जाता है।
- सन्यास लेने के बाद जब गौरांग पहली बार जगन्नाथ मंदिर पहुंचे थे, तब भगवान की मूर्ति देखाकर इतने भाव-विभोर हो गए कि उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे और मूर्छित हो गए।
- तब वहां उपस्थित प्रकाण्ड पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य महाप्रभु की प्रेम-भक्ति से प्रभावित होकर उन्हें अपने घर ले गए।
- घर पर शास्त्र-चर्चा आरंभ हुई, जिसमें सार्वभौम भट्टाचार्य अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करने लगे। तब श्रीगौरांग ने भक्ति का महत्त्व ज्ञान से कहीं ऊपर सिद्ध किया व उन्हें अपने षड्भुजरूप का दर्शन कराया।
- तभी से सार्वभौम भट्टाचार्य महाप्रभु के शिष्य हो गए और अन्त समय तक उनके साथ रहे।
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