फ़िल्मालय स्टूडियो
बॉलीवुड के मशहूर फ़िल्मालय स्टूडियो में बीस साल पहले जहाँ बड़ा मैदान, डबिंग, एडिटिंग लैब और विशाल शूटिंग फ्लोर हुआ करते थे, अब वहाँ पर बड़ी-बड़ी रिहायशी इमारतें और कामर्शियल कांप्लेक्स बन चुके हैं। 'शशीधर मुखर्जी' द्वारा स्थापित इस स्टूडियों का वज़ूद अभी ख़त्म नहीं हुआ है। फ़िल्मालय स्टूडियो हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री की सेवा में आज भी तत्पर है।
लक्ष्मी स्टूडियो से फ़िल्मालय स्टूडियो
1957 में फ़िल्मिस्तान स्टूडियो छोड़ने के बाद शशीधर मुखर्जी अपना स्टूडियो आरम्भ करने के प्रयास में जुट गए। वे कीकूभाई देसाई[1] के परिवार को जानते थे। कीकूभाई देसाई का अंधेरी वेस्ट में स्थित अंबोली में 'लक्ष्मी स्टूडियो' था, जिसका बाद में नाम 'पैरामांउट स्टूडियो' रखा गया। शशीधर मुखर्जी ने पेरामांउट स्टूडियो लीज़ पर ले लिया और जून, 1958 में उन्होंने 'फ़िल्मालय प्राइवेट लिमिटेड' की स्थापना की। मुखर्जी का फ़िल्मालय प्राइवेट लिमिटेड आरम्भ करने का उद्देश्य निजी फ़िल्मों का निर्माण करना था। मुखर्जी ने जब फ़िल्मालय की शुरुआत की थी तब यहाँ पर दो बड़े शूटिंग फ्लोर, एक विशाल मैदान, एक डबिंग कम प्रोजेक्शन थिएटर, एक एडिटिंग लैब तथा एक रिहर्सल हॉल था। फ़िल्मालय के प्रांगण में एक मन्दिर भी था, जहाँ फ़िल्म निर्माण से जुड़े लोग आराधना करके कार्य शुरू करते थे।
कार्य शैली
1970 तक फ़िल्मालय में सिर्फ निजी बैनर की फ़िल्में ही बनती थीं। मोनू मुखर्जी पिछले पचास वर्षों से फ़िल्मालय में मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं। वे स्टूडियो के पुराने दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि, "उन दिनों स्टूडियों में क्या रौनक रहती थी, एक फ्लोर में शूटिंग चलती थी, और दूसरे में सेट का निर्माण चलता रहता था।
स्वरूप
फ़िल्मालय में उस वक्त सौ कर्मचारी थे। दो शिफ्ट में काम होता था। सुबह नौ से शाम छह बजे तक और फिर शाम छह से सुबह तीन बजे तक। सेट बनाने और तोड़ने का काम दिन-रात चलता था।
फ़िल्मों का निर्नाण
फ़िल्मालय निर्मित पहली फ़िल्म 1959 में शम्मी कपूर और आशा पारेख की 'दिल दे के देखो', 'लव इन शिमला', 'एक मुसाफ़िर एक हसीना', 'आओ प्यार करें', 'तू ही मेरी ज़िन्दगी', 'लीडर', 'सम्बन्ध', 'हैवान' और 'हम हिन्दुस्तानी' फ़िल्में निर्मित की गईं।
बैनर
शशीधर मुखर्जी के बेटे रोनो मुखर्जी, जॉय मुखर्जी, देव मुखर्जी, शोमु मुखर्जी बड़े हो गए तो उन्होंने फ़िल्में निर्देशित करनी शुरू कीं। उन्होंने अपना बैनर शुरू किया। जॉय ने 'जॉय मुखर्जी प्रोडक्शन' [2], शोमू ने 'मुखर्जी ब्रदर्स'[3], देव ने 'मुखर्जी इंटरनेशनल' [4] और शुबीर ने 'एस. मुखर्जी प्रोडक्शंस प्रा. लि.'[5] शुरू किया। लेकिन उनकी फ़िल्मों को प्रस्तुत एस. मुखर्जी ही करते थे।
अन्य फ़िल्में
फ़िल्मालय में जब निजी फ़िल्में बननी कम हो गईं तो एस. मुखर्जी ने फ़िल्मालय के दरवाज़े बाहरी निर्माताओं के लिए खोल दिए। मोनू मुखर्जी बताते हैं, "उस वक्त सिंगल प्रोड्यूसर का ट्रेंड था। सभी निर्माता फ़िल्मालय स्टूडियो में ही शूटिंग के लिए आते थे। उन ज़्यादातर फ़िल्में स्टूडियों में ही शूट होती थीं। प्रोड्यूसर सेट का डिजायन देकर चले जाते थे और स्टूडियो उन्हें वह सेट बनाकर देता था। उस जमाने में क्या सेट लगते थे। 'अमर प्रेम' फ़िल्म के गीत 'चिंगारी कोई भड़के' का सेट हमारे स्टूडियो में लगा था, जिसमें राजेश खन्ना नाव में बैठकर गाना गाते हैं। 'रूप तेरा मस्ताना' गाने का सेट भी यहीं लगा। 'मोहरा' के गीत 'तू चीज़ बड़ी है मस्त-मस्त' का सेट भी इसी स्टूडियों में लगा था। रितिक रौशन की पहली फ़िल्म 'कहो न प्यार है' के गाने 'एक पल का जीना' का सेट भी फ़िल्मालय स्टूडियो में ही लगा था। वीनस की 'ऐतराज' फ़िल्म के शिप का भव्य सेट हमारे स्टूडियो में लगा था। स्टूडियो में इतनी जगह थी कि आमतौर पर बड़े-बड़े सेट लगते थे। स्टूडियो के मैदान में अनगिनत फ़िल्मों के गाँव और मेलों के सेट लगे। फ़िल्मालय स्टूडियो में एक साल में साठ-सत्तर फ़िल्मों की शूटिंग होती थी।
आधुनिक स्वरूप
आज फ़िल्मालय स्टूडियो में दोनों तरफ़ बड़ी इमारतें तथा अगले हिस्से में एक बड़ा कामर्शियल कॉप्लेक्स बन चुका है। कामर्शियल कॉम्पलेक्स के बाई ओर से फ़िल्मालय स्टूडियो का मुख्य प्रवेश द्वार है। जिससे प्रवेश करने के बाद आप पिछले हिस्से में बनी फ़िल्मालय की नई इमारत में पहुँच जाते हैं। कॉप्लेक्स के दाहिने ओर से भी फ़िल्मालय में जाने का एक द्वार है। मोनू मुखर्जी कहते हैं कि, "बड़ी प्रॉपर्टी को मेनटेन करना मुश्किल हो गया था। तमाम टैक्स देने पड़ते थे, इसलिए 1990 में स्टूडियो का अधिकतर हिस्सा बेच दिया गया। अब स्टूडियो केवल आठ हज़ार स्क्वायर मीटर की जगह में ही रह गया है। पुराने स्टूडियो का एक फ्लोर पिछले हिस्से में मौजूद है।"
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख